Monday, 23 November 2015

बालकाण्ड

बालकाण्ड

आखर अरथ अलंकृत नाना। छंद प्रबंध अनेक बिधाना।। भाव भेद रस भेद अपारा। कबित दोष गुण बिबिध प्रकारा।।---अर्थ--नाना प्रकार के अक्षर, अर्थ और अलंकार, अनेक प्रकार की छन्द-रचना, भावों और रसों के आधार पर भेद और कविता के भाँति-भाँति के गुण-दोष  होते हैं।

कबित बिबेक एक नहीं मोरें। सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।---अर्थ--इनमें से काव्य संबंधी एक भी बात का ज्ञान मुझमें नहीं है, यह मैं करे कागज पर लिखकर ( शपथपूर्वक) सत्य-सत्य कहता हूँ।
भनिति मोरि सब गुण रहित बिस्व बिदित गुण एक। सो बिचारि सुनिहहिं सुमति जिन्ह के बिमल बिबेक।।---अर्थ--मेरी रचना सब गुणों से रहित है; इसमें बस, जगत्प्रसिद्ध एक गुण है। उसे बिचाररकर अच्छी बुद्धिवाले पुरुष, जिनके निर्मल ज्ञान हैं, इनको सुनेंगे।

एहि महँ रघुपति नाम उदारा। अति पावन पुराण श्रुति सारा।। मंगल भवन अमंगल हारी। उमा सहित जेहि जपत पुरारी।।---अर्थ-- समें श्रीरघुनाथजी का उदार नाम है, जो अत्यंत पवित्र है, वेद-पुराणों का सार है, कल्याण का भवन है एवं अमंगलों को हरनेवाला है, जिसे पार्वतीजी सहित भगवान् शिवजी सदा जपा करते हैं।

भनिति बिचित्र सुकबि कृत जोऊ। राम नाम बिनु सोह न सोऊ।। बिधुबदनी सब भाँति सँवारी। सोह न बसन बिना बर नारी।।---अर्थ--जो अच्छे कवि के द्वारा रची हुई बड़ी अनूठी कविता है, वह भी रामनाम के बिना शोभा नहीं पाती। जैसे चन्द्रमा के समान मुखवाली सुन्दर स्त्री सब प्रकार से सुसज्जित होने पर भी पति के बिना शोभा नहीं पाती।

सब गुण रहित कुकबि कृत बानी। राम नाम जस अंकित जानी।। सादर कहहिं सुनहिं बुध ताही। मधुकर सरिस संत गुण ग्राही।।---अर्थ-- इसके विपरीत, कुकवि की रची हुई गुणों से रहित कविता को भी , राम के नाम एवं यश से अंकित जानकर, बुद्धिमान लोग आदरपूर्वक कहते और सुनते हैं, क्योंकि संतजन भौंरे की भाँति गुण ही को ग्रहण करनेवाले होते हैं।

जदपि कवित रस एकउ नाहीं। राम प्रताप प्रकट एहि माहीं।। सोइ भरोस मोरे मन आवा। केहि न सुसंग  बड़प्पनु पावा।।---अर्थ--यद्यपि मेरी इस रचना में कविता का एक भी रस नहीं है, तथापि इसमें श्रीरामजी का प्रताप प्रकट है। मेरे मन में  ययही एक भरोसा है।.भले संग से भला किसने बड़प्पन न नहीं पाया ?

धूमउ तजइ सहज करुआई। अगरु प्रसंग सुगंध बसाई।। भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी। राम कथा जग मंगल हरनी।।---अर्थ---धुआँ भी अगगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुएपन को छोड़ देता है। मेरी कविता अवश्य भद्दी है, परन्तु इसमें जगत् का कल्याण करनेवाली रामकथा रुपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। ( इससे यह भी अच्छी ही समझी जायगी )।

मंगल करनी कलिमल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की। गति कूर कबिता सरित की ज्यों सरित पावन पाथ की।। प्रभु सुजस संगति भनिति भलि होइहिं सुजन मन भावनी। भव अंग भूति मसान की सुमिरत सुहावनी पवनी।।---अर्थ--तुलीदासजी कहते हैं कि श्री रघुनाथजी की कथा कल्याण करनेवाली और कलियुग के पापों  को हरनेवाली है। मेरी इस भद्दी कविा रुपी नदी की चाल पवित्र जलवाली नदी ( गंगाजी ) की चाल की भाँति टेढ़ी है। प्रभु श्रीरघुनाथजी के सुन्दर यश के संग से यह कविता सुन्दर तथा सज्जनों के मन को भानेवाली हो जायगी। श्मशान की अपवित्र राख भी श्रीमहादेवजी के अंग के संग से सुहावनी लगती है और स्मरण करते ही पवित्र करनेवाली होती है।

प्रिय लागहिं अति सबहिं मम भनिति राम जस संग। दारु बिचारु कि करइ कोउ बंदिय मलय प्रसंग।।---अर्थ--श्रीरामजी के यश के संग से मेरी कविता सभी को अत्यन्त प्रिय लगेगी, जैसे मलय पर्वत के संग से काष्टमात्र ( चन्दन बनकर ) वन्दनीय हो जाता है, फिर क्या कोई काठ ( की तुच्छता ) का विचार करता है ?

स्याम सुरभि पय बिसद अति गुनद करहिं सब पान। गिरा ग्राम्य सिय राम जस गावहिं सुनहिं सुजान।।---अर्थ--श्यामा गौ काली होने पर भी उसका दूध उज्जवल और बहुत गुणकारी होता है। यही समझकरसब लोग उसे पीते हैं। उसी तरह गँवारू भाषा होने पर भी श्री सीता-रामजी के यश को बुद्धिमान लोग बड़े चाव से गाते और सुनते हैं।
मणि मानिक मुकुता छबि जैसी। अहि गिरि गज सिर सोह न तैसी।। नृप किरीट तरुनी तनु पाई। लहहिं सकल सोभा अधिकाई।।---अर्थ--मणि, माणिक और मोती जैसी सुन्दर छबि है, वह साँप पर्वत और हाथी के मस्तक पर वैसी शोभा नहीं पाती। राजा के मुकुट और नवयुवती स्त्री के शरीर (गहना मणि- माणिक का ) को ही ये सब अधिक शोभायमान होते हैं।

तैसहिं सुकबि कबित बुध कहहिं। उपजहिं अनत अनत छबि लहहिं।। भगति हेतु बधि भवन बिहाई। सुमिरत सारद आवहिं धाई।।---अर्थ--इसी तरह, बद्धिमान लोग कहते हैं कि सुकवि की विता भी उत्पन्न और कहीं होती है और शोभा अन्यत्र कहीं पाती है (अर्थात् कवि की वाणी से उत्पन्न हुई कविता  वहाँ शोभा पाती है जहाँ उसका विचार, प्रचार तथा उसमें कथित आदर्श का ग्रहण और अनुसरण होता है )। कवि के स्मरण करते ही उसकी भक्ति के कारण सरस्वतीजी ब्रह्मलोक को छोड़कर दौड़ी आती हैं।

रामचरित सर बिनु अन्हवाएँ। सो श्रम जाइ न कोटि उपाएँ।। कबि कोबिद अस हृदय बिचारी। गावहिं हरिहर कलिमल हारी।।---अर्थ--सरस्वतीजी की दौड़ी आने की वह थकावट रामचरितरूपी सरोवर में उन्हें नहलाये बिना दूसरे करोड़ों उपायों से भी दूर नहीं होती। कव और पण्डित अपने हृदय में ऐसा विचारकर कलियुग के पापों को हरनेवाले श्रीहरि के यश का ही गान करते हैं। 
कीन्हे प्राकृत जन गुन गाना। सिर धुनि गिरा लगत पछिताना।। हृदय सिन्धु मति सीप समाना। स्वाति सारदा कहहिं सुजाना।।---अर्थ--संसारी मनुष्यों का गुणगान करने से सरस्वतीजी सिर धुनकर पछताने लगती हैं ( कि मैं क्यों इनके बुलाने पर आयी )। बुद्धिमान लोग हृदय को समुद्र, बुद्धि को सीप और सरस्वती को स्वाति नक्षत्र के समान कहते हैं। (स्वाति नक्षत्र के पानी का बूँद सीप में पड़ने से वह मोती हो जाता है।)

जौं बरसइ बर बारि बिचारू। होहिं कबित मुकुतामनि चारू।।---अर्थ--इसमें यदि श्रेष्ठ विचार रूपि जल बरसता है तो मुक्तामणि के समान सुन्दर कविता होती है।

जुगुति बेधि पुनि पोहि अहिं रामचरित बर ताग। पहिरहिं सज्जन बिमल उर सोभा अति अनुराग।।---अर्थ--उन कवितारूपि मुक्तामणियों को युक्ति से बेधकर फिर रामचरित्र रूपि सुन्दर तागे में पिरोकर सज्जन लोग अपने निर्मल हृदय में धारण करते हैं, जिसे अत्यंत अनुरागरूपि शोभा होती है ( वे अत्यानतिक प्रेम को प्राप्त होते हैं।

जे जनमे कलिकाल कराला। करतब बायस बेस मराला।। चलत कुपंथ बेद मग छाँड़े। कपट कलेवर कलिमल भाँड़े।।---अर्थ--जो कराल कलियुग में जन्मे हैं, जिनकी करनी कौए के समान और वेष हंस का है, जो वेदमार्ग छोड़कर कुमार्ग पर चलते हैं, जो कपट की मूर्ति और कलियुग के पापों के भाँड़े हैं।
बंचक भगत कहाइ राम के। किंकर कंचन कोह काम के।। तिन्ह महँ प्रथम रेख जग मोरी। धींग धरमध्वज धंधक धोरी।।---अर्थ--जो श्रीरामजी के भक्त कहलाकर लोगों को ठगते हैं, जो धन (लोभ ), क्रोध और काम के गुलाम हैं और जो धींगा धींगी करनेवाले, धर्मध्वजी ( धर्म की झूठी ध्वजा फहरानेवाले--दम्भी )  और कपट के धन्धों का बोझ ढ़ोनेवाले हैं, संसार के ऐसे लोगों में सबसे पहले मेरी गिनती है।

जौं अपने अवगुण सब कहऊँ। बाढ़इ कथा पार नहीं लहऊँ।। ताते मैं अति अल्प बखाने। थोरे महुँ जानिहहिं सयाने।।---अर्थ--यदि मैं अपने सब अवगुणों को कहने लगूँ तो कथा बहुत बढ़ जायगी और मैं पार नहीं पाऊँगा। इससे मैने बहुत कम अवगुणों का वर्णन किया है। बुद्धिमान लोग थोड़ेमें ही समझ लेंगे।

समुझि बिबिध बिधि बिनती मोरी। कोऊ न कथा सुनि देइहिं खोरी।। एतेहु पर करिहहिं जे असंका। मोहि ते अधिक ते जड़ मति रंका।।---अर्थ--मेरी अनेकों प्रकार की विनती को समझकर, कोई भी इस कथा को सुनकर दोष नहीं देगा। इतने पर भी जो शंका करेंगे, वे तो मुझसे भी अधिक मूर्ख और बुद्धि के कंगाल हैं।
कबि न होऊँ नहीं चतुर कहावऊँ। मति अनुरूप राम गुण गावउँ।। कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा।।---अर्थ--मैं न तो कवि हूँ, न चतुर कहलाता हूँ; अपनी बुद्धि के अनुसार श्रीरामजी के गुण गाता हूँ। कहाँ तो श्रीरघुनाथजी के अपार चरित्र, कहाँ संसार में आसक्त मेरी बुद्धि।
जेहि मारुत गिरि मेरु उड़ाहीं। कहहु तूल केहि लेखे माहीं।। समुझत अमित राम प्रभुताई।। करत कथा मन अति कदराई।।---अर्थ--जिस हवा से सुमेरु---जैसे पहाड़ उड़ जाते हैं, कहिये तो, उसके सामने रूई किस गिनती में है। श्रीरामजी की असीम प्रभुता को समझकर कथा रचने में मेरा मन बहुत हिचकता है।
सारद सेस महेस बिधि आगम निगम पुराण। नेति नेति कहि जासु गुन करहिं निरंतर गान।।---सरस्वतीजी, शेषजी, शिवजी, ब्रह्माजी, शास्त्र, वेद और पुराण---ये सब 'नेति-नेति' कहकर ( पार नहीं पाकर 'ऐसा नहीं' 'ऐसा नहीं' कहते हुए ) सदा जिनका गुणगान किया करते हैं।

सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिनु रहा न कोई।। तहाँ बेद अस कारण राखा। भजन प्रभाउ भाँति बहु भाषा।---अर्थ--यद्यपि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की प्रभुता को सब ऐसी ( अकथनीय ) ही जानते हैं तथापि कहे बिना कोई नहीं रहा। इसमें वेद ने ऐसा कारण बताया है कि भजन का प्रभाव बहुत तरह से कहा गया है। ( अर्थात् भगवान की महिमा का पूरा वर्णन तो कोई कर नहीं सकता; परन्तु जिससे जो बन पड़े उतना भगवान का गुणगान करना चाहिये। क्योंकि भगवान के गुणगान रूपि  भजन का प्रभाव बहुत ही अनोखा है, उसका नाना प्रकार से शास्त्रों में वर्णन है। थोड़ा सा भी भगवान का भजन मनुष्य को सहज ही भवसागर से तार देता है।

एक अनीह अरूप अनामा। अज सच्चिदानन्द पर धामा।। व्यापक विश्वरूप भगवाना। तेहि धरि देह चरित कृत नाना।।---अर्थ--जो परमेश्वर एक है, जिनके कोई इच्छा नहीं है, जिनका कोई रूप और नाम नहीं है, जो अजन्मा, सच्चिदानन्द और परमधाम है और जो सबसे व्यापक एवं विश्वरूप है, उन्हीं भगवान ने दिव्य शरीर धारण करके नाना प्रकार की लीला की है।

सो केवल भगतन हित लागी। परम कृपाल प्रनत अनुरागी।। जेहि जन पर ममता अति छोहू। जेहि करुणा करि कीन्ह न कोहू।।---वह लीला केवल भक्तों के हित के लिये ही है; क्योंकि भगवान परम कृपालु हैं और शरणागत के बड़े प्रेमी हैं। जिनकी भक्तों पर बड़ी ममता और कृपा है, जिन्होंने एक बार जिसपर कृपा कर दी, उसपर फिर कभी क्रोध नहीं किया।


गईं बहोर गरीब नेवाजू। सरल सबल साहिब रघुराजू।। बुध बरनहिं हरि जस अस जानी। करहिं पुनीत सुफल निज बानी।।---अर्थ--वे प्रभु श्रीरघुनाथजी गयी हुई वस्तु को फिर प्राप्त करानेवाले, गरीबनिवाज ( दीनबन्धु ), सरलस्वभाव, सर्वशक्तिमान् और सबके स्वामी हैं। यही समझकर बुद्धिमान लोग उन श्रीहरि का यश वर्णन करके अपनी वाणी को पवित्र और उत्तम फल ( मोक्ष और दुर्लभ भगवत्प्रेम ) देनेवाली बनाते हैं।