Monday, 22 February 2016

बालकाण्ड

बालकाण्ड

राम भगत हित नर तनु धारी। सहि संकट किये साधु सुखारी।। नामु सप्रेम जपत अनयासा। भगत होहिं मुद मंगल बासा।।---अर्थ--श्रीरामन्द्रजी ने भक्तों के हित के लिये मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया; परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं।


राम एक तापस तिय नारी। नाम कोटि खल कुमति सुधारी।। रिषिहित राम सुकेतुसुता की। सहित सेन सुत कीन्हि बिबाकी।। सहित दोष दुख दास दुरासा। दलइ नामु जिमि रबि निसि नासा।। भंजेउ राम आपु भव चापू। भव भय भंजन नाम प्रतापू।।---अर्थ--श्रीरामजी ने एक तपस्वी की स्त्री ( अहिल्या ) को ही तारा, परन्तु नाम ने करोड़ों दुष्टों की बिगड़ी बुदधि को सुधार दिया। श्रीरामजी ने ऋषि विश्वामित्र के हित के लिये एक सुकेतु यक्ष की कन्या ताड़का की सेना और पुत्र ( सुबाहु ) सहित समाप्ति की; परन्तु नाम अपने भक्तों के दोष, दुःख और दुराशाओं का इस तरह नाश कर देता है जैसे सूर्य रात्रि का। श्रीरामजी ने स्वयं श्रीशिवजी के धनुष को तोड़ा, परन्तु नाम का प्रताप ही संसार के सब भयों का नाश करनेवाला है।



दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन। जन मन अमित नाम किए पावन।। निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलि कलुष निकंदन।।---अर्थ--प्रभु श्रीरामजी ( भयानक ) दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु नाम ने असंख्य मनुष्यों को मनों को पवित्र कर दिया। श्रीरघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़नेवाला है।


 सबरी गीध सुसेवकनि सुगति दीन्हि रघुनाथ। नाम उधारे अमित खल बेद बिदित गुन गाथ।।---अर्थ--श्रीरघुनाथजी ने तो शबरी, जटायु आदि उत्तम सेवकों को ही मुक्ति दी; परन्तु नाम ने अगनित दुष्टों का उद्धार किया। नाम के गुणों की कथा वेदों में प्रसिद्ध है।


राम सुकंठ विभीषण दोऊ। राखे सरन जान सब कोऊ।। नाम गरीब अनेक नेवाजे। लोक बेद बर बिरिद बिराजे।।---अर्थ--श्रीरामजी ने सुग्रीव और विभीषण दोनो को ही अपने शरण में रखा, यह सब कोई जानते हैं; परन्तु नाम ने अनेकों गरीब पर कृपा की है। नाम का यह सुन्दर विरद लोक और वेद में विशेष रूप से प्रकाशित है।

राम भालु कपि कटकु बटोरा। सेतु हेतु श्रम कीन्ह थोरा।। नामु लेत भवसिन्धु सुखाहीं। करहु बिचारु सुजन मन माहीं।।---अर्थ--श्रीरामजी ने तो भालू और बन्दरों की सेना बटोरी और समुद्र पर पुल बाँधने के लिये थोड़ा परिश्रम किया; परन्तु नाम लेते ही संसार समुद्र सूख जाता है। सज्जनगण ! मन में विचार कीजिये ( कि दोनो में कौन बड़ा है )


 राम सकुल रन रावनु मारा। सीय सहित निज पुर पगु धारा।। राजा रामु अवध रजधानी। गावत गुन सुर मुनि बर बानी।। सेवक सुमिरत नामु सप्रीती। बिनु सम प्रबल मोह दलु जीती।। फिरत सनेह मगन सुख अपनें। नाम प्रसाद सोच नहिं सपनें।।---अर्थ--श्रीरामचन्द्रजी ने कुटुम्ब सहित रावण को युद्ध में मारा, तब सीता सहित उन्होंने अपने नगर ( अयोध्या ) में प्रवेश किया। राम राजा हुए, अवध उनकी राजधानी हुई, देवता और मुनि सुन्दर वाणी से जिनके गुण गाते हैं। परन्तु सेवक, ( भक्त ) प्रेमपूर्वक नाम के स्मरणमात्र से बिना परिश्रम मोह की प्रबल सेना को जीतकर प्रेम में मग्न हुए अपने ही सुख में विचरते हैं, नाम के प्रसाद से उन्हें सपने में भी कोई चिन्ता नहीं सताती।



ब्रह्म राम ते नामु बड़ बर दायकबर दानि। रामचरित सत कोटि महँ लिय महेस जियँ जानि।।---अर्थ--इस प्रकार नाम ( निर्गुण ) ब्रह्म और ( सगुन ) राम दोनो से बड़ा है। यह वरदान देनेवालों को भी वर देनेवाला है। श्रीशिवजी ने अपने हृदय में यह जानकर सौ करोड़ रामचरित्रों में से इस 'राम' को ( साररूप से चुनकर ) ग्रहण किया है।


 नाम प्रसाद संभु अबिनासी। साजु अमंगल मंगल रासी।। सुक सनकादि सिद्ध मुनि जोगी। नाम प्रसाद ब्रह्मसुख भोगी।।---अर्थ--नाम ही के प्रसाद से शिवजी अविनाशी हैं और अमंगल वेषवाले होने पर भी मंगल की राशि हैं। शुकदेवजी और सनकादि सिद्ध, मुनि, योगीगण नाम के ही प्रसाद से ब्रह्मानन्द भोगते हैं।


नारद जानेउ नाम प्रतापू जग प्रिय हरि हरि हर प्रिय आपू।। नामु जपत प्रभु कीन्ह प्रसादू। भगत शिरोमनि भे प्रहलादू।।---अर्थ--नारदजी ने नाम के प्रताप को जाना है। हरि सारे संसार को प्यारे हैं, ( हरि को हर प्यारे हैं ) और आप ( श्रीनारदजी ) हरि और हर दोनो को प्रिय हैं। नाम के जपने से प्रभु ने कृपा की, जिससे प्रह्लाद भक्तशिरोमणि हो गये।


 ध्रुवँ सगलानि जपेउ हरि नाऊँ। पायऊ अचल अनुपम ठाऊँ।। सुमिरि पवनसुत पावन नामू। अपने बस करि राखे रामू।।---अर्थ--ध्रुवजी ने ग्लानि से ( विमाता के वचनों से दुःखी होकर सकामभाव से ) हरिनाम को जपा और उसके प्रताप से अचल अनुपम स्थान ( ध्रुवलोक ) प्राप्त किया। हनुमानजी ने पवित्र नाम का स्मरण करके श्रीरामजी को अपने वश में कर रखा है।


अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ। भए मुकुत हरिनाम प्रभाऊ।। कहौं कहाँ लगि नाम बड़ाई। रामु सकहिं नाम गुण गाई।।---अर्थ--नीच अजामिल, गज और गणिका ( वेश्या ) भी श्रीहरि के नाम के प्रभाव से मुक्त हो गये। मैं नाम की बड़ाई कहाँ तक कहूँ, राम भी नाम के गुणों को नहीं गा सकते।


नामु राम को कलपतरु कलि कल्यान निवासु। जो सुमिरत भयो भाँग ते तुलसी तुलसीदासु।।---अर्थ--कलियुग में राम का नाम कल्पतरु ( मनचाहा पदार्थ देनेवाला ) और कल्याण का निवास ( मुक्ति का घर ) है, जिसको स्मरण करने से भाँग-सा ( निकृष्ट ) तुलसीदास तुलसी के समान पवित्र हो गया।


चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका। भए नाम जपि जीव बिसोका।। बेद पुरान संत मत एहू। सकल सुकृत फल राम सनेहू।।---अर्थ--( केवल कलियुग की ही बात नहीं है, ) चारों युगों में, तीनों कालों में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। वेद पुराण और संतों का मत यही है कि समस्त पुण्यों का फल श्रीरामजी में ( या राम नाम में ) प्रेम होना है।


ध्यानु प्रथम जुग मख बिधि दूजें। द्वापर परितोषत प्रभु पूजे।। कलि केवल मल मूल मलीना। पाप पयोनिधि जन मन मीना।।---अर्थ--पहले ( सत्य ) युग में ध्यान से, दूसरे ( त्रेता ) युग में यज्ञ से और द्वापर में पूजन से भगवान् प्रसन्न होते हैं; परन्तु कलियुग केवल पाप की जड़ और मलिन है, इससे मनुष्यों का मन पापरूपी समुद्र में मछली बना हुआ है ( अर्थात् पाप से कभी अलग होना ही नहीं चाहता; इससे ध्यान, यज्ञ और पूजन नहीं बन सकते )


 नाम कामतरु काल कराला। सुमिरत समन सकल जग जाला।। राम नाम कलि अभिमत दाता। हित परलोक लोक पितु माता।।---अर्थ--ऐसे कराल ( कलियुग के ) काल में तो नाम ही कल्पवृक्ष है, जो स्मरण करते ही संसार के सब जंजालों को नाश कर देनेवाला है। कलियुग में यह राम नाम मनोवांछित फल देनेवाला है, परलोक का परम हितैषी और इस लोक का माता-पिता है ( अर्थात् परलोक में भगवान् का परम धाम देता है और इस लोक में माता-पिता के समान सब प्रकार से पालन और रक्षण करता है।)


नहिं कलि करम भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू।। कालनेमि कलि कपट निधानू। नाम सुमति समरथ हनुमानू।।---अर्थ--कलियुग में कर्म है, भक्ति है और ज्ञान ही है; रामनाम ही एक आधार है। कपट की खान कलियुग रूपी कालनेमि के ( मारनेके ) लिये रामनाम ही बुद्धिमन और समर्थ श्रीहनुमानजी हैं।


 राम नाम नरकेसरी कनकसिपु कलिकाल। जापक जन प्रह्लाद जिमि पालिहिं दलि सुरसाल।।---अर्थ--राम नाम श्रीनृसिंह भगवान हैं, कलियुग हिरण्यकशिपु है और चप करनेवाले लोग प्रह्लाद के समान हैं; यह रामनाम देवताओं के शत्रु ( कलियुग रूपि दैत्य ) को मारकर जप करनेवालों की रक्षा करेगा।


भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपतमंगल दिसि दसहूँ।। सुमिरि सो नाम राम उर गाथा। करउँ नाइ रघुनाथहिं माथा।।---अर्थ-- अच्छे भाव ( प्रेम ) से, बुरे भाव ( वैर ) से, क्रोध या आलस्य से, किसी तरह से भी नाम जपने से दसों दिशाओं में कल्याण होता है। उसी ( परम कल्याणकारी ) रामनाम का स्मरण करके और श्रीरघुनाथजी को मस्तक नवाकर मैं रामजी के गुणों का वर्णन करता हूँ।


मोरि सुधारिहिं सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँं अघाती।। राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो।।---अर्थ--वे ( श्रीरामजी ) मेरी ( बिगड़ी ) सब तरह से सुधार लेंगे; जिनकी कृपा कृपा करने से ही नहीं अघाती। राम से उत्तम स्वामी और मुझ-सरीखा बुरा सेवक ! इतने पर भी उन दयानिधि ने अपनी ओर देखकर मेरा पालन किया है।


लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती।। गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर।।---अर्थ--लोक और वेद में भी अच्छे स्वामी की यही रीति प्रसिद्ध है कि वह विनय सुनते ही प्रेम को पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगरनिवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी।


सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहिं सराहत सब नर नारी।। साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला।।---अर्थ--सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार राजा की सराहना करते हैं। और साधु, बुद्धिमान्, सुशील, ईश्वर के अंश से उत्पन्न कृपालु राजा-----

सुनि सनमानहिं सबहिं सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी।। यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जाम सिरोमनि कोसलराऊ।।---अर्थ--सबको सुनकर और उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चाल को पहचानकर सुन्दर ( मीठी ) वाणी से सबका यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह स्वभाव तो संसारी राजाओं का है, कोसलनाथ श्रीरामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं।


रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें।।---अर्थ--श्रीरामजी तो विशुद्ध प्रेम से ही झते हैं, पर जग् में मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिनबुद्धि और कौन होगा ?

सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु। उपल किये जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु।।---अर्थ--तथापि कृपालु श्रीरामचन्द्रजी मुझ दुष्ट सेवक की प्रीति और रुचि को अवश्य रखेंगे, जिन्होंने पत्थरों को जहाज और बन्दर भालुओं को बुद्धिमान मंत्री बना लिया।
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होंहु कहावत सब कहत राम सहत उपहास। साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास।। ---अर्थ--सबलोग मुझे श्रीरामचन्द्रजी का सेवक कहते हैं और मैं भी ( बिना लज्जा संकोच के ) कहलाता  हूँ ( कहनेवालों का विरोध नहीं करता ); कृपालु श्रीरामजी इस निन्दा को हते हैं कि श्री सीतानाथजी-जैसे स्वामी का तुलसीदास-सा सेवक है।