बालकाण्ड
नौमी भौम बार मधुमासा।
अवधपुरीं यह चरित प्रकासा।। जेहि दिन राम जनम श्रुति गावहिं। तीरथ सकल तहाँ चलि आवहिं।।---अर्थ---चैत्र
मास की नौमी तिथि मंगलवार को श्रीअयोध्याजी में यह चरित प्रकाशित हुआ। जिस दिन श्रीरामचन्द्रजी
का जन्म होता है, वेद कहते हैं कि उस दिन सारे तीर्थ वहाँ ( श्रीअयोध्याजी में ) चले
आते हैं।
असुर नाग खग नर मुनि
देवा। आई करहिं रघुनायक सेवा।। जन्म महोत्सव रचहिं सुजाना। करहिं राम कल कीरति गाना।।---अर्थ--असुर, नाग, पक्षी, मनुष्य,
मुनि और देवता सब अयोध्याजी में आकर श्रीरघुनाथजी की सेवा करते हैं। बुद्धिमान लोग
जन्म का महोत्सव मनाते हैं और श्रीरामजी की सुन्दर कीर्ति का गान करते हैं।
मज्जहिं सज्जन वृंद
बहु पावन सरजू नीर। जपहिं राम धरि ध्यान उर सुंदर श्याम शरीर।।---अर्थ--सज्जनों के
बहुत से समूह उस दिन श्रीसरयूजी के पवित्र जल में स्नान करते हैं और हृदय में सुन्दर
श्यामशरीर श्रीरघुनाथजी का ध्यान करके उनके नाम का जप करते हैं।
दरस परस मज्जन अरु पाना।
हरइ पाप कह बेद पुराना।। नदी पुनीत अमित महिमा अति। कहि न सकइ सारदा बिमल मति।।---अर्थ--वेद
पुराण कहते हैं कि श्री सरयू जी का दर्शन, स्पर्श, स्नान और जलपान पापों को हरता है।
यह नदी बड़ी ही पवित्र है, इसकी महिमा अनंत है, जिसे विमल बुद्धिवाली सरस्वतीजी भी नहीं
कह सकती।
राम धामदा पुरी सुहावनि।
लोक समस्त विदित अति पावनि।। चारि खानि जग जीव अपारा। अवध तजे तनु नहिं संसारा।।---अर्थ--यह
शोभायमान अयोध्यापुरी श्रीरामचन्द्रजी के परमधाम की देनेवाली है, सबलोकों में प्रसिद्ध
है एवं अत्यन्त पवित्र है। जगत् में ( अण्डज, स्वेदज, उभ्दिज्ज और जरायुज ) चार प्रकार
के अनंत जीव हैं, इनमें से जो कोई भी अयोध्याजी में शरीर छोड़ते हैं, वे फिर संसार में
नहीं आते ( जन्म-मृत्यु के चक्कर से छूटकर भगवान् के परमधाम में निवास करते हैं।
सब बिधि पुरी मनोहर
जानी। सकल सिद्धिप्रद मंगल खानी।। बिमल कथा कर कीन्ह अरम्भा। सुनत नसाहिं काम मद दम्भा।।---अर्थ--
इस अयोध्यापुरी को सब प्रकार से मनोहर, सब सिद्धियों को देनेवाली और कल्याण की खान
समझकर मैने इस निर्मल कथा का आरम्भ किया, जिसके सुनने से काम, मद और दम्भ नष्ट हो जाते
हैं।
रामचरितमानस एहि नामा।
सुनत श्रवन पाइय विश्रामा।। मन करि बिषय अनल बन जरई। होई सुखी जौं एहि सर परई।।---अर्थ--इसका
नाम रामचरितमानस है, जिसके कानों से सुनते ही शान्ति मिलती है। मन रूपी हाथी विषय रूपी
दावानल में जल रहा है, वह दि इस रामचरितमानसरूपी सरोवर में आ पड़े तो सुखी हो जाय।
रामचरितमानस मुनि भावन।
बिरचेउ संभु सुहावन पावन।। त्रिबिध दोष दुख दारिद दावन। कलि कुचालि कुलि कलुष नसावन।।---अर्थ--यह
रामचरितमानस मुनियों का प्रिय है, इस सुहावने और पवित्र मानस की शिवजी ने रचना की।
यह तीनों प्रकार के दोषों, दुःखों और दरिद्रता को तथा कलियुग की कुचालों और सब पापों
का नाश करनेवाला है।
रचि महेस निज मानस राखा।
पाइ सुसमउ सिवा सन भाषा।। तातें रामचरितमानस बर। धरेउ नाम हियँ हेरि हरषि हर।।---अर्थ--श्रीमहादेवजी
ने इसको रचकर अपने मन में रखा था और सुअवसर पाकर पार्वतीजी से कहा। इसी से शिवजी ने
इसको अपने हृदय में देखकर और प्रसन्न होकर इसका सुन्दर ' 'रामचरितमानस' नाम रखा।
कहउँ कथा सोइ सुखद सुहाई।
सादर सुनहु सुजन मन लाई।।---अर्थ---मैं उसी सुख देनेवाली सुहावनी रामकथा को कहता हूँ,
हे सज्जनों ! आदरपूर्वक मन लगाकर इसे सुनिये।
जस मानस जेहि बिधि भयउ
जग प्रचार जेहि हेतु। अब सोइ कहउँ प्रसंग सब सुमिरि उमा वृषकेतु।।---अर्थ--यह रामचरितमानस
जैसा है, जिस प्रकार बना है और जिस हेतु से जगत् में इसका प्रचार हुआ, अब वही सब कथा
श्री उमा महेश्वर का स्मरण करके कहता हूँ।
संभु प्रसाद सुमति हियँ
हुलसी। रामचरितमानस कबि तुलसी।। करइ मनोहर मति अनुहारी। सुजन सुित सुनि लेहु सुधारी।।---अर्थ--श्रीशिवजी
की कृपा से उसके हृदय में सुन्दर बुद्धि का विकास हुआ, जिससे यह तुलसीदास श्रीरामचरितमानस
का कवि हुआ। अपनी बुद्धि के अनुसार तो वह इसे मनोहर बताता है। परन्तु फिर भी हे सज्जनों
! सुन्दर चित्त से सुनकर इसे आप सुधार लीजिये।
सुमति भूमि थल हृदय
अगाधू। बेद पुरान उदधि घन साधू।। बरसहिं राम सुजस बर बारी। मधुर मनहर मंगलकारी।।---अर्थ--सुन्दर
( सात्विकी ) बुद्धि भूमि है, हृदय ही उसमें गहरा स्थान है, वेद-पुराण समुद्र हैं और
साधु-संत मेघ हैं। वे ( साधुरूपी मेघ ) श्रीरामजी के सुयशरूपी सुन्दर, मधुर, मनोहर
और मंगलारी जल की वर्षा करते हैं।
लीला सगुन जे कहहिं
बखानी। सोइ स्वच्छता करइ मल हानी। प्रेम भगति जो बरनि न जाई। सोई मधुरता सुसीतलताई।।---अर्थ--सगुण
लीला का जो विस्तार से वर्णन करते हैं, वही रम सुयशरूपी जल की निर्मलता है, जो मल का
नाश करती है; औरजिस प्रेमाभक्ति का वर्णन नहीं किया जा सकता, वही इस जल की मधुरता और
सुन्दर शीतलता है।
सो जल सुकृत सालि हित
होई। राम भगत जन जीवन सोई।। मेधा महि गत सो जल पावन। सकिलि श्रवन मग चलेउ सुहावन।।
भरेउ सुमानस सुथल थिराना। सुखद सीत रुचि चारु चिराना।। वह ( राम- सुयशरूपी ) जल सत्कर्म
रूपी धान के लिेये हितकर है और श्रीरामजी के भक्तों का तो जीवन ही है। वह पवित्र जल
बुद्धि रूपी पृथ्वी पर गिरा और सिमटकर सुहावने कान रुपी मार्ग से चला और मानस ( हृदय
) रूपी श्रेष्ठ स्थान में भरकर वहीं स्थिर हो गया। वही पुराना होकर सुन्दर, रुचिकर,
और सुखदायी हो गया।
सुठि सुन्दर संबाद बर
बिरचे बुद्धि बिचारि। तेइ एहि पावन सुभग सर घाट मनोहर चारि।।---अर्थ--इस कथा में बुद्धि
से विचारकर जो चार अत्यन्त सुन्दर और उत्तम संवाद ( भुसुण्डि-गरुड़, शिव-पार्वती, याज्ञवल्क्य-भरद्वाज
और तुलसीदास और संत ) रचे हैं, वही इस सुन्दर और पवित्र सरोवर के चार मनोहर घाट हैं।
सप्त प्रबंध सुभग सोपाना।
ग्यान नयन निरखत मन माना।। रघुपति महिमा अगुन अबाधा। बरनब सोइ बर बारि अगाधा।।---अर्थ--सात
काण्ड ही इस मानस सरोवर की सुन्दर सात सीढ़ियाँ हैं, जिनको ज्ञानरूपी नेत्रों से देखते
ही मन प्रसन्न हो जाता है। श्रीरघुनाथजी की निर्गुण ( प्राकृतिक गुणों से अतीत ) और
निर्बाध ( एकरस ) महिमा का जो वर्णन किया जायगा, बही इस सुन्दर जल की अथाह गहराई है।
राम सीय जस सलिल सुधासम।
उपमा बीचि बिलास मनोरम।। पुरइनि सघन चारु चौपाई। जुगुति मंजु मनि सीप सुहाई।।---श्रीरामचन्द्रजी
और सीताजी का यश अमृत के समान जल है। इसमें जो उपमाएँ दी गयी हैं वही तरंगों का मनोहर
विलास है। सुन्दर चौपाइयाँ ही इसमें घनी फैली हुई पुरइन (कमलिनी ) हैं और कविता की
युक्तियाँ सुन्दर मणि ( मोती ) उत्पन्न करनेवाली सुहावनी सीपियाँ हैं।
छंद सोरठा सुन्दर दोहा।
सोइ बहुरंग कमल कुल सोहा।। अरथ अनूप सुभाव सुभासा। सोई पराग मकरंद सुबासा।।---अर्थ---जो
सुन्दर छंद, सोरठे और दोहे हैं, वही इसमें बहुरंगे कमलों के समूह की तरह सुशोभित हैं।
अनुपम अर्थ, ऊँचे भाव और सुन्दर भाषा ही पराग ( पुष्परज ), मकरंद ( पुष्परस ) और सुगंध
हैं।
सुकृत पुंज मंजुल अलि
माला। ग्यान बिराग बिचार मराला।। धुनि अवरेब कबित गुन जाति। मीन मनोहर ते बहु भाँति।।---अर्थ--सत्कर्मों
( पुष्पों ) के पुँज भौंरों की सुन्दर पंक्तियाँ हैं, ज्ञान, वैराग्य और विचार हंस
हैं। कविता की ध्वनि वक्रोक्ति, गुण और जाति ही अनेकों प्रकार की मनोहर मछलियाँ हैं।
अरथ धरम कामादिक चारी।
कहब ग्यान विग्यान बिचारी।। नव रस जप तप भोग विरागा। ते सब जलचर चारु तड़ागा।।---अर्थ---अर्थ,
धर्म, काम, मोक्ष---ये चारों, ज्ञान-विज्ञान का विचार के कहना, काव्य के नौ रस, जप,
तप, योग और वैराग्य के प्रसंग---ये सब इस सरोवर के सुन्दर जलचर जीव हैं।
सुकृति साधु नाम गुन
गाना। ते बिचित्र जल बिहग समाना।। संत सभा चहुँ दिसि अवँराई। श्रद्धा रितु बसंत सम
गाई।।---अर्थ--सुकृति ( पुण्यात्मा ) जनों के, साधुओं और श्रीरामनाम के गुणों का गान
ही विचित्र जल पक्षियों के समान है। संतों की सभा इस सरोवर के चारों ओर की अमराई (
आम का बगीचियाँ ) हैं और श्रद्धा वसंत ऋतु के समान कही गयी है।
भगति निरूपन बिबिध बिधाना।
छमा दया दम लता बिताना। सम जम नियम फूल फल ग्याना। हरि पद रति रस बेद बखाना।।---अर्थ--
नाना प्रकार से भक्ति का निरुपण और क्षमा, दया और दम ( इन्द्रियनिग्रह ) लताओं के मण्डप
हैं। मन का निग्रह, यम ( अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह ), नियम ( शौच,
संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्रणिधान ) ही उनके फूल हैं, ज्ञान फल है और श्रीहरिचरणों
में प्रेम ही इस ज्ञाम रूपी फल का रस है। ऐसा वेदों ने कहा है।
औरउ कथा अनेक प्रसंगा।
तेइ सुक पिक बहुबरन बिहंगा।।---अर्थ--इस (रामचरितमानस) में और जो भी अनेक प्रसंगों
की कथाएँ हैं, वे ही इसमें तोते, कोयल आदि रंग-बिरंगे पक्षी हैं।
पुलक वाटिका बाग बन
सुख सुबिहंग बिहारु। माली सुमन सनेह जल सींचत लोचन चारु।।---अर्थ--कथा में जो रोमांच
होता है वही वाटिका, बाग और वन हैं; और जो सुख होता है, वही सुन्दर पक्षियों का विहार
होता है। निर्मल मन ही माली है जो प्रेमरूपी जल से सुन्दर नेत्रों द्वारा उनको सींचता
है।
जे गावहिं यह चरित सँभारे।
तेइ एहि ताल चतुर रखवारे।। सदा सुनहिं सादर नर नारी। तेइ सुरबर मानस अधिकारी।।---अर्थ--जो
लोग इस चरित्र को सावधानी से गाते हैं,वे ही इस तालाब के चतुर रखवाले हैं और जो स्त्री-पुरुष
सदा आदरपूर्वक इसे सुनते हैं, वे ही इस सुन्दर मानस के अधिकारी उत्तम देवता हैं।
अति खल जे विषयी बग
कागा। एहि सर निकट न जाहिं अभागा।। संबुक भेक सेवार समाना। इहाँ न बिषय कथा रस नाना।।---अर्थ--जो
अति दुष्ट और विषयी हैं वे अभागे बगुले और कौवे हैं, जो इस सरोवर के समीप नहीं जाते।
क्योंकि यहाँ ( इस मानस-सरोवर में ) घोंघे, मेढ़क और सेवार के समान विषय-रस की नाना
कथाएँ नहीं हैं।
तेहि कारण आवत हियँ
हारे। कामी काक बलाक बिचारे।। आवत एहि सर अति कठिनाई। राम कृपा बिनु आइ न जाइ।।---अर्थ--इसी
कारण बेचारे कौवे और बगुले रूपी बिषयी लोग यहाँ आते हुए हृदय में हार मान लेते हैं।
क्योंकि इस सरोवर तक आने में कठिनाइयाँ बहुत हैं।श्रीरामजी की कृपा बिना यहाँ नहीं
आया जाता।
कठिन कुसंग कुपंथ कराला।
तिन्ह के बचन बाघ हरि ब्याला।। गृह कारज नाना जंजाला। ते अति दुर्गम सैल बिसाला।।---अर्थ--घोर
कुसंग ही भयानक बुरा रास्ता है; उन कुसंगयों के वचन ही बाघ, सिंह और साँप हैं। घर के
काम-काज और गृहस्थी के भाँति-भाँति के जंजाल ही अत्यन्त दुर्गम बड़े-बड़े पहाड़ हैं।
बन बहु विषम मोह मद
माना। दीं कुतर्क भयंकर नाना।।---अर्थ--मोह, मद और मान ही बहुत से बीहड़ वन हैं और नाना
प्रकार के कुतर्क ही भयानक नदियाँ हैं।
जे श्रद्धा संबल रहित
नहिं संतन्ह कर साथ। तिन्ह कहुँ मानस अगम अति जिन्हहिं न प्रिय रघुनाथ।।---अर्थ---जिनके
पास श्रद्धा रूपी राहखर्च नहीं है और संतों का साथ नहीं है और जिनको श्रीरघुनाथजी प्रिय
नहीं हैं, उनके लिये यह मानस अत्यन्त ही अगम है। ( अर्थात् श्रद्धा, सत्संग और भगवत्प्रेम
के बिना कोई इसको नहीं पा सकता )।
जौं करि कष्ट जाइ पुनि
कोई। जातहिं नींद जुड़ाई होई।। जड़ता जाइ बिषम उर लागा। गएहुँ न मज्जन पाव अभागा।।---अर्थ--यदि
कोई मनुष्य कष्ट उठाकर वहाँ तक पहुँच भी जाय, तो वहाँ जाते ही उसे नींदरूपी जुड़ी आ
जाती है। हृदयमें मूर्खतारूपी बड़ा कड़ा जाड़ा लगने लगता है, जिससे वहाँ जाकर भी वह अभागा
स्नान नहीं कर पाता।
करि न जाइ सर मज्जन
पाना। फिरि आवइ समेत अभिमाना।। जौं बहोरि कोउ पूछन आवा। सर निंदा करि ताहि बुझावा।।---अर्थ--उससे
उस सरोवर में स्नान और उसका जलपान तो किया नहीं जाता, वह अभिमानसहित लौट आता है। फिर
यदि कोई उससे ( वहाँ का हाल ) पूछने आता है, तो वह ( अपने अभाग्य की बात न कहकर ) सरोवर
की निंदा करे उसे समझाता है।
सकल विघ्न व्यापहिं
नहीं तेही। राम सुकृपा बिलोकहिं जेही।। सोई सादर सर मज्जनु करई। महाघोर त्रयताप न जरई।।---अर्थ--ये
सारे विघ्न उनको नहीं व्यापते ( बाधा नहीं देते ) जिसे श्रीरामचन्द्रजी सुन्दर कृपा
की दृष्टि से देखते हैं। वही आदरपूर्वक इस सरोवर में स्नान करता है और महान भयानक त्रिताप
से ( दैहिक, दैविक और भौतिक ) से हीं जलता।
ते नर य ह सर तजहिं न काऊ। जिन्ह के राम चरण भल भाऊ।। जो नहाई
चह एहि सर भाई। सो सतंग करउ मन लाई।।---अर्थ---जिनके मन में श्रीरामचन्द्रजी के चरणों
में सुन्दर प्रेम है, वे इस सरोवर को कभी नहीं छोड़ते हैं। हे भाई ! इस सरोवर में स्नान
करना चाहे तो मन लगाकर सत्संग करे।
अस मानस मानस चख चाही।
भइ कबि बुद्धि बिमल अवगाही।। भयउ हृदय आनंद उछाहू। उमगेउ प्रेम प्रमोद प्रबाहू।।---अर्थ--ऐसे
मानस सरोवर को हृदय के नेत्रों से देखकर और उसमें गोता लगाकर कवि की बुद्धि नि्मल हो
गयी, हृदय में आनंद और उत्साह भर गया और प्रेम तथा आनंद का प्रवाह उमड़ आया।
चली सुभग कविता सरिता
सो। राम बिमल जस जल भरिता सो।। सरजू नाम सुमंगल मूला। लोक बेद मत मजुल कूला।।---अर्थ--उससे
यह सुन्दर कवितारूपी नदी बह निकली, जिसमें श्रीरामजी का निर्मल यशरूपी जल भरा है। इस
( कवितारूपी नदी ) का नाम सरयू है, जो संपूर्ण सुन्दर मंगलों की जड़ है। लोकमत और वेदमत
इसके दो सुन्दर किनारे हैं।
नदी पुनीत सुमानस नंदिनि।
कलिमल तृन तरु मूल निकंदनि।।---अर्थ--यह सुन्दर मानस सरोवर की कन्या सरयू नदी बड़ी पवित्र
है और कलियुग के ( छोटे-बड़े ) पापरूपी तिनकों और वृक्षों को से उखाड़ फेंकनेवाली है।
श्रोता त्रिबिध समाज
पुर ग्राम नगर दुहुँ कूल। संतसभा अनुपम अवध सकल सुमंगल मूल।।---अर्थ--तीनों प्रकार
के श्रोताओं का समाज ही इस नदी के दोनो किनारे पर बसे हुए गाँव और नगर हैं; और संतों
की सभा ही सब मंगलों की जड़ अनुपम अयोध्याजी हैं।