रामभगति सुरसरितहिं
जाई। मिली सुकीरतु सरजू सुहाई।। सानुज राम समर जसु पावन। मिलेउ महानदी सोन सुहावन।।---अर्थ---सुन्दर
कीर्तिरूपी सुहावनी सरयूजी रामभक्ति रूपी गंगाजी में जा मिलीं। छोटे भाई लक्ष्मण सहित
श्रीरामजी के युद्ध का पवित्र यशरूपी सुहावना महानद सोन उसमें आ मिला।
जुग बिच भगति देवधुनि
धारा। सोहति सहित सुबिरति बिचारा।। त्रिबिध ताप त्रासक तिमुहानि। राम सरूप सिंधु समुहानी।।---अर्थ--दोनो
के बीच में भक्तिरूपी गंगाजी की धारा ज्ञान और वैराग्य के सहित शोभित हो रही है। ऐसी
तीनों तापों को डरानेवाली यह तिमुहानी नदी रामस्वरूप रूपी समुद्र की ओर जा रही है।
मानस मूल मिली सुरसरिही।
सुनत सुजन मन पावन करिहीं। बिच बिच कथा बिचित्र बिभागा। जनु सरि तीर तीर बन बागा।।---अर्थ---इस
( कीर्तिरूपी सरयू ) का मूल मानस ( श्रीरामचरित ) है और यह ( रामभक्तिरूपी ) गंगाजी
में मिली है, इसलिये यह सुननेवाले सज्जनों के मन को पवित्र कर देगी। इसके बीच-बीच में
भिन्न-भिन्न प्रकार की विचित्र कथाएँ हैं वे ही मानो नदी तट के आस-पास के वन और बाग
हैं।
उमा महेस बिबाह बराती।
ते जलचर अगनित बहु भाँती।। रघुबर जनम अनंद बधाई। भँवर तरंग मनोहरताई।।---अर्थ--श्रीपार्वतीजी
और शिवजी के विवाह के बराती इस नदी में बहुत प्रकार के असंख्य जलचर जीव हैं। श्रीरघुनाथजी
के जन्म की आनन्द बधाइयाँ ही इस नदी के भँवर और तरंगों की मनोहरता है।
बालचरित चहु बंधु के
बनज बिपुल बहुरंग। नृप रानी परिजन सुकृत मधुकर बारि बिहंग।।---अर्थ--चारों भाइयों के
जो बालचरित हैं, वे ही इसमें खिले हुए रंग-बिरंगे बहुत-से कमल हैं। महाराज दशरथजी तथा
उनकी रानियों और कुटुम्बियों के सत्कर्म ( पुण्य ) ही भ्रमर और जलपक्षी हैं।
सीय स्वयंबर कथा सुहाई।
सरित सुहावनि सो छबि साई।। नदी नाव पटु प्रश्न अनेका। केवट कुसल उत्तर सबिबेका।।---अर्थ---श्रीसीताजी
के स्वयंवर की जो सुन्दर कथा है, वही इस नदी में सुहावनी छबि के रूप में छा रही है।
अनेों सुन्दर विचारपूर्ण प्रश्न ही इस नदी की नावें हैं और इनके विवेकयु्त उत्तर ही
चतुर केवट हैं।
सुनि अनुकथन परस्पर
होई। पथिक समाज सोह सरि सोई।। घोर धार भृगुनाथ रिसानी। घाट सुबुद्ध राम बर बानी।।---अर्थ---इस
कथा को सुनकर पीछे जो आपस में चर्चा होती है, वही इस नदी के सहारे-सहारे चलनेवाले यात्रियों
का समाज शोभा पा रहा है। परशुरामजी का क्रोध इस नदी की भयानक धारा है और श्रीरामचन्द्रजी
के श्रेष्ठ वचन ही सुन्दर बँधे हुए घाट हैं।
सानुज राम बिबाह उछाहू।
सो सुभ उमग सुखद सब काहू।। कहत सुुनत हरषहिं पुलकाहीं। ते सुकृति मन मुदित नहाहीं।।---अर्थ--भाइयों
सहित श्रीरामचन्द्रजी के विवाह का उत्साह ही इस कथा-नदी की कल्याणकारिणी बाढ़ है, जो
सभी को सुख देनेवाली है। इसके कहने-सुनने में जो हर्षित और पुलकित होते हैं, वे ही
पुण्यात्मा पुरुष हैं, जो प्रसन्न मन से इस नदी में नहाते हैं।
राम तिलक हित मंगल साजा।
परब जोग जनु जुरे समाजा।। काई कुमति केकई केरी। परी जासु फल बिपति घनेरी।।---अर्थ---श्रीरामचन्द्रजी
के राजतिलक के लिये जो मंगल-साज सजाया गया, वही मानो पर्व के समय इस नदी पर यात्रियों
के समूह इकट्ठे हुए हैं। कैकेई की कुबुद्धि ही इस नदी में काई है, जिसके फलस्वरूप बड़ी
भारी विपत्ति आ पड़ी।
समन अमित उतपात सब भरत
चरित जप जाग। कलि अघ खल अवगुण कथन ते जलमल बग काग।।---अर्थ--संपूर्ण अनगिनत उत्पातों
को शान्त करनेवाला भरतजी का चरित्र नदी तट पर किया जानेवाला जपयज्ञ है। कलियुग के पापों
और दुष्टों के अवगुणों के जो वर्णन हैं वे ही इस नदी के जल का कीचड़ और बगुले कौवे हैं।
कीरति सरित छहूँ रितु
रूरी। समय सुहावनि पावनि भूरी।। हिम हिमसैलसुता सिव ब्याहू। सिसिर सुखद प्रभु जनम उछाहू।।---अर्थ---यह
कीर्तिरूपिणी नदी छहों ऋतुओं में सुन्दर है। सभी समय यह परम सुहावनी और अत्यन्त पवित्र
है। इसमें शिव-पार्वती का विवाह हेमन्त ऋतु है। श्रीरामचन्द्रजी के जन्म का उत्सव सुखदायी
शिशिर ऋतु है।
बरनब राम बिबाह समाजू।
सो मुद मंगलमय रितुराजू।। ग्रीषम दुसह राम बनगवनू। पंथकथा खर आतप पवनू।।---अर्थ--श्रीरामचन्द्रजी
के विवाह-समाज का वर्णन ही आनंद-मंगलमय रितुराज वसंत है। श्रीरामचन्द्रजी का वनगमन
दुःसह ग्रीष्म-ऋतु है और मार्ग की कथा ही कड़ी धूप और लू है।
बरषा घोर निसाचर रारी।
सुरकुल सालि सुमंगलकारी।। राम राज सुख बिनय बड़ाई। बिसद सुखद सोई सरद सुहाई।।---अर्थ--राक्षसों
के साथ घोर-युद्ध ही वर्षा-ऋतु है, जो देवकुलरूपी धान के लिये सु्दर कल्याण करनेवाली
है। रामचन्द्रजी के राज्यकाल का जो सुख, विनम्रता और बड़ाई है वही निर्मल सुख देनेवाली
शरद् ऋतु है।
सती सिरोमनि सिय गुन
गाथा। सोइ गुन अमल अनूपम पाथा।। भरत सुभाउ सुसीतलताई। सदा एकरस बरनि न जाई।।---अर्थ--सती-शिरोमणि
श्रीसीताजी के गुणों की जो कथा है, वही इस जल का निर्मल और अनुपम गुण है। श्रीभरतजी
का स्वभाव इस नदी की सुन्दर शीतलता है, जो सदा एक सी रहती है और जिसका वर्णन नहीं किया
जा सकता।
अवलोकनि बोलनि मिलनि
प्रीति परस्पर हास। भायप भलि चहु बंधु की जल माधुरी सुबास।।---अर्थ---चारों भाइयों
का परस्पर देखना, बोलना, मिलना, एक-दूसरे से प्रेम करना, हँसना और सुन्दर भाईपना इस
जल की मधुरता और सुगंध है।
आरति विनय दीनता मोरी।
लघुता ललित सुबारि न थोरी।। अद्भुत सलिल सुनत गुनकारी। आस पियास मनोबल हारी।।---मेरा
आर्तभाव, विनय और दीनता इस सुन्दर और निर्मल जल का कम हल्कापन नहीं है ( अर्थात् अत्यन्त
हल्कापन है )। यह जल बड़ा ही अनोखा है, जो सुनने से ही गुण करता है और आशारुपपी प्यास
को और उनके मन के मैल को दूर करता है।
राम सुप्रेमहि पोषत
पानी। हरत सकल कलि कलुष गलानी।। भव श्रम सोषक तोषक तोषा। समन दुरित दुख दारिद दोषा।।---अर्थ--यह
फल श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर प्रेम को पुष्ट करता है, कलियुग के समस्त पापों और उनसे
होनेवाली ग्लानि को हर लेता है। संसार के ( जन्म-मृत्युरूप ) श्रम को सोख लेता है,
संतोष को भी संतुष्ट करता है और पाप, ताप, दरिद्रता और दोषों को नष्ट कर देता है।
काम कोह मद मोह नसावन।
बिमल बिबेक बिराग बढ़ावन।। सादरज्जन पान किये तें। मिटहिं पाप परिताप हिए तें।।---अर्थ---यह
जल काम, क्रोध, मद और मोह का नाश करनेवाला औरनिर्मल ज्ञान और वैराग्य को बढ़ानेवाला
है। इसमें आदरपूर्वक स्नान करने से और इसके पीने से हृदय में रहनेवाले सब पाप-ताप मिट
जाते हैं।
जिन्ह एहि बारि न मानस
धोए। ते कायर कलिकाल बिगोए।। तृषित निरखि रबि कर भव बारी। फिरिहहिं मृग जिमि जीव दुखारी।।---अर्थ--
जिन्होंने इस ( राम सुयश-रूपी ) जल से अपने हृदय को नहीं धोया, वे कायर कलिकाल के द्वारा
ठगे गये। जैसे प्यासा हिरण सूर्य की किरणों के रेत पर पड़ने से उत्पन्न हुए जल के भ्रम
को वास्तविक जल समझकर पीने को दौड़ता है और ल न पाकर दुःखी होता है, वैसे ही ये ( कलियुग
से ठगे हुए ) जीव भी ( विषयों के पीछे भटककर) दुःखी होंगे।
मति अनुहारि सुबारि
गुन गन गनि मन अन्हवाइ। सुमिरि भवानी शंकरहिं कह कबि कथा सुहाइ।।---अर्थ---अपनी बुद्धि
के अनुसार इस सुन्दर जल के गुणों को विचारकर, उसमें अपने मन को स्नान कराकर और श्रीभवानी-शंकर
को स्मरण करके कवि ( तुलसीदास ) सुन्दर कथा कहता है।
अब रघुपति पंकरुह हियँ
धरि पाइ प्रसाद। कहउँ जुगल मुनबर्य कर मिलन सुभग संवाद।।---अर्थ---मैं अब श्री रघुनाथजी
के चरणकमलों को हृदय में धारण कर और उनका प्रसाद पाकर दोनो श्रेष्ठ मुनियों के सुन्दर
संवाद का वर्णन करता हूँ।
भरद्वाज मुनि बसहिं
प्रयागा। तिन्हहिं राम पद अति अनुरागा।। तापस सम दम दया निधाना। परमाथ पथ परम सुजाना।।---अर्थ---भरद्वाज
मुनि प्रयाग में बसते हैं, उनका श्रीरामजी के चरणों में अत्यन्त प्रेम है। वे तपस्वी,
निगृहीतचित्त, जितेन्द्रिय, दया के निधान और परमार्थ के मार्ग में बड़े ही चतुर हैं।
माघ मकरगत रबि जब होई।
तीरथपतिहिं आव सब कोई।। देव दनुज किंनर नर श्रेनीं। सादर मज्जहिं सकल त्रिबेनीं।।---अर्थ---माघ
में जब सूर्य मकर राशि पर चले जाते हैं तब सबलोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता,
दैत्य, किंन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं।
पूजहिं माधव पद जलजाता।
परसि अखय बटु हरषहिं गाता।। भरद्वाज आश्रम अति पावन। परम रम्य मुनिबर मन भावन।।---अर्थ---श्रीेवेणीमाधवजी
के चरणकमलों को पूजते हैं और अक्षयवट का स्पर्श करके उनके शरीर पुलकित होते हैं। भरद्वाजजी
का आश्रम बहुत ही पवित्र, परम रमणीय और श्रेष्ठ मुनियों के मन को भानेवाला है।
तहाँ होइ मुनि रिषय समाजा। जाहिं जे सज्जन तीरथराजा।। मज्जहिं प्रात समेत उछाहा। कहहिं परस्पर हरि गुन गाहा।।---अर्थ---तीर्थराज प्रयाग में जो स्नान करने जाते हैं उन ऋषि मुनियों का सामान वहाँ ( भरद्वाज के आश्रम में ) जुटता है। प्रातःकाल सब उत्साहपूर्वक स्नान करते हैं और फिर परस्पर भगवान के गुणों की कथाएँ कहते हैं।
ब्रह्मनिरूपन धरम बिधि
बरनहिं तत्व बिभाग। कहहिं भगि भगवंत कै संजुत ज्ञान बिराग।।---ब्रह्म का निरूपन, धर्म
का विधान और तत्वों के विभाग का वर्णन करते हैं तथा ज्ञान वैराग्य से युक्त भगवान की
भक्ति का कथन करते हैं।
एहि प्रकार भरि माघ
नहाहीं। मुनि सब निज-निज आश्रम जाहीं।। प्रति संबत अति होई अनंदा। मकर मज्जि गवनहिं
मुनिवृंदा।।---अर्थ---इसी प्रकार माघ के महीनेभर स्नान करते हैं और फिर सब अपने-अपने
आश्रमों को चले जाते हैं। हर साल यहाँ इसी तरह बड़ा आनंद होता है। मकर में स्नान कर
मुनिगण चले जाते हैं।
एक बार भरि मकर नहाए।
सब मुनीस आश्रमन्ह सिधाए।। जागबलिक मुनि परम बिबेकी। भरद्वाज राखे पद टेकी।।---अर्थ---एक
बार पूरे मकर भर स्नान करके सब मुनीश्वर अपने-अपने आश्रमों को लौट गये। परम ज्ञानी
याज्ञवल्क मुनि को चरण पकड़कर भरद्वाजजी ने रख लिया।
सादर चरण सरोज पखारे।
अति पुनीत आसन बैठारे।। करि पूजा मुनि सुजसु बखानी। बोले अति पुनीत मृदु बानी।।---अर्थ--आदरपूर्वक
उनके चरणकमल धोए और बड़े ही पवित्र आसन पर उन्हें बैठाया। पूजा करके मुनि याज्ञवल्कजी
के सुयश का वर्णन किया और फिर अत्यन्त पवित्र और कोमल वाणी से बोले
नाथ एक संसउ बड़ मोरें।
करगत बेदतत्व सब तोरें।। कहत सो मोहि लागत भय लाजा। जौं न कहउँ बड़ होइ अकाजा।।---अर्थ---हे
नाथ ! मेरे मन में बड़ा संदेह है; बेदों का तत्व सब आपकी मुट्ठी में है ( अर्थात् आप
ही वेद का तत्व जाननेवाले होने के कारण मेरा संदेह निवारण कर सकते हैं ) पर उस संदेह
को कहते हुए मुझे भय और लाज आती है ( भय इसलिये कि कहाँ आप यह न समझें कि मेरी परीक्षा
ले रहा है, लाज इसलिये कि इतनी आयु बीत गयी , अबतक ज्ञान न हुआ ) और यदि नहीं कहता तो बड़ी हानि होती
है ( क्योंकि अज्ञानी बना रहता हूँ )।
संत कहहिं असि नीति
प्रभु श्रुति पुरान मुनि गाव। होइन बिमल बिबेक उर गुर सनकिये दुराव।।---अर्थ--हे प्रभो
! संतलोग ऐसी नीति कहते हैं और वेद, पुराण तथा मुनिजन भी यही बतलाते हैं कि गुरु के
साथ छिपाव करने से हृदय में निर्मल ज्ञान नहीं होता।
अस बिचारि प्रगटउँ निज
मोहू। हरहु नाथ करि जन पर छोहू।। राम नाम कर अमित प्रभावा। संत पुरान उपनिषद गावा।।---अर्थ---यही
सोचकर मैं अपना अज्ञान प्रकट करता हूँ। हे नाथ ! सेवक पर कृपा करके इस अज्ञान का नाश
कीजिये। संतों पुराणों और उपनिषदों ने राम नाम के असम प्रभाव का गान किया है।
संतत जपत संभु अबिनासी।
सिव भगवान ज्ञान गुन रासी।। आकर चारि जीव जग अहहिं। कासी मरत परम पद लहहिं।।---अर्थ---कल्याणस्वरूप,
ज्ञान और गुणों की राशि, अविनाशी भगवान् शंभु निरंतर रामनाम का जप करते रहते हैं। संसार
में चार जाति के जीव हैं, काशी में मरने से सभी परमपद को प्राप्त करते हैं।
सोपि राम महिमा मुनिराया।
सिव उपदेसु करत करि दाया।। रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही।। कहिय बुझाइ कृपानिधि मोही।।---अर्थ---हे
मुनिराज ! वह भी राम ( नाम ) की ही महिमा है, क्योंकि शिवजी महाराज दया करके ( काशी
में मरनेवाले जीव को ) राम नाम का ही उपदेश करते हैं। ( इसी से उनको परमपद मिलता है
)। हे प्रभो ! मैं आपसे पूछता हूँ कि वे राम कौन हैं ? हे कृपासिंधु ! मुझे समझाकर
कहिये।
एक राम अवधेस कुमारा।
तिन्ह कर चरित विदित संसारा।। नारि बिरह दुखु लहेउ अपारा। भयउ रोषु रन रावनु मारा।।---अर्थ---एक
राम तो अवधेशनरेश दशरथजी के कुमार हैं, उनका चरित्र सारा संसार जानता है। उन्होंने
स्त्री के विरह में अपार दुःख उठाया और क्रोध आने पर युद्ध में रावण को मार डाला।
प्रभु सोइ राम कि अपर
कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि। सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेक बिचारि।।---अर्थ---हे प्रभो
! वही राम हैं या और कोई दूसरे हैं, जिनको शिवजी जपते हैं ? आप सत्य के धाम हैं और
सबकुछ जानते हैं, ज्ञान विचारकर कहिये।
जैसे मिटै मोर भ्रम
भारी। कहहु सो कथा नाथ विस्तारी।। जागबलिक बोेले मुसुकाई। तुम्हहिं विदित रघुपति प्रभुताई।।---अर्थ---हे
नाथ ! जिस प्रकार मेरा यह भारी भ्रम मिट जाय, आप वही कथा वि्तारपूर्वक कहिये। इसपर
याज्ञवल्कजी मुस्कुराकर बोले, श्रीरघुनाथजी की प्रभुता को तुम जानते हो।
रामभगत तुम मन क्रम
बानी। चतुराई तुम्हारी मैं जानी।। चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा। कीन्हहुँ प्रस्न मनहुँ
अति मूढ़ा।।---अर्थ---तु मन, वचन और कर्म से श्रीरामजी के भक्त हो। तुम्हारी चतुराई
को मैं जान गया। तुम श्रीरामजी के रहस्यमय गुणों को सुनना चाहते हो; इसी से तुमने ऐसा
प्रश्न किया है मानो बड़े ही मूढ़ हो।
तात सुनहु सादर मनु
लाई। कहउँ राम के कथा सुहाई।। महामोहु महिषेसु बिसाला। रामकथा कालिका कराला।।---अर्थ---हे
तात ! तुम आदरपूर्वक मन लगाक र सुनो; मैं
श्रीरामजी की सुन्दर कथा कहता हूँ। बड़ा भारी अज्ञान विशाल महिषासुर है और श्रीरामजी
की कथा ( उसे नष्ट कर देनेवाली ) भयंकर कालीजी हैं।
रामकथा ससि किरन समाना।
संत चकोर करहिं जेहि पाना।। ऐसेइ संसय कीन्ह भवानी। महादेव तब कहा बखानी।।---अर्थ--श्रीरामजी
की कथा चन्द्रमा की किरणों के समान है, जिसे संतरूपी चकोर सदा पान करते हैं। ऐसा ही
संदेह पार्वतीजी ने किया था, तब महादेवजी ने विस्तार से उसका उत्तर दिया था।
कहउँ सो मति अनुहारि
अब उमा शंभु संबाद। भयउ समउ जेहि हेतु जेहि सुनि मुनि मिटहिं बिषाद।।---अर्थ---अब मैं
अपनी बुद्धि के अनुसार वही उमा और शिवजी का संवाद कहता हूँ। वह जिस समय और जिस हेतू
से हुआ, उसे हे मुनि ! तुम सुनो, तुम्हारा विषाद मिट जायगा।
एक बार त्रेता जुग माहीं।
शंभु गये कुंभज ऋषि पाहीं। संग सती जगजननि भवानी। पूजे ऋषि अखिलेश्वर जानी।।---अर्थ---एक
बार त्रेता जुग में शिवजी अगस्त्य ऋषि के पास गये। उनके साथ जगजननि भवानी सतीजी भी
थी। ऋषि ने संपूर्ण जगत् के ईश्वर जानकर उनका पूजन किया।
रामकथा मुनिबर्ज बखानी।
सुनि महेस परम सुखु मानी।। रिषि पूछी हरिभगति सुहाई। कही शंभु अधिकारी पाई।।---अर्थ---मुनिवर
अगस्त्यजी ने रामकथा विस्तार से कही, जिसको महेश्वर ने परम सुख मानकर सुना। फिर ऋषि
ने शिवजी से सुन्दर हरिभगति पूछी और शिवजी ने उनको अधिकारी पाकर ( रहस्यसहित ) भक्ति
का निरुपण किया।
कहत सुनत रघुपति गुन
गाथा। कछु दिन तहाँ रह गिरिनाथा।। मुनि सन विदा माँगि त्रिपुरारी। चल भवन संग दक्षकुमारी।।---अर्थ---श्रीरघुनाथजी
क गुणों की कथाएँ कहते-सुनते कुछ दिनों तक शिवजी वहाँ रहे। फिर मुनि से विदा माँगकर
शिवजी दक्षकुमारी सतीजी के साथ घर ( कैलास ) को चले।
तेहि अवसर भंजन महिभारा।
हरि रघुबंस लीन्ह अवतारा।।पिता वचन तजि राजु उदासी।। दंड़क वन विचरत अविनासी।।---उन्हीं
दिनों पृथ्वी का भार उतारने के लिये श्रीहरि ने रघुवंश में अवतार लिया था। वे अविनाशी
भगवान् उस समय पिता के वचन से राज्य का त्याग करके तपस्वी या दण्डकवन में विचर रहे
थे।।
हृदय विचारत जात हर
केहि विधि दरसनु होई। गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गये जान सबु कोई।।---अर्थ---शिवजी हृदय
में विचारते जा रहे थे कि भगवान् के दर्शन मुझे किस प्रकार हों। प्रभु ने गुप्त रूप
से अवतार लिया है, मेरे जाने से सब लोग जान जायेंगे।
संकर उर अति छोभु सती
न जानहिं मरमु सोइ। तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची।।---अर्थ---श्रीशंकरजी के मन
में इस बातको लेकर बड़ी खलबली उत्पन्न हो गयी, परन्तु सतीजी इस भेद को नहीं जानती थी।
तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में (भेद खुलने का) डर था, परन्तु दर्शन के लोभ
से उनके नेत्र ललचा रहे थे।
रावण मरन मनुज कर जाचा।
प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा।। जौं नहीं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा।।---अर्थ---रावण
ने ( ब्रह्माजी से ) अपनी मृत्यु मनुष्य के हाथ से माँगी थी। ब्रह्माजी के वचनों को
प्रभु सत्य करना चाहते हैं। मैं जो पास नहीं जाता हूँ तो बड़ा पछतावा रह जायगा। इस प्रकार
शिवजी विचार करते थे पर कोई भी युक्ति ठीक नहीं बैठती थी।
एहि बिधि भए सोचबस ईसा।
तेही समय जाइ जगदीसा।। लीन्ह नीच मारीचहिं संगा। भयउ तुरत सोइ कपट कुरंगा।।---अर्थ---इस
प्रकार महादेवजी चिन्ता के वश हो गये। उसी समय नीच रावण ने जाकरमरीच को साथ लिया और
वह ( मारीच ) तुरंत कपटमृग बन गया।
करि छलु मूढ़ हरि बैदेही।
प्रभु प्रभाउ तस विदित न तेही।। मृग बधि बंधु सहित हरि आये। आश्रमु देखि नयन जल छाए।।---अर्थ---मू्र्ख
( रावण ) ने छल करके सीताजी को हर लिया।उसे श्रीरामचन्द्रजी के वास्तविक प्रभाव का
कुछ पता न था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण सहित श्रीहरि आश्रम में आये और उसे खाली देखकर
(अर्थात् वहाँ सीताजी को न पाकर ) उनके नेत्रों में आँसू भर आये।
बिरह बिकल नर इव रघुराई।
खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई।। कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रकट बिरह दुख ताके।।---अर्थ---श्रीरघुनाथजी
मनुष्यों की भाँति बिरह से व्याकुल हैं और दोनो भाई वन में सीता को खोजते हुए फिर रहे
हैं। जिनके कभी कोई संजोग-वियोग नहीं है, उनमें प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया।
अति विचित्र रघुपति
चरित जानहिं परम सुजान। जे मतिमंद बिमोह बस हृदय धरहिं कछु आन।।---अर्थ---श्रीरघुनाथजी
का चरित्र बड़ा ही विचित्र है, उसको पहुँचे हुए ज्ञानीजन ही जानते हैं। वो मन्दबुद्धि
हैं, वे तो विशेषरूप से मोह के वश होकर हृदय में कुछ दूसरी ही बात समझ बैठते हैं।
संभु समय तेहि रामहिं
देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिषेषा।। भरि लोचन छबि सिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि
चिन्हारी।।---अर्थ---श्रीशिवजी ने उसी अवसर पर श्रीरामजी को देखा और उनके हृदय में
बहुत भारी आनन्द उत्पन्न हुआ। उन शोभा के समुद्र ( श्रीरामचन्द्रजी ) को शिवजी ने नेत्र
भरकर देखा, परन्तु अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया।
जय सच्चिदानन्द जग पावन।
अस कहि चलेउ मनोज नसावन।। चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता।।---अर्थ---जगत्
के पवित्र करनेवाले सच्चिदानन्द की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करनेवाले श्रीशिवजी
चल पड़े। कृपानिधान शिवजी बार-बार आनन्द से पुलकि होते हुए सतीजी के साथ चले जा रहे
थे।
सती सो दसा संभु कै
देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषा।। संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा।।---अर्थ---
सतीजी ने शंकरी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। ( वे मन-ही-मन
कहने लगीं कि ) शंकरजी की सारा जगत् वन्दना करता है, वे जगत् के ईश्वर हैं; देवता,
मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं।
तिन्ह नृपसुतहिं कीन्ह
परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा।। भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहूँ प्रीति उर रहति न रोकी।।---अर्थ---उन्होंने
एक राजपुत्र को सच्चिदानन्द परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न
हो गये कि अबतक उने हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती।
ब्रह्म जो व्यापक बिरज
अज अकल अनीह अभेद। सो कि देह धरि होई न जाहि न जानत बेद।।---अर्थ---जो ब्रह्म सर्वव्यापक,
मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदसहित है, और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या
वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है ?
बिष्णु जो सुर हित नर
तनुधारी। सोउ सर्बज्ञ जथा त्रिपुरारी।। खोजइ सो कि अज्ञ इव नारी। ज्ञानधाम श्रीपति
असुरारी।।---अर्थ---देवताओं के हित के लिये मनुष्य शरीर धारण करनेवाले जो विष्णु भगवान्
हैं, वे भी शिवजी की ही भाँति सर्वज्ञ हैं। वे ज्ञान के भण्डार, लक्ष्मीपति और असुरों
के शत्रु भगवान् विष्णु क्या अज्ञानी की तरह स्त्री को खोजेंगे ?
संभुगिरा पुनि मृषा
न होई। सिव सर्बग्य जान सब कोई।। अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध अपारा।।---अर्थ---फिर
शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के
मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव
नहीं होता था।
जद्यपि प्रगट न कहेउ
भवानी। हर अंतरजामी सब जानी।। सुनहि सती तब नारि सुभाऊ। संशय अस न धरिय उर काऊ।।---अर्थ---यद्यपि
भवानी जी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गये। उन्होंने कहा---हे
सती ! सुनो, तुम्हारा स्त्री स्वभाव है। ऐसा संदेह मन में कभी न रखना चाहिये।
जासु कथा कुंभज रिषि
गाई। भगति जासु मैं मुनिहिं सुनाई।। सोई मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनिधीरा।।---अर्थ---जिनकी
कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैने मुनि को सुनायी, वे वही मेरे इष्टदेव
श्रीरघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं।
मुनि धीर जोगी सिद्ध
संतत बिमल मन जेहि ध्यावहिं। कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहिं।। सोइ राम
व्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी। अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र हित रघुकुलमनी।।---ज्ञानी
मुनि, जोगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चि्त से जिसका ध्यान करते हैं तथा वेद पुराण और
शास्त्र 'नेति-नेति' कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक समस्त ब्रह्माण्डों
के स्वामी, मायापति नित्य परम स्वतंत्र ब्रह्मरूप भगवान् श्रीरामजी ने अपने भक्तों
के हित के लिये ( अपनी इच्छा से ) रघुकुल के मणि रूप में अवतार लिया है।
लाग न उर उपदेसु जदपि
कहेउ सिवँ बार बहु। बोले बिहसि महेसु हरिमाया बलु जानि जियँ।। यद्यपि शिवजी ने बहुत
बार समझाया, फिर भी सतीजी के मन में उनका उपदेश नहीं बैठा, तब महादेवजी के मन में भगवान्
की माया का बल जानकर मुस्कराते हुए बोले---
जौं तुम्हरे मन अति
संदेहू। तौं किन जाइ परीछा लेहू।। तब लगि बैठ अहउँ बटछाहीं। जब लगि तुम्ह ऐहहु मोहि
पाहीं।।---अर्थ---यदि तुम्हारे मन में बहुत संदेह है तो तुम जाकर परीक्षा क्यों नहीं
लेती ? जबतक तुम मेरे पास लौट आओगी तबतक मैं इसी बड़ की छाँह में बैठा हूँ।
जैसे जाइ मोह भ्रम भारी।
करेहु सो जतन बिबेक बिचारी।। चलीं सती सिव आयसु पाई। करहिं विचार करौं का भाई।।---अर्थ---जिस
प्रकार तुम्हारा यह अज्ञानजनित भारी भ्रम दूर हो, विवेक के द्वारा सोच-समझकर तुम वही
करना। शिवजी की आज्ञा पाकर सती चलीं और मन में सोचने लगी कि क्या करूँ ? कैसे परीक्षा
लूँ ?
इहाँ शंभु अस मन अनुमाना।
दच्छसुता कहुँ नहीं कल्याना।। मोरेहुँ कहे न संसय जाहीं। बिधि बिपरीत भलाई नाहीं।।---अर्थ--इधर
शिवजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि दक्षकन्या सती का कल्याण नहीं है। जब मेरे समझाने से भी सन्देह दूर नहीं होता
तब ( मालूम होता है ) विधाता ही उल्टे हैं, अब सती का कुशल नहीं है।
होइहि सोइ जो राम रचि
राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा।। अस कहि लगे जपन हरिनामा। गईं सती जहँ प्रभु सुखधामा।।---अर्थ---जो
कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा ( विस्तार बढ़ावे ) । मन में ऐसा
कहकर शिवजी भगवान् श्रीहरि का नाम जपने लगे और सतीजी वहाँ सुख के धाम प्रभु श्रीरामचन्द्रजी
थे।
पुनि-पुनि हृदय बिचारु
करि धरि सीता कर रूप। आगे होइ चलि पंथ तेहिं जेहिं आवत नरभूप।। सती बार-बार मन में
विचारकर सीताजी का रूप धारण करके उस मार्ग की ओर आगे होकर चलीं, जिससे ( सतीजी के विचारानुसार
) मनुष्यों के राजा रामचन्द्रजी आगे आ रहे थे।
लछिमन दीख उमाकृत बेषा।
चकित भए भ्रम हृदयँ बिषेषा।। कहि न सकत कछु अति गंभीरा। प्रभु प्रभाउ जानत मतिधीरा।।---अर्थ---सतीजी
के बनावटी वेष को देखकर लक्ष्मणजी चकित हो गये और उनके हृदय में बड़ा भ्रम हो गया। वे
बहुत गंभीर हो गये, कुछ कह नहीं सके। धीरबुद्धि लक्ष्मण प्रभु श्रीरघुनाथजी के प्रभाव
को जानते थे।
सती कपट जानेउ सुरस्वामी।
सबदरसी सब अन्तरजामी।। सुमिरत जाहि मिटइ अज्ञाना। सोइ सर्बग्य राम भगवाना।।---अर्थ---सबकुछ
देखनेवाले और सबकी हृदय की जाननेवाले देवताओं के स्वामी श्रीरामचन्द्रजी सती के कपट
को जान गये; जिनके स्मरणमात्र से अज्ञान का नाश हो जाता है, वही सर्वज्ञ भगवान् श्रीरामचन्द्रजी
हैं।
सती कीन्ह चह तहँहुँ
दुराऊ। देखहु नारि सुभाव प्रभाऊ।। निज माया बलु हृदय बखानी। बोले बिहसि रामु मृदु बानी।।---अर्थ---स्त्रीस्वभाव
का असर तो देखो कि वहाँ ( उन सर्वज्ञ भगवान् के सामने ) भी सतीजी छिपाव करना चाहती
हैं। अपनी माया के बल को हृदय में बखानकर, श्रीरामचन्द्रजी कोमल वाणी से बोले।