बालकाण्ड---
सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ।।
कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रणामु तुम्हारिहिं नाईं।।---अर्थ---सतीजी ने श्रीरघुनाथजी
के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाव किया और कहा---हे स्वामिमिन् । मैंने
कुछ भी परीक्षा नहीं ली, ( वहाँ जाकर ) आपकी ही तरह प्रणाम किया।
जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरे मन प्रतीति अति सोई।।
तब शंकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सब जाना।।---अर्थ---आपने जो कहा वह झूठ
नहीं हो सकता, मेरे मन में यह बड़ा ( पूरा ) विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा
और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया।
बहुरि राममायहिं सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा।
हरि इच्छा भावी बलवाना। हृद बिचारत संभु सुजाना।।---अर्थ---फिर श्रीरामचन्द्रजी के
माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा करके सती के मुँह से झूठ कहला दिया। सुजान शिवजी
ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छारूपी भावी प्रबल है।
सती कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा।। जौं
अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथ होई अनीति।।---अर्थ---सतीजी ने सीताजी का वेष
धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा बिषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि अब मैं
सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है।
परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।। प्रगटि न कहत
महेसु कछु हृदय अधिक संतापु।।---अर्थ---सती परम पवित्र हैं, इसलिये इन्हें छोड़ने भी
नहीं बनता और प्रेम करने में बड़ा पाप है। प्रकट करक महादेवजी कुछ भी नहीं कहते, परन्तु
उनके हृदय में बड़ा संताप है।
तब शंकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा।।
एहिं तन सतिहिं भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्प कीन्ह मन माहीं।।---अर्थ---तब शिवजी ने
प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों में सिर नवाया और श्रीरामजी का स्मरण करते ही उनके
मन में यह आया कि सती के साथ इस शरीर से मेरी ( पती-पत्नी रूप में ) भेंट नहीं हो सकती
और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया।
अस बिचारि शंकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा।। चलत
गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई।।---अर्थ---स्थिरबुद्धि शंकरजी ऐसा विचारकर
श्रीरघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर ( कैलास ) को चले। चलते समय सुन्दर आकाशवाणी
हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की।
अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना।। सुनि
नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा।।---अर्थ---आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतीज्ञा
कर सकता है ? आप श्रीरामचन्द्री के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान हैं। इस आकाशवाणी
को सुनकर सतीजी के मन में चिंता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा---
कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला।। जदपि
सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती।।---अर्थ---हे कृपालु ! कहिये, आपने
कौन सी प्रतीज्ञा की है ? हे प्रभो ! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी
ने बहुत प्रकार से पूछा परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा।
सती हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य। कीन्ह कपट मैं
शंभु सन नारि सहज जड़ अज्ञ।।---अर्थ---सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी
सब जान गये। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और नासमझ होती हैं।
जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति की रीति भलि। बिलग होइ
रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि।।---अर्थ---प्रीति की सुन्दर रीति देखिये कि जल भी ( दूध
के साथ मिलकर ) दूध के समान भाव बिकता है; परन्तु फिर कपटरूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग
हो जाता है ( दूध फट जाता है ) और स्वाद ( प्रेम ) जाता रहता है।
हृदय सोचु समझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहीं बरनी।। कृपासिंधु
शिव परम अगाधा। प्रगटन कहेउ मोर अपराधा।।---अर्थ--- अपनी करनी को याद करके सतीजी के
हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिंता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। ( उन्होंने
समझ लिया कि ) कि शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं, इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध
नहीं कहा।
संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी।।
निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपई अवाँ इव उर अधिकाई।।---अर्थ---शिवजी का रुख देखकर
सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया है और वह हृदय में व्याकुल हो उठीं।
अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता; परन्तु हृदय ( भीतर-ही-भीतर ) कुम्हार के आँवे
के समान अत्यन्त जलने लगा।
सतिहीं ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुन्दर सुखहेतू।। बरनत
पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा।।---अर्थ---बृषकेतू शिवजी ने सती को चिंतायुक्त
जानकर उन्हें सुख देने के लिये सुन्दर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार
के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे।
तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर कमलासन।। संकर
सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।---अर्थ---वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा
को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गये। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप
सँभाला। उनकी अखंड और अपार समाधि लग गयी।
सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहीं। मरमु न कोऊ जान
कछु जुग सम दिवस सिराहिं। मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं।।---अर्थ---तब सतीजी
कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था।
उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था।
नित नव सोच सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा।। मैं
जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना।।---अर्थ---सतीजी के हृदय में
नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र केपार कब जाऊँगी। मैंने जो
श्रीरघुनाथजी का अपमान किया और पति के वचनों को झूठ जाना।
सो फल मोहि विधाता दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा।।
अब बिधि अस बूझिय नहीं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही।।---अर्थ---उसका फल विधाता ने
मुझको दिया, जो उचित था, वही किया; परन्तु हे विधाता ! अब तुझे यह उचित नहीं है जो
शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिला रहा है।
कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महँ रामहिं सुमिर सयानी।।
जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन वबेद जसु गावा।।---अर्थ---सतीजी के हृदय की गलानि
कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमति सतीजी ने मन में श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा---हे
प्रभो ! यदि आप दीनयालु कहलाते हैं और बेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरनेवाले
हैं।
तौं मैं विनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी।। जौं
मोरे शिव चरण सनेहू। मन क्रम वचन सत् व्रत ऐहू।।---अर्थ---तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती
हूँ कि इस देह से जल्दी छुटकारा मिल जाय। यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और
यह प्रेम ( प्रेम का ) व्रत मन, वचन और कर्म ( आचरण ) से सत्य है।
तौ सबदरसी सुनिय प्रभु करउ सो बेगि उपाइ। होइ मरनु जेहि
बिनहिं श्रम दुसह बिपत्ति बिहाइ।।---अर्थ---तो हे सर्वदर्शी प्रभो ! सुनिये और शीघ्र
वह उपाय कीजिे जिससे मेरा मरण हो और बिना ही परिश्रम यह ( पति-परित्यागरूपी ) असह्य
विपत्ति दूर हो जाय।
एहि बिधि दुखित प्रजेसकुमारी। अकथनीय दारुन दुखु भारी।।
बीते संवत सहस सतासी। तजी समाधि संभु अबिनासी।।---अर्थ---दक्षसुता सतीजी इस प्रकार
बहुत दुःखी थीं, उनके दारुण दुःख का वर्णन नहीं किया जा सकता। सत्तासी हजार वर्ष बीत
जाने पर अविनासी शिवजी ने समाधि खोली।
राम नाम सिव सुमिरन लागे। जानेउ सती जगतपति जागे।। जाइ
संभु पद बंदनु कीन्हा। सन्मुख शंकर आसनु दीन्हा।।---अर्थ---शिवजी राम नाम का स्मरण
करने लगे, तब सतीजी ने जाना कि अब जगत् के स्वामी ( शिवजी ) जागे। उन्होंने जाकर शिवजी
के चरणों में प्रणाम किया। शिवजी ने उनको बैठने के लिेये सामने आसन दिया।
लगे कहन हरि कथा रसाला। दच्छ प्रजेस भए तेहि काला।। देखा
बिधि बिचारि सब लायक। दच्छहिं कीन्ह प्रजापति नायक।।---अर्थ---शिवजी भगवान् हरि की
रसमयी कथा कहने लगे। उसी समय दक्ष प्रजापति हुए। ब्रह्माजी ने सब प्रकार से देख-समझकर
दक्ष को प्रजापति नायक बना दिया।
बड़ अधिकार दक्ष जब पावा। अति अभिमानु हृदय तब आवा।। नहिं
कोऊ अस जनमा जग माहीं। प्रभुता पाइ जाहि मद नाहीं।।---अर्थ---जब दक्ष ने इतना बड़ा अधिकार
पाया तब उनके हृदय में अत्यन्त अभिमान आ गया। संसार में ऐसा कोई पैदा नहीं हुआ जिसको
प्रभुता पाकर मद न हुआ हो।
दच्छ लिये मुनि बोलि तब करन लगे बड़ जाग। नेवते सादर सकल
सुर जे पावत मख भाग।।---अर्थ---दक्ष ने सब मुनियों को बुला लिया और वे बड़ा यज्ञ करने
लगे। जो देवता यज्ञ का भाग पाते हैं, दक्ष ने उन सबको आदर सहित निमंत्रित किया।
किंनर नाग सिद्ध गंधर्बा। बधुन्ह समेत चले सुर सर्बा। बिष्णु
बिरंचि महेसु बिहाई। चले सकल सुर जान बनाई।।---अर्थ---( दक्ष का निमंत्रण पाकर ) किंनर,
नाग, सिद्ध, गन्धर्व और सब देवता अपनी-अपनी स्त्रियोंसहत चले। विष्णु, ब्रह्मा और महादेवजी
को छोड़कर सभी देवता अपना-अपना विमान सजाकर चले।
सतीं बिलोके ब्योम बिमाना। जात चले सुन्दर बिधि नाना।।
सुर सुन्दरी करहिं कल गाना। सुनत श्रवण छूटहिं मुनि ध्याना।।----अर्थ---सतीजी ने देखा
कि अनेकों प्रकार के सुन्दर विमान आकाश में चे जा रहे हैं। देव सुन्दरियाँ मधुर गान
कर रही हैं, जिन्हें सुनकर मुनियों का ध्यान छूट जाता है।
पूछेउ तब सिवँ कहेउ बखानी। पिता जग्य सुनि कछु हरषानी।
जौं महेसु मोहि आयसु देहीं। कछु दिन जाइ रहौं मिस एही।।---अर्थ---सतीजी ने ( विमानों
में देवताओं के जाने का कारण ) पूछा, तब शिवी ने सब बातें बतलायीं। पिता के यज्ञ की
बात सुनकर सती कुछ प्रसन्न हुईं और सोचने लगीं कि यदि महादेवजी मुझे आज्ञा दें, तो
इसी बहाने कुछ दिन पिता के घर जाकर रहूँ।
पति परित्याग हृदय दुखु भारी। कहइ न निज अपराध बिचारी।।
बोली सती मनोहर बानी। भय संकोच प्रेम रस सानी।।---अर्थ---क्योंकि उसके हृदय में पति
द्वारा त्यागी जाने का बड़ा भारी दुःख था, पर अपना अपराध समझकर वे कुछ कहती न थीं। आखिर
सतीजी भय, संकोच और प्रेमरस में सनी हुई मनोहर वाणी से बोलीं---
पिता भवन उत्सव परम जौं प्रभु आयसु होइ। तौं मैं जाउँ कृपायतन
सादर देखन सोइ।।---अर्थ---हे प्रभो ! मेरे पिता के घर बहुत बड़ा उत्सव है। यदि आपकी
आज्ञा हो तो हे कृपाधाम ! मैं आदरसहित उसे देखने जाऊँ।
कहेहु नीक मोरे मन भावा। यह अनुचित नहीं नेवत पठावा।। द्छ
सकल निज सुता बोलाईं। हमरे बयर तुम्हहु बिसराईं।।---शिवजी ने कहा--तुमने बात तो अच्छी
कही, यह मेरे मन को भी पसंद आयी। पर उन्होंने न्यौता नहीं भेजा, यह अनुचित है। दक्ष
ने अपनी सब लड़कयों को बुलाया है; किन्तु हमारे वैर के कारण उन्होंने तुमको भी भुला
दिया।
ब्रह्मसभा हम सन दुखु माना। तेहि ते अजहूँ करहिं अपमाना।।
जौं बिनु बोले जाहु भवानी। रहइ न सीलु सनेहु न कानी।।---अर्थ---एक बार ब्रह्मा की सभा
में हमसे अप्रसन्न हो गये थे, उसी से वे अब भी
हमारा अपमान करते हैं। हे भवानी ! तुम बिना बुलाये जाओगी तो न शील-स्नेह ही
रहेगा और न मान मर्यादा ही रहेगी।
जदपि मित्र प्रभु पितु गुर गेहा। जाइअ बिनु बोले न संदेहा।।
तदपि बिरोध मान जहँ कोई। तहाँ गये कल्यानु न होई।।---अर्थ---यद्यपि इसमें संदेह नहीं
कि मित्र, स्वामी, पिता और गुरु के घर बिना बुलाये भी जाना चाहिये तो भी जहाँ कोई विरोध
मानता हो, उसके घर जाने से कल्याण नहीं होता।
भाँति अनेक संभु समुझावा। भावी वश न ग्यानु उर आवा।। कह
प्रभु जाहु जो बिनहिं बोलाएँ। नहिं भलि बात हमारे भाएँ।।---अर्थ---शिवजी ने बहुत प्रकार
से समझाया, पर होनी वश सती के हृदय में बोध नहीं हुआ। फिर शिवजी ने कहा कि यदि बिना
बुलाये जाओगी, तो हमारी समझ से अच्छी बात न होगी।
करि देखा हर जतन बहु रहइ न दच्छकुमारि। दिए मुख्य गन संग
तब बिदा कीन्ह त्रिपुरारि।।---अर्थ--- शिवजी ने बहुत प्रकार से कहकर देख लिया, किन्तु
जब सती किसी भी प्रकार नहीं रुकीं तब महादेवजी ने अपने मुख्य गणों को साथ देकर उनको
विदा कर दिया।
पिता भवन जब गईं भवानी। दच्छ त्रास काहुँ न सनमानी।। सादर
भलेहिं मिली एक माता। भगिनीं मिलीं बहुत मुसुकाता।।---अर्थ---भवानी जब पिता (दच्छ)
के घर पहुँचीं, तब दक्ष के डर के मारे किसी ने उनकी आवभगत नहीं की, केवल एक माता भले
ही आदर से मिली। बहिनें बहुत मुस्कुराती हुई मिलीं।
दच्छ न कछु पूछी कुसलाता। सतिहिं बिलोकि जरे सब गाता।।
सतीं जाइ देखेउ तब जागा। कतहुँ न दीख संभु कर भागा।।---अर्थ---दक्षने तो उनकी कुछ कुशल
तक नहीं पूछी, सतीजी को देखकर उलटे उनके सारे अंग जल उठे। तब सतीजी ने जाकर यज्ञ देखा
तो वहाँ कहीं शिवजी का भाग दिखायी नहीं दिया।
तब चित्त चढ़ेउ जो शंकर कहेऊ। प्रभु अपमानु समुझि उर दहेऊ।।
पाछिल दुखु न हृदयँ उर व्यापा। जस यह भयेउ महा परितापा।।---अर्थ---तब शिवजी ने जो कहा
था वह उनकी समझ में आया। स्वामी का अपमान समझकर सती का हृदय जल उठा। पिछला ( पतिपरित्याग
का)
दुःख उसके हृदय में उतना नहीं व्यापा था, जितना महान् दुःख इस समय
( पति-अपमान के कारण ) हुआ।
जद्यपि जग दारुण दुःख नाना। सब ते कठिन जाति अवमाना।। समुझ
सो सतिहिं भयउ अति क्रोधा। बहुबिधि जननी कीन्ह प्रबोधा।।---अर्थ---जद्यपि इस संसार
मे बहुत कठिन दुःख हैं तथापि पति अपमान सबसे बढ़कर कठिन है। यह समझकर सतीजी को बड़ा क्रोध
हो आया। माता ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया बुझाया।
सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध। सकल सभहिं हठि
हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध।।---अर्थ---परन्तु उनसे शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे
उनके हृदय को कुछ भी शान्त्वना नहीं मिली। तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे
बचन बोलीं---
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा। कही सुनी जिन्ह शंकर निंदा।।
सो फल तुरत लहब सब काहूँ। भली-भाँति पछिताब पिताहूँ।।---अर्थ---हे सभासदों और सब मुनिश्वरों
! सुनो ! जिनलोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही
मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भली-भाँति पछताएँगे।
संत संभु श्रीपति अपवादा। सुनिय जहाँ तहँ असि मरजादा।।
काटिय ताहि जीभ जो बसाई। श्रवन मूदि न त चलिअ पराई।।---अर्थ---जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति
विष्णुभगवान् की निंदा सुनी जाय वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस ( निंदा
करनेवाले ) की जीभ काट ले और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाय।
जगदातमा महेसु पुरारी। जगत जनक सब के हितकारी।। पिता मंदमति
निंदत तेही। दच्छ सुक्र संभव यह देही।।---अर्थ---त्रिपुर दैत्य को मारनेवाले भगवान्
महेश्वर संपूर्ण जगत् के आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करनेवाले हैं। मेरा मंदबुद्धि
पिता उनकी निंदा करता है; और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है।
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू। उर धरि चन्द्रमौलि बृषकेतू।।
अस कि जोग अगिनि तनु जारा। भयउ सकल मख हाहाकारा।।---अर्थ---इसलिये चन्द्रमा को ललाट
पर धारण करने वाले बृषकेतू शिवजी को को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही
त्याग दूँगी। ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भष्म कर डाला। सारी यज्ञशाला
में हाहाकार मच गया।
सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस। जग्य बिधंस बिलोकि
भृगु रच्छा कीन्ह मुनीस।।---अर्थ---सती का मरण सुनकर शिवजी के गण यज्ञ विधंस करने लगे।
यज्ञ विध्वंस होते देख मुनीवर भृगुजी ने उसकी रक्षा की।
समाचार सब संकर पाए। बीरभद्र करि कोप पठाए।। जग्य विधंस
जाइ तिन्ह कीन्हा। सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा।।---अर्थ---ये सब समाचार शिवजी को
मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा। उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर
डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दण्ड) दिया।
भै जगबिदित दच्छ गति सोई। जसि कछु संभु बिमुख कै होई।।
यह इतिहास सकल जग जानी। ताते मैं संक्षेप बखानी।।---अर्थ---दक्ष की जगत्प्रसिद्ध वही
गति हुई जो शिवद्रोही को हुआ करती है। यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिये मैने
संक्षेप में वर्णन किया।