Friday, 18 November 2016

बालकाण्ड---

बालकाण्ड---

सतीं मरत हरि सन बरु मागा। जनम जनम शिव पद अनुरागा।। तेहि कारण हिमगिरि गृह जाईं। जनमीं पारबती तनु पाई।।---अर्थ---सती ने मरते मय हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में अनुराग रहे। इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया।


जब ते उमा सैल गृह जाईं। सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं।। जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे। उचित बास हिम भूधर दीन्हे।।---अर्थ---जबसे उमाजी हिमाचल के घर जन्मीं तबसे वहाँ सारी सिद्धियाँ एवं सम्पत्तियाँ छा गयीं। मुनियों ने जहाँ-तहाँ सुन्दर आश्रम बना लये और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिये।


सदा सुमन फल सहित सब द्रुम नव नाना जाति। प्रगटीं सुन्दर सैल पर मनि आकर बहु भाँति।।---अर्थ---उस सुन्दर पर्वत पर बहुत प्रकार के सब नये-नये वृक्ष सदा पुष्प-फलयुक्त हो गये और वहाँ बहुत तरह के मणियों की खानें प्रगट हो गयीं।


सरिता सब पुनीत जलु बहहिं। खग मृग मधुप सुखी सब रहहिं।। सहज बयरु सब जीवन्ह त्यागा। गिरि पर सकल करहिं अनुरागा।।---अर्थ---सारी नदियों में पवित्र जल बहता है और पक्षी, पशु, भ्रमर सभी सुखी रहते थे। सब जीवों ने अपना स्वाभाविक वैर छोड़ दिया और भवानी के पिता पर्वतराज पर सभी स्नेह रखते थे।


सोह सैल गिरिजा गृह आएँ। जिमि जनु रामभगति के पाएँ। नित नूतन मंगल गृह तासू। ब्रह्मादिक गावहिं जसु जासू।।---अर्थ---पार्वतीजी के आ जाने से पर्वत ऐसे शोभायमान हो रहा है जैसा रामभक्ति को पाकर भक्त शोभायमान होता है। उस ( पर्वतराज ) के घर नित्य नये-नये मंगलोत्सव होते हैं, जिसका ब्रह्माद यश गाते हैं।


नारद समाचार सब पाए। कौतुकहिं गिरि गेह सिधाए।। सैलराज बड़ आदर कीन्हा। पद पखारि बर आसनु दीन्हा।।---अर्थ---जब नारदजी ने ये समाचार सुना तो खेल-खेल में हिमाचल के घर पधारे। र्वतराज ने बड़ा आदर किया और चरण धोकर उनको उत्तम आसन दिया।



नारि सहित मुनि पद सिरु नावा। चरन सलिल सब भवन सिंचावा।। निज सौभाग्य बहुत गिरि बरना। सुता बोलि मेलि मुनि चरना।।---अर्थ---फिर अपनी स्त्री सहित मुनि के चरणों में सिर नवाया और उनके चरणोदक को सारे घर में छिड़काया। हिमाचल ने अपने सौभाग्य का बहुत बखान किया और पुत्री को बुलाकर मुनि के चरणों पर डाल दिया।



त्रिकालग्य सर्बग्य तुम्ह गति सर्बत्र तुम्हारि। कहहु सुता के दोष गुन मुनिबर हृदयँ बिचारि।।---अर्थ---( और कहा---) हे मुनिवर ! आप त्रिकालज्ञ और सर्बज्ञ हैं, आपकी सर्वत्र पहुँच है। अतः आप हृदयँ में विचारकर कन्या के दोष-गुण कहिये।



कह मुनि बिहसि गूढ़ मृदु बानी। सुता तुम्हारी सकल गुन खानि।। सुंदर सहज सुशील सयानी। नाम उमा अंबिका भवानी।।---अर्थ---नारद मुनि ने हँसकर रहस्ययुक्त कोमल वाणी से कहा---तुम्हारी कन्या सब गुणों की खान है। वह स्वभाव से ही सुन्दर सुशील और समझदार है। उमा, अम्बिका और भवानी इसके नाम हैं।



सब लच्छन सम्पन्न कुमारी। होइहि संतत पियहिं पियारी।। सदा अचल एहि कर अहिवाता। एहि ते जसु पैहहिं पितु माता।।---अर्थ---कन्या सब सुलच्छणों से सम्पन्न है, यह अपने पति को सदा प्यारी होगी। इसका सुहाग सदा अचल रहेगा और इससे इसे माता-पिता जस पावेंगे।



होइहि पूज्य सकल जग माहीं। एहि सेवत कछु दुर्लभ नाहीं।। एहि कर नामु सुमिरि संसारा। त्रिय चढ़िहहिं पतिब्रत असिधारा।।---अर्थ---यह सारे जगत में पूज्य होगी और इसकी सेवा करने से कुछ भी दुर्लभ न होगा। संसार में स्त्रियाँ इसका नाम स्मरण करके पतिव्रत रूपी तलवार की धार पर चढ़ जायेंगी।



सैल सुलच्छन सुता तुम्हारी। सुनहु जे अब अवगुण दुइ चारी।। अगुन अमान मातु पितु हीना। उदासीन सब संसय छीना।।---अर्थ---हे पर्वतराज ! तुम्हारी कन्या सुलच्छनी है। अब इसमें जो दो चार अवगुण हैं, उन्हें भी सुन लो। गुणहीन, मानहीन, माता-पिता-विहीन, उदासीन, संशयहीन ( लापरवाह ),



जोगी जटिल अकाम मन नगन अमंगल बेष। अस स्वामी एहि कह मिलहिं परी हस्त असि रेख।।---अर्थ---जोगी, जटाधारी, निष्कामहृदय, नंगा और अमंगल वेषवाला, ऐसा पति इसको मिलेगा। इसके हाथ में ऐसी ही रेखा पड़ी है।



सुनि मुनि गिरा सत्य जियँ जानी। दुख दंपतिहिं उमा हरषानी।। नारदहूँ यह भेद न जाना। दसा एक समुझब बिलगाना।।---अर्थ---नारद मुनि की वाणी सुनकर और उसको हृदय में सत्य जानकर पति-पत्नी ( हिमवान और मैना ) को दुःख हुआ और पार्वतीजी प्रसन्न हुईं। नारदजी ने भी इस रहस्य को नहीं जाना, क्योंकि सबकी बाहरी दशा एक सी होने पर भी भीतरी समझ भिन्न-भिन्न थी।



सकल सखी गिरिजा गिरि मैना। पुलक सरीर भरे जल नैना।। होई न मृषा देवरिषि भाषा। उमा सो वचनु हृदयँ धरि राखा।।---अर्थ---सारी सखियाँ, सती, पर्वतराज हिमाचल और मैना सभी के शरीर पुलकित थे और सभी के नेत्रों में जल भरा था। देवर्षि के वचन असत्य नहीं हो सकते, ( यह विचारकर ) पार्वती ने उन वचनों को हृदय में धारण कर लिया।



उपजेउ सिव पद कमल सनेहू। मिलन कठिन मन भा संदेहू।। जानि कुअवसरु प्रीति दुराई। सखी उछंग बैठ पुनि जाई।।---अर्थ---उन्हें शिवजी के चरण कमलों में स्नेह उत्पन्न हो आया, परन्तु मन में यह संदेह हुआ कि उनका मिलना कठिन है। अवसर ठीक न जानकर उमा ने अपने प्रेम को छिपा लिया और फिर वे सखी की गोद में जाकर बैठ गयी।



झूठि न होइ देवरिषि बानी। सोचहिं दंपति सखी सयानी।। उर धरि धीर कहइ गिरिराऊ। कहहु नाथ का करिअ उपाऊ।।---अर्थ---देवर्षि की वाणी झूठी न होगी, यह विचारकर हिमवान्, मैना और सारी चतुर सखियाँ चिन्ता करने लगीं। फिर हृदय में धीरज धरकर पर्वतराज ने कहा---हे नाथ ! कहिये, अब क्या उपाय किया जाय ?



कह मुनीस हिमवंत सुनु जो बिधि लिखा लिलार। देव दनुज नर नाग मुनि कोउ न मेटनिहार।।---अर्थ---मुनीश्वर ने कहा---हे हिमवान् ! सुनो, विधाता ने ललाट परर जो कुछ लिख दिया है, उसको देवता, दानव, मनुष्य, नाग और मुनि कोई भी नहीं मिटा सकते।



तदपि एक मैं कहउँ उपाई। होइ करैं जौं दैव सहाई।। जस बरु मैं बरनेउँ तुम्ह पाहीं। मिलिहिं उमहिं ततस संसय नाहीं।।---अर्थ---तो भी एक उपाय मैं बताता हूँ। यदि दैव सहायता करें तो वह सिद्ध हो सकता है। उमा को वर तो निःसंदेह वैसा ही मिलेगा जैसा मैने तुम्हारे सामने वर्णन किया है।



जे जे बर के दोष बखाने। ते सब सिव पहिं मैं अनुमाने।। जौं बिबाहु संकर सन होई। दोषहुँ गुन म कह सब कोई।।---अर्थ---परन्तु मैने वरके जो-जो दोष बतलाये हैं, मेरे अनुमान से वे सभी शिवजी में हैं। यदि शिवजी के साथ विवाह हो जाय तो दोषों को भी सब लोग गुणों के समन ही कहेंगे।



जौं अहि सेज सयन हरि करहिं। बुध कछु तिन्ह कर दोषु न धरहिं।। भानु कृसानु सर्ब रस खाहीं। तिन्ह कहँ मन्द कहत कोऊ नाहीं।।---अर्थ---जैसे विष्णुभगवान् सेज की नैया पर सोते हैं, तो भी बुद्धिमाान लोग उनपर कोई दोष नहीं लगाते। सूर्य और अग्निदेव अच्छे-बुरे सभी रसों का भक्षण करते हैं, परन्तु उनको कोई बुरा नहीं कहता।



सुभ अरु अशुभ सलिल सब बहई। सुरसरि कोउ अपुनीत न कहई।। समरथ कहँ नहिं दोषु गोसाईं। रवि पावक सुरसरि की नाईं।---अर्थ---गंगाजी में शुभ और अशुभ सब जल बहता है, पर कोई उन्हें अपवित्र नहीं कहता। सूर्य, अग्नि और गंगाजी की भाँति समर्थ को दोष नहीं लगता।



जौं अस हिसिषा करहिं नर जड़ बिबेक अभिमान। परहिं कलप भरि नरक महुँ जीव की ईस समान।।---अर्थ---यदि मूर्ख मनुष्य ज्ञान के अभिमान से इस प्रकार होड़ करते हैं तो वे कल्प-भर के लिये नरक में पड़ते हैं। भला कहीं जीव भी ईश्वर के समान (सर्वथा स्वतंत्र) हो सकता है ?



सुरसरि जल कृत बारुनि जाना। कबहुँ न संत करहिं तेहि पाना।। सुरसरि मिले सो पावन जैसें। ईस अनीसहिं अंतरु जैसे।।---अर्थ---गंगाजल से भी बनायी हुई मदिरा को जानकर संतलोग कभी उसका मान नहीं करते। पर वही गंगाजी में मिल जाने पर जैसे पवित्र हो जाती है, ईश्वर और जीव में भी वैसा ही भेद है।



संभु सहज समरथ भगवाना। एहि बिबाहँ सब बिधि कल्याना।। दुरााध्य पै अहहिं महेसू। आसुतोष पुनि किएँ कलेसू।।---अर्थ---शिवजी सहज ही समर्थ हैं, क्योंकि वे भगवान् हैं। इसलिे इस विवाह में ब प्रकार कल्याण है। परन्तु महादेवजी की अराधना बड़ी कठिन है, फिर भी क्लेश (तप) करने से वे बहुत जल्द संतुष्ट हो जाते हैं।



जौं तपु करै कुमारि तुम्हारी। भाविउ मेटि सकहिं त्रिपुरारी।। जद्यपि बर अनेक जग माहीं। एहि कहँ शिव तजि दूसर नाहीं।।---अर्थ---यदि तुम्हारी कन्या तप करे तो त्रिपुरारि महादेवजी होनहार को मिटा सकते हैं। यद्यपि संसार में अनेक वर हैं, पर इसके लिये शिवजी को छोड़कर दूसरा वर नहीं है।



बरदायक प्रनतारति भंजन। कृपासिंधु सेवक मन रंजन।। इच्छित फल बिनु सिव अवराधें। लहिअ न कोटि जोग जप साधें।।---अर्थ---शिवजी वर देनेवाले, शरणागतों के दुःखों के नाश करनेवाले, कृपा के समुद्र और सेवकों के मन को प्रसन्न करनेवाले हैं। शिवजी की अराधना किये बिना करोड़ों योग और जप करने पर भी वांछित फल नहीं मिलता।



अस कहि नारद सुमिरि हरि गिरिजहिं दीन्ह असीस। होइहिं यह कल्यान अब संसय तजहु गिरीस।।---अर्थ---ऐसा कहकर भगवान् का स्मरण करके नारदजी ने पार्वती को आशीर्वाद दिया। ( और कहा कि---) हे पर्वतराज ! तुम संदेह का त्याग कर दो, अब यह कल्याण ही होगा।


कहि अस ब्रह्मभवन मुनि गयउ। आगिल चरित सुनहु जस भयऊ।। पतिहि एका्त पाइ कह मैना। नाथ न मैं समुझे मुनि बैना।।--अर्थ---यों कहकर नारद मुनि ब्रह्मलोक को चले गये। अब आगे जो चित्र हुआ उसे सुनो। पति को एकान्त में पाकर मैना ने कहा---हे नाथ ! मैने मुनि के वचनों का अर्थ नहीं समझा।



जौं घरु बरु कुलु होइ अनूपा। करिअ बिबाहु सुता अनुरूपा।। न त कन्या बरु रहउ कुआरी। कंत उमा मम प्राणपिआरी।।---अर्थ---यदि हमारी कन्या के अनुकूल घर, वर और कुल उत्तम हो तो विवाह कीजिये। नहीं तो लड़की चाहे कुमारी ही रहे ( मैं अयोग्य वर के साथ उसका विवाह नहीं करना चाहती ); क्योंकि हे स्वामिन् ! पार्वती मुझे पार्वती प्राणों के समान प्यारी है।



जौं न मिलिहिं बरु गिरिजहिं जोगू। गिरि जड़ सहज कहिहिं सब लोगू।। सोइ बिचारि पति करेहु बिबाहू। जेेहि न बहोरि होइ उर दाहू।---यदि पार्वती  के योोग्य वर न मिला तो सब लोग कहेंगे कि पर्वत स्वभाव से ही जड़ ( मूर्ख ) होते हैं। हे स्वामी ! इस बात को विचारकर ही विवाह कीजियेगा, जिससे बाद में हृदय में कोई संताप न रहे।



अस कहि परी चरन धरि सीसा। बोले सहित सनेह गिरीसा।। बरु पावक प्रगटै ससि माहीं। नारद बचनु अन्यथा नाहीं।।---अर्थ---इस प्रकार कहकर मैना पति के चरणों पर मस्तक रखकर गिर पड़ीं।.  तब हिमवाान् ने प्रेम से कहा---चाहे चन्द्रमा  में अग्नि प्रकट हो जाय, पर नारदजी के वचन झूठे नहीं हो सकते।



प्रिया सोचु परिहरहु सबु सुमिरहु श्रीभगवान। पारबतिहिं निरमयउ जेहिं सोई करिहिं कल्यान।।---अर्थ---हे प्रिये ! सब सोच छोड़कर श्रीभगवान् का स्मरण करो। जिन्होंने पार्वती को रचा है, वे ही कल्याण करेंगे।




अब जौं तुम्हहिं सुता पर नेहू। तौं अस जाइ सिखावनु देहू।। करै सो तपु जेहि मिलहिं महेसू। आन उपायँ न मिटहिं कलेसू।।---अर्थ---अब यदि तुम्हें कन्या पर प्रेम है तो जाकर उसे यह शिक्षा दो कि वह ऐसा तप करे जिसे शिवजी मिल जायँ। दूसरे उपाय से यह क्लेश नहीं मिटेगा।




नारद बचन सगर्भ सहेतू। सुन्दर सब गुण बिधि बृषकेतू।।---अर्थ---नारदजी के वचन रहस्य से युक्त और सकारण है। शिवजी समस्त सुन्दर गुणों के भण्डार हैं। यह विचारकर तुम (मिथ्या) सन्देह को छोड़ दो। शिवजी सभी तरह से निष्कलंक हैं।




सुनि पति बचन हरषि मन माहीं। गई तुरत उठि गिरिजा पाहीं।। उमहिं बिलोकि नयन भरे बारी। सगित सनेह गोद बैठारी।---अर्थ---पति के बचन सुन मन में प्रसन्न होकर मैना उठकर तुरन्त पार्वती के पास गयीं। पार्वती को देखकर उनके आँखों में आँसू भर आये। उसे स्नेह के साथ गोद में बैठा लिया।



बारहिं बार लेति उर लाई। गद्गद् कंठ न कछु कहि जाई।। जगत मातु सर्बज्ञ भवानी।। मातु सुखद बोली मृदु बानी।।---अर्थ---फिर बार-बार उसे हृदय से लगाने लगीं। प्रेम से मैना का का गला भर आया, कुछ कहा नहीं जाता। जगजननी भवानीजी तो सब कुछ जाननेवाली हैं। ( माता के मन की दशा को जानकर ) वे माता को सुख देनेवाली कोमल वाणी से बोलीं---



सुनहि मातु मैं दीख अस सपन सुनावउँ तोहि। सुन्दर गौर सुविप्रवर अस उपदेसेउ मोहि।।---अर्थ---माँ ! सुन, मैं तुझे सुनाती हूँ; मैने ऐसा स्वप्न देखा है कि मुझे एक सुन्दर गौरवर्ण श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ऐसा उपदेश दिया है---



करहि जाइ तपु सैलकुमारी। नारद कहा सो सत्य बिचारी।। मातु पितहि पुनि यह मत भावा। तपु सुखप्रद दुख दोष नसावा।।---अर्थ---हे पार्वती ! नारदजी ने जो कहा है, उसे सत्य समझकर तू जाकर तप कर। फिर यह बात तेरे माता-पिता को अच्छी लगी है। तप सुख देनेवाला और दुःख-दोष का नाश करनेवाला है।



तपबल रचइ प्रपंच विधाता। तपबल बिष्णु सकल जग त्राता।। तपबल संभुकरहिं संघारा। तपबल सेषु धरइ महिभारा।।---अर्थ---तप के बल से ही ब्रह्मा संसार को रचते हैं और तप के बल से ही विष्णु सारे जगत् का पालन करते हैं, तप के ही बल से शंभु ( रौद्ररूप से जगत् का ) संहार करते हैं और तप के ही बल से शेषजी पृथ्वी का भार ग्रहण करते हैं।




तप अधार सब सृष्टि भवानी। करहि जाइ तप अस जियँ जानी। सुनत बचन बिसमित महतारी। सपन सुनायउ गिरिहिं हँकारी।।---अर्थ---हे भवानी ! सारी सृष्टि तप के ही आधार पर है ऐसा जी में जानकर तू तप कर। यह बात सुनकर माता को बड़ा अचरज हुआ और उसने हिमवान को बुलाकर वह स्वप्न सुनाया।



मातु पितहिं बहुबिधि समुझाई। चलीं उमा तप हित हरषाईं।। प्रिय परिवार पिता अरु माता। भए बिकल मुख आव न बाता।।---अर्थ---माता-पिताजी को बहुत तरह से समझाकर बड़े हर्ष से पार्वतीजी तप करने के लिये चलीं।। प्यारे कुटुम्बी, पिता और माता सब व्याकुल हो गये। किसी के मुँह से बात नहीं निकलती।



बेदसिरा मुनि आइ तब सबहिं कहा समुझाई। पारबती महिमा सुनत रहे प्रबोधहिं पाइ।।---अर्थ---तब वेदशिरा मुनि ने आकर सबको समझाकर कहा। पारबतीजी की महिमा सुनकर सबको समाधान हो गया।



उर धरि उमा प्राणपति चरना। जाइ बिपिन लागीं तप करना।। अति सुकुमर न तनु तप जोगू। पति पद सुमिरि तजेउ सबु भोगू।।---अर्थ---प्राणपति ( शिवजी ) के चरणों को हृदय में धारण करके पार्वतीजी वन में जाकर तप करने लगीं। पार्वतीजी का अत्यन्त सुकुमार शरीर तप के योग्य नहीं था, तो भी पति के चरणों का स्मरण करके उन्होंनें सब खुख-सुविधाओं का त्याग कर दिया।



नित नव चरऩ उपज अनुरागा। बिसरी देह तपहिं मनु लागा।। संबत सहस मूल फल खाए। सागु खाइ सत बरस गवाँए।।---अर्थ---स्वामी के चरणों में नित्य नया अनुराग उत्पन्न होने लगा और तप में ऐसा मन लगा कि देह का ध्यान ही न रहा। एक हजार वर्षों तक उन्होंने फल-मूल खाये, फिर सौ वर्ष साग खाकर बिताये।



कछु दिन भोजनु बारि बतासा। किए कठिन कछु दिन उपबासा।। बेल पाती महि परइ सुखाई। तीनि सस संबत सोइ खाई।।---अर्थ---कुछ दिन जल और वायु का भोजन किया और  कुछ दिन कठोर उपवास किये। जो बेलपत्र गिरकर पृथ्वी पर गिरते थे, तीन हजार वर्ष तक उन्हीं को खाया।



पुनि परिहरे सुखानेउ परना।उमहिं नाम तब भयउ अपरना।। देेखि उमहिं तप खीन शरीरा। ब्रह्मगिरा भै गगन गभीरा।।---अर्थ---फिर सूखे पत्ते भी छोड़ दिये, तभी पार्वती का नाम 'अपर्णा' हुआ। तप से उमा का शरीर क्षीण देखकर आकाश से गम्भीर ब्रह्मवाणी हुई।



भयउ मनरथ सुफल तब सुनु गिरिराजकुमारि। परिहरि दुसह कलेस सब अब मिलिहहिं त्रिपुरारि।।---अर्थ--- हे पर्वतराज की बेटी ! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे।



अस तपु काहु न कीन्ह भवानी। भए अनेक धीर मुनि ग्यानी।। अब उर धरहु ब्रह्म बर बानी। सत्य सदा संतत सुचि जानी।।---अर्थ--- हे पर्वतराजकुमारी ! सुन, तेरा मनोरथ सफल हुआ। तू अब सारे असह्य क्लेशों को ( कठिन तप को ) त्याग दे। अब तुझे शिवजी मिलेंगे।



आवै पिता बोलावन जबहिं। हठ परिहरि घर जायहु तबहिं।। मिलहिं तबहिं जब सप्त रिषीसा। जानेहु तब प्रमान बागीसा।।---जब तेरे पिता बुलाने को आवें, तब हठ छोड़कर घर चली जाना और जब तुम्हें सप्तर्षि मिलें तब इस वाणी को ठीक समझना।



सुनत गिरा बिधि गगन बखानी। पुलक गात गिरिजा हरषानी।। उमा चरित सुन्दर मैं गावा। सुनहु संभु कै चरित सुहावा।।---अर्थ---आकाश से कही हुई ब्रह्मा की वाणी को सुनते ही पार्वतीजी प्रसन्न हो गयीं और (हर्ष के मारे) उनका शरीर पुलकित हो गया। ( याज्ञवल्क्यजी भरद्वाजजी से बोले कि ) मैने पार्वती का सुन्दर चरित्र सुनाया, अब शिवजी का सुहावना चरित्र सुनो।




जब ते सती जाइ तनु त्यागा। तब ते सिव मन भयउ बिरागा।। जपहिं सदा रघुनायक नामा। जहँ-तहँ सुनहिं राम गुन ग्रामा।।---अर्थ---जबसे सती ने जाकर शरीर त्याग किया, तबसे शिवजी के मन में वैराग्य हो गया। वे सदा श्रीरघुनाथजी का नाम जपने लगे और जहाँ-तहाँ श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की कथाएँ सुनने लगे।



चिदानंद सुखधाम सिव बिगत मोह मद काम। बिचरहिं महि धरि हृदयँ हरि सकल लोक अभिराम।।---अर्थ---चिदानंद, सुख के धाम, मोह, मद और काम से रहित शिवजी संपूर्ण लोकों को आनन्द देने वाले भगवान् श्रीहरि को हृदय में धारण कर ( भगवान् के ध्यान में मस्त हुए ) पृथ्वी पर विचरने लगे।



कतहुँ मुनिन्ह उपदेसहिं ज्ञाना। कतहुँ राम गुन करहिं बखाना।। जदपि अकाम तदपि भगवाना। भगत बिरह दुख दुखित सुजाना।।---अर्थ---वे कहीं मुनियों को ज्ञान का उपदेश करते और कहीं श्रीरामचन्द्रजी के गुणों का वर्णन करते थे। यद्यपि शिवजी सब कुछ जाननेवाले और निष्काम हैं, तो भी वे भगवान् अपने भक्त ( सती ) के वियोग के दुःख से दुःखी हैं।



एहि बिधि गयउ कालु बहु काल बहु बीती। नित नै होई राम पर प्रीती।। नेमु प्रेमु संकर कर देखा। अबिचल हृदय भगति कर रेखा।।---अर्थ---इस प्रकार बहुत समय बीत गया। श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में नित नयी प्रीति हो रही है। शिवजी केे ( कठोर ) नियम, ( अनन्य ) प्रेम और उनके हृदय में भक्ति की  अटल टेक को ( जब श्रीरामचन्द्रजी ) ने देखा,




प्रगटे राम कृतग्य कृपाला। रूप सील निधि तेज बिसाला।। बहु प्रकार संकरहिं सराहा। तुम्ह बिनु अस ब्रतु को निरबाहा।।---अर्थ---तब कृतज्ञ, कृपालु, रूप और शील के भण्डार, महान् तेजपुंज भगवान् श्रीरामचन्द्रजी प्रकट हुए। उन्होंने बहुत तरह से शिवजी की सराहना की और कहा कि आपके बिना ऐसा ( कठिन ) व्रत कौन निबाह सकता है।



बहुबिधि राम सिवहिं समुझावा। पारबती कर जनमु सुनावा।। अति पुनीत गिरिजा कै करनी। बिस्तर सहित कृपानिधि बरनी।।---अर्थ---श्रीरामचन्द्रजी ने बहुत प्रकार से शिवजी को समझाया और पार्वतीजी का जन्म सुनाया। कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी ने विस्तारपूर्वक पार्वतीजी की अत्यन्त पवित्र कार्य का वर्णन किया।



अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु। जाइ बिबाहहु सैलजहिं यह मोहि मागें देहु।।---अर्थ---( फिर उन्होंने शिवजी से कहा---) हे शिवजी ! यदि मुझपर आपका स्नेह है तो अब आप मेरी विनती सुनिये। मुझे यह माँगे दीजिये कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें।



कह सिव जदपि उचित अस नाहीं। नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं।। सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा। परम धरमु यह नाथ हमारा।।---अर्थ---शिवजी ने कहा---यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती। हे नाथ ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ।



मातु पिता गुर प्रभु कै बानी। बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी।। तुम्ह सब भाँति परम हितकारी। अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी।।---अर्थ---माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही बिचारे शुभ समझकर करना चाहिये। फिर आप तो मेरे सब प्रकार से परम हितकारी हैं। हे नाथ ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है।