कहउँ राम गुन गाथ भरद्वाज सादर सुनहु। भव भंजन रघुनाथ भजु तुलसी तजि मान मद।।___अर्थ___[ याज्ञवल्क्यजी कहते हैं___] हे भरद्वाज ! मैं श्रीरामचन्द्रजी के गुणों की कथा कहता हूँ, तुम आदर से सुनो। तुलसीदासजी कहते हैं___मान और मद को छोड़कर आवागमन का नाश करने वाले रघुनाथजी को भजो।
हिमगिरि गुहा एक अति पावनि। बह समीप सुरसरि सुहावनि।। आश्रम परम पुनीत सुहावा। देखि देवरिषि मन अति भावा।।___अर्थ___हिमालय पर्वत में एक बड़ी पवित्र गुफा थी। उसके समीप ही सुन्दर गंगाजी बहती थीं। वह परम पवित्र सुन्दर आश्रम देखने पर नारदजी के मन को बहुत ही सुहावना लगा।
निरखि सैल सरि बिपिन बिभागा। भयउ रमापति पद अनुरागा।। सुमिरत हरिहि श्राप गति बाधी। सहज बिमल मन लागि समाधी।।___अर्थ___पर्वत, नदी और वन के [ सुन्दर ] विभागों को देखकर नारदजी का लक्ष्मीकान्त भगवान् के चरणों में प्रेम हो गया। भगवान् का स्मरण करते ही उन ( नारदमुनि ) के शाप की ( जो शाप उन्हें दक्षप्रजापति ने दिया था और जिसके कारण वे एक स्थान पर नहीं ठहर सकते थे ) गति रुक गयी और मन के स्वाभाविक ही निर्मल होने से उनकी समाधि लग गयी।
मुनि गति देखि सुरेस डेराना। कामहि बोलि कीन्ह सनमाना।। सहित सहाय जाहु मम हेतू। चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू।।___अर्थ___नारदमुनि की [ यह तपोमयी ] स्थिति देखकर देवराज इन्द्र डर गया। उसने कामदेव को बुलाकर आदर_सत्कार किया [ और कहा कि ] मेरे [ हित के ] लिये तुम अपने सहायकों सहित [ नारद की समाधि भंग करने को ] जाओ। [ यह सुनकर ] मीनध्वज कामदेव मन में प्रसन्न होकर चला।
सुनासीर मन महुँ अति त्रासा। चहत देवरिषि मम पुर बासा।। जे कामी लोलुप जग माहीं। कुटिल काक इव सबहिं डेराहीं।।___अर्थ___ इन्द्र के मन में यह डर हुआ कि देवर्षि नारद मेरी पुरी ( अमरावती ) का निवास ( राज्य ) चाहते हैं। जगत् में जो कामी और लोभी होते हैं, वे कुटिल कौए की तरह सबसे डरते हैं।
सूख हाड़ लै भाग सठ स्वान निरखि मृगराज।छीनि लेइ जनि जान जड़ तिमि सुरपतिहिं न लाज।।___अर्थ____जैसे मूर्ख कुत्ता सिंह को देखकर सूखी हड्डी लेकर भागे और वह मूर्ख यह समझे कि कहीं उस हड्डी को सिंह छीन न ले, वैसे ही इन्द्र को [ नारदजी मेरा राज्य छीन लेंगे, ऐसा सोचते ] लाज नहीं आयी।
तेहि आश्रमहिं मदन जब गयऊ। निज मायाँ बसंत निरमयऊ।। कुसुमित बिबिध बिटप बहुरंगा। कूजहिं कोकिल गुंजहिं भृंगा।।___अर्थ___जब कामदेव उस आश्रम में गया, तब उसने अपनी माया से वहाँ वसंत_ऋतु को उत्पन्न किया। तरह_तरह के वृक्षों पर रंग_बिरंगे फूल खिल गये, उन पर कोयले दूर वे लगीं और भौंरे गुंजार करने लगे।
चली सुहावनि त्रिबिध बयारी। काम कृसानु बढ़ावनिहारी।। रंभादिक सुर नारि नबीना। सकल असमसर कला प्रबीना।।___अर्थ___तीनों प्रकार की सुहावनी पवन चलने लगीं जो कामाग्नि को बढ़ानेवाली है। रम्भा आदि युवा देवांगनाएँ जो सब कामकलाओं में चतुर हैं,
करहिं गान बहुत तान तरंगा। बहुबिधि क्रीड़हिं पानि पतंगा।। देखि सहाय मदन हरषाना। कीन्हेसि पुनि प्रपंच बिधि नाना।।___अर्थ____वे अनेक प्रकार की तान भरकर लय से जाने लगीं और हाथ में गेंद लेकर बहुत प्रकार से खेलने लगीं। अपने सहायकों को देखकर कामदेव प्रसन्न हुआ, उसने अनेक प्रकार के छल किये।
कामकला कछु मुनिहि न व्यापी। निज भयँ डरेउ मनोभव पापी।। सीम कि चाँपि सकइ कोउ तासू। बड़ रखवार रमापति जासू।।___अर्थ___जब कामदेव की माया का प्रभाव मुनि पर पर कुछ भी न हुआ, तब वह पापी अपने भय से आपही डर गया। क्या उसकी सीमा को कोई दबा सकता है ? जिसके बड़े रक्षक लक्ष्मीकान्त भगवान हों।
सहित सहाय सभीत अति, मानि हारि मन मैन। गहेसि जाइ मुनि चरन तब, कहि सुठि आकर बैन।।___ अर्थ___अपने सहायकों सहित कामदेव ने बहुत ही डरकर मन में हार मानकर दीन वचन कहते हुए नारदजी के चरण पकड़ लिये।
भयउ न नारद मन कछु रोषा। कहि प्रिय वचन काम परितोषा।। नाइ चरन सिरु आयसु पाई। गयउ मदन तब सहित सहाई।।___अर्थ___नारदमुनि के मन में कुछ क्रोध न हुआ और उन्होंने मीठे वचन कहकर कामदेव को संतुष्ट किया। तब कामदेव अपने सहायकों सहित मुनि के चरणों में सिर मिलाकर आज्ञा पाकर देवतालोग को चला गया।
मुनि सुसीलता आपनि करनी। सुरपति सभाँ जाइ सब बरनी।। सुनि सब कें मन अचरजु आवा। मुनिहिं प्रसंसि हरिहिं सिरु नावा।।___अर्थ___देवराज इन्द्र की सभा में जाकर उसने मुनि की सुशीलता और अपनी करतूत सब कही, जिसे सुनकर सबके मन में आश्चर्य हुआ और उन्होंने मुनि की बड़ाई करके श्रीहरि को सिर नवाया।
तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं।। मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए।।___अर्थ___तब नारदजी शिवजी के पास गये। उनके मन में इस बात का अहंकार हो गया कि हमने कामदेव को जीत लिया। उन्होंने कामदेव के चरित्र शिवजी को सुनाये और महादेवजी ने उन ( नारदजी ) को अत्यन्त प्रिय जानकर [ इस प्रकार ] शिक्षा दी___
बार बार बिनवउँ मुनि तोही। जिमि यह कथा सुनायहु मोही।। तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूँ। चलेहुँ प्रसंग दुराएहु तबहूँ।।___अर्थ___हे मुनि ! मैं तुमसे बार_बार विनती करता हूँ कि जिस तरह यह कथा तुमने मुझे सुनायी है, उस तरह भगवान् श्रीहरि को कभी मत सुनाना। चर्चा भी चले तब भी इसको छिपा जाना।
संभु दीन्ह उपदेश हित नहिं नारदहि सोहान। भरद्वाज कौतुक सुनहु हरि इच्छा बलवान।।___अर्थ___यद्यपि शिवजी ने यह हित की शिक्षा दी, पर नारदजी को वह अच्छी न लगी। हे भरद्वाज ! अब कौतुक ( तमाशा ) सुनो। हरि की इच्छा बड़ी बलवान् है।
राम कीन्ह चाहहिं सोई होई। करै अन्यथा अस नहिं कोई।। संभु बचन मुनि मन नहिं भाए। तब बिरंचि के लोक सिधाए।।___अर्थ___श्रीरामचन्द्रजी जो करना चाहते हैं, वही होता है, ऐसा कोई नहीं जो उसके विरुद्ध कर सके। श्रीशिवजी के वचन नारदजी के मन को अच्छे नहीं लगे, तब वे वहाँ से ब्रह्मलोक को चल दिये।
एक बार करतल बर बीना। गावत हरि गुन गान प्रबीना। छीरसिंधु गवने मुनिनाथा। जहँ बस श्रीनिवास श्रुतिमाथा।।___अर्थ___एक बार गानविद्या में निपुण मुनिनाथ नारदजी हाथ में सुन्दर वीणा लिये, हरिगुण जाते हुए क्षीरसागर को गये, जहाँ वेदों के मस्तकस्वरूप ( मूर्तिमान् वेदान्ततत्व ) लक्ष्मीश्रीनिवास भगवान् श्रीनारायण रहते हैं।
हरषि मिले उठि रमानिकेता। बैठे आसन रिषिहि समेता।। बोले बिहसि चराचर राया। बहुते दिनन कीन्ह मुनि दाया।।___अर्थ____रमानिवास भगवान् उठकर बड़े आनन्द से उनसे मिले और नारदजी के साथ आसन पर बैठ गये। चराचर के स्वामी भगवान् हँसकर बोले___हे मुनि ! आज आपने बहुत दिनों पर दया की।
कामचरित नारद सब भाषे। जद्यपि प्रथम बरजि सिवँ राखे।। अति प्रचंड रघुपति कै माया। जेहि न मोह अस को जग जाया।।___अर्थ___यद्यपि शिवजी ने उन्हें पहले से ही बरज रखा था, तो भी नारदजी ने कामदेव का सारा चरित्र भगवान् को कह सुनाया। श्रीरघुनाथजी की माया बड़ी ही प्रबल है। जगत् में ऐसा कौन जन्मा है जिसे वह मोहित न कर दे।
रूख बदन करि बचन मृदु बोले श्रीभगवान। तुम्हरे सुमिरन तें मिटहिं मोह, मार, मद, मान।।____अर्थ____भगवान् रूखा मुँह करके कोमल वचन बोले___हे मुनिराज ! आपका स्मरण करने से दूसरों के मोह, काम, मद और अभिमान मिट जाते हैं [ फिर आपके लिये तो कहना ही क्या है ? ]
सुनु मुनि मोह होइ मन ताकें। ग्यान बिराग हृदय नहिं जाकें। ब्रह्मचरज ब्रत रत मतिधीरा। तुम्हहि का करइ मनोभव पीरा।।___अर्थ___हे मुनि ! सुनिये, मोह तो उसके मन में होता है जिसके हृदय में ज्ञान_वैराग्य नहीं है। आप तो ब्रह्मचर्यव्रत में तत्पर और बड़े धीरबुद्धि हैं। भला, कहीं आपको भी कामदेव सता सकता है।
नारद कहेउ सहित अभिमाना। कृपा तुम्हारि सकल भगवाना।। करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी।।___अर्थ___ नारदजी ने अभिमान के साथ कहा___भगवन् ! यह सब आपकी कृपा है। कृपानिधान भगवान् ने मन में विचारकर देखा कि इनके मन में गर्व के भारी वृक्ष का अंकुर पैदा हो गया है।
बेगि सो मैं डारिहउँ उखारी। पन हमार सेवक हितकारी। मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई।।___अर्थ___मैं उसे तुरंत ही उखाड़ फेकूँगा, क्योंकि सेवकों का हित करना हमारा प्रण है। मैं अवश्य ही वह उपाय करूँगा जिससे मुनि का कल्याण और मेरा खेल हो।
तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदय अहमिति अधिकाई।। श्रीपति निज माया तब प्रेरी। सुनहु कठिन करनी तेहि केरी।।___अर्थ___तब नारदजी भगवान् के चरणों में सिर नवाकर चले। उनके हृदय में अभिमान और भी बढ़ गया। तब लक्ष्मीपति भगवान् ने अपनी माया को प्रेरित किया। अब उसकी कठिन करनी सुनो।
बिरचेउ मग महुँ नगर तेहिं सत जोजन विस्तार। श्रीनिवासपुर तें अधिक रचना बिबिध प्रकार।।___अर्थ___ उस ( हरिमाया ) ने रास्ते में सौ योजन ( चार सौ कोस ) का एक नगर रचा। उस नगर की भाँति_भाँति रचनाएँ लक्ष्मीनिवास भगवान् विष्णु के नगर ( वैकुण्ठ ) से भी अधिक सुन्दर थीं।
बसहिं नगर सुंदर नर नारी। जनु बहु मनसिज रति तनु धारी। तेहिं पुर बसइ सीलनिधि राजा। अगनित हय गय सेन समाजा।।___अर्थ___उस नगर में ऐसे सुन्दर नर_नारी बसते थे मानो बहुत से कामदेव और [ उसकी स्त्री ] रति ही मनुष्य_शरीर धारण किये हुए हों। उस नगर में शीलनिधि नाम का राजा रहता था, जिसके यहाँ असंख्य घोड़े, हाथी और सेना के समूह ( टुकड़ियाँ ) थे।
सत सुरेस सम बिभव बिलासा। रूप तेज बल नीति निवासा।। बिस्वमोहिनी तासु कुमारी। श्री बिमोह जिसु रूपु निहारी।।___अर्थ___उसका वैभव और विलास सौ इन्द्रों के समान था। वह रूप, तेज और नीति का घर था। उसके विश्वविमोहिनी नाम की एक [ ऐसी रूपवती ] कन्या थी, जिसके रूप को देखकर लक्ष्मीजी भी मोहित हो जायँ।
सोइ हरिमाया सब गुन खानी। सोभा तासु कि जाइ बखानी।। करइ स्वयंवर सो नृपबाला। आए तहँ अगनित महिपाला।।___अर्थ___वह सब गुणों की खान भगवान् की माया ही थी। उसकी शोभा का वर्णन कैसे किया जा सकता है। वह राजकुमारी स्वयंवर करना चाहती थी, इससे वहाँ अगनित राजा आये हुए थे।
मुनि कौतुकी नगर तेहिं गयऊ। पुरबासिन्ह सब पूछत भयऊ।। सुनि सब चरित भूपगृह आए। करि पूजा नृप मुनि बैठाए।।___अर्थ___खिलवाड़ी मुनि नारदजी उस नगर में गये और नगरवासियों से उन्होंने सब हाल पूछा। सब समाचार सुनकर वे राजा के महल में आये। राजा ने पूजा करके मुनि को [ आसन पर ] बैठाया।
आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि। कहहु नाथ गुण दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि।।___अर्थ____[ फिर ] राजा ने राजकुमारी को लाकर नारदजी को दिखलाया [ और पूछा कि__] हे नाथ ! आप अपने हृदय में विचारकर इसके सब गुण_दोष कहिये।
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी। बड़ी बार लगी रहे निहारी।। लच्छन तासु बिलोकि भुलाने। हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने।।___अर्थ___उसके रूप देखकर मुनि वैराग्य भूल गये और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गये। उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आप को भी भूल गये और हृदय में हर्षित हुए, पर प्रकटरूप में उन लक्षणों को नहीं कहा।
जो एहि बरइ अमर सोइ होई। समरभूमि तेहि जीत न कोई।। सेवहिं सकल चराचर ताही। बरइ सीलनिधि कन्या जाही।___अर्थ___[ लक्षणों को सोचकर वे मन में कहने लगे कि ] जो इसे ब्याहेगा, वह अमर हो जायगा और रणभूमि में कोई उसे जीत न सकेगा। यह सीलनिधि की कन्या जिसको वरेगी, सब चर_अचर जीव उसकी सेवा करेंगे।
लच्छन सब बिचारि उर राखे। कछुक बनाइ भूप सन भाषे।। सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं। नारद चले सोच मन माहीं।।___अर्थ___सब लक्षणों को विचारकर मुनि ने अपने हृदय में रख लिया और राजा से कुछ अपनी ओर से बनाकर कह दिया। राजा से लड़की के सुलक्षण कहकर नारदजी चल दिये। पर उनके मन में यह चिंता थी कि___
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी। जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी।। जप तप कछु न होइ तेहि काला। हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला।।___अर्थ___मैं जाकर सोच_विचारकर अब वही उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझे ही वरे। इस समय जप_तप से कुछ हो नहीं सकता। हे विधाता ! मुझे यह कन्या किस तरह मिलेगी ?
एहि अवसर चाहिय परम सोभा रूप बिसाल। जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल।।___अर्थ___इस समय तो बड़ी भारी शोभा और विशाल ( सुन्दर ) रूप चाहिये, जिसे देखकर राजकुमारी मुझपर रीझ जाय और जयमाल [ मेरे गले में ] डाल दे।
हरि सन मागौं सुन्दरताई। होइहिं जात गहरु अति भाई। मोरें हित हरिसम नहिं कोऊ। एहि अवसर सहाय सोई होऊ।।___अर्थ___[ एक काम करूँ कि ] भगवान् से सुन्दरता माँगूँ; पर भाई ! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जायगी। किन्तु श्रीहरि के समान मेरा हितू भी कोई नहीं है, इसलिये इस समय वे ही मेरे सहायक हों।
बहुबिधि बिनय कीन्ह तेहि काला। प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला।। प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने। होइहिं काजु हिएँ हरषाने।।___अर्थ___उस समय नारदजी ने भगवान् की बहुत प्रकार से विनती की। तब लीलामय कृपालु प्रभु [ वहीं ] प्रकट हो गये। स्वामी को देखकर नारदजी के नेत्र शीतल हो गये और वे मन में बड़े ही हर्षित हुए कि अब तो काम बन ही जायगा।
अति आरति कही कथा सुनाई। करहु कृपा करी होहु सहाई।। आपन रूप देहु प्रभु मोही। आन भाँति नहिं पावौं ओही।।___अर्थ___ नारदजी ने बहुत आर्त ( दीन ) होकर सब कथा कह सुनायी। [ और प्रार्थना की कि ] कृपा कीजिये और कृपा करके मेरे सहायक बनिये। हे प्रभो ! आप अपना रूप मुझको दीजिये और किसी प्रकार मैं उस ( राजकन्या ) को नहीं पा सकता।
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा। निज माया बल देखि बिसाला। हियँ हँसि बोले दीनदयाला।।___अर्थ___हे नाथ, जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिये ! मैं आपका दास हूँ। अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान् मन_ही_मन हँसकर बोले___
जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार। सोई हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार।।___अर्थ___हे नारदजी ! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं। हमारा वचन असत्य नहीं होता।
कुपथ माग रुज व्याकुल रोगी। बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी।। एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ। कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ।।___अर्थ___हे योगी मुनि ! सुनिये, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता। इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है। ऐसा कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा। समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा। गवने तुरंत तहाँ रिषिराई। जहाँ स्वयंवर भूमि बनाई।।___[ भगवान् की ] माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गये कि वे भगवान् की अगूढ़ ( स्पष्ट ) वाणी को भी न समझ सके। ऋषिराज नारदजी तुरंत वहाँ गये जहाँ स्वयंवर की भूमि बनायी गयी थी।
निज निज आसन बैठे राजा। बहु बनाव करि सहित समाजा।। मुनि मन हरष रूप अति मोरें। मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें।।___ अर्थ___राजालोग खूब सज_धजकर समाजसहित अपने_ अपने आसन पर बैठे थे। मुनि ( नारद ) मन_ही_मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप सुन्दर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी।
मुनि हित कारण कृपानिधाना। दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना।। सो चरित्र लखि काहु न पावा। नारद जाना सबहिं सिरु नावा।।___अर्थ___कृपानिधान भगवान् ने मुनि के कल्याण के लिये उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता; पर यह चरित कोई भी न जान सका। सबने उन्हें नारद जानकर ही प्रणाम किया।
रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ। बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ।।___अर्थ___वहाँ दो शिवजी के गण भी थे। वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते फिरते थे। न वे भी बड़े मौजी थे।
जेहि समाज बैठे मुनि जाई। हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई।। तहँ बैठे महेस गन दोऊ। विप्रबेष गति लखइ न कोऊ।।___अर्थ___नारदजी अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज ( पंक्ति ) में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनो गण भी वहीं बैठ गये। ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चालाकी को कोई न जान सका।
करहिं कूटि नारदहि सुनाई। नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई।। रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी। इन्हहिं बरिहि हरि जानि बिसेषी।।___ अर्थ___वे नारदजी को सुना_सुनाकर व्यंग्य वचन कहते थे___भगवान् ने इनको अच्छी ‘सुन्दरता’ दी है। इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जायगी और ‘हरि’ ( वानर ) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी।
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ। हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ।। जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी। समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी।।___अर्थ___नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योंकि उनका मन दूसरे के हाथ ( माया के वश ) में था। शिवजी के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे। यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं ( उनकी बातों को वे प्रशंसा समझ रहे थे )।
काहुँ न लखा सो चरित बिषेषा। सो सरूप नृपकन्याँ देखा। मर्कट बदन भयंकर देही। देखत हृदयँ क्रोध भा तेही।।___अर्थ___इस विशेष चरित को किसी और ने नहीं जाना, केवल राजकन्याने [ नारदजी का ] वह रूप देखा। उनका बंदर_सा मुँह और भयंकर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया।
सखीं संग लै कुअँरि तब रवि जनु राजमराल। देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल।।___अर्थ___तब राजकुमारी सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है। वह अपने कमल जैसे हाथों में जयमाला लिये सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी।
जेहि दिसि बैठे नारद फूली। सो दिसी तेहिं न बिलोकी भूली।। पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं। देखि दशा हर गन मुसुकाहीं।।___अर्थ___जिस ओर नारदजी [ रूप के गर्व में ] फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका। नारद मुनि बार_बार उचकते और छटपटाते हैं। उनकी दशा देखकर शिवाजी के गन मुस्कराते हैं।
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला। कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला।। दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा। नृपसमाज सब भयउ निरासा।।___अर्थ___कृपालु भगवान् भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ पहुँचे। राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी। लक्ष्मीनिवास भगवन् दुलहिन को ले गये। सारी राजमण्डली निराश हो गयी।
मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी। मनि गिरि गईं छूटि जनु गाँठी। तब हर गन बोले मुसुकाई। निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई।।___अर्थ___मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गयी थी, इससे वे [ राजकुमारी को गयी देख ] बहुत ही विकल हो गये। मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गयी हो। तब शिवजी के गणों ने मुस्कराकर कहा___जाकर दर्पण में अपना मुख तो देखिये !
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी। बदन दीख मुनि बारि निहारी।। बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा। तिन्हहिं सराप दीन्ह अति गाढ़ा।।___अर्थ___ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे। मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा। अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया। उन्होंने शिवाजी के उन गणों को अत्यन्त कठोर शाप दिया।
होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ। हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ।।___अर्थ___ तुम दोनो कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ। तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो। अब फिर किसी मुनि की हँसी करना।
पुनि जल दीख रूप निज पावा। तदपि हृदयँ संतोष न आवा।। फरकत अधर कोप मन माहीं। सपदि चले कमलापति पाहीं।।___ अर्थ___ मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना ( असली ) रूप प्राप्त हो गया; तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ। उनके ओंठ फरक रहे थे और मन में क्रोध [ भरा ] था। वे तुरंत ही भगवान् कमलापति के पास चले।
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई। जगत मोरि उपहास कराई।। बीचहिं पंथ मिले दनुजारि। संग रमा सोइ राजकुमारी।।___अर्थ___[ मन में सोचते जाते थे___ ] जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा। उन्होंने जगत् में मेरी हँसी करायी। दैत्यों के शत्रु भगवान् हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गये। साथ में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी थी।
बोले मधुर बचन सुरसाईं। मुनि कहँ चले बिकल की नाईं।। सुनत बचन उपजा अति क्रोधा। माया बस रहा न मन बोधा।।___अर्थ___देवताओं के स्वामी भगवान् ने मीठी वाणी में कहा___हे मुनि ! व्याकुल की तरह कहाँ चले ? ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया; माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा।
पर संपदा सकहु नहीं देखी। तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी।। मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु। सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु।।___अर्थ___[मुनि ने कहा___] तुम दूसरों की संपदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत हैं। समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया।
असुर सुरा बिष संकरहिं आपु रमा मनि चारु। स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु।___अर्थ___असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुन्दर [ कौस्तुभ ] मणि ले ली। तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो। सदा करंट का व्यवहार करते हो।
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई। भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई। भलेहि मंद मंदेहि भल करहू। बिसमय हरष न हियँ कछ धरहू।।___अर्थ___तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन भारी है, [ स्वच्छन्दता से ] वही करते हो। भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो। हृदय में हर्ष_विषाद कुछ भी नहीं लाते।
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू। अति असंक मन सदा उछाहू। करम सुभासुभ तुम्हहिं न बाधा। अब लगी तुम्हहिं न काहूँ साधा।___अर्थ___सबको ठग_ठगकर परक गये हो और अत्यन्त निडर हो गये हो; इसी से [ ठगने के काम में ] मन में सदा उत्साह रहता है। शुभ_ अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते। अब तक तुमको किसी ने ठीक नहीं किया था।
भले भवन अब बायन दीन्हा। पावहुगे फल आपन कीन्हा।। बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा। सोई तनु धरहु श्राप मम एहा।।___अर्थ___अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है ( मेरे_जैसे जबर्दस्त आदमी से छेड़खानी की है )। अतः अपने किये का फल अवश्य पाओगे। जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठहरा है, तुम भी वही शरीर कारण करो, यह मेरा शाप है।
कपि आकृति तुम्ह कीन्ह हमारी। करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी।। मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी। नारि बिरह तुम्ह होब दुखारी।।___अर्थ___तुमने हमारी आकृति बन्दर की सी बनाई थी, इस कारण बन्दर ही तुम्हारी सहायता करेंगे, तुमने हमारा बड़ा निरादर किया, उस कारण स्त्री के नियोजन से तुम भी दुःखी होंगे।
श्राप सीस धरि हरषि हियँ, प्रभु बहु बिनती कीन्ह। निज माया कै प्रबलता, करषि कृपानिधि लीन्ह।।___ अर्थ___श्राप सिर पर चढ़ाकर प्रसन्न से प्रभु ने मुनि की बहुत विनती की। फिर कृपानिधान भगवान् ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली।
जब हरि माया दूरि निवारी। नहिं तहँ रमा न राजकुमारी।। तब मुनि अति सभीत हरि चरना। गहे पाहि प्रनतारति हरना।।___ अर्थ___जब हरि भगवान् ने माया दूर कर दी तो वहाँ न लक्ष्मीजी रहीं न राजकुमारी ही। तब मुनि ने बहुत डरकर श्रीहरि के चरण पकड़ लिये और बोले___ हे भक्तों के दुःख दूर करनेवाले ! मेरी रक्षा करो।
मृषा होउ मम श्राप कृपाला। मम इच्छा कह दीनदयाला।। मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे। कह मुनि पाप मिटहिं किमि मेरे।।___अर्थ___हे कृपालु ! मेरा श्राप मिथ्या हो जाय। यह सुन दीनदयालु प्रभु ने कहा___यह मेरी इच्छा से ही हुआ है। नारदजी ने कहा___मैंने आपको अनेक दुर्वचन कहे हैं। मेरे यह पाप कैसे दूर होंगें?
जपहु जाइ संकर सतनामा। होइहिं हृदयँ तुरत विश्रामा। कोई नहिं सिव समान प्रिय मोरें। अति परतीति तजहु जनि भोरें।।___अर्थ___शिवजी के सतनाम जपो, हृदयँ तुरन्त शान्त हो जायगा। शिवजी के समान मुझे कोई भी प्यारा नहीं है। ऐसा विश्वास भूलकर भी न छोड़ना।
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी। सो न पाव मुनि भगति हमारी।। अस उर धरि महि बिचरहु जाई। अब न तुम्हहिं माया निअराई।।___अर्थ___जिस पर शिवजी दया नहीं करते, हे मुनि ! वह हमारी भक्ति नहीं पा सकता। ऐसा मन में रख तुम पृथ्वी पर जाकर विचरो, अब तुम्हारे समीप माया नहीं आवेगी।
बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु, तब भए अन्तरधान। सत्यलोक नारद चले, करत राम गुन गान।।___अर्थ___तब बहुत प्रकार ये मुनि को समझाकर प्रभु अन्तर्धान हो गये। नारदजी भी राजमा के गुणों का दान करते हुए सत्यलोक ( ब्रह्मलोक ) चले।
हरगन मुनिहि जात पथ देखी। बिगत मोह मन हरष बिसेषी।। अति सभीत नारद पहिं आए। गहि पद आरत बचन सुनाए।।___ अर्थ___महादेवजी के गणों ने नारदमुनि को मोहरहित और बहुत प्रसन्न मन से मार्ग में जाते हुए देखा। वे बहुत डरते हुए उनके पास आए और चरण पकड़कर दुःख भरे हुए वचन बोले___।
हरगन हम न बिप्र मुनिराया। बड़ अपराध कीन्ह फल पाया।। श्राप अनुग्रह करहु कृपाला। बोले नारद दीनदयाला।।__अर्थ___हे मुनि ! हम शिवजी के गण हैं, ब्राह्मण नहीं हैं। हमने बड़ा अपराध किया, उसका फल पाया। हे कृपालु ! शाप दूर करने का कृपा कीजिए। यह सुनकर दीनदयालु नारदजी बोले
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ। वैभव बिपुल तेज बल होऊ।। भुजबल विश्व जितब तुम्ह जहिया। धरिहहिं बिष्णु मनुज तनु तहिया।।___अर्थ___तुम दोनों जाकर राक्षस हो जाओ, तुम्हारा ऐश्वर्य, तेज, बल बहुत होगा। अपनी भुजाएँ के बल से जब तुम संसार तो जीतोगे तब हरि भगवान् मनुष्य का शरीर धारण करेंगे।
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा। होइहहु मुकुत न पुनि संसारा।। चले जुगल मुनि पद सिर नाई। भए निसाचर कालहि पाई।।____अर्थ___युद्ध में श्रीहरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी तब तुम मुक्त हो जाओगे, फिर संसार में जन्म न लोगे। वे दोनों मुनि को चरणों में सिर नवाकर चले गये और समय पाकर राक्षस हुए।
एक कलप एहि हेतु प्रभु, लीन्ह मनुज अवतार।। सुर रंजन सज्जन सुखद, हरि भंजन भुबि भार।।___अर्थ___देवताओं को आनन्द देनेवाले, सत्पुरुषों को सुख देनेवाले और भूमि का भार उतारनेवाले प्रभु ने इस कारण से मनुष्य का अवतार लिया।
एहि बिधि जनम करम हरि केरे। सुन्दर सुखद बिचित्र घनेरे।। कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहिं। चारुचरित नाना बिधि करहीं।।___अर्थ___इस प्रकार भगवान् के जन्म और कर्म अनेक सुन्दर, सुखदायक और बहुत विचित्र हैं। प्रत्येक कलर में जब भगवान् अवतार लेते हैं और अनेक प्रकार के सुन्दर चरित्र करते हैं।
तब तब कथा मुनिसन्ह गाई। परम पुनीत प्रबंध बनाई।। बिबिध प्रसंग अनूप बखाने। करहिं न सुनि आचरज सयाने।।___अर्थ___ तब_तब पवित्र काव्य रचकर उन मुनिश्वरों ने कथाओं का वर्णन किया है। उनमें भाँति_भाँति के अनुपम प्रसंग वर्णन किए हैं। जिन्हें सुनकर चतुर लोग आश्चर्य नहीं करते हैं।