Tuesday, 24 July 2018

बालकाण्ड

मासपारायण छठा विश्राम

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा। जे लंपट परधन परदारा।। मानहिं मातु पिता नहिं देवा। साधुन्ह सन करवावहिं सेवा।।___अर्थ___पराये धन और परायी स्त्री पर मन चलानेवाले, दुष्ट, चोर और जुआरी बहुत बढ़ गये। लोग माता_पिता और देवताओं को नहीं मानते थे और साधुओं [ की सेवा करना तो दूर रहा, उलटे उन ] से सेवा करवाते थे।

जिन्ह के यह आचरन भवानी। ते जानेहु निसिचर सब प्रानी।। अतिसय देखि धर्म कै ग्लानी। परम सभीत धरा अकुलानी।।___अर्थ___[ श्रीशिवजी कहते हैं कि___] हे भवानी ! जिनके ऐसे आचरण हैं, उन सब प्राणियों को राक्षस ही समझना। इस प्रकार धर्म के प्रति [ लोगों ] की अतिसय ग्लानि ( अरुचि, अनास्था ) देखकर पृथ्वी अत्यंत भयभीत और व्याकुल हो गयी।

गिरि सर सिंधु भार नहिं मोही। जल मोहि गरुअ एक परद्रोही।। सकल धर्म देखइ बिपरीता। कहि न सकइ रावन भयभीता।।___अर्थ___[ वह सोचने लगी कि ] पर्वतों, नदियों और समुद्रों का बोझ मुझे इतना भारी नहीं जान पड़ता, जितना भारी मुझे एक परद्रोही ( दूसरों का अनिष्ट करनेवाला ) लगता है। पृथ्वी सारे धर्मों को विपरीत देख रही है, पर रावण से भयभीत हुई वह कुछ बोल नहीं सकती।

धेनु रूप धरि हृदयँ बिचारी। गई तहाँ जहँ सुर मुनि झारी।। निज संताप सुनाएसि रोई। काहू तें कछु काज न होई।।___अर्थ___[ अंत में ] हृदय में सोच_विचारकर, गौ का रूप धारण कर धरती वहाँ गयी, जहाँ सब देवता और मुनि  [ छिपे ] थे। पृथ्वी ने होकर अपना दुःख सुनाया, पर किसी से कुछ काम न बना।

सुर मुनि गंधर्बा मिला करि सर्बा गे बिरंचि के लोका। सँग गोतनु धारी भूमि बिचारी परम बिकल भय सोका।। ब्रह्मा सब जाना मन अनुमाना मोर कछू न बसाई। जा करि तैं दासी सो अबिनासी हमरेउ तोर सहाई।।___अर्थ____तब देवता, मुनि और गन्धर्व सब मिलकर ब्रह्माजी के लोक ( सत्यलोक ) को गये। भय और शोक से व्याकुल बेचारी पृथ्वी भी गौ का शरीर धारण किये हुए उनके साथ थी। ब्रह्माजी सब जान गये। उन्होंने मन में अनुमान किया कि इसमें मेरा कुछ भी वश नहीं चलने का। [ तब उन्होंने पृथ्वी से कहा कि___ ] जिसकी तू दासी है, वही अविनाशी हमारा और तुम्हारा दोनों का सहायक है।

धरनि धरहि मन धीर तह बिरंचि हरि पद सुमिरु। जानत जन की पीर प्रभु भंडार दारुन बिपति।।____ अर्थ ___ ब्रह्माजी ने कहा___ हे धरती !  मन में धीरज धारण करके श्रीहरि के चरणों का स्मरण करो। प्रभु अपने दासों की पीड़ा को जानते हैं, ये तुम्हारी कठिन विपत्ति का नाश करेंगे।

बैठे सुर सब करहिं बिचारा। कहँ पाइअ प्रभु करिअ पुकारा।। रुक बैकुंठ जान कह कोई। कोउ कह पयनिधि बस प्रभु सोई।।___अर्थ___सब देवता बैठकर  विचार करने लगे कि प्रभु को कहाँ पावें ताकि उनके सामने पुकार ( फरियाद ) करें। कोई वैकुण्ठपुरी जाने को कहता था और कोई कहता था कि वही प्रभु क्षीरसमुद्र में निवास करते हैं।

जाके हृदयँ भगति जसि प्रीती। प्रभु तहँ प्रकट सदा तेहिं रीती।। तेहिं समाज गिरिजा मैं रहेऊँ। अवसर पाइ बचन एक कहेऊँ।।___अर्थ___जिसके हृदय में जैसी भक्ति और प्रीति होती है, प्रभु वहाँ ( उसके लिये ) सदा उसी रीति से प्रकट होते हैं। हे पार्वती ! उस समाज में मैं भी था। अवसर पाकर मैंने एक बात कही___

हरि ब्यापक सर्बत्र समाना। प्रेम तें प्रगट होहिं मैं जाना।। देस काल दिसि बिदिसिहु माहीं। कहहु सो कहाँ जहाँ प्रभु माहीं।___अर्थ___मैं तो यह जानता हूँ कि भगवान् सब जगह समान रूप से व्याप्त हैं, प्रेम से वे प्रकट हो जाते हैं। देश, काल, दिशा, विदिशा में बताओ, ऐसी जगह कहाँ है, जहाँ प्रभु न हों।

अग जगमय सब रहित बिरागी। प्रेम तें प्रगटइ जिमि आगी।। मोर बचन सब के मन माना। साधु साधु करि ब्रह्म बखाना।।___अर्थ____वे चराचरमय ( चराचर में व्याप्त ) होते हुए ही सबसे रहित हैं और विरक्त हैं ( उनका कहीं आसक्ति नहीं है ); वे प्रेम से प्रकट होते हैं, जैसे अग्नि ( अग्नि अव्यक्त रूप से  सर्वत्र व्याप्त है, परन्तु जहाँ उसके लिये अरणिमन्थनादि साधन किये जाते हैं, वहाँ वह प्रकट होती है। इसी प्रकार सर्वत्र व्याप्त भगवान् भी प्रेम से प्रकट होते हैं। ) मेरी यह बात सबको प्रिय लगी। ब्रह्माजी ने ‘ साधु, ‘ साधु’ कहकर बड़ाई की।

सुनि बिरंचि मन हरष तन पुलकि नयन बह नीर। अस्तुति करत जोरि कर सावधान मतिधीर।।___अर्थ___मेरी बात सुनकर ब्रह्माजी के मन में  बड़ा हर्ष हुआ; उनका तन पुलकित हो गया और नेत्रों से [ प्रेम के ] आँसू बहने लगे। तब ले धीरबुद्धि ब्रह्माजी सावधान होकर हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे।

जय जय सुरनायक जनसुखदायक प्रनतपाल भगवंता। जो द्विज हितकारी जय असुरारी सिंधुसुता प्रिय कंता।। पालन सुरधरनी अद्भुत करनी मरम न जानइ कोई। जो सहज कृपाला दीनदयाला करउ अनुग्रह सोई।।___ अर्थ___हे देवताओं के स्वामी, सेवकों को सुख देनेवाले, शरणागत की रक्षा करनेवाले भगवान् ! आपकी जय हो ! जय हो ! ! हे जो_ब्राह्मणों के हित करनेवाले, असुरों का विनाश करनेवाले, समुद्र की कन्या ( श्रीलक्ष्मीजी ) के प्रिय स्वामी ! आपकी जय हो। हे देवता और पृथ्वी का पालन करनेवाले ! आपकी लीला अद्भुत है, उसका भेद कोई नहीं जानता। ऐसे जो स्वभाव से ही कृपालु और दीनदयालु हैं, वे ही हमपर कृपा करें।


जय जय अबिनासी सब घट बासी ब्यापक परमानंदा। अबिगत गोतीतं चरित पुनीतं मायारहित मुकुंदा।। जेहि लागि बिरागी अति अनुरागी बिगत मोह मुनिबृंदा। निसि बासर ध्यावहिं गुन गन गावहिं जयति सच्चिदानंदा।।___अर्थ___हे अविनाशी, सबके हृदय में निवास करनेवाले ( अन्तर्यामी ), सर्वव्यापी परम आनन्दस्वरूप अज्ञेय, इन्द्रियों से परे, पवित्रचरित्र, माया से रहित मुकुन्द ( मोक्षदाता ) !  आपकी जय हो ! जय हो ! ! [ इस लोक और परलोक के सब भोगों से ] विरक्त तथा मोह से सर्वथा छूटे हुए ( ज्ञानी ) मुनिवृंद भी अत्यंत अनुरागी ( प्रेमी ) बनकर जिनका रात_दिन ध्यान करते हैं और जिनके गुणों के समूह का गान करते हैं, उन सच्चिदानन्द की जय हो।

जेहिं सृष्टि उपाई त्रिबिध बनाई संग सहाय न दूजा। सो करउ अघारी चिंत हमारी जानिअ भगति न पूजा।। जो भव भय रंजन मुनि मन रंजन गंजन बिपति बरूथा। मन बच क्रम बानी छाड़ि सयानी सरन सकल सुरजूथा।।___अर्थ____जिन्होंने बिना किसी दूसरे संगी अथवा सहायक के अकेले ही [ या स्वयं अपने को त्रिगुणरूप___ब्रह्मा, विष्णु, शिवरूप___बनाकर अथवा बिना किसी उपादान_कारण के अर्थात् स्वयं ही सृष्टि का अभिन्ननिमित्तोपादन कारण बनकर ] तीन प्रकार की सृष्टि उत्पन्न की, वे पापों का नाश करनेवाले भगवान् हमारी सुधि लें। हम न भक्ति जानते हैं न पूजा। जो संसार के  ( जन्म_मृत्यु के )  भय का नाश करनेवाले, मुनियों के मन को आनन्द देनेवाले और विपत्तियों के समूह को नष्ट करनेवाले हैं। हम सब देवताओं का समूह मन, वचन और कर्म से चतुराई करने की बात छोड़कर उन ( भगवान् ) की ( शरण ) आये हैं।

सारद श्रुति सेषा रिषय असेषा जा कहुँ कोउ नहिं जाना। जेहि दीन पियारे बेद पुकारे द्रवउ सो श्रीभगवाना।। भव बारिधि मंदर सब बिधि सुंदर गुनमंदिर सुखपुंजा। मुनिसिद्ध सकल सुर परम भयातुर नमत नाथ पदकंजा।।____ अर्थ____सरस्वती, वेद, शेषजी और संपूर्ण ऋषि कोई भी जिनको नहीं जानते, जिन्हें दीन प्रिय हैं, ऐसा वेद पुकारकर कहते हैं, वे ही श्रीभगवान् हमपर दया करें। हे संसाररूपी समुद्र के [ मंथन के ] लिये मन्दराचलरूप, सब प्रकार से सुन्दर, गुणों के धाम और सुखों की राशि नाथ ! आपके चरणकमलों में मुनि, सिद्ध और सारे देवता भय से,अत्यंत व्याकुल होकर नमस्कार करते हैं।

जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह। गगनगिरा गंभीर भइ हरनि लोक संदेह।।___ अर्थ___ देवता और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरनेवाली गंभीर आकाशवाणी हुई___

जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा। तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा। अंसन्ह सहित मनुज अवतारा। लेहउँ दिन कर बंस उदारा।।___अर्थ____हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों ! डरो मत। तुम्हारे लिये मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार ( पवित्र ) सूर्यवंश में अंशोंसहित मनुष्य का अवतार लूँगा।

कस्यप अदिति महातप कीन्हा। तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा।। ते दसरथ कौसल्या रूपा। कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा।।___कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था। मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ। वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर श्रीअयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं।

तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई। रघुकुलतिलक सो चारिउ भाई।। नारद बचन सत्य सब करिहउँ। परम सक्ति समेत अवतरिहउँ।।___ अर्थ___उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा। नारद के सब वचन को सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा।

हरिहउँ सकल भूमि गरुआई। निर्भय होहु देव समुदाई।। गगन ब्रह्मबानी सुनि काना। तुरंत फिरे सब हृदय जुड़ाना।।___ अर्थ____मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा। हे देववृंद ! तुम निर्भय हो जाओ। आकाश में ब्रह्म ( भगवान् ) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गये। उनका हृदय शीतल हो गया।

तब ब्रह्मा धरनिहि समुझावा। अभय भई भरोस जियँ आवा।।___अर्थ___तब ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया। वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा ( ढाढ़स ) आ गया।

निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ। बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ।।___अर्थ___देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर_धरकर तुमलोग पृथ्वी पर जाकर भगवान् के चरणों की सेवा करो, ब्रह्माजी अपने लोक को चले गये।

गए देव सब निज निज धामा। भूमि सहित मन कहुँ  बिश्रामा।। जो कुछ आयसु ब्रह्माँ दीन्हा। हरषे देव बिलंब न कीन्हा।।___ अर्थ____सब देवता अपने_अपने लोक को चले गये। पृथ्वी सहित सबके मन को शान्ति मिली। ब्रह्माजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने [ वैसा करने में ] देर नहीं की।

बनचर देह धरी छिति माहीं। अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं।। गिरि तरु नख आयुध सब बीरा। हरि मारग चितवहिं मतिधीरा।।___अर्थ___पृथ्वी पर उन्होंने वानरदेह धारण की। उनमें अपार बल और प्रताप था। सभी शूरवीर थे; पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके अस्त्र थे। वे कीर बुद्धिवाले [ वानररूप देवता ] भगवान् के आने की राह देखने लगे।

गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी। रहे निज निज अनीक रचि रूरी।। यह सब रुचिर चरित मैं  भाषा। अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा।।___अर्थ____ वे [ वानर ] पर्वतों और जंगलों में जहाँ_तहाँ अपनी_अपनी सुन्दर सेना बनाकर भरपूर छा गये। यह सब सुन्दर चरित्र मैंने कहा। अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच में ही छोड़ दिया था।