यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई।। बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन शुभ आश्रम जानी।।____ अर्थ___ यह सब चरित्र मैंने गाकर ( बखानकर ) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम ( पवित्र स्थान ) जानकर बसते थे।
जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहिं डरहीं।। देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं।।___ अर्थ____ जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि [ बहुत ] दुःख पाते थे।
गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी।। तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा।।___ अर्थ____गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिंता छा गयी कि ये पापी राक्षस भगवान् के [ मारे ] बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिये अवतार लिया है।
एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई।। ग्यान बिराग सकल दिन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना।।____ अर्थ____इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले,आऊँ। [ अहा ! ] जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूँगा।
बहुबिधि करत मनोरथ जात लाग नहिं बार। करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार।।____ अर्थ_____ बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी। सरयूजी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुँचे।
मुनि आगवन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा।। करि दण्डवत् मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।।___ अर्थ___ जब राजा ने मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणमण्डली को संग लेकर मिलने गए। मुनि को दण्डवत् करके आदरपूर्वक उन्हें लाकर आसन पर बैठाया।
चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहि दूजा।। बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।___ अर्थ____चरण धोकर भली_भाँति पूजा की और कहा___ आज मेरे समान धन्य दूसरा नहीं है। फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाये। मुनिश्रेष्ठ ने मन में अत्यन्त आनन्द पाया।
पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी।। भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा।।___ अर्थ___ फिर राजा ने चारों पुत्रों को बुलाकर मुनि के चरणों में प्रणाम कराया। रामचन्द्रजी को देखकर मुनि बहुत सुखी हुए। मुख की शोभा देखकर ऐसे मग्न हुए जैसे चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभाता है।
तब मन हरषि बचन तह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।। केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।___ अर्थ___मन में प्रसन्न होकर राजा ने यह वचन कहा__हे मुनि ! मुझपर ऐसी कृपा पहले कभी नहीं की। आज किस कारण आपका आगमन हुआ सो कहिये ? उसे करने में देर नहीं लगाऊँगा।
असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही।। अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।___ अर्थ___ विश्वामित्रजी बोले___हे राजन् ! राक्षस मुझको सताते हैं। इस कारण मैं तुमसे लक्ष्मणसहित रामचन्द्रजी को माँगने आया हूँ। निसाचरों के मारे जाने से मैं सनाथ हो जाऊँगा।
देहु भूप मन हर्षित, तजहु मोह अज्ञान। धरम सुजस प्रभु तुम्ह कौं, इन्ह कहँ अति कल्यान।।___ अर्थ___हे राजन् ! मन में प्रसन्न होकर मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे स्वामी ! तुम्हारा धर्म और यश बढ़ेगा और इनका भी अत्यन्त कल्याण होगा।
सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदयँ कम्प मुख दुति कुम्हलानी।। चौथेपन पायऊँ सुत चारी। बिप्र वचन नहिं कहेहु बिचारी।।___ अर्थ ___बहुत अप्रिय वचन सुनकर राजा का हृदय काँपने लगा। उनके मुख का तेज फीका पड़ गया और वे बोले__चौथेपन में मैंने चार पुत्र पाये हैं, हे विप्र ! आपने विचारकर वचन नहीं कहा।
माँगहु भूमि धेनु धन कोषा। सर्बस देउँ आज सहरोषा।। देह प्रानते प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं।।___ अर्थ___भूमि, गौ, खजाना माँगिये, आज सहर्ष सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक कुछ प्यारा नहीं है, हे मुनि ! वह भी एक पल में दे दूँगा।
सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनई गोसाईं।। कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा।।___ अर्थ___ सब पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं तथापि हे स्वामी ! राम को देते नहीं बनता। कहाँ बड़े भयंकर कठोर राक्षस और कहाँ मेरे बहुत सुकुमार बालक ?
सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ज्ञानी।। तब बसिष्ठ बहुबिधि समझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा।।___ अर्थ___ राजा की प्रेम रस से भरी हुई बाणी को सुनकर ज्ञानी मुनि ने मन में बहुत आनन्द माना। तब बशिष्ठजी ने बहुत प्रकार से समझाया। तब राजा का संदेह दूर हो गया।
अति आदर दोउ तनय बोलाये। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाये।। मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह पुनि पिता आन नहिं कोऊ।।___ अर्थ___ बड़े आदर से दोनों को बुलाया और छाती से लगाकर बहुत प्रकार से शिक्षा दी और कहा__ हे नाथ ! यह दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि ! अब आपही इनके पिता हैं दूसरा कोई नहीं।
सौंपे भूप रिषिहिं सुत। बहु बिधि देहिं असीस। जननी भवन गये प्रभु, चले नाइ पद सीस।।___अर्थ___राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दे दोनों पुत्र ऋषि को सौंप दिये, तब प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले।
पुरुषसिंह दोउ बीर, हरषि चले मुनि भय हरन। कृपासिंधु मतिधीर, अखिल बिस्व कारन करन।।___ अर्थ___पुरुषों में सिंहरूप दोनों वीर जो मुनियों के भय हरण करनेवाले, कृपा के समुद्र, धीरबुद्धि और सब जगत् के कारण के भी कर्ता हैं, प्रसन्न होकर चले।
अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला।। कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा।।___ अर्थ___श्रीरामजी के लाल_नेत्र, चौड़ी छाती, लम्बी भुजायें, नील_कमल और तमाल के समान सुन्दर श्याम शरीर है। कमर में पीताम्बर और सुन्दर तरकस कसे, दोनों हाथों में सुन्दर धनुष_बाण लिये हैं।
स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई।। प्रभु ब्रह्मण्यदेव मैं जाना। मोहि हित पिता तजेउ भगवाना।।___ अर्थ___ श्याम और गौर_ वर्ण के दोनों सुन्दर भाई विश्वामित्रजी को महानिधि रूप प्राप्त हुए। वे विचार करने लगे___मैंने जान लिया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव हैं। भगवान ने मेरे लिये पिता को भी छोड़ दिया।
चले जात मुनि दीन्ही देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।। एकहिं बान प्राण हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।___ अर्थ___मार्ग में जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। रामचन्द्रजी ने एक ही बाण में उसके प्राणपन लिये और दीन जानकर अपना पद ( दिव्यलोक ) दिया।
तब मुनि निज नाथहिं जियँ चीन्ही। विद्यानिधि कहुँ विद्या दीन्ही।। जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।___ अर्थ____तब मुनि ने अपने प्रभु को सब विद्याओं की खान समझकर भी ऐसी विद्या दी जिससे भूख प्यास न सतावे, शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो।
आयुध सर्ब समर्पि कै, प्रभु निज आश्रम आनि। कन्द मूल फल भोजन, दीन्ह भगति हित जानि।।___ अर्थ___फिर मुनि प्रभु को सब अस्त्र_ शस्त्र दे अपने आश्रम में ले आए और भक्त_हितकारी जानकर कन्द, मूल, फल भोजन के लिए दिये।
प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जज्ञ करहु तुम्ह जाई।। होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख की रखवारी।।___ अर्थ___ प्रातःकाल श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि से कहा__ आप जाकर मण्डप होकर यज्ञ कीजिये। तब मुनि होम करने लगे। आप यज्ञ की रक्षा करने लगे।
सुनि मारीच निसाचर कोही। लै सहाय भागा मुनि द्रोही।। बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।। ___ अर्थ___क्रोधी राक्षस मारीच ने सुना तो वह मुनिद्रोही अपने सहायकों को लेकर दौड़ा। रामचन्द्रजी ने बिना फर का बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन पर समुद्र के पार जा गिरा।
पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा।। मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देवमुनिझारी।।___ अर्थ___फिर अग्निबाण से सुबाहु को भस्म किया। लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का नाश किया। असुरों को मारनेवाले, ब्राह्मणों को निर्भय करनेवाले भगवान का सब देवता और मुनि स्तुति करने लगे।
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया।। भगति हेतु कहि कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना।।___ अर्थ___फिर श्रीरघुनाथजी ने कुछ दिन रहकर ब्राह्मणों पर दया की। भक्तिवश ब्राह्मण अनेकों कथा_पुराण सुनाते थे, यद्यपि प्रभु सब जानते थे।
तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई।। धनुषजग्य सुनि रघुकुलनाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।___ अर्थ___तदनन्तर मुनि ने आदर के साथ समझाकर कहा___ हे प्रभो ! अब चलकर एक चरित्र देखिये। धनुष_यज्ञ सुनकर श्रीरघुनाथजी प्रसन्न होकर मुनिवर के साथ चले।