आश्रम एक दीख मग माहीं। खग मृग जीव जन्तु तहँ नाहीं।। पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी। सकल कथा मुनि कही बिसेषी।।___ अर्थ___मार्ग में एक आश्रम दीख पड़ा। वहाँ पशु_पक्षी कोई जीव_जन्तु नहीं थे। प्रभु ने एक शिला देखकर मुनि से पूछा। तब मुनि ने विस्तार सहित सब कथा कह सुनाई।
गौतम नारि श्राप बस, उपल देह धरि धीर। चरन कमल रज चाहति, कृपा करहु रघुबीर।।___ अर्थ___ गौतम मुनि की स्त्री शापवश शिला हो गयी है। वह धीरज धरे आपके चरणों की धूलि चाहती है। हे रघुवीर ! आप कृपा कीजिये।
परसत पद पावन सोक नसावन प्रगट भई तप पुंज सही। देखत रघुनायक जन सुखदायक सनमुख होइ कर जोरि रही।। अति प्रेम अधीरा पुलक सरीरा मुख नहिं आवत बचन कही। अतिसय बड़भागी चरनन्हि लागी जुगल नयन जलधार बही।।___ अर्थ____श्रीरामचन्द्रजी के पवित्र और दुखहारी चरणों का स्पर्श होते ही वह तपोमूर्ति अहल्या सचमुच प्रकट हो गयी। अत्यन्त प्रेम से अधीर हो रोमांचित हो गयी। मुँह से बोली नहीं आया तब अत्यन्त बड़भागिनी अहिल्या प्रभु के चरणों में पड़ गई। उसके दोनों नेत्रों से अश्रु बहने लगे।
धीरजु मन कीन्हा प्रभु कहुँ चीन्हा रघुपति कृपा भगति पाई। अति निर्मल बानी अस्तुति ठानी ज्ञानगम्य जय रघुराई। मैं नारि अपावन प्रभु जग पावन रावन रिपु जन सुखदाई। राजीव बिलोचन भव भय मोचन पाहि पाहि सरनहिं आई।।___ अर्थ___धीरज धरकर उसने प्रभु को पहचाना तथा रघुनाथजी की कृपा से भक्ति पाई। तब बहुत ही निर्मल बाणी से स्तुति करने लगी__ हे ज्ञान से जानने योग्य श्रीरामजी ! आपकी जय हो ! मैं अपवित्र स्त्री हूँ और आप जगत् को पवित्र करने वाले रावण के शत्रु और अपने भक्तों को सुख देनेवाले हैं। हे कमल_नयन ! हे संसार के भय को दूर करनेवाले ! मैं आपकी शरण हूँ, मेरी रक्षा कीजिये।
मुनि श्राप जो दीन्हा अति भल कीन्हा परम अनुग्रह मैं माना। देखेउँ भरिलोचन हरि भवनोचन इहइ लाभ संकर जाना।। विनती प्रभु मोरी मैं अति भोरी नाथ न मागउँ बर आना। पद कमल परागा रस अनुरागा मम मन मधुप करै पाना।।___ अर्थ___मुनि ने जो श्राप दिया सो बहुत भला किया। मैंने उसे बड़ी कृपा समझी, क्योंकि संसार से छुड़ानेवाले श्रीहरि को नेत्र भरकर मैंने देखा। इसी को शिवजी सबसे बड़ा लाभ समझते हैं। हे प्रभु ! मैं बुद्धि की भोली हूँ। हे नाथ ! मैं वर नहीं माँगती, केवल यही चाहती हूँ कि आपके चरणों की रज के रस से मेरा मन भौंरे के समान प्रेम से पान किया करे।
जेहिं पद सुरसरिता परम पुनीता प्रगट भईं सिव सीस धरि। सोइ पद पंकज जेहि पूजत अज मम सिर धरेउ कृपाल हरी।। एहि भाँति सिधारी गौतम नारी बार बार हरि चरन परी। जो अति मन भावा सो बरु पावा गइ पतिलोक अनंद भरी।।___ अर्थ___ जिन चरणों से परम पवित्र श्रीगंगाजी उत्पन्न हुईं जिन्हें शिवजी ने अपने सिर पर धारण किया है, जो चरण ब्रह्माजी पूजते हैं, हे कृपालु ! वे चरण आपने मेरे सिर पर रखे। इस भाँति स्तुति करके गौतम पत्नी अहल्या बार_बार प्रभु के चरणों पर गिरकर, मनोवांछित वरदान पाकर आनन्द से भरी परलोक को चली गई।
अस प्रभु दीनबन्धु हरि, कारन रहित दयाल। तुलसीदास सठ ताहि भजु, छाँडि कपट जंजाल।।___ अर्थ___दीनदयालु भगवान बिना कारण ही सब पर कृपा करते हैं, ऐसे प्रभु भगवान को, हे मूर्ख तुलसीदास ! कपट जंजाल को छोड़कर भज।
चले राम लछिमन मुनि संगा। गये जहाँ जगपावनि गंगा।।___ अर्थ____मुनि के साथ श्रीरामचन्द्रजी और लक्ष्मणजी चले। वे वहाँ गये जहाँ संसार को पवित्र करनेवाली श्रीगंगाजी थीं।
पुनि सुरसरि उत्पत्ति रघुराई। कौसिक सन पूछी सिर नाई। कह मुनि प्रभु तव कुल एक राजा। नाम सगर तिहुँ लोक बिराजा।।___अर्थ___फिर गंगाजी की उत्पत्ति का कथा श्रीरामजी ने विश्वामित्रजी से सिर नवाकर पूछी। मुनि ने कहा हे रामजी ! आपके ही कुल में एक राजा हुए हैं जिनका नाम ‘सागर’ जगत् में विख्यात है।
जेहि के युग भामिनि सुकुमारी। नाम केशिनी सुमति पिआरी। सब प्रकार संपति सुख भ्राजा। सुर बिहीन मन विस्मय राजा।।___ अर्थ___उनके सुकुमारी और अत्यन्त प्रिय रानियाँ केशिनी और सुमति नाम की थीं। राजा के सर्व सुख और सम्पत्ति थी परन्तु पुत्र न होने से राजा दुखी थे।
एक समय भामिनि दोउ साथा। गए वन तनय हेतु रघुनाथा। सघन सफल तरु सुन्दर नाना। तहँ भृगु मुनि तप तेज निधाना।।___अर्थ___ हे रघुनाथजी ! एक समय पुत्र के हेतु राजा दोनों रानियों के साथ वन को गए। जहाँ अनेक फलों से युक्त सघन वृक्ष थे वहाँ तेजनिधान भृगु मुनि का आश्रम था।
सहित नारि नृप मुदित मन, रहे वर्ष शत एक। कीन्हे तपबल देखि भृगु, अस्तुति कीन्ह अनेक।।___ अर्थ___रानियों के साथ राजा ने प्रसन्न मन से सौ वर्ष तक रहकर तप किया और भृगु मुनि के दर्शन होने पर अनेक स्तुति की।
कहि निज दुख प्रणाम नृप कीन्हा। दै असीस तब मुनि वर दीन्हा। नृप रानी सन मुनि अस भाषा। लेहु सो वर जो जेहि अभिलाषा।।___अर्थ___राजा ने अपना दुख कहकर प्रणाम किया। तब मुनि ने आशीर्वाद देकर वर दिया। रानियों ने मुनि से यह कहा___ तुममें से जिसकी इच्छा हो सो वर ले लो।
सुनि मुनि वचन सीस तिन नावा। देहु नाथ जो अति मन भावा।। एक ही कह्यो एक सुत होना। दूसर साठि सहस गुणलोना।।___ अर्थ___मुनि के वचन सुनकर उन्होंने सिर नवाया और कहा___ हे नाथ ! मन_भावना वर दीजिये। एक ( केशिनी ) ने एक पुत्र होने का वर और दूसरी ( सुमति ) ने साठ हजार पुत्रों का वर माँगा।
हर्षित भयो सुभग वर पाई। पाणि जोरि चरणन सिर नाई। सहित भामिनी अवधहिं आये। हर्ष सहित कछु दिवस गँवाये।।___अर्थ___राजा सुन्दर वर पाकर प्रसन्न हुए और हाथ जोड़कर मुनि के चरणों में सिर नवाया। वे स्त्रियों के साथ अयोध्या आये और प्रसन्नता से कुछ दिन बिताये।
जानि सुघरि सुन्दरि सुखदाई। नाम केशि असमंजस जाई।। सुमति प्रसव इक तुम्बरि सोइ। भये सुत प्रकट कहे मुनि जोई।।___ अर्थ___सुन्दर सुखदायनी घड़ी में केशिनी ने असमंजस नाम का पुत्र प्रसव किया और सुमति से एक तूँबी हुई जिसमें मुनि के कथनानुसार साठ हजार पुत्र थे।
निरखे सुत हर्षित सब होई। मंगलाचार किये सब कोई।। हर्ष सहित दिये दान नरेसू। पूजि विप्र गुर गौरि गणेशू।।__अर्थ___पुत्रों को देखकर सब बड़े प्रसन्न हुए और सबने मंगलाचार किये। राजा ने ब्राह्मण, गुरु, पार्वतीजी और गणेशजी की पूजा करके हर्षसहित दान दिये।
घृतघट सुन्दर बिबिध मँगाये। ते सब सुत नृप तिन महँ नाये।।___अर्थ___ राजा ने घृत के अनेक घड़े मँगाये और सब पुत्रों को उनमें रखा।
एहि बिधि भयउ सकल सुत, पूजे सब मन काम। जाइ दिवस निसि हर्ष वश, सुनहु राम घनश्याम।।___ अर्थ___हे घनश्याम रामजी ! सुनिये, इस प्रकार सब पुत्र और मन की सब अभिलाषा पूरी हुई। रात दिन आनन्दपूर्वक बीतने लगे।
पुरजन सब घर घरनि नरेसू। अति आनन्द रवि तजा कलेसू।। बालकेलि कर भये कुमारा। लीला करत अगम संसारा।।___ अर्थ___सब पुरवासी घर_घर में और राजा अति आनन्दित हुए, शरीर का क्लेश मिट गया। बाललीला करते जब वे कुमार हुए तो संसार में अनेक खेल करने लगे।
होइँ सो काज सकल मन चीते। यहि सुख बसत बहुत दिन बीते।। सरयू नदी अवध जो अहई। विमल सलिल उत्तरतट बहई।।___अर्थ__उस शुभकार्य से सबके मन की अभिलाषा पूरी हुई और आनन्द से रहते हुए बहुत दिन बीत गये। निर्मल जल वाली सरयू नदी जो अयोध्या में है, उत्तर की ओर बहती है।
प्रजा लोक के बालक नाना। नित उठि तहाँ करें अस्नाना।। असमंजस तहँ तरणी आना। तिनहि चढ़ाई बोरि निज पानी।।___ प्रजा के अनेक बालक नित्य उठकर वहाँ स्नान करते हैं, असमंजस वहाँ नाव लाया और उन्हें चढ़ाकर उसने अपने हाथ से नाव डुबा दी।
भये प्रजा सब परम दुखारी। बालक वध सुनि सुनहु खरारी।। सकल गये जहँ बैठ नृपाला। बोले बचन नाइ पद भाला।।___अर्थ___हे श्रीरामचन्द्रजी ! सुनिये, बालकों का वध सुनकर प्रजाजन बड़े दुःखी हुए और वहाँ गये जहाँ राजा बैठे थे और चरणों में सिर नवाकर बोले___
तुम नृप चहहु प्रजा प्रतिपाला। सुत तुम्हार भा सबकर काला।। तजब देश सब सुनहु नरेशू। बिना तजे नहिं मिटै कलेशू ।।___अर्थ___हे राजन् ! आप तो प्रजा का पालन चाहते हैं परन्तु पुत्र का काल हो गया है। हे राजन् ! सुनिये, हम देश त्याग देंगे क्योंकि बिना त्यागे क्लेश नहीं मिटेंगे।
सब सुत कीन्हे पाप बहु, मारे बालकवृन्द। तुम कहँ प्राण समान यह, सकल प्रजन कहँ मन्द।।___अर्थ___आपके पुत्र ने बहुत पाप किये हैं, सारे बालक मार डाले। आपको तो यह प्राणप्रिय है परन्तु सारी प्रजा के लिये बड़ा दुष्ट है।
प्रजा गिरा सुनि धीरज दीन्हा। सुतहि देश ते बाहर कीन्हा।। तासु तनय जग विदित प्रभाऊ। गुणनिधि अंशुमान तेहि नाऊ।।___अर्थ___राजा ने प्रजा के वचन सुनकर उसको धीरज दिया और असमंजस को देश से निकाल दिया। असमंजस के एक पुत्र, जिसका प्रभाव जगत् में प्रगट था, अंशुमान था।
बसत हृदय नृप से सो कैसे। अति प्रिय मीन सलिल रह जैसे।। गये प्रजा सब निज निज धामा। भै बिलोकि मन गुन विश्रामा।।___अर्थ___हे मुनि भरद्वाज ! वह राजा के हृदय में ऐसे वास करता था जैसे मछली के मन में जल। सब प्रजाजन अपने_अपने घर गये और राजा के गुण देखकर मन में विश्वास हुआ।
बहुरि नृपति मन कीन्ह बिचारा। आइ गयो पन चौथ हमारा।। हित मन्त्री गुरु सुतहु बुलाये। हिमगिरि बिंध्य मध्य तब आये।।___ अर्थ___फिर राजा ने मन में विचार किया कि हमारा बुढ़ापा आ गया। उसने अपने हितैषी मंत्री, गुरु और पुत्र बुलाए। तब हिमालय और विन्ध्याचल के मध्यस्थान में सब आये।
रुचिर वेदिका एक बनाई। देखत बनै बरनि नहिं जाई।। मख अरम्भ छाँड़े तब तुरगा। वेगवन्त जिमि देखिय उरगा।।___अर्थ___ एक सुन्दर वेदी बनाई जो देखते ही बने और वर्णन नहीं की जाती। यज्ञ आरम्भ करके एक घोड़ा छोड़ा जो सूर्य के समान वेगवान दिखाई देता था।
सुरपति सुन भय दारुणहि, मन महँ करि अनुमान। आइ तुरग सब लीन्हेउ, मरम न काहू जान।।___ अर्थ___तब इन्द्र ने सुनते ही अत्यन्त भय मानकर मन में विचार कर घोड़ा आकर ले लिया और इस भेद को किसी ने नहीं जाना।
राखेउ आनि कपिल मुनि पाहीं। कोउ न जान काहुहिं गम नाहीं।। जुगवत रहे जे सुभट सयाने। लै तुरंग रहे किनहुँ न जाने।।___ अर्थ___वह घोड़ा कपिल मुनि के पास आकर रख दिया। वह किसी ने नहीं जाना, न किसी ने ले जाते देखा। जो वीर योद्धा रखवाली पर थे उन्होंने भी न जाना कि कौन ले गया।
तिन सब आय कही नृप पाहीं। महाराज हम कहत डराहीं।। लीन्ह तुरग कोइ जान न कोई। कहा करिय जो आयसु होई।।___ अर्थ___उन सबने आकर राजा से कहा___महाराज ! हम कहते हुए डरते हैं। घोड़ा कौन ले गया यह कोई नहीं जानता। आपकी जो आज्ञा हो सो करें।
सुनत वचन नृप विस्मय पाये। सकल सुभट कहँ तुरत बुलाये।। जाहु तुरग तुम हेरहु जाई। सकल चले चरणन सिर नाई।।___ अर्थ___ सुनकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और सब पुत्रों को तुरन्त बुलाया और कहा___जाओ, तुम घोड़े को ढूँढो। सब चरणों में सिर नवाकर चले।
सुरपति सम देखिय सब वीरा। सकल धनुर्धर अति रणधीरा।। तिनहि चलत धरनि अगुवाई। बलि पशुजीव भये सब आई।।___अर्थ____वे सब इन्द्र के समान बड़े धनुर्धर और रण में धैर्यवान् दिखाई देते थे। उनके चलने से पृथ्वी व्याकुल हो गई और अनेक जीव बलि पशु बने।
सुमन बाटिका उपवन बागा। सरित रूप बापिका तरागा।। नगर गाँव मुनीस थल नाना। गिरिकन्दर कानन अस्थाना।।___अर्थ___फूल_बाटिका, उपवन, बाग, नदी, कुएँ, तालाब, नगर, गाँव, मुनियों के आश्रम, पहाड़ों की कन्दराएँ, वन और अनेक स्थान।
यहि बिधि खोजहु तुरंग तिन, आये भूपति पाहिं। चरणन माथहि नाइ कहि, खोज अश्विनी की नाहिं।।___ अर्थ___इस प्रकार उन्होंने घोड़ा ढूँढा और राजा के पास आए और चरणों में सिर नवाकर कहा___ हे महाराज ! घोड़े का कहीं पता नहीं है।
खोदहु महि सुत बहुरि पठाये। चले सकल पूरब दिसि आये।। तिनके कर जिमि कुलिस समाना। योजन भरि खोदहिं बलबाना।___ अर्थ____राजा ने कहा कि पृथ्वी को खोदो। तब वे चलकर पूर्व दिशा में आये। उनके हाथ वज्र के समान थे। वे बलवान एक योजन भर पृथ्वी खोदते थे।
देखि अतुल बल देव डराने। मरिहैं कहि बिरंचि सनमाने।। सोधत महि पताल सब आये। दिग्गज देखि एक सिर नाये।।___अर्थ___उनका अतुल_बल देखकर देवता डर गये। तब ब्रह्माजी ने समझाया कि यह सगर के पुत्र नष्ट होंगे। वे पृथ्वी में खोजते हुए पताल में आये और एक दिग्गज को देखकर सिर नवाया।
तिन पूछा सब कथा सुनायो। बहुरि सकल दक्षिण दिसि आयो।। इहि बिधि पुनि दूसर गज देखा। अति उतंग गज विमल विशेषा।।___ अर्थ___उसके पूछने पर सब कथा तह सुनाई और फिर दक्षिण दिशा में आये। इसी प्रकार फिर दूसरा हाथी देखा जो बहुत ऊँचा और अधिक उज्ज्वल था।
ताहू बहु प्रणाम तिन कीन्हे। चले सुनत पश्चिम चित दीन्हे।। तीसरे देखि प्रदक्षिण कीन्ही। पुनि उत्तर दिसि शोधहिं लीन्ही।।___ अर्थ____उसको भी प्रणाम किया और पश्चिम की ओर मन लगाकर चले। तीसरा हाथी देखकर उसकी परिक्रमा की और उत्तर दिशा में ढूंढने लगे।
दिग्गज श्वेत निरखि सुख पाये। सकल कपिल मुनि पहँ पुनि आये।। खोजत मही पार नहिं पावा। शोभा चहुँ दिसि जलधि सुहावा।।___अर्थ___वहाँ श्वेत दिग्गज को देखकर सुख पाया और सब कपिल मुनि के पास आये। पृथ्वी ढूँढने में पार नहीं पाया, चारों ओर सुन्दर सागर सुशोभित था।
देखिनि आइ तुरंग तब, बाँधा मुनिवर पास। बोले वचन सकोप करि, भा चह सब कर नास।।___अर्थ___तब उन्होंने आकर अपना घोड़ा देखा कि मुनि के पास बँधा है। तब वे सब क्रोध करके बोले___ क्योंकि सबका नाश होना चाहता था।
खोदी महि हम चारिउ क्रोधा। रेरे दुष्ट बहुत तोहिं सोधा।। कोई कह चोर देखि बहु होइ। यह सम छली और नहिं कोइ।।___अर्थ___हमने पृथ्वी चारों कोनों में खोद ढूँढी, अरे दुष्ट ! तुमको बहुत खोजते रहे। कोई बोला___ चोर तो बहुत देखे परन्तु इसके समान छली कोई नहीं है।
परधन लै पाताल पुनि आयो। तस्कर मुनिवर वेष बनायो। कोउ कह यह मुनिवर नाहीं। समुझि देखि लच्छन मन माहीं।।___अर्थ____पराया धन लेकर पाताल में आ बैठा है, इस चोर ने श्रेष्ठ मुनि का वेष बनाया है। किसी ने कहा यह मुनि नहीं है, इसके लक्षण देखकर मन में ही समझ लो।
कोउ कह बक तप कीन्ह अपारा। अहो दुष्ट लै तुरग हमारा।। सुनत बचन मुनि चितवा जबहिं। भए भस्म सब क्षण में तबहीं।।___अर्थ___किसी ने कहा___अरे दुष्ट ! हमारा घोड़ा लेकर तूने बगुले के समान बहुत तप कर लिया। यह वचन सुनकर मुनि ने ज्योंही उन्हें देखा कि वे सब एक क्षण में ही जलकर भष्म हो गये।
उमा वचन जेहि समुझि न बोला। सुधा होइ विष तिक्तम ओला।। पावक जानि धरहिं कर प्राणी। जरहिं काहि नहिं अति अभिमानी।।___अर्थ____हे उमा ! जो समझकर वचन नहीं बोलते उनको अमृत, विष और ऐसा कड़ुआ हो जाता है। जो प्राणी जानकर अग्नि को हाथ में धरेंगे, वे अतिशय अभिमानी क्यों न जलेंगे।
जानि गरल जे संग्रह करहीं। सुनहु राम ते काहे न मरहीं।। क्रोध करै बिन किये बिचारा। भये सकल तेहि रे जरि छारा।।___अर्थ___हे रामजी ! सुनिये, जो जानबूझकर विष भक्षण करें वे क्यों न मरेंगे ? उन्होंने बिना विचारे क्रोध किया था इसी से जलकर क्षार हो गये।
इहाँ नृपति अंशुमान बोलाये। नहिं आये सब तिनहिं पठाये।।___अर्थ____यहाँ राजा ने अंशुमान को बुलाकर कहा___वे सब पुत्र तो नहीं आये, तुम जाकर ढूँढो।
दीन्हा नृपति असीस तब, अति हित बारहिं बार। बेगि फिरहु लै तुरग सुत, मेरे प्राण आधार।।___अर्थ___तब राजा ने बड़े स्नेह से बार_बार आशीष दी और कहा___ हे मेरे प्राणाधार पुत्र ! तुम घोड़ा लेकर शीघ्र लौट आना।
चले नाइ पद शीश कुमारा। बिष्णु भक्त हित कुल उजियारा।। जहँ जहँ देखि मुनिन के धामा। पूँछि खबरि करि दण्ड प्रणामा।।___अर्थ____राजकुमार अंशुमान् चरणों में सिर नवाकर चले। वे विष्णु_भक्त और कुल के दीपक थे। जहाँ_जहाँ मुनियों के आश्रम देखे वहाँ_वहाँ दण्डवत् प्रणाम करके समाचार पूछे।
पुनि पुनि जन सन पाइ अशीशा। चहुँ दिग्गज कहँ नायउ सीसा।। यहि विधि सोधत मग महँ जाता। मिले गरुड़ सुमतीकर भ्राता।।___अर्थ___फिर मुनियों से आशीष पाकर चारों दिग्गजों को सिर नवाया। इस प्रकार मार्ग में ढूंढते चले। तब सुमति के भ्राता गरुड़जी ( उनका मामा ) मिले।
चरन परत तब आशिष दयऊ। जरे सकल जेहि विधि सोकयऊ।। सुनतहि वचन सोच भयो भारी। लिये खगेस दिखायल वारी।।___अर्थ___चरण स्पर्श करते ही उन्होंने आशीष दी और जिस प्रकार सब जले थे सो हाल सुनाया। सुनते अंशुमान को बड़ा सोच हुआ। तब गरुड़जी ने जलाशय दिखा लिया।
अंशुमान तहँ मज्जन कीन्हा। क्रम क्रम सबहिं जलांजली दीन्हा। बहुरि गरुड़ बोले सुनु ताता। मैं तोहि कहौं करिय इक बाता।।___अर्थ___अंशुमान ने वहाँ स्नान किया और क्रमानुसार सबको जलांजली दी। फिर गरुड़जी बोले___ हे तात ! सुनो, तुमसे एक बात कहता हूँ वही करो।
करु सुत सोइ उपाय, गंगा आवहिं अवहि महँ। दर्शन ते अघ जाय, मज्जन कीन्ह परम सुख।।___अर्थ____हे पुत्र वही उपाय करो जिससे गंगाजी पृथ्वी पर आ जायँ जिनके दर्शन से ही पाप छूट जाते हैं और स्नान करने से ही परम सुख प्राप्त हो जाता है।
पुष्टि सहस तरिहैं एहि विधि। गंगा पाय परम पावन निधि।। सुनि अस वचन हृदय मन भाये। सहित गरुड़ मुनिवर पहुँ आये।।___अर्थ___इस प्रकार पवित्र गंगाजी को प्राप्त होकर से साठों हजार तर जायेंगे। यह वचन सुनकर मन को भले लगे, तब अंशुमान गरुड़जी सहित कपिलदेव के निकट आये।
तब खगेश मुनि चरणन नायउ। पूरब कथा सकल मुनि गायउ।। आयसु देइ तुरग मुनि दीन्हा। हरषि हृदयँ निज अश्वहिं चीन्हा।।___अर्थ___तब गरुड़जी मुनि के चरणों में पड़े और पहले की सब कथा मुनि ने कही। आज्ञा देकर मुनि ने घोड़ा दे दिया। तब अंशुमान अपना घोड़ा पाकर मन में प्रसन्न हुए।
नगर समीप गरुड़ पहुँचाई। गये भवन निज तब रघुराई।। इहाँ तुरग लै नृप सिर नाई। षष्टि सहस मुनि कथा सुनाई।।___अर्थ___हे रामजी ! अंशुमान को नगर के समीप पहुँचाकर गरुड़जी अपने घर को चले गये। उन्होंने घोड़ा लेकर राजा के सामने सिर नवाया और फिर साठ हजार वीरों की तथा मुनियों का कथा सुनाई।।
विस्मय हर्ष विवश नृप भयऊ। कीन्हा यज्ञ दान बहु दयऊ।। बहुबिधि नृपति राज पुनि कीन्हा। प्रजालोग कहँ अति सुख दीन्हा।।___अर्थ___ तब राजा सगर हर्ष और दुःख के वश हुए और यज्ञ करके बहुत सा दान दिया। फिर राजा ने अनेक विधि से राज्य किया और प्रजा को अत्यन्त सुख दिया।
अंशुमान कहँ राज दै, निज मन हरि पद लाग। गयउ सगर तप काज वन, हृदय अधिक अनुराग।।___अर्थ___फिर राजा सगर अंशुमान को राज्य देकर भगवान के चरणों में मन लगाकर तप करने हेतु वन में चले गये। उनके हृदय में बड़ा प्रेम था।