इन्ह के प्रीति परस्पर पावनि। कहि न जाइ मन भाव सुहावनि।। सुनहु नाथ कह मुदित बिदेहू। ब्रह्म जीव इव सहज सनेहू।।___अर्थ___इनकी आपस की प्रीति बड़ी पवित्र और सुहावनी है। वह मन तो भाती है परन्तु कही नहीं जा सकती। आनन्दपूर्वक राजा ने कहा___हे नाथ ! सुनिये, ब्रह्म और जीव के समान इनमें स्वाभाविक स्नेह है।
पुनि पुनि प्रभुहिं चितव नरनाहू। पुलक गात उर अधिक उछाहू।। मुनिहि प्रसंसि नाइ पद सीसू। चलेउ लवाइ नगर अवनीसू।।___ अर्थ___राजा बारम्बार प्रभु को देखते हैं, शरीर में रोमांच हो आया है और हृदय में अत्यन्त उत्साह है। फिर मुनि की बड़ाई कर चरणों में सिर नवाकर जनकजी उन्हें नगर के भीतर लिवा ले चले।
सुन्दर सदनु सुखद सब काला। तहाँ बासु लै दीन्ह भुआला।। करि पूजा सब बिधि सेवकाई। गयउ राउ गृह विदा कराई।।___ अर्थ___ राजा ने उन्हें सब काल में सुख देनेवाले सुन्दर स्थान में ठहराया और फिर सेवा करके और विदा माँगकर राजा अपने घर आये।
ऋषय संग रघुबंसमनि, करि भोजनु बिश्रामु।। बैठे प्रभु भ्राता सहित, दिवसु रहा भरि जामु।।___ अर्थ___ऋषियों के साथ रघुकुल शिरोमणि रामचन्द्रजी भोजन और विश्राम करके भाई सहित बैठे, उस समय पहर भर दिन रह गया था।
लखन हृदयँ लालसा बिसेषी। जाइ जनकपुर आइय देखी।। प्रभु भय बहुरि मुनिहि सकुचाहीं। प्रगट न कहहिं मनहिं मुसुकाहीं।।___अर्थ___लक्ष्मणजी के मन में बड़ी अभिलाषा हुई कि जाकर जनकपुर देख आवें। परन्तु प्रभु रामचन्द्रजी के डर और मुनि के संकोच से प्रकट नहीं कह सके और मन_ही_मन मुस्काने लगे।
राम अनुज मन की गति जानी। भगत बछलता हियँ हुलसानी।। परम बिनीत सकुचि मुसुकाई। बोले गुरु अनुसासन पाई।।___ अर्थ___रामजी ने छोटे भाई के मन की बात जान ली, हृदय में भक्तवत्सलता उत्पन्न हो आई। तब बड़ी नम्रता से संकोच करते हुए मुस्कराकर गुरु ( विश्वामित्रजी ) की आज्ञा पाकर बोले।
नाथ लखनु पुर देखन चहहीं। प्रभु सकोच डर प्रगट न कहहीं।। जौं राउर आयसु मैं पाऊँ। नगर देखाइ तुरत लै आऊँ।।____अर्थ___ हे नाथ ! लक्ष्मण जनकपुर देखना चाहते हैं पर आपके संकोच और डर से प्रत्यक्ष नहीं कहते। यदि आपकी आज्ञा पाऊँ तो मैं इन्हें नगर दिखाकर शीघ्र लौट आऊँ।
सुनि मुनीस कह बचन सप्रीती। कस न राम तुम्ह राखहु नीती।। धरम सेतु पालक तुम्ह ताता। प्रेम बिबस सेवक सुखदाता।।___अर्थ___ यह सुनकर मुनि प्रेमपूर्वक बोले___हे राम ! तुम नीति की रक्षा कैसे न करोगे। हे तात ! तुम धर्म और मर्यादा के पालक हो और प्रेम के वश होकर सेवकों को सुख देते हो।
जाइ देखि आवहु नगर, सुख निधान दोउ भाइ। करहु सुफल सबके नयन, सुन्दर बदन देखाइ।।___अर्थ___सुख के निधान दोनों भाई जाकर जनकजी के नगर को देख आओ और अपना सुन्दर मुख दिखलाकर सबके नेत्रों को सफल करो।
मुनि पद कमल बंदि दोउ भ्राता। चले लोक लोचन सुखदाता।। बालक बृन्द देखि अति शोभा। लगे संग सोचने मनु लोभा।।___अर्थ___मुनि के चरणकमलों की वन्दना करके सब लोकों के नेत्रों को सुख देनेवाले दोनों भाई चले। बालकों के झुंड उनकी अत्यंत शोभा को देखकर साथ में लग गये क्योंकि उनके नेत्र और मन मोहित हो गये थे।
पीत बसन परिकर कटि भाथा। चारु चाप सर सोहत हाथा।। तन अनुहरत सुचंदन खोरी। स्यामल गौर मनोहर जोरी।।___अर्थ____ पीताम्बर पहने हैं, कमर में तरकस कसे हुए हैं, हाथों में धनुष_ बाण सुशोभित हैं।
शरीर के योग्य शोभा देनेवाली चन्दन और सुन्दर खैर लगाये हैं, साँवले और गोरे ( रंग ) की मनोहर जोड़ी है।
केहरि कन्धर बाहु बिसाला। उर अति रुचिर नागमनि माला।। सुभग सोन सरसीरुह लोचन। बदन मयंक तापत्रय मोचन।।___ अर्थ___ सिंह के समान ऊँचे कन्धे हैं, विशाल भुजायें हैं। छाती पर सुन्दर गजमुक्ता की माला है। लाल कमल के समान नेत्र और चन्द्रमा के समान तीनों तापों तो दूर करनेवाला मुख है।
कानन्हि कनक फूल छबि देहीं। चितवत चितहि चोरि जनु लेहीं।। चितवनि चारु भृगुटि बर बाँकी। तिलक रेख सोभा जनु चाँकी।।___ अर्थ___ कानों में सोने के फूल शोभा दे रहे हैं जो देखते ही चित्त को चुरा लेते हैं। सुन्दर चितवन है, तिरछी भौंहें और तिलक की रेखा बिजली की_ सी शोभा दे रही है।
रुचिर चौतनी सुभग सिर, मेचक कुंचित केस। नख सिख सुन्दर बन्धु दोउ, शोभा सकल सुदेस।।___ अर्थ___ सिर पर सुन्दर चौकोनी टोपी है, काले_ काले घुँघराले बाल हैं। दोनों भाइयों के नख से चोटी तक सब अंग शोभावाले हैं।
देखन नगर बालक पुर आये। समाचार पुरबासिन्ह पाये।। धाये धाम काम सब त्यागी। मनहुँ रंक निधि लूटन लागी।।___ अर्थ___ दोनों राजपुत्र नगर देखने आये हैं, जब यह समाचार पुरवासियों ने पाया तब घर का काम छोड़कर सब ऐसे दौड़े मानो जरूरतमंदों को दौलत लुटाई जा रही हो।
निरखि सहज सुन्दर दोउ भाई। होहिं सुखी लोचन फल पाई।। जुबतीं भवन झरोखन्हि लागीं। निरखिहिं राम रूप अनुरागी।।___अर्थ____ दोनों भाइयों को स्वभाव से ही सुन्दर देखकर नेत्रों का फल पाकर लोग सुखी होने लगे। स्त्रियाँ झरोखों से रामचन्द्रजी के रूप को मोहित होकर देख रही है।
कहहिं परस्पर बचन सप्रीती। सखि इन्ह कोटि काम छबि जीती।। सुर नर असुर नाग मुनि माहीं। सोभा असि कहुँ सुनि अति नाहीं।।___अर्थ___ वे आपस में प्रेम से बातें कर रही हैं___ हे सखी ! इन्होंने करोड़ों कामदेवों की शोभा को जीत लिया है। देवता, मनुष्य, राक्षस, नाग और मुनि___इनमें कहीं भी ऐसी सुन्दरता नहीं।
विष्णु चारि भुज विधि मुख चारी। विकट बेष मुख पंच पुरारी।। अपर देउ अस कोउ न आही। यह छबि सखी पटतरिअ जाही।।___ अर्थ___विष्णु के चार भुजाएँ हैं, ब्रह्मा के चार मुख हैं, शिवजी का विकट वेष है और उनके पाँच मुख हैं। हे सखी ! और कौन ऐसा देवता संसार में है जिससे इनके छवि की उपमा दी जाय।
बय किशोर सुषमा सदन, स्याम गौर सुखधाम। अंग अंग पर वारिअहिं, कोटि कोटि सतकाम।।___ अर्थ___इनकी किशोर अवस्था है, ये शोभा के घर, श्याम और गोले वर्ण सुख के स्थान हैं। इन दोनों के अंग अंग पर करोड़ों कामदेव न्यौछावर करने चाहिये।
कहहु सखी अस को तनुधारी। जो न मोह यह रूप निहारी।। कोउ सप्रेम बोली मृदु बानी। जो मैं सुना सो सुनहु सयानी।।___अर्थ___कहो सखी ! ऐसा कौन देहधारी है जो इस रूप का दर्शन करके मोहित न हो जाय। कोई दूसरी सखी प्रेम से कोमल बाणी बोली__ हे चतुर सखी ! मैंने जो सुना है, सो सुनो।
ए दोऊ दशरथ के ढोटा। बाल मरालन्हि के कल जोटा।। मुनि कौसिक मख के रखवारे। जिन्ह रन अजिर निसाचर मारे।।___ अर्थ___ ये दोनों महाराज दशरथ के पुत्र हैं, राजहंसों की_सी सुन्दर जोड़ी है। इन्होंने विश्वामित्र मुनि के यज्ञ की रक्षा की है और रण में राक्षसों को मारा है।
स्याम गात कल कंज बिलोचन। जो मारीच सुभुज मदु मोचन।। कौसल्या सुत सो सुख खानी। नामु रामु धनु सायक पानी।।___ अर्थ____ जिनका श्याम शरीर और सुन्दर कमल के समान नेत्र हैं, जो मारीच और सुबाहु के अहंकार को दूर करनेवाले हैं, जो धनुष_बाण हाथ में लिये हैं और सुख की खान हैं, वे कौशल्या के पुत्र हैं और इनका नाम राम है।
गौर किशोर बेषु बर काछें। कर सर चाप राम के पाछें।। लछिमनु नामु राम लघु भ्राता। सुनु सखि तासु सुमित्रा माता।।___ अर्थ____ जो गोरे रंग के किशोर अवस्था वाले, सुन्दर वेष बनाये और हाथ में धनुष_बाण लिये राम के पीछे जा रहे हैं, इनका नाम लक्ष्मण है। सुनो सखी ! ये रामजी के छोटे भाई हैं, इनकी माता सुमित्रा है।
विप्र काजु करि बन्धु दोउ, मग मुनिबधू उधारि। आए देखन चाप मख, सुनि हरषीं सब नारि।।___ अर्थ___ ये दोनों भाई विप्र_ कार्य सिद्ध कर, मार्ग में गौतमपत्नी अहल्या का उद्धार करके धनुष_ यज्ञ देखने आये हैं। यह सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं।
देखि राम छबि कोऊ एक कहई। जोगु जानकिहि यह बरु अहई।। मैं सखि इन्हहिं देखि नरनाहू। पन परिहरि हठि करइ बिबाहु।।___ अर्थ____ रामजी की छबि देखकर कोई सखी कहने लगी___ जानकीजी के योग्य तो यही वर है। हे सखी ! यदि इन्हें राजा देखें तो अपना प्रण छोड़कर हठ से जानकीजी का विवाह इन्हीं के साथ करें।
कोउ कह ऐ भूपति पहिचाने। मुनि समेत आदर सनमाने।। सखी परन्तु पन राउ न तजई। बिधिबस हठिअ बिबेकहि भजई।।___ अर्थ___कोई कहने लगी___ इन्हें राजा ने पहचान लिया है और मुनि समेत आदर से इनका सत्कार किया है। परन्तु हे सखी ! राजा अपनी प्रतिज्ञा नहीं छोड़ेंगे। ये भाग्यवश हठ से अविचार ही धारण किये हैं।
कोउ कह जौं भल अहइ विधाता। सब कहँ सुनिअ उचित फलदाता।। जौं जानकिहि मिलिहि बरु एहू। नाहिन आलि इहाँ संदेहू।___ अर्थ___ कोई बोली___ यदि विधाता अच्छा है और सुना जाता है कि वह सबको उचित फल देता है, तो सीताजी को यही वर मिलेगा। हे सखी ! इसमें संदेह नहीं है।
जौं विधि अस बनै संजोगू। तौं कृतकृत्य होइ सब लोगू।। सखि हमरे आरति अति तातें। कबहुँक ए आवहिं एहि नातें।।___ अर्थ___ यदि भाग्यवश ऐसा संयोग बन जाय तो सब लोग कृतार्थ हो जायँ। हे सखी ! हमें इसी से बड़ी आतुरता है कि यह कभी_ कभी इसी नाते यहाँ आवेंगे।
नाहिं त हम कहुँ सुनहु सखि, इन्ह कर दरसनु दूरि। यह संघटु तब होइ जब, पुण्य पुराकृत भूरि।।___ अर्थ___ सुनो सखी ! नहीं तो हमें इनका दर्शन दुर्लभ है। यह संदेह तभी होगा जब हमारे पूर्वजन्म के बहुत से पुण्य उदय हों।
बोली अपर कहेहु सखी नीका। एहि बिबाह अति हित सबही का। कोउ कह संकर चाप कठोरा। ए स्यामल मृदुगात किसोरा।।___ अर्थ___ दूसरी ने कहा___ हे सखी ! तुमने ठीक कहा, यह विवाह सभी के लिये बहुत हितकारी है। कोई कहने लगी___ शंकरजी का धनुष कठोर है और ये साँवले राजकुमार कोमल और किशोर अवस्था के हैं।
सबु असमंजस अहइ सयानी। कह सुनि अपर कहहु मृदु बानी।। सखि इन्ह कहँ कोउ कोउ अस कहहिं। बड़ प्रभाउ देखत लघु अहहीं।।___ अर्थ____ हे सयानी ! यह बड़ी दुविधा की बात है। यह सुनकर अन्य स्त्री कोमल बाणी से कहने लगी___ हे सखी ! कोई_कोई इनके सम्बन्ध में ऐसा कहते हैं कि देखने में तो छोटे हैं परन्तु प्रभाव बहुत बड़ा है।
परसि जासु पद पंकज धूरी। तरी अहल्या क्षत अघ भूरी।। सो कि रहिहि बिनु सिवधनु तोरें। यह प्रतीति परिहरिअ न भोरें।।___ अर्थ___ जिनके चरणों की रज छूकर घोर पाप करनेवाली अहल्या तर गई, वह क्या धनुष तोरे बिना रहेंगे ? ऐसा विश्वास भूल करके भी नहीं छोड़ना।
जेहि बिरंचि रचि समय सँवारी। तहिं स्यामल बरु रचेउ बिचारी।। तासु बचन सुनि सब हरषानीं। ऐसेइ होउ कहहिं मृदु बानी।।___ अर्थ___ जिस ब्रह्मा ने सीता को सँवारकर बनाया है उसी ने विचारकर यह श्यामसुन्दर दूलहभी रचा है। यह वचन सुनकर सब स्त्रियाँ प्रसन्न हुईं और मीठी बाणी से कहने लगीं कि ऐसा ही होगा।
हियँ हरषहिं बरषहिं सुमन, सुमुखि सुलोचनि वृंद। जाहिं जहाँ जहँ बन्धु दोउ, तहँ तहँ परमानन्द।।___ अर्थ___सुमुखि, सुनयनी स्त्रियों के झुण्ड मन में प्रसन्न हो फूल बरसाते थे। जहाँ_जहाँ दोनों भाई जाते थे, वहाँ_ वहाँ परम आनन्द छा जाता था।
पुर पूरब दिसि गे दोउ भाई। जहँ धनुमख हित भूमि बनाई।। अति बिस्तार चारु गच ढारी। बिमल बेदिका रुचिर ौसँवारी।।___ अर्थ__फिर दोनों भाई जनकपुर के पूर्व की ओर गये, जहाँ धनुष_यज्ञ का स्थान बना हुआ था। उसके बीच में बहुत लम्बा_चौड़ा सुन्दर ढालू आँगन बना था जिसपर सुन्दर स्वच्छ वेदी सचाई गयी थी।
चहुँ दिसि कंचन मंच विसाला। रचे तहाँ बैठहिं महिपाला।। तेहि पाछें समीप चहुँ पासा। अपर मंच मंडली बिलासा।।___ अर्थ___ चारों ओर सोने के सिंहासन राजाओं के बैठने के लिये बने थे। उनके पीछे पास ही चारों ओर दूसरे मंच मण्डलाकार बने थे।
कछुक ऊँचि सब भाँति सुहाई। बैठहिं नगर लोग जहँ जाई।। तिन्ह के निकट बिसाल सुहाये। धवल धाम बहु बरन बनाये।।___ अर्थ___वह कुछ ऊँचे और सब प्रकार से सुन्दर थे जहाँ नगरवासी आकर बैठेंगे। उन्हीं के पास बड़े विशाल सुहावने शुद्ध स्थान रंग_बिरंगे बने थे।
जहँ बैठें देखहिं सब नारी। जथा जोगु निज कुल अनुहारी।। पुर बालक कहि कहि मृदु बचना। सादर प्रभुहिं दिखावहिं रचना।।___ अर्थ___ जहाँ स्त्रियाँ अपने_अपने कुल के अनुसार यथायोग्य बैठकर देखेंगी। नगर के बालक मधुर वचन बोलकर आदर सहित प्रभु तो रंग_भूमि की रचना दिखा रहे थे।
सिसु सब एहि मिस प्रेमबस, परसि मनोहर गात। तन पुलकहिं अति हरषु हियँ, देखि देखि दोउ भ्रात।।___ अर्थ___ सब बालक इसी बहाने प्रेम के वश होकर रामचन्द्रजी के मनोहर शरीर को छूते थे और दोनों भाइयों को देखकर मन में प्रसन्न होकर रोमांचित हो जाते थे।
सिसु सब राम प्रेमबस जाने। प्रीति समेत निकेत बखाने।। निज निज रुचि सब लेहिं बोलाई। सहित स्नेह जाहिं दोउ भाई।।___ अर्थ___ जब सब बालकों को रामजी ने प्रेम के वश जाना, तो प्रेमपूर्वक ( यज्ञभूमि के ) स्थानों की प्रशंसा की। अपनी_ अपनी रुचि के अनुसार सब बुला लेते हैं तो स्नेहपूर्वक दोनों भाई उनके साथ चले जाते हैं।
राम देखावहिं अनुजहिं रचना। कहि मृदु मधुर मनोहर बचना।। लव निमेष महुँ भुवन निकाया। रचइ जासु अनुसासन माया।।___ अर्थ___ रामचन्द्रजी लक्ष्मणजी को रणभूमि की रचना, कोमल, मीठे और मनोहर वचन कहकर दिखाते हैं। जिनकी आज्ञा से माया पल मात्र में अनेक ब्रह्माण्डों को रच देती है।
भगति हेतु सोई दीनदयाला। चितवत चकित धनुष मखसाला।। कौतुक देखि चले गुरु पाहीं। जानि बिलम्बु त्रास मन माहीं।।___अर्थ___भक्तों के लिये वही दीनदयालु भगवान् धनुष_यज्ञशाला को चकित होकर देखते हैं। यह रचना देखकर विलम्ब हुआ जानकर वे मन में डरते हुए गुरु के पास चले।
जासु त्रास डर कहुँ डर होई। भजन प्रभाउ देखावत सोई।। कहि बातें मृदु मधुर सुहाईं। किये विदा बालक बरिआई।।___अर्थ___जिन प्रभु के डर ये डर को भी डर लगता है, वही भगवान् भजन का प्रभाव दिखाते हैं। उन्होंने कोमल, मधुर और सुहावनी बातें कहकर जबरदस्ती बालकों को विदा किया।
सभय सप्रेम बिनीत अति, सकुच सहित दोउ भाई। गुरु पद पंकज नाइ सिर, बैठे आयसु पाइ।।___ अर्थ___ फिर भय, बिनय, प्रेम और संकोच के साथ दोनों भाई गुरु के चरणों में प्रणाम कर उनकी आज्ञा पाकर बैठ गये।
निसि प्रबेस मुनि आयसु दीन्हा। सबहीं सन्ध्या बन्दनु कीन्हा।। कहत कथा इतिहास पुरानी। रुचिर रजनि जुग जाम सिरानी।।___अर्थ____तब रात्रि का प्रवेश जान मुनि ने आज्ञा दी, तब सबने सन्ध्या वन्दन किया। फिर मुनि की पुरानी कथा और इतिहास कहते हुए रात्रि बीत गयी।
मुनिबर सयन कीन्ह तब जाई। लगे चरन चापन दोउ भाई।। जिन्ह के चरण सरोरुह लागी। करत बिबिध जप जोगी बिरागी।___ तब मुनि जाकर सोये और दोनों भाई पैर दबाने लगे। जिनके चरणविन्दों के लिये बैराग्यवान पुरुष भी अनेक प्रकार का जप और जोग करते हैं।
तेइ दोउ बन्धु प्रेम जनु जीते। गुर पद कमल पलोटत प्रीते। बार बार मुनि अज्ञा दीन्ही रघुबर जाइ सयन तब कीन्ही।___अर्थ___ वे ही दोनों भाई मानो प्रेम से जीते हुए प्रीतिपूर्वक गुरु के चरणकमल दबा रहे हैं। मुनि ने बार बार आज्ञा दी, तब रामजी ने जाकर शयन किया।
चापत चरन लखनु उर लाये। सभ्य सप्रेम परम सचु पाएँ। पुनि पुनि प्रभु कह सोवहु ताता। पौढ़े धरि उर पद जलजाता।।___ अर्थ___लक्ष्मणजी भय और प्रेम सहित मन लगाकर परमानंद का अनुभव करते हुए प्रभु के चरण दबाने लगे। जब रामजी ने,बार_बार कहा__ हे भाई ! जाओ। तब प्रभु के चरणकमल हृदय में धारण कर सो गये।