मनहिं मन मानव अकुलानी। होहु प्रसन्न महेस भवानी।। करहु सफल आपनि सेवकाई। करि हितु हरहु चाप गरुआई।।___ अर्थ___ वे व्याकुल होकर मन_ही_मन कह रही हैं___ हे शिव_पार्वती मुझपर प्रसन्न होइए। मैंने आपकी जो सेवा की है, उसे सफल करिए और हित करके धनुष का भारीपन हर लीजिए।
गननायक बरदायक देवा। आजु लगें कीन्हिउ तुअ सेवा।। बार बार बिनती सुनि मोरी। करहु चाप गुरुता अति थोरी।।___ अर्थ____ हे वर देनेवाले देवता गणेशजी ! आजतक मैंने इसी हेतु आपकी सेवा की थी। बारम्बार मेरी विनती सुनकर धनुष का भारीपन कम कर दीजिए।
देखि देखि रघुवीर तन, सुर मनाव धरि धीर। भरे बिलोचन प्रेम जल, पुलकावली शरीर।।___ अर्थ___ वे रामजी को देखकर, धीरज धरकर देवताओं को मनाने लगीं। उनके नेत्रों में प्रेमजल भर आया और शरीर रोमांचित हो गया।
नीकें निरखि नयन भरि सोभा। पितु पनु सुमिरि बहुरि मनु छोभा।। अहह तात दारुनि हठ ठानी। समुझत नहिं कछु लाभु न हानी।।___ अर्थ___भली_ भाँति नेत्र भरकर रामजी की शोभा को देखकर पिता के प्रण को स्मरण करके उनका मन क्षुब्ध हो गया। अहो ! पिताजी ने कठिन हठ ठानी है, वे कुछ लाभ और हानि नहीं समझते।
सचिव सभय सिख देइ न कोई। बुध समाज बड़ अनुचित होई।। कहँ धनु कुलिसहु चाहि कठोरा। कहँ स्यामल मृदुगात किसोरा।।___ अर्थ___मन्त्री भी डर के मारे कोई सीख नहीं देते, बुधजनों की सभा में यह बड़ा अनुचित हो रहा है। कहाँ तो यह बज्र से भी अधिक कठोर धनुष और कहाँ यह श्यामसुन्दर कोमल अंग के किशोर।
बिधि केहि भाँति धरौं उर धीरा। सिरस सुमन कन बेधिअ हीरा।। सकल सभा कै मति भई भोरी। अब मोहि सम्भु चाप गति तोरी।।___ अर्थ____ हे विधाता ! मैं किस प्रकार मन में धीरज धरूँ, सिरस के फूल से हीरा कैसे बेधा जायगा ? सारी सभा की बुद्धि भूल गयी है। अत: हे शिव_धनुष ! अब मैं तेरी ही शरण हूँ।
निज जड़ता लोगन्ह पर डारी। होहि हरुअ रघुपतिहि निहारी।। अति परिताप सीय मन माहीं। लव निमेष जुग सम जाहीं।।___ अर्थ___अपनी कठोरता लोगों पर डालकर, श्रीरामचन्द्रजी को देखकर हल्के हो जाओ। इस प्रकार सीताजी के मन में बहुत दुःख हुआ, लव निमेष मात्र भी युग के समान हारने लगा।
प्रभुहि चितइ पुनि चितव महि, राजत लोचन लोल। खेलत मनसिज मीन जुग, जनु बिधु मंडल डोल।।___ अर्थ___प्रभु रामजी की ओर देख फिर पृथ्वी की ओर देखती हुई श्रीजानकीजी के चंचल नेत्र ऐसे शोभायमान हो रहे हैं मानो चन्द्रमण्डल रूपी डोल में कामदेव की दो मछलियाँ खेल रही हों।
गिरा अलिनि मुख पंकज रोकी। प्रगट न लाज निसा अवलोकी।। लोचनु जलु रह लोचन कोना। जैसें परम कृपन कर सोना।।___ अर्थ____सीताजी के मुखरूपी कमल ने लाजरूपी रात्रि को देखकर वाणरूपी भ्रमर को रोक लिया है। नेत्रों का जल नेत्रों के कोने में ही रह गया है जैसे किसी कंजूस का सोना कोने में ही गढ़ा रह जाता है।
सकुची व्याकुलता बड़ि जानी। धरि धीरजु प्रतीति उर आनी।। तन मन बचन मोर पनु साचा। रघुपति पग सरोज चितु राचा।।___ अर्थ___सीताजी अपनी घबराहट जानकर सकुचाईं फिर मन में धीरज कर विश्वास ले आईं कि यदि तन, मन और वचन से मेरा प्रण सच्चा है और रघुनाथजी के चरणारविन्दों में मेरा मन वास्तव में लगा है।
तौं भगवानु सकल उर बासी। करिहि मोहि रघुबर की दासी।। जेहि कें जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलइ न कुछ संदेहू।।____ अर्थ___तो सबके हृदय में बास करनेवाले भगवान मुझे रघुनाथजी की दासी बनायेंगे जिसका जिस पर सच्चा स्नेह होता है, वह उसको मिलता ही है, इसमें कुछ संदेह नहीं।
प्रभु तन चितइ प्रेम तन ठाना। कृपानिधान रामु सब जाना।। सियहि बिलोकि तकेउ धनु कैसें। चितव गरुड़ लघु ब्यालहिं जैसें।।___ अर्थ____सीताजी ने प्रभु रामचन्द्रजी की ओर देखकर प्रेम का पन ठान लिया। कृपानिधान रामचन्द्रजी ने सब जान लिया और सीताजी को देखकर धनुष को ऐसे देखा जैसे गरुड़ छोटे साँप को देखता है।
लखन लखेउ रघुबंसमनि, ताकेउ हर कोदण्डु।। पुलकि गति बोले बचन, चरन चापि ब्रह्मण्डु।।____ अर्थ___लक्ष्मणजी ने देखा कि श्रीरामचन्द्रजी ने शिवजी के धनुष की ओर ताका है, तब पुलकित हो पृथ्वी को चरणों से दबाकर यह बोले___
दिसिकुंजरहु कमठ अहि कोला। धरहु धरनि धरि धीर न डोला।। रामु चहहिं संकर धनु तोरा। होहु सजग सुनि आयसु मोरा।।___ अर्थ___ हे दिग्गजों ! हे कच्छप ! हे शेषनाग ! हे बराह ! तुम सब धीरज कर कर पृथ्वी को धारण किये रहो, यह डोलने न पावे। श्रीरामजी धनुष तोड़ना चाहते हैं। मेरी आज्ञा सुन तुम सब सावधान हो जाओ।
चाप समीप रामु जब आए। नर नारिन्ह सुर सुकृत मनाए।। सब कर संसउ अरु अज्ञानू। मन्द महीपन्ह कर अभिमानू।।___अर्थ____ धनुष के पास जब रामचन्द्रजी आए तब सब स्त्री_पुरुषों का संदेह और अज्ञान, मूर्ख राजाओं का अभिमान।
भृगुपति केरि गरब गरुआई। सुर मुनिबरन्ह केरि कदराई।। सिय कर सोचु जनक पछितावा। रानिन्ह कर दारुन दुख दावा।।___ अर्थ____ परशुरामजी के अहंकार की गुरुता, देवताओं और मुनिश्वरों की घबराहट, सीताजी का सोच, जनक का पछतावा और रानियों की कठिन दुखरूपी दावानल।
सम्भुचाप बड़ बोहितु पाई। चढ़े जाइ सब संगु बनाई।। राम बाहुबल सिंधु अपारू। चहत पारु नहिं कोउ कड़हारू।।___ अर्थ___ यह सब शिवजी के धनुषरूपी बड़े जहाज को पाकर एक साथ उसपर जा चढ़े। वे रामचन्द्रजी के भुजाओं के बलरूपी अपार समुद्र के पार जाना चाहते हैं, पर कोई मल्लाह नहीं है।
राम बिलोके लोग सब, चित्र लिखे से देखि। चितई सीय कृपायतन, जानी बिकल बिसेषि।।___ अर्थ___श्रीरामजी ने सब लोगों को देखा तो उन्हें चित्रलिखे से देखकर कृपानिधान ने सीताजी की ओर देखा तो उन्हें बहुत ही बेचैन जाना।
देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही।। तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा।।___ अर्थ___ उन्होंने सीताजी को बहुत ही विकल देखा। उनका एक_एक क्षण कल्प के समान बीत रहा था। प्यासे ने यदि बिना जल पिये ही शरीर छोड़ दिया हो तो मर जाने पर अमृत की तालाब भी क्या करेगा?
का बरषा जब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें।। अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी।।___ अर्थ___ जब खेती सूख जाय तब वर्षा से क्या लाभ ? ऐसा जी में जानकर धनुष को देख, उनकी अधिक प्रीति समझ प्रभु रामचन्द्रजी पुलकायमान हुए।
गुरहि प्रणाम मनहिं मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा। दमके दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनुमंडल सम भयऊ।।___ अर्थ___ गुरु को मन_ही_मन प्रणाम किया और बहुत फुर्ती से धनुष को उठा लिया। जब उसे हाथ में लिया तो वह बिजली के समान चमका, फिर धनुष आकाश में मण्डलाकार हो गया।
लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देखि सब ठाढ़ें। तेहि छन मध्य राम धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा।।___ अर्थ___ धनुष को लेते, चढ़ाते और दृढ़ता से खींचते हुए किसी ने नहीं देखा, सबने रामजी को खड़े ही देखा, उसी क्षण रामचन्द्रजी ने धनुष को तोड़ दिया। उसकी घोर ध्वनि संसार में भर गई।
भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले। चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले।। सुर असुर मुनि कर कान दीन्हें सकल बिकल बिचारहिं। कोदण्ड खण्डेउ राम तुलसी जयती बचन उचारहिं।।____ अर्थ___ संसार में घोर शब्द भर गया, सूर्य के,घोड़े मार्ग छोड़कर चलने लगे, दिग्गज चिघ्घाड़ने व पृथ्वी जिसने लगी, शेष, कच्छप और बराह कलमलाने लगे। देवता, असुर, मुनिजन सब कानों पर हाथ दे बेचैन होकर बिचारने लगे। तुलसीदासजी कहते हैं कि जब प्रभु ने धनुष तोड़ डाला तो सब जयजयकार करने लगे।
संकर चापु जहाजु, सागरु रघुबर बाहुबल। बूड़ सो सकल समाजु, चढ़ा जो प्रथमहिं मोहबस।।___ अर्थ____शिवजी का धनुष जहाज है और रामचन्द्रजी की भुजाओं राजा बल समुद्र है। धनुष टूटने से वह सब समाज डूब गया जो मोहवश पहले इस जहाज पर चढ़ा था।
प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे।। कौसिक रूप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन।।___ अर्थ____प्रभु ने दोनों खण्ड पृथ्वी पर फेंक दिये। यह देखकर सब लोग सुखी हुए। विश्वामित्ररूपी पवित्र समुद्र में प्रेमरूपी जल भरा है।
रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी।। बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना।।___ अर्थ___ रामरूपी चन्द्रमा को निहारकर पुलकावली रूपी ऊँची तरंगें बढ़ने लगीं। आकाश में आनन्द के नगाड़े बजने लगे। देवांगनाएँ गीत गा_गाकर नाचने लगीं।
ब्रह्मादिक मुनि सिद्ध मुनीसा। प्रभुहिं प्रसंसहिं देहिं असीसा।। बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किन्नर गीत रसाला।।____ अर्थ____ ब्रह्मा आदि देवता, सिद्ध और मुनीश्वर प्रभु की बड़ाई करने लगे,और आशीर्वाद देने लगे और अनेक रंग की पुष्प मालाएँ बरसाने लगे, किन्नर गण रसीले गीत गाने लगे।
रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुष भंग धुनि जात न जानी।। मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम सम्भु धनु भारी।।___ अर्थ____ संसार में जयजयकार की ध्वनि छा गयी। जिससे धनुषभंग की ध्वनि नहीं जानी जाती। आनंदित होकर जहाँ_ तहाँ स्त्री_पुरुष कहने लगे कि रामचन्द्रजी ने भारी शिवधनुष तोड़ दिया।
बन्दी मागध सूतगन, बिरुद बदहिं मतिधीर। करहिं निछावरि लोग सब, हय गय मनि चीर।।___ अर्थ____ चतुर भाट, मागध और सूत कीर्ति बखानने लगे और सब लोग घोड़ा, हाथी, मनि धन और वस्त्र निछावर करने लगे।
झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुन्दुभी सुहाई।। बाजहिं बहु बाजने सुहाये। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाये।।___ अर्थ___झाँझ, मृदंग, शंख, नफिरी, तुरही, ढोल, नगाड़े आदि सुन्दर बाजे बजने लगे और जहाँ_ तहाँ युवतियों ने मंगल गीत गाये।
सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी।। जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थके थाह जनु पाई।।____ अर्थ____ सखियों सहित रानी प्रसन्न हुईं मानो सूखते हुए धान पर पानी पड़ गया हो। राजा जनक ने शोक छोड़कर ऐसा सुख पाया माने थके हुए तैरनेवाले मे थाह पा ली हो।
श्री हत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे।। सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती।। जनु चातकी पाइ जनु स्वाती।।___ अर्थ___धनुष टूटने पर राजा लोग ऐसे कांतिहीन हुए जैसे दिन में दीपक की शोभा जाती रहती है। सीताजी का सुख किस भाँति वर्णन किया जाय ? जैसे चातकी स्वाति का जल पी गई हो।
रामहि लखन बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें।। सतानन्द तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा।।___अर्थ____ रामचन्द्रजी को लक्ष्मणजी ऐसे देखने लगे जैसे चन्द्रमा को चकोर का बच्चा देखता है। सतानंदजी ने आज्ञा दी तो सीताजी रामचन्द्रजी के पास चलीं।
संग सखीं सुन्दर चतुर, गावहिं मंगलचार। गवनी बाल मरालगति, सुषमा अंग अपार।।___ अर्थ____साथ में सुन्दर चतुर सखियाँ मंगल गीत गाती हुई जा रहीं हैं, सीताजी बाल_ राजहंसिनी की चाल चलीं, उनके अंगों में अपार शोभा थी।
सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसें। छबिगन मध्य महाछबि जैसें।। कर सरोज जयमाल सुहाई। विश्वविजय शोभा जनु पाई।।____ अर्थ___सखियों के बीच में सीताजी ऐसे सुशोभित हो रही थीं जैसे सुन्दरताओं के बीच महा सुन्दरता हो। कर_ कमलों में सुन्दर जयमाल थीं, जिसमें संसार विजय की शोभा छा रही थी।
तन सकोच मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेम लखि परइ न काहू।। जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी।।___ अर्थ___शरीर में लाज तथा बहुत उमंग थी, यह गुप्त प्रेम किसी को जान नहीं पड़ता। निकट जानकर रामचन्द्रजी की शोभा देखकर राजकुमारी जानकीजी चित्र में लिखी सी रह गईं।
चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई।। सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाइ।।___ अर्थ____ यह दशा देखकर चतुर सखी ने समझाकर कहा__सुन्दर जयमाला पहना दो। सुनते ही दोनों हाथों से माला उठाई पर प्रेम के वश पहनाई नहीं जाती।
सोहत जनु जुग जल जल नाला। ससिहि सभीत देत जयमाला।। गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली।।___ अर्थ___ऐसी शोभा हुई मानो डंडियों सहित दो कमल संकुचित होकर चन्द्रमा को जयमाला दे रहे हों। ऐसी शोभा देख सखियाँ जाने लगीं। तब सीताजी ने जयमाला श्रीरामचन्द्रजी के गले में पहना दी।
रघुबर उर जयमाल, देखि देव बरसहिं सुमन। सकुचे सकल भुआल, जनु बिलोकि रबि कुमुदगन।।___ अर्थ___ रामचन्द्रजीकेे हृदय पर जयमाला देखकर देवता पुष्प बरसाने लगे और राजालोग ऐसे सकुचाये जैसे सूर्य को देखकर नलिनियों का समूह मुरझा जाता है।
पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे।। सुर किन्नर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा।।___ अर्थ___नगर और आकाश में बाजे बजने लगे, दुष्ट उदास और सब सज्जन प्रसन्न हुए। देवता, किन्नर, मनुष्य, नाग और मुनीश्वर जय_जयकार कर आशीर्वाद देने लगे।
नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं।। जहँ बिप्र बेद धुनि करहीं। बन्दी बिरिदावली उच्चरहीं।। अर्थ___ देवताओं की स्त्रियाँ नाचने लगीं और बारम्बार पुष्पों की वर्षा करने लगीं। जहाँ_ तहाँ ब्राह्मण वेद ध्वनि करने लगे, भाट वंश का गान करने लगे।
महि पाताल नाल जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा।। करहिं आरति पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी।।___ अर्थ___ भूमि, पाताल, स्वर्ग में यश छा गया कि रामचन्द्रजी ने धनुष को तोड़ा है और सीताजी को वर लिया। नगर के स्त्री_ पुरुष से अधिक न्यौछावर देने लगे।
सोहति सीय राम कै जोरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी।। सखी कहहिं प्रभु पद गहु सीता। कर तिन चरन परस अति भीता।।___ अर्थ___ श्रीसीतारामजी की जोड़ी ऐसे सोहती थी मानो शोभा और श्रृंगार एकत्र हुए हों। सखियों ने कहा___ सीता ! प्रभु के चरण छुओ। परन्तु सीताजी बहुत डरकर चरण नहीं छूतीं।
गौतम नारि गति सुरति करि, नहिं परसति पग पानि। मन बिहसे रघुबंसमनि, प्रीति अलौकिक जानि।।___ अर्थ___ गौतम ऋषि की स्त्री अहल्या की गति की स्मरण करके वे रामचन्द्रजी के चरणों को हाथ से नहीं छूती, इस अनोखी प्रीति को जानकर रघुवंशमनि श्रीरामचन्द्रजी मन में हँसे।
तब समय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे।। उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे।।___ अर्थ___ उस समय सीताजी को देख कुछ राजा ललचा उठे। वे दुष्ट, कपूत और मूर्ख मन में डाह करने लगे। वे अभागे उठ_उठकर कवच आदि टजहाँ_तहाँ गाल बजाने लगे।
लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ।। तोरें धनुषु चाह नहिं सरई। जीवत हमहिं कुअँरि को बरई।।___ अर्थ___कोई बोले_सीताजी को छीन लो और दोनों राजकुमारों को पकड़कर बाँध लो। धनुष तोड़ डालने से ही इच्छा पूरी नहीं होगी, हमारे जीते_ जी कौन राजकुमारी को ब्याह सकता है ?
जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई।। साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहिं लाज लजानी।।___ अर्थ___ यदि राजा जनक कुछ सहायता करें तो दोनों भाइयों सहित युद्ध में उन्हें जीत लो। यह बात सुनकर साधु राजा बोले___ इस राजसभा में को लाज भी लजा गई है।
बलु प्रतापु, वीरता बड़ाई। नाक पिनाकहिं संग सिधाई।। सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुँह मसि लाई।।___ अर्थ___बल, प्रताप, वीरता, बड़ाई और मर्यादा ये सब धनुष के साथ ही चले गए। वही शूरता थी या अब कहीं से पागए ? ऐसी दुष्ट बुद्धि है तभी तो ब्रह्मा ने तुम्हारे मुख पर स्याही लगा दी।
देखहु रामहि नयन भरि, तजि रिष मदु कोहु। लखन रोष पावक प्रबल, जानि सलभ जनि होहु।।___ अर्थ___ बार घमण्ड और क्रोध छोड़कर नेत्र भर रामचन्द्रजी को देख लो। लक्ष्मणजी के क्रोध को,प्रचंड अग्नि जानकर पतंगे मत बनो।
बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नागअरि भागू।। जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही।।___ अर्थ__ जैसे गरुड़ का भाग कौआ चाहे, बिना कारण क्रोध करनेवाला कुशलता चाहे और शिवजी का बैरी सुख_दुःखादि संपदा चाहे।
लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता की कामी लहई।। हरि पद बिमुख परम गति चाहा। बस तुम्हार लालच नरनाहा।।___ अर्थ___ लोभी_ लालची सुन्दर कीर्ति चाहे, कामी पुरुष क्या निष्कलंकता पा सकता है ? श्रीहरि के चरणों से विमुख मुक्ति चाहे, हे राजाओं ! वैसे ही तुम्हारा लालच व्यर्थ है।
कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखी लबाई गईं जहँ रानी।। रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेह बरनत मन माहीं।।___ अर्थ___राजाओं का हल्ला सुनकर सीताजी डर गयीं। सब सखियाँ वहाँ लिवा ले गईं जहाँ रानी थीं। रामजी सीधे स्वभाव से सीताजी की मन में बड़ाई करते हुए गुरुजी के पास चले।
रानिन्ह सहित सोच बस सीया। अबधौं बिधिहि काह करनीया।। भूप बचन सुनि इतने उर तकहिं। लषनु राम डर बोलि न सकहीं।।___ _ अर्थ____ रानियों सहित सीताजी सोचविचार में पड़ गईं कि न जाने विधाता को और क्या करना है ? राजाओं की बातचीत सुनकर लक्ष्मणजी इधर_ उधर देखने लगे, पर रामजी के डर से कुछ नहीं कह सकते।
अरुन नयन भृकुटी कुटिल, चितवत नृपन्ह सकोप। मनहुँ मत्त गजगन निरखि, सिंघ किसोरहिं चोप।।___ अर्थ____उनके नेत्र लाल और भौंहें टेढ़ी हो गईं और वे राजाओं को क्रोध से देखने लगे, रामजी के डर से कुछ कह नहीं सकते।
खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं।। तेहि अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयऊ भृगुकुल कमल पतंगा।।___ अर्थ___ हलचल देखकर नगर की स्त्रियाँ बेचैन हो गईं और वे राजाओं को गालियाँ देने लगीं। उसी समय शिव_ धनुष का टूटना सुनकर भृगुकुलरूपी कमल के सूर्य परशुरामजी आए।
देखि मुनिहि सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने।। गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुण्ड बिराजा।।___ अर्थ___उन्हें देखकर राजालोग सकुचा गये जैसे बाज की झपट से बटेर छिप जाते हैं। गोरे शरीर में सुन्दर विभूति शोभायमान है और चौड़े मस्तक पर त्रिपुण्ड विराजमान है।
सीस जटा ससि बदनु सुहावा। रिस बस कछुक अरुन होइ आवा।। भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते।।___ अर्थ____ सिर पर जटाजूट है और मुखचन्द्र क्रोध से कुछ लाल हो गया है। भौंहें टेढ़ी और नेत्र क्रोध से लाल हो रहे हैं। सहज ही देखते हैं तो भी ऐसा जान पड़ता है कि मानो क्रोध से भरे हैं।
बृषभ कन्ध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला।। कटि मुनिबसन तून दुई बाँधे। धनु सर कर कुठार कल काँधे।।___ अर्थ___बृषभ_के से ऊँचे कंधे, चौड़ी छाती, लम्बी भुजाएँ, सुन्दर जनेऊ और माला पहने हैं तथा मृगछाला लिये हैं। कमर में मुनिवस्त्र पहने, दो तर्कस बाँधे, धनुषबाण हाथ में लिये सुन्दर फरसा कंधे पर है।
सांत बेषु करनी कठिन, बरनि न जाइ सरूप। धरि मुनि तनु जनु बार रसु, आयउ जहँ सब भूप।।___अर्थ___शान्त बेष है, पर करनी कठिन है, स्वरूप का वर्णन नहीं किया जा सकता। जहाँ सब राजा थे वहाँ मानो वीररस ही मुनि_ शरीर धारण करके आया है।
देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला।। पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दण्ड प्रणामा।।___ अर्थ____ परशुरामजी का भयानक रूप देखकर सब राजा घबरा उठे और पिता समेत अपना_ अपना नाम कह_कहकर सब दण्डवत् प्रणाम करने लगे।
जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खटानी।। जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बुलाइ प्रनामु करावा।।___ अर्थ___जिसे हितू जानकर भी साधारण दृष्टि से देखते, वह जानता कि मेरी आयु बीत गई। फिर जनकजी ने आकर सिर नवाया और सीताजी को बुलाकर प्रणाम कराया।
आसिष दीन्हि सखी हरषानी। निज समाज लै गईं सयानी।। बिश्वामित्र मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई।।___ अर्थ___ परशुरामजी ने आशीर्वाद दिया। चतुर सखी प्रसन्न हुईं और अपने साथ जानकीजी को ले गईं। फिर विश्वामित्रजी आकर मिले और दोनों भाइयों से मुनि के चरण कमलों को प्रणाम कराया।
रामु लखन दशरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा।। रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन।।___ अर्थ____ ये राम_ लक्ष्मण महाराज दशरथ के पुत्र हैं। उनकी सुन्दर जोड़ी देखकर आशीर्वाद दिया। कामदेव के अभिमान को दूर करनेवाले रामचन्द्रजी के रूप को नेत्रों से देख स्तंभित रह गये।
बहुरि बिलोकि बिदेह सन, कहहु काह अति भीर। पूछत जानि अजान जिमि, व्यापेउ कोपु सरीर।।___ अर्थ____फिर राजा जनक की ओर देखकर बोले___ कहो ! यह भीड़ क्यों है। जानकर भी अज्ञानी की तरह पूछते हुए शरीर में क्रोध भर आया।
समाचार कहि जनक सुनाये। जेहि कारन महीप सब आये।। सुनत बचन फिरि अनंत निहारे। देखे चापखण्ड मही डारे।।___ अर्थ___ तब राजा जनक ने सब हाल कह सुनाया कि जिस कारण सब राजा इकट्ठे हुए थे। उनके बचन सुनकर फिर दूसरी ओर देखा तो धनुष के दो खण्ड पृथ्वी पर पड़े हुए देखे।
अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा।। बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तब राजू।।___ अर्थ____बड़े क्रोध से कठोर बचन बोले____रे मूर्ख जनक ! कह धनुष किसने तोड़ा है ? रे मूढ़ ! उसे जल्दी दिखा, नहीं तो आज ही जहाँ तक तेरा राज्य है वहाँ तक की पृथ्वी को उलट दूँगा।
अति डरु उतरु देत नृप नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं।। सुर मुनि नाग नगर मर नारी। सोचहिं सकल त्रास उर भारी।।___ अर्थ___बड़े डर से राजा जनक उत्तर नहीं देते। यह देख कुटिल राजा अपने मन में प्रसन्न हुए और देवता, मुनि, नाग, नगर के स्त्री पुरुष सब अपने_ अपने मन में डरकर काँपने लगे।
मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी।। भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता।।___ अर्थ___ सीताजी की माता मन में कहने लगीं कि ब्रह्मा ने बनी बनाई बात बिगाड़ दी।परशुरामजी का स्वभाव सुनकर सीताजी को आधा क्षण भी कल्प के बराबर लगा।
सभय बिलोके लोग सब, जानि जानकी भीरु। हृदयँ न हरष विषादु कछु, बोले श्रीरघुबीर।।___ अर्थ____ सब लोगों को डरे हुए देख और सीताजी को बेचैन जानकर, जिसके मन में हर्ष_विषाद कुछ भी नहीं है, ऐसे श्रीरामचन्द्रजी बोले__