Sunday, 19 April 2020

बालकाण्ड

 नाथ सम्भुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।। आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।___ अर्थ___ हे नाथ ! शिवजी का धनुष तोड़नेवाला कोई एक आपका ही दास होगा। क्या आज्ञा है सो मुझसे क्यों नहीं कहते ? मुनि गुस्साकर बोले___





 सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।। सुनहु राम जेहि सिव धनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।___ अर्थ___ सेवक वह है जो सेवकाई करे। जो शत्रु का काम करे उससे तो लड़ाई ही करनी चाहिए। सुनो राम ! जिसने शिव_धनुष को तोड़ा है वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है।




सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।। सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहिं अपमाने।।___ अर्थ____वह इस समाज से अलग निकल आवे नहीं तो सब राजा मारे जायेंगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुसकाये और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले___





 बहु धनुहीं तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्ह गोसाईं।। एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाई कह भृगुकुलकेतू।।___ अर्थ____ लड़कपन में हमने बहुत सी धनुही तोड़ी, हे गोसाईं ! तब ऐसा गुस्सा आपने कभी नहीं किया। इसी धनुष पर ममता किस कारण है ? यह सुन परशुराम क्रोधित होकर कहने लगे___





रे नृप बालक कालबस, बोलत तोहि न संभार। धनुही सम त्रिपुरारि धनुष, विदित सकल संसार।।___ अर्थ___ हे राजपुत्र ! तू काल के अधीन होने से संभालकर नहीं बोलता। संसार_ प्रसिद्ध शिवधनुष क्या धनुही के समान है ?





 लखन कहा हँसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।। का छति लाभ जून धनु तोरे। देखा राम नयन के भोरें।।___ अर्थ____ लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा___ हे देव ! सुनिए हमारी समझ में सब धनुष बराबर है। पुराने धनुष का तोड़ना क्या हानि_लाभ है ? श्रीरामचन्द्रजी ने तो नवीन के धोखे से इसे देखा था।





छुअत टूट रघुपतिहिं न दोषू। मुनि बिनु काज करिअ कर रोषू।। बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।___ अर्थ___ फिर वह छूते ही टूट गया, इसमें रामचन्द्रजी का दोष नहीं है ? हे मुनि ! बिना प्रयोजन क्यों क्रोध करते हो ? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले___ हे शठ ! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना।





बालक बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानिहि मोही।। बाल ब्रह्मचारी अति कोही। विश्वविदित छत्रिय कुल द्रोही।।___ अर्थ___ बालक जानकर मैं तुझे नहीं मारता हूँ। रे जड़ ! तूने मुझे केवल मुनि ही जाना है। मैं बाल ब्रह्मचारी बड़ा क्रोधी हूँ और जगत् में क्षत्रियवंश का प्रसिद्ध बैरी हूँ।





भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। विपुल बार महीदेवन्ह दीन्ही। सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।___ अर्थ___ अपने भुजाओं के बल से पृथ्वी को बिना राजाओं के करके अनेक बार उसे ब्राह्मणों को दे दिया है। हे राजकुमार ! सहसबाहु की भुजाओं को काटनेवाले इस फरसे को तू देख।





मातु पितहिं जनि सोचबस करसि महीपकिसोर। गर्भहु के अर्भक दलन, परसु मोर अति घोर।।___ अर्थ___ हे राजकिशोर ! तू अपने माता_ पिता को सोच के वश मत कर। मेरा यह कुठार गर्भों के बालकों को मारनेवाला बड़ा भयंकर है।



 बिहसि लखन बोले मृदु बानी। अहो मुनीस महा भटमानी।। पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी हँसकर मधुर वाणी बोले___ अहो ! मुनिश्वर अपने को बड़ा शूरवीर मानते हैं। इसी से मुझे बारंबार कुठार दिखाते हैं। फूँककर पहाड़ उड़ाना चाहते हैं।



इहाँ कुम्हडबतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।। देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।___ यहाँ कोई कुम्हडे का बतियाँ नहीं है जो तरजनी अँगुली देखते ही मुरझा जाती है। कुठार और धनुष_ बाण देखकर ही मैंने अभिमान के साथ कहा है।





भृगुसुत समुझि जनेऊ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ किस रोकी।। सुर महीसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।___ अर्थ___भृगुवंशी ब्राह्मण समझकर और जनेऊ देखकर ही जो कुछ आपने कहा है वह मैंने क्रोध रोककर सहा है। देवता, ब्राह्मण, हरिभक्त और गाय, इन पर हमारे कुल में शूरता नही दिखायी जाती।




बधें पाप अपकीरति हारे। मारत हूँ पा परिअ तुम्हारे।। कोटि कुलिस सम बचन तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बाण कुठारा।___ अर्थ___क्योंकि इन्हें मारने में पाप और इनसे हारने में अपयश है। आप मारें तो भी आपके पाँव ही पड़ना चाहिये। करोड़ों वज्रों के समान तो आपका वचन ही है। आप धनुष_बाण और कुठार तो व्यर्थ ही धारण किये हैं।





जो बिलोकि अनुचित कहेऊँ, छमहु महामुनि धीर। सुनि सरोष भृगुबंशमनि बोले गिरा गभीर।।___ अर्थ___ हे वीर महामुनि ! इन्हें देखकर मैंने जो कुछ अनुचित कहा हो, उसे क्षमा कीजिये। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गम्भीर वाणी बोले___



कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।। भानु बंस राकेस कलंकु। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।___ अर्थ___ हे विश्वामित्र !  सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घालक बन गया है। यह सूर्यवंशरूपी पूर्णचन्द्र का कलंक है। यह बिलकुल उद्गार, मूर्ख और निडर है।





काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।। तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बसु रोषु हमारा।।___ अर्थ____ अभी क्षण_भर में यह काल का ग्रास हो जायगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो।





लखन कहा मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।। अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी ने कहा___ हे मुनि !  आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है।





नहिं संतोष त पुनि कुछ कहहू। जनि किस रोकि दुःसह दुःख सहहू।। बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देर न पावहु सोभा।।___ अर्थ___ इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिये। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिये। आप वीरता का व्रत धारण करनेवाले, धैर्यवान् और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते।





सूर समर करनी करहिं कहा न जनावहिं आप। विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रताप।।___ अर्थ____ शूरवीर तो युद्ध में करनी ( शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं।




तुम्ह तौं कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।। सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।___ अर्थ___आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार बार उसे मेरे लिये बुलाते हैं।
लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया।





अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।। बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।___ अर्थ____और बोले___ अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़ुआ बोलनेवाला बालक मारे जाने के योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है।





कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।। खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।___ अर्थ___ विश्वामित्रजी ने कहा___अपराध क्षमा कीजिये। बालकों के दोष और गुण को साधुलोग नहीं गिनते। परशुरामजी बोले____ तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी, और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने।





उतर देरइ छोडेउँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।। न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहिं उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।____ अर्थ____उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे  शील ( प्रेम ) से। नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋिण हो जाता।





 गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ। अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ।।____ अर्थ____ विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा___ मुनि को हरा_ही_हरा सूझ रहा है ( अर्थात् सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्रीराम_ लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं)। किन्तु यह लोहमयी ( केवल फौलाद की बनी हुई ) खाँड़ ( खाँड़ा_ खड्ग ) है, भी बेसमझ बने हुए हैं; इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।





कहेउ लखन मुनि सील तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा।। माता पितहि उरिन भए नीकें। गुरु रिनु रहा सोच बड़ जी कें।।___ अर्थ____ लक्ष्मणजी ने कहा___ हे मुनि ! आपके सील को कौन नहीं जानता ? वह संसारभर में प्रसिद्ध है। आप माता_पिता से अच्छी तरह उऋिण हो ही गये, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है।





सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।। अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।___अर्थ___ वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गये, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करनेवाले को बुला लाइये, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ।





सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।। भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।___ अर्थ____ लक्ष्मणजी के कड़वे वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला। सारी सभा हाय ! हाय ! करके पुकार उठी। [ लक्ष्मणजी ने कहा___] हे भृगुश्रेष्ठ ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं ? पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ।





मिले न कबहुँ वीर रन गाढ़े। द्विज देवता घरहिं के बाढ़े।। अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखन नेवारे।।___ अर्थ___ आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता !  आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर ‘अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्रीरघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया।





लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोप कृसानु। बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी जल के समान ( शान्त करनेवाले ) वचन बोले__





नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू।। जौं है प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौं कि बराबरि करत अयाना।।___ अर्थ___ हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिये। इस सीधे और दुधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिये। यदि यह प्रभु का ( आपका ) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ?





 जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं।। करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील कीर मुनि ग्यानी।।___ अर्थ____ बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनन्द से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिये। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ग्यानी मुनि हैं।





राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने।। हँसत देखि नख सिख रिस व्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी।।___ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्करा दिये। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक ( सारे शरीर में ) क्रोध छा गया। उन्होंने कहा___ हे राम ! तेरा भाई बड़ा पापी है।





गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं।। सहज टेढ़ अनुकरिय न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही।।___ अर्थ___ यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बड़ा काला है। यह  विषमुख है, दुधमुँहा नहीं। स्वभाव से ही टेढ़ा है, तेरा अनुकरण नहीं करता ( तेरे जैसा शीलवान् नहीं है )। यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता।





लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं करहिं विस्व प्रतिकूल।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा____ हे मुनि ! सुनिये, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते ( सबका अहित करते ) हैं।





मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया।। टूट चाप नहिं जुरिहिं रिसाने। बैठिय होइहिं पाय पिराने।।___ अर्थ___ हो मुनिराज ! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया काजिये। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जायगा। खड़े_ खड़े पैर दुखने लगे होंगे, बैठ जाइये।





जौं अति प्रिय तौं करिअ उपाई। जोरिअ कोऊ बर गुनी बोलाई।। बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भर नाहीं।।___ अर्थ____ यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाय और किसी बड़े गुणी ( कारीगर ) को बुलाकर जुड़वा दिया जाय। लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं___ बस, चुप रहिये, अनुचित बोलना अच्छा नहीं।





थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी।। भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी।  रिस तन जरइ होइ बल हानी।।___ अर्थ___ जनकपुर के स्त्री_ पुरुष थर_थर काँप रहे हैं [ और मन_ही_मन कह रहे हैं कि ] छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय बाणी सुन_सुनकर परशुरामजी की शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है ( उनका बल घट रहा है )।





बोले रामहिं देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा।। मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें।।___ अर्थ___ तब श्रीरामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले____ तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर की कैसा सुन्दर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा।





सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम। गुरु समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम।।____ अर्थ____ यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्रीरामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरुजी के पास चले गये।





अति विनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी।। सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना।।___ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले___ हे नाथ ! सुनिये,  आप तो स्वभाव से ही समझदार हैं। आप बालक के वचन पर ध्यान न दीजिये ( उसे सुना_ अनसुना कर दीजिये )।


बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहिं न संत बिदूषहिं काऊ।। तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा।।___ अर्थ____बरैं और बालक एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने ( लक्ष्मणने ) तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ ! आपका अपराधी तो मैं हूँ।





कृपा कोप बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई।। कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई।।___ अर्थ___अतः हे स्वामी ! कृपा, क्रोध, वध और बन्धन, जो कुछ करना हो, दास की तरह ( अर्थात दास समझकर ) मुझपर कीजिये। जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो, हे मुनिराज ! बताइये, मैं वही उपाय करूँ।





कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहूँ अनुज तव चितव अनैसें।। एहि कें कंठ कुठारु न दीन्हा। तो मैं काह कोपु करि दीन्हा।।___ अर्थ___मुनि ने कहा___ हे राम ! क्रोध कैसे जाय; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। उसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या ?





 गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर । परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर।।___ अर्थ___मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ।





बहइ न हाथु दहइ किस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती।। भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ।।___अर्थ___हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है। [ हाय ! ] राजाओं का घातक यह कुठार भी कुंठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी ?








आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा।। बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन. झरत जनु फूला।।___ अर्थ___ आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कराकर सिर नवाया [ और कहा___ ] आपकी कृपारूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं मानो फूल झड़ रहे हैं ! 





जौं पैं कृपा जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु  राख बिधाता।। देखु जनक हठि बालकु एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू।।____ अर्थ___ हे मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे। [ [परशुरामजी ने कहा___] हे जनक ! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर ( निवास ) करना चाहता है।





बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा।। बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूँदे आँखि कतहुँ कोउ नाहीं।।___ अर्थ___इसको शीघ्र ही आँखों की ओट क्यों नहीं करते ? यह राजपुत्र देखने में छोटा है, पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मणजी ने हँसकर मन_ही_मन कहा___ आँख मूँद लेने पर कहीं कोई नहीं है।





परसुराम तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु। संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमारे प्रबोधु।।___ अर्थ___ तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्रीरामजी से बोले___ अरे शठ ! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उल्टा हमीं को ज्ञान सिखाता है !




बंधु कहइ कटु संमत तोंरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।। करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।___अर्थ___ तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे।





छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।। भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहीं रामु सिर नाएँ।।___ अर्थ___अरे सिवद्रोही ! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाईसहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाये बकवास रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजी सिर झुकाये मन_ही_मन मुस्करा रहे हैं।





गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू।। डेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू।।___ अर्थ____[ श्रीरामचन्द्रजी ने मन_ ही_मन कहा___] गुनाह ( दोष ) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझपर करते हैं। कहीं कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सबलोग किसी की भी वंदना करते हैं; टेढ़े चन्द्रमा को राहू  भी नहीं ग्रसता।





राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।। जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी।।___ अर्थ___ श्रीरामचन्द्रजी ने [ प्रकट ] कहा___ हे मुनीश्वर ! क्रोध छोड़िये। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है। जिस प्रकार आपका क्रोध जाय, हे स्वामी ! वही कीजिये। मुझे अपना अनुचर ( दास ) जानिये।




प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रवर रोसु। बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु।।____ अर्थ___स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा ? हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! क्रोध का त्याग कीजिये। आपका [ वीरों_ का_सा ] वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था; वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है।





देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी।। नामु जान पै तुम्हहिं न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा।।___अर्थ___आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किये देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश ( रघुवंश ) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया।





जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं।। छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी।।___ अर्थ___ यदि आप मुनि की तरह आते तो हे स्वामी ! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिये। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिये।





हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा।। राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।___ अर्थ___ हे नाथ ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी ? कहिये न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक ! कहाँ मेरा राममात्र छोटा_सा नाम और कहाँ आपका परशु सहित बड़ा नाम।





देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारे।। सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।___ अर्थ___ हे देव ! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके पास परम पवित्र [ शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता___ ये ] नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र ! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिये।





बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम। बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम।।___ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी ने परशुराम को बार_बार ‘मुनि’ और ‘विप्रवर’ कहा। तब भृगुपति ( परशुरामजी ) कुपित होकर [ अथवा क्रोध की हँसी_ हँसकर ] बोले___ तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है।





 निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।। चाप स्रुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू।।___ अर्थ___ तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है ? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को स्रुवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान।





समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।। मैं एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।___अर्थ___ चतुरंगिणी सेना सुन्दर समिधाएँ ( यज्ञ में जलाई जानेवाली लड़कियाँ ) हैं। बड़े_ बड़े राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किये हैं ( अर्थात् जैसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक ‘स्वाहा’ शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार_पुकारकर राजाओं की बलि दी है। )।





मोर प्रभाउ विदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।। भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।___ अर्थ___मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे से मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमण्ड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है।





राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।। छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अपमाना।।____ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी ने कहा______ हे मुनि ! विचारकर बोलिये। आपका क्रोध बहुत बड़ा है। और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ ? 





जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ। तो अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।____ अर्थ____ हे भृगुनाथ ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिये, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है जिसे हम डरके मारे माथा नवायें ?





 देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना।। जौ रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।।___ अर्थ____ देवता, दैत्य, राजा या बहुत_से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान् हों, यदि हमें रण में कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे, चाहे काल ही क्यों न हो ?





छत्रिय रवि धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना।। कहउँ सुभाउ न कुलहिं प्रसंसी। कालहुँ डरहिं न रन रघुबंसी।।____ अर्थ___क्षत्रिय का शरीर धर कर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलंक लगा लिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते।





बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहिं डेराई।। सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधरमति के।।___ अर्थ___ ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता ( महिमा ) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है [ अथवा जो भयरहित होता है वह भी आपसे डरता है ]। श्रीरघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी का बुद्धि के परदे खुल गये।





राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू।। देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ।।___ अर्थ___[ परशुरामजी ने कहा___] हे राम ! हे लक्ष्मीपति ! धनुष को हाथ में [ अथवा अथवा लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष ] लीजिये और इसे खींचिये, जिससे मेरा संदेह मिट जाय। परशुरामजी धनुष लेने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।





जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात। जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेम अमात।।___ अर्थ___ तब उन्होंने श्रीरामजी का प्रभाव जाना, [ जिसके कारण ] उसका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले___ प्रेम उनके हृदय में नही समाता था।





जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू।। जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।___ अर्थ____ हे रघुकुलरूपी कमलवन के सूर्य ! हे राक्षसों के कुलरूपी घने जंगल को जलानेवाले अग्नि ! आपकी जय हो ! हे देवता, ब्राह्मण और गौ का हित करनेवाले ! आपकी जय हो !  हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरनेवाले ! आपकी की जय हो।





बिनय सील  करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।। सेवक सुखद सुभग सब अंगा।। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।___ हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर ! आपकी जय हो। हे सेवकों के सुख देनेवाले, सब अंगों से सुन्दर और शरीर में करोड़ों कामदेव की छबि धारण करनेवाले ! आपकी जय हो !





 करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।। अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामन्दिर दोष भ्राता।।____ अर्थ___ मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ ? हे महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस ! आपकी जय हो ! मैंने अनजान आपको बहुत_से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मन्दिर दोनों भाई ! मुझे क्षमा के मन्दिर दोनों भाई ! मुझे क्षमा कीजिये।





 कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।। अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहि पराने।।___ अर्थ____ हे रघुकुल के पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी वन में तप को चले गये। [ यह देखकर ] दुष्ट राजालोग बिना ही कारण के ( मनःकल्पित ) डर से ( रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गये, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से ) डर गये, वे कायर चुपके से जहाँ_तहाँ भाग गये।





देवन्ह दीन्हीं  दुंदुभीं प्रभु पर बरसहिं फूल। हरषे सुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।___ अर्थ___ देवताओं ने नगाड़े बजाये, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री_पुरुष सब हर्षित हो गये। उनका मोहमय ( अज्ञान से उत्पन्न ) शूल मिट गया।