अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।। जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी।।____ अर्थ____खूब जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने मनोहर मंगल_ साज सजे। सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रोंवाली तथा कोयल के समान मधुर होनेवाला स्त्रियाँ झुंड_की_झुंड मिलकर सुन्दर गान करने लगीं।
सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।। बिगत त्रास भई सीय सुखारी। जनि बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।___ अर्थ____ जनकजी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता; मानो जन्म का दरिद्र धन का खजाना पा गया हो ! सीताजी का भय जाता रहा; वे ऐसी सुखी हुई जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है।
जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।। मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाई। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं।।___ अर्थ___ जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया [और कहा___] प्रभु ही की कृपा से श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी ! अब जो उचित हो सो कहिये।
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।। टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू।।___ मुनि ने कहा___ हे चतुर नरेश ! सुनो, यों तो विवाह धनुष के अधीन था; धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है।
तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु। बूझि बिप्र कुरुवृद्ध गुर बेद बिदित आचारु।।___ अर्थ____ तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो।
दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बुलाई।। मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला।।___ अर्थ___ जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा___हे कृपालु ! बहुत अच्छा ! और उसी समय दूतों को बुलाकर भेज दिया।
बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए।। हाट बाट मन्दिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा।।___ अर्थ____ फिर सब महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर नवाया। [ राजा ने कहा___ ] बाजार, रास्ते, घर, देवालय और सारे नगर को चारों ओर से सजाओ।
हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए।। रचहु विचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई।।___ अर्थ___महाराज प्रसन्न होकर चले और अपने_ अपने घर आये। फिर राजा ने नौकरों को बुला भेजा [ और उन्हें आज्ञा दी कि ] विचित्र मण्डप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वो सब राजा के वचन सिर पर धर कर और सुख पाकर चले।
पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना।। बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा।।___ अर्थ___उन्होंने अनेक कारीगरों को बुला भेजा, जो मण्डप बनाने में कुशल और चतुर थे। उन्होंने ब्रह्मा की वन्दना करके कार्य आरम्भ किया और [ पहले ] सोने के केले के खम्भे बनाये।
हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल। रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल।।____ अर्थ____ हरी_ हरी मणियों ( पन्ने ) के पत्ते और फल बनाये तथा पद्मराग मणियों ( माणिक ) के फूल बनाये। मण्डप की अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया।
बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहीं चीन्हे।। कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहीं परइ सपरन सुहाई।।___ अर्थ___ बाँस सब हरी_हरी मणियोंं ( पन्ने ) के सीधे और गाँठों से युक्त ऐसे बनाये जो पहचाने नहीं जाते थे [ कि मणियों के हैं या साधारण ] । सोने की सुन्दर नागबेलि ( पान की लता ) बनायी, जो पत्तों सहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती थी।
तेहि ते रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए।। मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा।।___ अर्थ___उसी नागबेलि को रचकर और पच्चीकारी करके बन्धन ( बाँधने की रस्सी ) बनाए। बीच_बीच में मोतियों के सुन्दर झालरें हैं। माणिक, पन्ने, हीरे और फिरोजे, इन रत्नों को चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके [ लाल, हरे, सफेद और फिरोजी रंग के ] कमल बनाये।
किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा। सुर प्रतिमा खंभन्ह गढ़ि काढ़ीं। मंगल द्रव्य लिएँ सब ठाढ़ीं।।____ अर्थ____भौंरे और बहुत रंगों के पक्षी बनाये, जो हवा के सहारे गूँजते और कूजते थे। खंभों पर देवताओं की मूर्तियाँ गढकर निकालीं, जो सब मंगलद्रव्य लिये खड़ी थीं।
चौंंके भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई।।___ अर्थ___ गजमुक्ताओं के सहज ही सुहावने अनेकों तरह के चौक पुराये।
सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि। हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि।।___ अर्थ___नीलमणि के अत्यन्त सुन्दर आम के पत्ते बनाए। सोने के बौर ( आम के फूल ) और रेशम की डोरी से बँधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं।
रचे रुचिर पर बंदनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे।। मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमक सुहाये।।___ अर्थ___ऐसे सुंदर और उत्तम बंदनवार बनाये मानो कामदेव ने फंदे सजाये हों। अनेकों मंगल_कलश और सुन्दर ध्वजा, पताका परदे और चँवर बनाये।
दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना।। जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै असि मति कबि केही।।___ अर्थ____जिसमें मणियों के अनेकों सुन्दर दीपक हैं, उस बिचित्र मण्डप का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। जिस मण्डप में श्रीजीनकीजी दुलहिन होंगी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके।
दूलहु राम रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर।। जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिए तैसी।।___ अर्थ___ जिस मण्डप में रूप और गुणों के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी दूल्हे होंगे, वह मण्डप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिये। जनता को महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखायी देती है।
जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी।। जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।___ अर्थ___उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था।
बसइ नगर जेहि लच्छि करि कपट नारि पर बेषु। तेहि पुर कै शोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु।।___ अर्थ___ जिस नगर में साक्षात् लक्ष्मीजी कपट से स्त्री का सुन्दर वेष बनाकर बसती है, उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं।
पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन।। भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई।।___ अर्थ___ जनकजी के दूत श्रीरामचन्द्रजी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुन्दर नगर देखकर वे हर्षित हुए। राजद्वार पर जाकर उन्होंने खबर भेजी; राजा दशरथजी ने सुनकर उन्हें बुला लिया।
करि प्रणामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही।। बारि विलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आईं भरि छाती।।___ अर्थ___ दूतों ने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते समय उनके नेत्रों में जल ( प्रेम और आनन्द के आँसू ) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आयी।
रामु लखनु उर कर बर चीठी। रही गए कहत न खाटी मीठी।। पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची।।___ अर्थ___ हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुन्दर चिठ्ठी है, राजा उसे हाथ में लिये ही रह गये, खट्टी_मीठी कुछ भी नहीं कह सके। फिर धीरज कर कर उन्होंने पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गयी।
खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरत सहित हित भाई।। पूछत अति सनेह सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई।।___ अर्थ___भरतजी अपने भाई और शत्रुध्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गये। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं__पिताजी ! चिट्ठी कहाँ से आई है ?
कुशल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं केहिं देस। सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस।।___ अर्थ___ हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई, कहिये सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं ? स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने फिर से चिट्ठी पढ़ी।
सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता।। प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुख लहेउ बिसेषी।।___ अर्थ___ चिट्ठी सुनकर दोनो भाई पुलकित हो गये। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं। भरतजी का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया।
तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे।। भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे।।___ अर्थ___ तब राजा दूतों को पास बिठाकर मन को हरनेवाले मीठे वचन बोले___भैया ! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं ? तुमने अपनी आँखों से अच्छी तरह देखा है न ?
स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा।। पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ।।___ अर्थ____ और गोरे शरीरवाले वे धनुष और तरकस धारण किये रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार_बार इस प्रकार कह ( पूछ ) रहे हैं।
जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि पाई।। कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूर मुसुकाने।।___ अर्थ___[ भैया ! ] जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गये, तबसे आज ही हमने सच्ची खबर पायी है। कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना ? ये प्रिय ( प्रेमभरे ) वचन सुनकर दूर मुस्कराये।
सुनहु महीपति मुकुटमनि तुम्ह सम धन्य न कोउ। रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व विभूषण दोउ।।__अर्थ___[ दूतों ने कहा___ ] हे राजाओं के मुकुटमणि ! सुनिये, आपके समान धन्य कोई नहीं है, जिनके राम_ लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं। चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है।
पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिं तिहु पुर उजियारे।। तिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे।।___ अर्थ___आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं। जिनके यश के आगे चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है।
तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे।। सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तैं एका।।___ अर्थ___ हे नाथ ! उनके लिये आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना ! क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जा सकता है ? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक_से_एक बढकर योद्धा एकत्र हुए थे।
संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा।। तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी।।___ अर्थ___ परन्तु शिवजी के धनुष को कोई भी नहीं हटा सका। सारे बलवान् वीर हार गये। तीनों लोकों में जो वीरता के अभिमानी थे, शिवजी के धनुष ने सबकी शक्ति तोड़ दी।
सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हिय हारि गयउ करि फेरू।। जेहि कौतुक शिवशैलु उठावा। सोउ तेहि सभा पराभउ पावा।।---अर्थ---बाणासुर, जो सुमेरु को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया और जिसने खेल से ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ।
तहाँ राम रघुबंशमणि सुनिअ महा महिपाल। भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल।।__अर्थ__हे महाराज ! सुनिये, वहाँ ( जहाँ ऐसे_ऐसे योद्धा हार मान गये ) रघुवंशमनि श्रीरामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़ डालता है।
सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँख देखाए।। देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।___अर्थ___धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध भरे आये और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखायीं। अन्त में उन्होंने भी श्रीरामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया।
राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।। कंपहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।__अर्थ__हे राजन् ! श्रीरामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेजनिधान फिर लक्षमणजी भी हैं, जिनके देखनेमात्र से राजालोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप उठते हैं।
देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।। दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।__अर्थ__हे देव ! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं ( हमारी दृष्टि पर कोई चढता ही नहीं )। प्रेम, प्रताप और वीर_रस में पगी हुई दूतों की वचनरचना सबको बहुत प्रिय लगी।
सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।। कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना।।__अर्थ__सभासहित राजा प्रेम में मग्न हो गये और दूतों को निछावर देने लगे। [ उन्हें निछावर देते देखकर ] यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे । धर्म को विचारकर ( उनका धर्मयुक्त वर्ताव देखकर ) सभी ने सुख माना।
तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ। कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ।।___अर्थ___तब राजा ने उठकर वशिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर सारी कथा गुरुजी को सुना दी।