Monday, 20 July 2020

बालकाण्ड

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई।। जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाही।।__अर्थ__सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले___पुण्यात्मा पुरुष के लिये पृथ्वी सुखों से छायी हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती।





तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।। तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी।।__अर्थ__वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती है। तुम जैसे गुरु ब्राह्मण, गाय और देवता की सेवा करनेवाले हो, वैसी ही पवित्र कौसल्या देवी भी हैं।





सुकृति तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं।। तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें।।___अर्थ___तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगत् में न कोई हुआ् न है और न होने का ही है।। हे राजन् ! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम सरीखे पुत्र हैं।





बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी। तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना।___अर्थ___और जिसके चारों बालक वीर, विनम्र, धर्म का व्रत धारण करनेवाले और गुणों के सुन्दर समुद्र हैं। तुम्हारे लिये सभी कालों में कल्याण है। अतएव डंका बजाकर बरात सजवाओ।





चलहु बेगि सुन गुर बचन भलेहि नाथ सिरु नाइ। भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ।।___अर्थ___और जल्दी चलो। गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, हे नाथ ! बहुत अच्छा, कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गये।





राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई।। सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं।।___अर्थ___राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनायी। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गयीं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का ( जो दूतों के मुख से सुनी थीं ) वर्णन किया।





प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी।। मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनंद मगन महतारी।।___अर्थ__प्रेम में प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनसुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बडी_बूढी [ अथवा गुरुओं की ] स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं माताएँ आनन्द में मग्न हैं।



लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुडावहिं छाती।। राम लखन कै कीरति करनी। बाहिं बार भूपबर बरनी।।_अर्थ_उस अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती  है। राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्रीराम लक्ष्मण की कीरती और करनी का बार बार वर्णन किया।





सुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए। दिए दान आनन्द समेता। चले विप्रवर आसिष देता।।__अर्थ__’यह सब मुनि की कृपा है’ ऐसा कहकर वे बाहर चले आये। तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनन्दसहित उन्हें दान दिये। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले।





जाचक लिये हँकारि दीन्ही निछावरि कोटि बिधि। चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दशरथ के।।__अर्थ___फिर भिक्षुकों को बुलाकर करोडों प्रकार की निछावरें उनको दीं। ‘चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरंजीवी हों।‘





कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना।। समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होन बधाए।।_अर्थ_यों कहते हुए वे अनेक प्रकार सुन्दर वस्त्र पहन_पहनकर चले। आनन्दित होकर नगाड़ेवालों ने जोर से नगाड़ों पर चोट लगायी। सब लोगों ने जब यह समाचार पाया, तब घर_घर बधावे होने लगे।




भुवन चारिदस भरा उछाहू।  जनकसुता रघुबीर बिआहू।। सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे।।_अर्थ_चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्रीरघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गये और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे।





जद्यपि अवध सदैव सुहावनी। रामपुरी मंगलमय पावनि।। तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई।।_अर्थ_यद्यपि अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योंकि यह श्रीरामजी की मंगलमयी पवित्र पुरी है, तथापि प्रीति_पर_प्रीति होने होने से वह सुन्दर मंगलरचना से सजायी गयी।





ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू।। कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूध दधि अच्छत माला।।_अर्थ_ ध्वज, पताका, परदे और सुन्दर चँवरों से सारा बाजार बहुत ही अनूठा छाया हुआ है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हल्दी, दूब, दही अक्षत और मालाओं से_





मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ। बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ।।_अर्थ_लोगों ने अपने_अपने घरों को सजाकर मंगलमय बना लिया। गलियों को चतुरसम से सींचा और [ द्वारों पर ] सुन्दर चौक पुराये। [ चन्दन, केशर, कस्तूरी और कपूर से बने एक सुगन्धित द्रव्य को चतुरसम कहते हैं।





जहँ तहँ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि।। बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिलोचनि।।_अर्थ_बिजली_की_सी कान्तिवाली चन्द्रमुखी, हरिन के बच्चे के_से नेत्रवाली और अपने सुन्दर रूप से कामदेव की स्त्री रति के अभिमान को छुडानेवाली सुहागिन स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार सजकर, जहाँ_तहाँ झुंड_की_झुंड मिलकर,





गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनि कलरव कलकंठि लजानीं। भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना।।__अर्थ__मनोहर वाणी से मंगलगीत गा रही हैं, जिनके सुन्दर स्वर को सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल का वर्णन कैसे किया जाय, जहाँ विश्व को विमोहित करनेवाला मण्डप बनाया गया है।





सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार। जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार।।__अर्थ__दशरथ के शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि रामचन्द्रजी ने अवतार लिया है।





भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई।। चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता।।_अर्थ_फिर राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोडे, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बरात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई ( भरतजी और शत्रुध्नजी ) आनन्दित हो गये।





भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए।। रुचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे।।_अर्थ_भरतजी ने सब साहनी ( घुडसाल के अध्यक्ष ) बुलाये और उन्हें [ घोडों को सजाने की ] आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठ दौडे। उन्होंने रुचि के साथ ( यथायोग्य ) जीनें कसकर घोडे सजाये। रंग रंग के उत्तम घोडे शोभित हुए।



सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी।। नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उडाने।।_अर्थ_सब घोडे बडे ही सुन्दर और चंचल करनी ( चाल ) के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहे पर रखते हों। अनेकों जाति के घोडे हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। [ ऐसी तेज चाल के हैं ] मानो हवा का निरादर करके उड़ना  चाहते हैं।





तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा।। सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी।।_अर्थ_उन सब  घोडों पर भरतजी के समान अवस्थावाले सब छैल_छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुन्दर हैं और आभूषण धारण किये हुए हैं।





छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन। जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन।।_अर्थ_सभी चुने हुए छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवार चलाने की कला में निपुण हैं।





बाँधे बिरद बीर रन गाढे। निकसि भए पुर बाहर ठाढे।। फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना।।_अर्थ_शूरता का बाना धारण किये हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने घोडों को तरह_तरह की चालों से फेर रहे हैं और भेरी कथा नगाडे की आवाज सुन_सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं।





रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए।। चवँर चारु किंकिनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं।।_अर्थ_सारथियों ने ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत बिलक्षण बना दिया है। उनमें सुन्दर चँवर लगे हैं और घंटियाँ सुन्दर शब्द कर रही हैं। वे रथ इतने सुन्दर हैं मानो सूर्य के रथ की शोभा छीने लेते हैं।





सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथि जोते।। सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे।।_अर्थ_अगणित श्यामकर्ण घोडे थे। उनको सारथियो ने उन रथों में जोत दिया है, जो सभी देखने में सुन्दर और गहनों से सजाये हुए सुशोभित हैं, और जिन्हें देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं।





जे जल चलहिं थलहिं की नाईं। टाप न बूड़ बेग अधिकाई।। अस्त्र सस्त्र सबु साज बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई।।_अर्थ_जो जल पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। नवेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती। अस्त्र_शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया।




चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात। होत सगुन सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात।।_अर्थ_रथों पर चढ़चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी। जो जिस काम के लिये जाता है, सभी को सुन्दर शकुन होते हैं।





कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहिं न जाहिं जेहि भाँति सँवारी।। चले मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी।।_अर्थ_ श्रेष्ठ हाथियों पर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजायी गयी थीं, जो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटों से सुशोभित होकर ( घंटे बजाते हुए ) चले, मानो सावन के सुन्दर बादलों के समूह [ गरजते हुए ] जा रहे हों।




 बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुखद सुखासन जाना।। तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर वृंदा। जनु तनु धरे सकल श्रुति छंदा।।_अर्थ_सुंदर पालकियाँ, सुख से बैठने योग्य तामजान ( जो कुर्सीनुमा होते हैं ) और रथ आदि और भी अनेकों प्रकार की सवारियाँ हैं। उनपर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढ़कर चले, मानो सब वेदों के छन्दही शरीर धारण किये हुए हों।





मागध सूत बंदि गुननायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक।। बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती।।_ अर्थ_मागध, सूत, भाट और गुण गानेवाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढकर चले। बहुत जातियों के ऊँट, बैल और खच्चर असंख्यों प्रकार की वस्तुएँ लाद_लादकर चले।





कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा।। चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साज समाज बनाई।।_अर्थ_कहार करोडो़ं काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकारकी इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णनकौन  कर सकता है। सब सेवकों के समूह अपना_अपना साज_समाज बनाकर चले।





सब कें उदर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर। कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर।।_अर्थ_सबके हृदय में अपार हर्ष है और शरीर पुलकित हैं। ( सबको एक ही लालसा लगी है कि ) हम श्रीराम_लक्षमण दोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेंगे।





गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा।। निदरि घनहि घुम्र्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना।।_अर्थ_हाथी गरज रहे हैं,उनके घंटों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की घरघराहट और घोड़ो़ं की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों का निरादर करते हुए नगाड़े घोर शब्द कर रहे हैं। किसी को अपनी परायी कोई बात कानों से सुनाई नहीं देती।





महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें।। चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिएँ आरती मंगल थारीं।।_अर्थ_राजा दशरथ के द्वार पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाय तो भी वह पिसकर धूल हो जाय। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मंगल थालों में आरती लिये देख रही हैं।





गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंद न जाइ बखाना।। तब सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी।।_अर्थ_और नाना प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनन्द का बखान नहीं हो सकता। तब सुमन्त्रजी ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोडों को भी मात करनेवाले घोड़े जोते।





दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने।। राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा।।_अर्थ_दोनों सुन्दर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आये, जिनकी सुन्दरता का वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथ पर राजसी समान सजाया गया। और दूसरा जो तेज का पुंज और अत्यन्त ही शोभायमान था,





तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु। आपु चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु।।_अर्थ_उस सुन्दर रथ पर राजा वसिष्ठजी को हर्षपूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी ( पार्वती ) और गणेशजी का स्मरण करके [ दूसरे ] रथ पर चढ़े।





सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें।। करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहिं सब भाँति बनाऊ।।_अर्थ_वसिष्ठजी के साथ [ जाते हुए ]  राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देवगुरु वृहस्पतिजी के साथ इन्द्र हों। वेद की विधि से और कुल की रीति के अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकार से सजे देखकर,





 सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई।। हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरसहिं सुमन सुमंगल दाता।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु का आज्ञा पाकर पृथ्वीपति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुन्दर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे।





भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे ।। सुर नर नारी सुमंगल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाई।।_अर्थ_बड़ा शोर मच गया, घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश में और बरात में [ दोनों जगह ] बाजे बजने लगे। देवांगनाएँ और मनुष्यों की स्त्रियाँ सुंदर मंगलगान करने लगे। देवांगनाएँ और मनुष्षों की स्त्रियाँ सुन्दर मंगलगान करने लगीं और रसीले राग से शहनाइयाँ बजने लगीं।





घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं।। करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना।।_अर्थ_ घंटे_घंटियों की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलनेवाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरत कर रहे हैं और फहरा रहे हैं ( आकाश में ऊँचे उछलते हुए जा रहे हैं )। हँसी करने में निपुण और सुन्दर गाने में चतुर बिदूषक ( मसखरे ) तरह_तरह के तमाशे कर रहे हैं।






तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान। नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान।।_अर्थ_सुन्दर राजकुमार मृदंग और नगाड़े का शब्द सुनकर घोडो़ं को उन्हीं के अनुसार इस प्रकार नचा रहे है कि वे ताल के बंधान से जरा भी डिगते नहीं हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख रहे हैं।





बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुखदाता।। चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई।।_अर्थ_बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुन्दर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बायीं ओर चारा ले रहा है, मानो संपूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो।





दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहु पावा।। सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी।।_अर्थ_दाहिनी ओर कौवा सुन्दर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की ( शीतल, मन्द, सुगन्धित ) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ ( सुहागिनी ) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिये हुए आ रही हैं।





लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।। मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई।।_अर्थ_लोमड़ी फिर_फिरकर ( बार_बार ) दिखायी दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली [ बायीं ओर से ] घूमकर दाहिनी ओर को आयी, मानो सभी मंगलों का समूह दिखायी दिया।





छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी।। सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना।।_अर्थ_क्षेमकरी ( सफेद सिरवाली चील )  विशेष रूप से क्षेम ( कल्याण ) कह रही है। स्यामा बायीं ओर सुन्दर पेड़ पर दिखायी पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिये सामने आये।






मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार। जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार।।_अर्थ_सभी मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देनेवाले शकुन मानो सत्चे होने के लिये एक ही साथ हो गये।





मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुन्दर सुत जाकें।। राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दशरथ जनक पुनीता।।_अर्थ_स्वयं सगुन ब्रह्म जिनके सुन्दर पुत्र हैं,उसके लिये सब मंगल सगुन सुलभ हैं। जहाँ श्रीरामचन्द्रजी सरीखे दुल्हा और सीताजी जैसी दुलहिन हैं तथा दशरथजी और जनकजी जैसे पवित्र समधी हैं,





 सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे।। एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना।।_अर्थ_ऐसा ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे। [ और कहने लगे_] अब ब्रह्माजी ने हमको सच्चा कर दिया। इस तरह बरात ने प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं और नगाड़ों पर चोट लग रही है।





आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्ह जनक बँधाए सेतू।। बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए।।_अर्थ_सूर्यवंश के पताकास्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिये। बीच_बीच में ठहरने के लिये सुन्दर घर ( पड़ाव ) बनवा दिये, जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छायी है।





असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए।। नित नूतन सुख लहि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले।।_अर्थ_और जहाँ बरात के सब लोग अपने_अपने मन की पसंद के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नये सुखों को देखकर सभी बराती अपने घर भूल गये।





आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान। सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान।।_अर्थ_बड़े जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करनेवाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले।