Sunday, 4 October 2020

बालकाण्ड

मासपरायण दसवाँ विश्राम

कनक कलस मरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा।।  भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने।।_अर्थ_ [ दूध, शर्बत, ठंडाई और जल आदि से ]  भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति_भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात , थाल आदि अनेक प्रकार के सुन्दर बर्तन







फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं।। भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना।_अर्थ_ उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुन्दर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिषे भेजीं। गहने, कपड़े, नाना प्रकार की मूल्यवान मणियाँ ( रत्न ), पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी और बहुत तरह की सवारियाँ,






मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए।। दधि चिउड़ा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा।।_अर्थ_तथा बहुत प्रकार के सुहावने तथा मंगल द्रव्य और सगुन के पदार्थ राजा ने भेजे। दही चिउड़ा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर_भरकर कहार चले।






अगवानन्ह जब दीख बराता। उर आनन्दु पुलक भर गाता।। देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना।।_अर्थ_अगवानी करनेवालों को जब बरात दिखायी दी, तब उनके हृदय में आनन्द छा गया और शरीर रोमांच से भर गय। अगवानों को सज_धज के साथ देखकर बरातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाये।





हरषि परस्पर मिलन हित कछुक चले बगमेल। जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।।_अर्थ_ [ बराती तथा अगवानों में से ] कुछ लोग परस्पर मिलने के लिये हर्ष के मारे बाग छोड़कर ( सरपट ) दौड़ चले,और ऐसे मिले मानो आनन्द के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों।





बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभि बजावहिं।। बस्तु सकल राखी नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें।।_अर्थ_ देवसुन्दरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं, और देवता आनंदित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। [ अगवानी में आये हुए ] उन लोगों ने सब दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती की।





प्रेम समेत रायँ सब लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा।। करि पूजा मान्यता बड़ाई।। जनवासे कहुँ चले लवाई।।_अर्थ_राजा दशरथजी ने प्रेमसहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गयीं। तदनन्तर पूजा, आदर_सत्कार और बड़ाई करके अगवानलोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले।





बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं।। अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहँ सब भाँति सुपासा।।_अर्थ_विलक्षण वस्त्रों के पाँवड़े पर रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुंदर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकार का सुविधा था।





जानि सीय बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई।। हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई।।_अर्थ_सीताजी ने बरात जनकपुर में आयी जानकर अपनी कुछ महिमा प्रगट करके दिखलायी। हृदय में स्मरण कर सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिये भेजा।





सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास। लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास।।_अर्थ_सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इन्द्रपुरी के भोगविलास को लिये हुए गयीं।





निज निज बास बिलोकि बराती। सुरसुख सकल सुलभ सब भाँती।। विभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना।।_अर्थ_ बरातियों ने अपने_अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे हैं।




सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदय हेतू पहिचानी।। पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम जानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान् आनन्द था।






सकुचन्ह कहि न सकत गुर पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं।। बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी।।_अर्थ_संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे; परन्तु मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत संतोष उत्पन्न हुआ।





हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए।। चले जहाँ दसरथु जनवासे।  मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे।।_अर्थ_प्रसन्न होकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भर गया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो।





भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत। उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।_अर्थ_जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले।





मुनिहि दंडवत् कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।। कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।_अर्थ_पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया। 
विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी।





पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।। सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।।_अर्थ_फिर दोनों भाइयों को दण्डवत्_प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में अपार सुख हो रहा था। पुत्रों को [ उठाकर ] हृदय से लगाकर उन्होंने अपने [ वियोगजनित ] दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गये हों।





पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।। बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाई।  मनभावति  असीसें पाई।।_अर्थ_ फिर उन्होंने बसिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ  ने प्रेम के आनन्द में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वन्दना की और मनभाये आशीर्वाद पाये।





भरत सहानुज कीन्ह प्रणामा। लिए उठाई लाई उर रामा।। हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।_अर्थ_भरतजी ने छोटे भाई शत्रुध्नसहित श्रीरामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्रीरामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले।





पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत। मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत।।_अर्थ_तदनन्तर परम कृपालु और विनयी  श्रीरामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों, मंत्रियों और मित्रों_ सभी से यथायोग्य मिले।





रामहिं देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी।। नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी।।_ अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी को देखकर बरात शीतल हुई ( राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह शान्त हो गयी)। प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा के पास चारों पुत्र ऐसे शोभा पा रहे हैं मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किये हुए हों।





सुतन्ह समेत दशरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी।। सुमन बरसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना।।_अर्थ_पुत्रोंसहित दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री_पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। [ आकाशमें ] देवता फूलों की वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गागाकर नाच रही हैं।





सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन।। सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना।।_अर्थ_अगवानी में आये हुए शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मंत्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों ने बरातसहित राजा दशरथजी का आदर_सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे।





प्रथम बरात लगन ते आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई।। ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं।।_अर्थ_ बरात लग्न के पहले दिन से पहले आ गयी है, इससे जनकपुर में अधिक आनंद छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानंद प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन रात बढ़ जायँ ( बड़े हो जायँ )।





राम सीय सोभा अवधि सुकृत अवध दोउ राज। जहँ तहँ पुरजन  कहहिं अस मिलि नर नारि समाज।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी और सुन्दरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा हैं, जहाँ_तहाँ जनकपुरवासी स्त्री_पुरुषों के समूह इकट्ठे हो_ होकर यही कह रहे हैं।





जनक सुकृति मूरति बैदेही। दशरथ सुकृति रामु धरें देही।। इन्ह सम काहु न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे।।_अर्थ_ जनकजी के सुकृत ( पुण्य ) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किये हुए श्रीरामजी हैं। इन [ दोनों राजाओं ] के समान किसी ने शिवजी की अराधना नहीं की; और न इनके समान किसी ने फल ही पाये।





इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहीं कतहूँ होनेउ नाहीं।। हम सब सकल सुकृति कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी।।_अर्थ_इनके समान जगत् में न कोई हुआ, न कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी संपूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत् में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए।





जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृति हम सरिस बिसेषी।। पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू।।_ अर्थ_ और जिन्होंने जानकीजी और श्रीरामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा ! और अब हम श्रीरघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति लोचन का लाभ लेंगे।





कहहिं परस्पर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं।। बड़ें भाग बिधि बात बनाईं। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई।।_अर्थ_कोयल के समान मधुर बोलनेवाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुन्दर नेत्रोंवाली ! इस विवाह में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे।





बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय। लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय।।_अर्थ_जनकजी स्नेहवश बार_बार सीताजी को बुलावेंगे, और करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर दोनों भाई सीताजी को लेने ( विदा कराने )  आया करेंगे।





बिबिध भाँति होइहहिं पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई।। तब तब राम लखनहिं निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी।।_अर्थ_तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी ! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी ! तब_तब हम सब नगरवासी श्रीराम_लक्ष्मण को देख_देखकर सुखी होंगे।




सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा।। स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए।।_अर्थ_सखी ! जैसा श्रीराम_ लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अंग बहुत सुन्दर हैं। जो लोग उन्हें देख आये हैं, वे सब यही कहते हैं।





कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे।। भरतु रामहिं की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।_ अर्थ_एक ने कहा__मैंने आज ही उन्हें देखा है; इतने सुन्दर हैं मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों से सँवारा है। भरत तो श्रीरामचन्द्रजी की ही शकल सूरत के हैं। स्त्री_पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते।





लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा।। मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं।।_अर्थ_ लक्ष्मण और शत्रुध्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है।





उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं। बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।। पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहिं बचन सुनावहीं। ब्याहिअहु चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावही।।_अर्थ_तुलसीदास कहता है कवि और कोविद ( विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन ( विनती ) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुन्दर मंगल गावें।





कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन। सखि सब करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ।।_अर्थ_नेत्रों में  [ प्रेमाश्रुओं का ]
 का जल भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि यह सखी ! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं। त्रिपुरारी शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे।





एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनंद उमगि उमगि उर भरहीं।। जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।_अर्थ_ इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को आनंद से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होंने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया।





कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला।। गए बीति कछु दिन एहि भाँति। प्रमुदित पुरजन सकल बराती।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का निर्मल और महान् यश कहते हुए राजालोग अपने_अपने घर गये। इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। जनकपुरनिवासी और बराती सभी बड़े आननंदित हैं।




मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिमरितु अगहनु मासु सुहावा।। ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।। _अर्थ_मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमन्त ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न ( मुहूर्त ) शोधकर ब्रह्माजी ने उसपर विचार किया।





पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई।। सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता।।_ अर्थ_ और उस ( लग्नपत्रिका ) को नारदजी के हाथ [ जनकजी के यहाँ ] भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी यही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे_ यहाँ के ज्योतिषी ब्रह्माजी हैं।





धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल। बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल।।_अर्थ_निर्मल और सभी सुन्दर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र वेला आ गयी और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा।





उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंबु कर कारनु काहा।। सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए।।_अर्थ_तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देर का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर ले आये।





संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे।। सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं  बेद धुनि बिप्र पुनीता।।_अर्थ_शंख, नगाड़े, ढ़ोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मंगलकलश औरशुभ शकुन की वस्तुएँ ( दधि, दूर्वा  आदि) सजायी गयीं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं।






लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती।। कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू।।_अर्थ_सबलोग इस प्रकार आदरपूर्वक बरात को लेने चले और जहाँ बरातियों का जनवासा था, वहाँ गये। अवधपति दशरथजी का समाज ( वैभव ) देखकर उनको देवराजइन्द्र भी बहुत तुच्छ लगने लगे।





भयउ समउ अबधारिय पाऊ।  यह सुनि परा निसानहिं घाऊ।। गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा।।_अर्थ_[ उन्होंने जाकर विनती की_ ] समय हो गया, अब पधारिये। यह सुनते ही नगाड़ों पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज के साथ लेकर चले।





भाग्य विभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि। लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि।।_अर्थ_अवधनरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे।





सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना।। सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।।_अर्थ_देवगण सुन्दर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा_बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी, आदि देववृंद टोलियाँ बना_बनाकर विमानों पर जा चढ़े।





प्रेम पुलक तन हृदय उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू।। देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज_निज लोक सबन्हि लघु लागे।।_अर्थ_और प्रेम से पुलकित शरीर तथा हृदय में उत्साह भरकर श्रीरामचन्द्रजी का विवाह देखने  चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गये कि उन सबको अपने_ अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे।





चितवहिं चकितबिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना। नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना।।_अर्थ_विचित्र मण्डप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री_पुरुष रूप के भण्डार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं।





तिन्हहीं देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजियारीं।।  बिधिहि भयउ आचरजु बिषेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी।।_अर्थ_उन्हें देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गये जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ; क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी ( रचना ) तो कहीं देखी ही नहीं।





सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु। हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु।।__ अर्थ_तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुमलोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार करो कि यह [ भगवाव् की महिमामयी निजशक्ति ] श्रीसीताजी और [ अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात् भगवान् ] श्रीरामचन्द्जी का विवाह है।





जिन्ह कर नाम लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।। करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय राम कहेउ कामारी।।_अर्थ_जिनका नाम लेते ही जगत् में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदारथ ( अर्थ,धर्म,काम और मोक्ष ) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही ( जगत् के माता_पिता ) श्री सीतारामजी हैं; काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा।





एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा।। देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता।।_अर्थ_ इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नन्दीश्वर को आगे बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं।





साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरे करहिं सुख सेवा।। सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनु धारी।।_अर्थ_उनके साथ [ परम हर्षयुक्त ] साधुओं और ब्राह्मणों की मण्डली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण कर उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुन्दर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित हैं, मानो संपूर्ण मोक्ष ( सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य ) शरीर धारण किये हुए हों।





मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी।। पुनि रामहिं बिलोकि हियँ हरषे। नृपहिं सराहि सुमन तिन्ह बरसे।।_ अर्थ_मरकतमणि और सुवर्ण के रंग की सुन्दर जोड़ियों को देखकर देवताओं को कम प्रीति नहीं हुई ( अर्थात् बहुत ही प्रीति हुई ) । फिर श्रीरामराचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में ( अत्यन्त ) हर्षित हुए और राजा की सराहना करके उन्होंने फूल बरसाये।





राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि। पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि।।_अर्थ_नख से शिखा तक श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर रूप को बार बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी  का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र [ प्रेमाश्रुओं के ] जल से भर गये।





केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा।। ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए।।_अर्थ_रामजी के मोर के कण्ठ की_सी कांतिवाला [ हरिताभ ] श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करनेवाले प्रकाशमय सुन्दर [ पीत ] रंग के वस्त्र हैं। सब मंगलरूप और सब प्रकार से सुन्दर भाँति_भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाये हुए हैं।





सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन।। सकल अलौकिक सुन्दरताई। कहि न जाइ मनहिं मन भाई।।_अर्थ_उनका सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और [ मनोहर ] नेत्र नवीन कमल को लजानेवाले हैं। सारी सुन्दरता अलौकिक है। ( माया की बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है ) वह कहि नहीं जा सकती, मन_ही_मन बहुत प्रिय लगती है।





बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।। राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं।।_अर्थ_साथ में मनोहर भाई शोभित हैं, जो चंचल घोड़ों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ों को ( उनकी चालको ) दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करनेवाले ( मागध_भाट ) विरुदावली सुना रहे हैं।





जेहि तुरंग पर राम बिराजे । गति बिलोकि खगनायकु लाजे।। कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा।।_अर्थ_जिस घोड़े पर श्रीरामजी विराजमान हैं, उसकी [ तेज ] चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं। उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार सुन्दर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर लिया हो।






जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई। आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई।। जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे। किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।।_अर्थ_मानो श्रीराचन्द्रजी के लिये कामदेव घोड़े का वेष बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। सुन्दर मोती, मणि और माण्क्य लगी हुई जड़ाऊ जीन ज्योति से जगमगा रहा। उसकी सुन्दर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।





प्रभु मनसहिं लयनीन मनु चलत बाजि छबि पाव। भूषित उड़गण तड़ित घनु जनु बर बरहिं नचाव।।_अर्थ_प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किये चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलंकृत मेघ सुन्दर मोर को नचा रहा हो।





जेहि बर बाजि राम असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा।। संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे।।_अर्थ_जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्रीरामचन्द्रजी सवार हैं उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्रीरामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे।





हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे।। निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने।।_अर्थ_भगवान् विष्णु ने जब प्रेमसहित श्रीराम को देखा, तब वे  [ रमणीयता की मूर्ति ] श्रीलक्ष्मीजी के पति श्रीलतक्ष्मीजीसहित मोहित हो गये। श्रीरामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे।





सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू।। रामहिं चितव सुरेस सुजाना। गौतमु श्रापु परम हित माना।_अर्थ_देवताओं के सेनापति स्वामी कार्तिकेय के हृदय में बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात् बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुन्दर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र [ अपने हजार नेत्रों से ] श्रीरामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिये परम हितकर मान रहे हैं।





देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं।। मुदित देवगन रामहिं देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी।।_अर्थ_सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्ष्या कर रहे हैं [ और कह रहे हैं ]  कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान्  दूसरा कोई नहीं है। श्रीरामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है।





अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभि बाजहिं घनी। बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनि।। एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं। रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं।।_अर्थ_दोनों ओर से  राजसमाज में अत्यंत हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर ‘रघुकुलमणि श्रीराम की जय हो,जय हो, जय हो’ कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बरात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिये मंगलद्रव्य सजाने लगीं।





सजि आरति अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि। चलि मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि।।_अर्थ_अनेक प्रकार से आरती सजाकर और समस्त मंगलद्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनि ( हाथी_की सी चालवाली ) उत्तम स्त्रियाँ आनन्दपूर्वक परछन के लिये चलीं।
बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि।। पहिरे बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा।।_अर्थ_सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी ( चन्द्रमा के समान मुखवाली ) और सभी मृगलोचनी ( हरिण के समान आँखोंवाली ) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को चूर करनेवाली हैं। रंग रंग की सुन्दर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं।





सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ।। कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं।।_अर्थ_समस्त अंगों को सुंदर मंगल पदार्थों से सजाये हुए वे कोयल को भी लजाती हुई [ मधुर स्वर से ] गान कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों के चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं।





बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा।। सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज भवानी।।_अर्थ_अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुन्दर मंगलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी ), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवांगनाएँ थीं,





कपट नारि बर बेष बनाई। मिलि सकल रनिवासन्ह जाई।। करहिं गान कल मंगलबानीं। हरष बिबस सम काहु न जानी।।_अर्थ_वे सब कपट से सुन्दर स्त्री का वेष बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मंगलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे इसलिये उन्हें किसी ने पहचाना नहीं।






को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली। कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली।। आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई। अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई।।_अर्थ_कौन किसे जाने_पहिचाने !  आनंद के बस हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्म का परिछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर_मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनन्दकन्द दूलह को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हरषित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड़ आया और सुन्दर अंगों में पुलकावली छा गयी।