नृप सब रहहिं कृपा अभिलाषें। लोकप करहिं प्रीति रुख राखें।। त्रिभुवन तीनि काल जग माहीं। भूरिभाग दशरथ सब नाहीं।।_अर्थ_सब राजा उनकी कृपा चाहते हैं और लोकपालगण उनके रुख को रखते हुए ( अनुकूल होकर ) प्रीति करते हैं। ( पृथ्वी, आकाश और पाताल ) तीनों भुवनों में और ( भूत, भविष्य, वर्तमान ) तीनों कालों में दशरथजी के समान बड़भागी और कोई नहीं है।
मंगलमूल रामु सुत जासू। जो कछु कहिए थोर सबु तासू।। राय सुभायं मुकुरु कर लीन्हा। बदनु बिलोकि मुकुटु सम कीन्हा ।।_अर्थ_मंगलों के मूल श्रीरामचन्द्रजी जिनके पुत्र हैं, उनके लिये जो कुछ कहा जाय सब थोड़ा है। राजा ने स्वाभाविक ही हाथ में दर्पण ले लिया और उसमें अपना मुंह देखकर मुकुट को सीधा किया।
श्रवन समीप भए सित केसा। मनहुं जरठपन अस उपदेसा।। नृप जुबराजु राम कहुं देहू। जीवन जनम लाहु किन लेहू।।_अर्थ_( देखा कि ) कानों के पास बाल सफेद हो गये हैं, मानो बुढ़ापा ऐसा उपदेश कर रहा है कि हे राजन् ! श्रीरामचन्द्रजी को युवराज_पद लेकर अपने जीवन और जन्म का लाभ क्यों नहीं लेते।
यह बिचारि उर आनि नृप। सुदिनु सुअवसरु पाइ। प्रेम पुलकि तन मुदित मन गुरहि सुनायउ जाइ।।_अर्थ_हृदय में यह विचार लाकर ( युवराज पद देने का निश्चय कर ) राजा दशरथजी ने शुभ दिन और सुन्दर समय पाकर, प्रेम से पुलकित शरीर हो आनन्द मग्न मन से उसे गुरु वसिष्ठ जी को जा सुनाया।
कहइ भुआल सुनिअ मुनिनायक। भए राम सब बिधि सब लायक।। सेवक सचिव सकल पुरबासी। जे हमरे अरि मित्र उदासी।।_अर्थ_राजा ने कहा_ हे मुनिराज ! ( कृपया यह निवेदन ) सुनिये। श्रीरामचन्द्र अब सब प्रकार से योग्य हो और गये हैं। सेवक, मंत्री, सब नगरवासी और जो हमारे शत्रु, मित्र हैं__
सबहि रामु प्रिय जेहि बिधि मोही। प्रभु असीस तनु धनु धरि सोही।। बिप्र सहित परिवार गोसाईं। करहिं छोहु सब रौरिहि नाईं।।_अर्थ_सभी को श्रीरामचन्द्र वैसे ही प्रिय हैं जैसे वे मुझको हैं। ( उनके रूप में ) आपका आशीर्वाद ही मानो शरीर धारण करके शोभित हो रहा है। हे स्वामी ! सारे ब्राह्मण परिवार सहित आपके ही समान उनपर स्नेह करते हैं।
जे गुर चरन रेनु सिर धरहीं। ते जनु सकल बिभव बस करहीं।। मोहि यह अनुभयउ न दूजें। सबु पायउं रज पावनि पूजें।।_अर्थ_जो लोग गुरु के चरणों की रज को मस्तक पर धारण करते हैं, वे मानो समस्त ऐश्वर्य को अपने वश में कर लेते हैं। इसका अनुभव मेरे समान दूसरे किसी ने नहीं किया। आपकी पवित्र चरण रज की पूजा करके मैंने सबकुछ पा लिया।
अब अभिलाषु एकु मन मोरें। पूजिहि नाथ अनुग्रह तोरें।। मुनि प्रसन्न लखि सहज सनेहू। कहेउ नरेस रजायसु देहू।।_अर्थ_अब मेरे मन में एक ही अभिलाषा है। हे नाथ ! वह भी आपके अनुग्रह से पूरी होगी। राजा का सहज प्रेम देखकर मुनि ने प्रसन्न होकर कहा_नरेश ! आज्ञा दीजिये ( कहिये क्या अभिलाषा है ? )।
राजन राउर नाम जसु सब अभिमत दातार। फल अनुगामी महीप मनि मन अभिलाषु तुम्हार।।_अर्थ_हे राजन् ! आपका नाम और यश ही संपूर्ण मनचाही वस्तुओं को देनेवाला है। हे राजाओं के मुकुटमणि ! आपके मन की अभिलाषा फल का अनुगमन करती है ( अर्थात् आपकी इच्छा करने के पहले ही फल उत्पन्न हो जाता है।
अब बिधि गुरु प्रसन्न जिय जानी। बोलेउ राउ रहंसि मृदु बानी।। नाथ राम करिअहिं जुबराजू। कहिए कृपा करि करिय समाजू।।_अर्थ_गुरु को प्रसन्न देखकर राजा ने मीठी वाणी से कहा कि वे श्रीरामचन्द्र जी को युवराज बनाना चाहते हैं।
मोहि अछत यह होहु उछाहू। लहहिं लोग सब लोचन लाहू।। प्रभु प्रसाद सिव सबहिं निबाहीं। यह लालसा एक मन माहीं।।_अर्थ_मेरे जीते_जी यह आनन्द उत्सव हो जाय, ( जिससे ) सब लोग अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करें। प्रभु ( आप )_के प्रसाद से शिवजी ने सबकुछ निबाह दिया ( सब इच्छाएं पूर्ण कर दीं ), केवल यही एक लालसा मनमें रह गयीं हैं।
पुनि न सोच तन रहउ कि जाऊ। जेहि न होई पाछे पछिताऊ।। सुनि मुनि दशरथ बचन सुहाए। मंगल मोद मूल मन भाए।।_अर्थ_इस ( लालसा के पूर्ण हो जाने पर ) फिर सोच नहीं, शरीर रहे या चला जाय, जिससे मुझे पीछे पछतावा न हो। दशरथजी के मंगल और आनंद के मूल सुन्दर वचन सुनकर मुनि मन में बहुत प्रसन्न हुए।
सुनु नृप जासु बिमुख पछिताहीं। जासु भजन बिनु जरनि न जाहीं।। भयउ तुम्हार तनय सोइ स्वामी। रामु पुनीत प्रेम अनुगामी।।_अर्थ_( बसिष्ठजी ने कहा_ ) हे राजन् ! सुनिये, जिनसे बिमुख होकर लोग पछताते हैं और जिनके भजन बिना जी की जलन नहीं जाती, वहीं स्वामी ( सर्वलोकमहेश्वर ) श्रीरामजी आपके पुत्र हुए हैं, जो पवित्र प्रेम के अनुगामी हैं। ( श्रीरामजी पवित्र प्रेम के पीछे_पीछे चलनेवाले हैं।
बेगि बिलंबु न करिअ नृप साजिय सबुइ समाजु। सुदिन सुमंगल तबहिं जब राम होहिं जुबराजु।।_अर्थ_हे राजन् ! अब देर न कीजिये, शीघ्र सब सामान सजाइये। शुभ दिन और सुन्दर मंगल तभी है जब श्रीरामचन्द्र जी युवराज हो ( अर्थात् उनके अभिषेक के लिये शुभ और मंगलमय है।
मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्रु बोलाए। कहि जयजीव सीस तिन्ह नाए। भूप सुमंगल बचन सुनाए।।_अर्थ_राजा आनन्दित होकर महल में आये और उन्होंने सेवकों तथा मंत्री सुमंत्र को बुलवाया। उन लोगों ने ' जय जीव’ कहकर सिर नवाये। तब राजा ने सुन्दर मंगलमय वचन ( श्रीरामजी को युवराज पद देने का प्रस्ताव ) सुनाये।
जौं पाचहुं मत लागै नीका। करहुं हरषि हियं रामहि टीका।।_अर्थ_( और कहा_ ) यदि पंचों को ( आप सबको ) यह मत अच्छा लगे, तो हृदय में हर्षित होकर आपलोग श्रीरामचन्द्र का राजतिलक कीजिये।
मंत्री मुदित सुनत प्रिय बानी। अभिमत बिरवं परेउ जनु पानी।। बिनती सचिव करहिं कर जोरी। जिअहु जगतपति सरिस करोरी।।_अर्थ_इस प्रिय वाणी को सुनते मंत्री ऐसे आनंदित हुए मानो उनके मनोरथरूपी पौधे पर पानी पड़ गया हो। मंत्री हाथ जोड़कर विनती करते हैं कि हे जगत्पति ! आप करोड़ों वर्ष जियें।
जग मंगल भव काजु बिचारा। बेगि नाथ न लाइअ बारा।। नृपहिं मोदु सुनि सचिव सुभाषा। बढ़त बौंड़ तनु लही सुसाखा।।_अर्थ_आपने जगत् भर का मंगल करने वाला भला काम सोचा है। हे नाथ ! शीघ्रता कीजिये, देर नहीं लगाइये। मंत्रियों की सुन्दर वाणी सुनकर राजा को ऐसा आनंद हुआ मानो बढ़ती हुई बेल सुन्दर डाली का सहारा पा गयी हो ।
कहेउ भूप मुनि राज कर जोइ जोइ आयसु होई। राम राज अभिषेक हित बेगि करहु सोइ सोइ।।_अर्थ_राजा ने कहा_श्रीरामचन्द्र के राज्याभिषेक के लिये मुनिराज वशिष्ठ जी की जो_जो आज्ञा हो, आपलोग वहीं सब तुरंत करें।
हरषि मुनीस कहेउ मृदु बानी। आनहु सकल सुतीरथ पानी।। औषध मूल फूल फल पाना। कहे नाम गनि मंगल नाना।।_अर्थ_मुनिराज ने हर तीर्थ का पानी, फल, मूल, फूल और अनगिनत प्रकार के मंगल सामग्री एकत्रित करने कहा।
चामर चरम बसन बहु भांति। रोम पाट पट अगनित जाती।। मनि गन मंगल बस्तु समेता। जो जग जोगु भूप अभिषेका।।_अर्थ_चंवर, मृगचर्म, बहुत प्रकार के वस्त्र, असंख्यों जातियों के ऊनी और रेशमी कपड़े, ( नाना प्रकार की ) मणियां ( रत्न ) तथा और भी बहुत_सी मंगल वस्तुएं, जो जगत् में राज्याभिषेक योग्य होती हैं ( सबको मंगाने की उन्होंने आज्ञा दी।
बेद बिदित कहि सकल बिधाना। कहेउ रचहु पुर बिबिध बिताना।। सफल रसाल पूगफल केरा। रोपहु बीथिन्ह पुर चहुं फेरा।।_अर्थ_मुनि ने वेदों में कहा हुआ सब विधान बताकर कहा_नगर में बहुत_से मण्डप (चंदोवे ) सजाओ। फलों समेत आम, सुपारी और केले के वृक्ष नगर की गलियों में चारों ओर रोप दो।
रचहु मंजु मनि चौकें चारू। कहहु बनावन बेगि बजारू।। पूजहु गनपति गुर कुलदेवा। सब बिधि करहु भूमिसुर सेवा।।_अर्थ_सुन्दर मणि के मनोहर चौकें पुरवाओ और बाजार को तुरन्त सजाने के लिये कह दो। श्रीगणेशजी, गुरु और कुलदेवता की पूजा करो और भूदेव ब्राह्मणों की सब प्रकार से सेवा करो।
ध्वज पताक तोरन कलश सजहु तुरग रथ नाग। सिर धरि गुर बचन सब निज निज काजहिं लाग।।_अर्थ_ध्वजा, पताका, तोरण, कलश, घोड़े, हाथी और रथ सबको सजाओ। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी के वचनों को शिरोधार्य करके सबलोग अपने अपने काम में लग गये।
जो मुनीस जेहि आयसु दीन्हा। सो तेहि काजु प्रथम जनु कीन्हा।। बिप्र साधु सुर पूजत राजा। करन राम हित मंगल काजा।_अर्थ_मुनीश्वर ने जिसको जिस काम के लिये आज्ञा दी, उसने वह काम ( इतनी शीघ्रता से कर डाला कि ) मानो पहले से ही कर रखा था। राजा ब्राह्मण, साधु और देवताओं को पूज रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजी के लिये सब मंगलकार्य कर रहे हैं।
सुनत राम अभिषेक सुहावा। बाज गहागह अवध बधावा ।। राम सीय तन सगुन जनाए। फरकहिं मंगल अंग सुहाए।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी के शरीर में शुभ शकुन सूचित हुए। उनके सुन्दर मंगल अंग फड़कने लगे।
पुलकि सप्रेम परस्पर कहहीं। भरत आगमनु सूचक अहहीं ।। भए बहुत दिन अति अवसेरी। सगुन प्रतीति भेंट प्रिय केरी।।_ अर्थ_पुलकित होकर वे दोनों प्रेमसहित एक_दूसरे को कहते हैं कि ये सब शकुन भरत के आने की सूचना देने वाले हैं। ( उनको मामा के घर गये बहुत दिन हो गये; बहुत ही अवसेर आ रही है ( बार बार उनसे मिलने की मन में आती है ) शकुनों से प्रिय ( भरत )_के मिलने का विश्वास होता है।
भरत सरिस प्रिय को जग माहीं। इहइ सगुन फल दूसर नाहीं।। रामहि बंधु सोच दिन राती। अंडन्हि कमठ हृदउ जेहि भांति।।_अर्थ_और भरत के समान जगत् में ( हमें ) कौन प्यारा है ! शकुन का बस यही फल है, दूसरा नहीं। श्रीरामचन्द्रजी को ( अपने ) भाई भरत का दिन_रात ऐसा सोच रहता है जैसा कछुए का हृदय अंडों में रहता है।
एहि अवसर मंगलु परम सुनि रहंसेउ रनिवासु। सोभत लखि बिनु बढ़त जनु बारिधि बीचि बिलासु।।_अर्थ_इसी समय यह परम मंगल समाचार सुनकर सारा रनिवास हर्षित हो उठा। जैसे चन्द्रमा को बढ़ते देखकर समुद्र में लहरों का विलास ( आनंद ) सुशोभित होता है।
प्रथम जाइ जिन्ह बचन सुनाए। भूषन बसन भूरि तिन्ह पाए।। प्रेम पुलकि तन मन अनुरागीं।। मंगल कलस सजन सब लागीं।।_अर्थ_सबसे पहले ( रनिवास में ) जाकर जिन्होंने ये वचन ( समाचार ) सुनाये, उन्होंने बहुत से आभूषण और वस्त्र पाये। रानियों का शरीर प्रेम से पुलकित हो उठा और मन प्रेम में मग्न हो गया। वे सब मंगलकलश सजाने लगीं।
चौकें चारु सुमित्रां पूरी। मनिमय बिबिध भांति अति रूरी।। आनंद मगन राम महतारी। दिए दान बहु बिप्र हंकारी।।_अर्थ_सुमित्राजी ने मणियों ( रत्नों ) के बहुत प्रकार के अत्यन्त सुन्दर और मनोहर चौक पूरे। आनन्द में मगन हुई श्रीरामचन्द्रजी की माता कौशल्याजी ने ब्राह्मणों को बुलाकर बहुत दान दिए।
पूजीं ग्रामदेवी सुर नागा। कहेउ बहोरि देहु बलिभागा।। जेहि बिधि होइ राम कल्यानू। देहु दया करि सो बरदानू।।_अर्थ_उन्होंने ग्रामदेवी, देवताओं और नागों की पूजा की और फिर बलि भेंट देने को कहा ( अर्थात् कार्य सिद्ध होने पर फिर पूजा करने की मनौती मानी ); और प्रार्थना की कि जिस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी का कल्याण हो, दया करके वहीं वरदान दो।
गावहिं मंगल कोकिलबयनीं। बिधुबदनीं मृगसावकनयनीं।।_अर्थ_ कोमल की_सी मीठी वाणी वाली और हिरण के बच्चे के से नेत्रोंवाली स्त्रियां मंगलगान करने लगीं।
राम राज अभिषेक सुनि हियं हरसे नर नारि। लगे सुमंगल सजन सब बिधि अनुकूल बिचारि।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक सुनकर सभी स्त्री_पुरुष हृदय में हर्षित हो उठे और विधाता को अपने अनुकूल समझकर सब सुन्दर मंगल साजा सजाने लगे।
तब नरनाहं बसिष्ठु बोलाए। रामधाम सिख देन पठाए।। गुर आगमनु सुनत रघुनाथा। द्वार आई पद नायउ माथा।।_अर्थ_तब राजा ने बसिष्ठजी को बुलाया और शिक्षा ( समयोचित उपदेश ) देने के लिये श्रीरामचन्द्र जी के महल में भेजा। गुरु का आगमन सुनते ही श्रीरघुनाथजी ने दरवाजे पर आकर उनके चरणों में मस्तक नवाया।
सादर अरघ देइ घर आने। सोलह भांति पूजि सनमाने।। गहे चरन सिय सहित बहोरी। बोले रामु कमल कर जोरी।।_अर्थ_आदरपूरवक अर्ध्य देकर उन्हें घर में लाते और षोडशोपचार से पूजा करके उनका सम्मान किया। फिर सीताजीसहित उनके चरण स्पर्श किये और कमल के समान दोनों हाथों को जोड़कर श्रीरामजी बोले_
सेवक सदन स्वामि आगमनू। मंगल मूल अमंगल दमनू।। तदपि उचित जनु बोलि सप्रीती।। पठइय काज नाथ असि नीती।।_अर्थ_ यद्यपि सेवक के घर स्वामि का पधारना मंगलों का मूल और अमंगलों का नाश करनेवाला होता है, तथापि से नाथ, उचित तो यही था कि प्रेम पूर्वक दास को ही कार्य के लिये बुला भेजते; ऐसी ही नीति है।
प्रभुता तजि प्रभु कीन्ह सनेहू। भयउ पुनीत आजु यह गेहू।। आयसु होई हो करौं गोसाईं। सेवकु रही स्वामि सेवकाई।।_अर्थ_परन्तु प्रभु ( आप )_ने प्रभुता छोड़ कर स्वयं यहां पधारकर जो स्नेह किया, उससे आज यह घर पवित्र हो गया। हे गोसाईं ! ( अब ) जो आज्ञा हो, मैं वहीं करूं। स्वामी की सेवा में ही सेवक का लाभ है।
सुनि स्नेह साने बचन मुनि रघुबरहि प्रसंस। राम कह न तुम कहहु अस हंस बंस अवतंस।।_अर्थ_( श्रीरामचन्द्रजी ) प्रेम में सने हुए बचनों को सुनकर मुनि बसिष्ठजी ने श्री रघुनाथ जी की प्रशंसा करते हुए कहा कि हे राम ! भला, आप ऐसा क्यों न कहें। आप सूर्यवंश के भूषण जो हैं।
बरनि राम गुन सील सुभाऊ। बोले प्रेम पुलकित मुनिराऊ।। भूप सजेउ अभिषेक समाजू। चाहत देन तुम्हहिं जुबराजू।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के गुण, शील और स्वभाव का बखान कर, मुनिराज प्रेम से पुलकित होकर बोले_( हे श्रीरामचन्द्रजी ! ) राजा ( दशरथजी )_ ने राज्याभिषेक की तैयारी की है। वे आपको युवराज_पद देना चाहते हैं।
राम करहु सब संजम आजू। जौं बिधि कुसल निबाहै काजू।। गुरु सिख देइ राय पहिं गयऊ। राम हृदयं अस बिसमउ भयऊ।।_अर्थ_( इसलिेये ) हे रामजी ! आज आप ( उपवास, हवन आदि विधिपूर्वक ) सब संयम कीजिये, जिससे विधाता कुशलपूर्वक इस काम को निबाह दें ( सफल कर दें ) । गुरुजी शिक्षा देकर दशरथजी के पास चले गये। श्रीरामचन्द्रजी के हृदय में ( यह सुनकर ) इस बात का खेल हुआ कि_
जन्मे एक संग सब भाई। भोजन सयन केलि लरिकाई।। करनबेध उपबीत बिआहा। संग संग सब भए उछाहा।।_अर्थ_हम सब भाई एक ही साथ जन्मे; खाना, सोना, लड़कपन के खेलकूद, कनछेदन यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ_साथ ही हुए।
बिमल बंस यह अनुचित एकू। बंधु बिहाइ बड़ेहि अभिषेकू।। प्रभु सप्रेम पछितानि सुहाई। हरेउ भगत मन कै कुटिलाई।।_अर्थ_पर इस निर्मल वंश में यही एक अनुचित बात हो रही है कि और सब भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक एक बड़े का ही ( मेरा ही ) होता है। ( तुलसीदास जी कहते हैं कि ) प्रभु श्रीरामचन्द्रजी का यह सुन्दर प्रेमपूर्ण पछतावा भक्तों के मन की कुटिलता को हरण करे।
तेहि अवसर आए लखन मगन प्रेम आनंद। सनमाने प्रिय बचन कहि रघुकुल कैरव चन्द।।_अर्थ_उसी समय प्रेम और आनन्द में मग्न लक्ष्मण जी आये। रघुकुलरूपी कुमुद के खिलानेवाले चन्द्रमा श्रीरामचन्द्रजी ने प्रिय वचन कहकर उनका सम्मान किया।
बाजहिं बाजने बिबिध बिधाना। पुर प्रमोदु नहिं जाइ बखाना।। भरत आगमनु सकल मनावहिं। आवहुं बेगि नयन फलु पावहिं।।_अर्थ_बहुत प्रकार के बाजे बज रहे हैं। नगर के अतिशय आनंद का वर्णन नहीं हो सकता। सबलोग भरत का आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी शीघ्र आवें और ( राज्याभिषेक का उत्सव देखकर ) नयनों का फल प्राप्त करें।
हाट बाट घर गली अथाईं। कहहिं परस्पर लोग लोगाईं। कालि लगन भलि केतिक बारा। पूजिहिं सिद्धि अभिलाषु हमारा।।_अर्थ_बाजार, रास्ते, घर, गली और चबूतरों पर ( जहां_तहां ) स्त्री और पुरुष आपस में यही कहते हैं कि कल वह शुभ लग्न ( मुहूर्त ) कितने समय है जब विधाता हमारी अभिलाषा पूरी करेंगे।
कनक सिंहासन सीय समेता। बैठहिं राम होइ चित चेता।। सकल कहहिं कब होइहिं काली। बिघन मनावहिं देव कुचाली।।_अर्थ_जब सीताजी सहित श्रीरामचन्द्र जी सुवर्ण के सिंहासन पर विराजेंगे और हमारा मनचीता होगा ( मन:कामना पूरी होगी )। इधर तो सब कह रहे हैं कि कल कब होगा, उधर कुचक्री देवता विध्न मना रहे हैं।
तिन्हहिं सोहाइ न अवध बधावा। चोरहिं चांदिनी रात न भावा।। सादर बोलि बिनती सुर कहीं। बारहिं बार पाय लै परहीं।।_अर्थ_उन्हें ( देवताओं को ) अवध के बधावे नहीं सुहाते, जैसे चोर को चांदनी रात नहीं भाती। सरस्वती जी को बुलाकर देवता विनय कर रहे हैं और बार_बार उनके पैरों को पकड़कर उनपर गिरते हैं।
बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोई आजु। रामु जाहिं बन राज तजि होई सकल सुरकाजु।।_अर्थ_ ( वे कहते हैं_) हे माता ! हमारी बड़ी विपत्ति को देखकर आज वही कीजिये जिससे श्रीरामचन्द्र जी राज त्यागकर वन को चले जायं और देवताओं का सब कार्य सिद्ध हो।
सुनि सुर बिनय खाड़ी पछिताती। भयउं सरोज बिपिन हिमराती।। देखि देव पुनि कहहिं निहोरी। मातु तोहि नहिं थोरिउ खोरी।।_अर्थ_देवताओं की विनती सुनकर सरस्वतजी खड़ी_खड़ी पछता रही हैं कि ( हाय ! ) मैं कमलवन के लिये हेमन्त_ऋतु की रात हुई। उन्हें इस प्रकार पछताते देखकर देवता फिर विनय करके कहने लगे_हे माता ! इसमें आपको जरा भी दोष न लगेगा।
बिसमय हरष रहित रघुराऊ। तुम्ह जानहु सब नाम प्रभाऊ।। जीव करम बस सुख दुख भागी। जाइअ अवध देशहित लागी।।_अर्थ_ श्रीरघुनाथजी विषाद और हर्ष से रहित हैं। आप तो श्रीरामजी के सब प्रभाव को जानती ही हैं। जीव अपने कर्मवश ही सुख_दु:ख का भागी होता है। अतः देवताओं के हित के लिये आप अयोध्या जाइये।
बार बार गहि चरन संकोची। चली बिचारि बिबुधमति पोची।। ऊंच निवासु नीति करतूती। देखि न सकहिं पराइ बिभूती।।_अर्थ_बार_बार चरण पकड़कर देवताओं ने सरस्वती को संकोच में डाल दिया। तब वह यह विचार कर चली कि देवताओं की बुद्धि ओछी है। इनका निवास तो ऊंचा है, पर इनकी करनी नीची है। ये दूसरे का ऐश्वर्य नहीं देख सकते।
आगिल काजु बिचारि बहोरी। करिहहिं चाह कुसल कबि मोरी।। हरषि हृदयं दसरथ पुर आई। जनु ग्रह दसा दुसह दुखदाई।।_अर्थ_परन्तु आगे के काम का विचार करके ( श्रीरामजी के वन जाने से राक्षसों का वध होगा, जिससे सारा जगत् सुखी हो जायगा ) चतुर कवि ( श्रीरामजी के वनवास के चरित्रों का वर्णन करने के लिये ) मेरी चाह ( कामना ) करेंगे। ऐसा विचार कर सरस्वतजी हृदय में हर्षित होकर दशरथजी की पुरी अयोध्या में आतीं मानो दु:सह दु:ख देनेवाली कोई ग्रहदशा आयी हो।
नामु मंथरा मंदमति चेरी कैकइ केरि। अजस पेटारी ताहि करि गई गिरा मति फेरि ।।_अर्थ_मंथरा नाम की कैकयी की एक मंदबुद्धि दासी थी, उसे अपयश की पिटारी बनाकर सरस्वती उसकी बुद्धि को फेरकर चली गईं।