सत्य कहहिं कबि नारि सुभाऊ। सब बिधि अगहु अगाध दुराऊ।। निज प्रतिबिंबु बरकु गहि जाई। जानि न जाइ नारि गति भाई।।_अर्थ_कवि सत्य ही कहते हैं कि स्त्री का स्वभाव सब प्रकार से पकड़ में न आने योग्य अथाह और भेदभरा होता है। अपनी परछाहीं भले ही पकड़ आ जाय, पर भाई ! स्त्रियों की गति ( चाल ) नहीं जानी जाती।
काह न पावकु जारि सक का न समुद्र समाइ। का न करै अबला प्रबल केहि जग कालु न खाइ।।_अर्थ_आग क्या नहीं जला सकती ! समुद्र में क्या नहीं समा सकता ! अबला कहलाने वाली प्रबल स्त्री ( जाति ) क्या नहीं कर सकती ! और जगत् में काल किसको नहीं खाता !
का सुनाइ बिधि काह सुनावा। का देखाइ चह काह देखावा।। एक कहहिं भल भूप न कीन्हा। बरु बिचारि नहिं कुमतिहि दीन्हा।।_अर्थ_ विधाता ने क्या सुनाकर क्या सुना दिया और क्या दिखाकर अब क्या दिखाना चाहता है ! एक कहते हैं कि राजा ने अच्छा नहीं किया, दुर्बुद्धि कैकेयी को विचार कर वर नहीं दिया।
जो हठि भयउ सकल दुख भाजनु। अबला बिबस ग्यानु गुनु गाजनु।। एक धर्म परमिति पहिचाने। नृपहिं दोषु देहिं सयाने।।_अर्थ_जो हठ करके ( कैकेयी की बात को पूरा करने में अड़े रहकर ) स्वयं सब दु:खों के पात्र हो गये। स्त्री के विशेष वश होने के कारण मानो उनका ज्ञान और गुण जाता रहा। एक ( दूसरे ) जो धर्म की मर्यादा को जानते हैं और सयाने हैं, वे राजा को दोष नहीं देते।
सिबि दधीचि हरिचंद कहानी। एक एक सन कहहिं बखानी।। एक भरत कर संमत कहहीं। एक उदास भांय सुनि रहहीं।।_अर्थ_वे शिबि, दधीचि और हरिश्चन्द्र की कहानी एक_दूसरे से बखान कर कहते हैं। कोई एक सुनकर उदासी न भाव से रह जाते हैं ( कुछ बोलते नहीं ) ।
कान मूदि कर रद गहि जीहा। एक कहहिं यह बात अलीहा।। सुकृति जाहि अस कहत तुम्हारे। राम भरत कहुं प्रानपिआरे।।_अर्थ_ कोई हाथों से कान मूंदकर और जीभ को दांतों तले दबाकर कहते हैं कि यह बात झूठ है, ऐसी बात कहने से तुम्हारे पुण्य नष्ट हो जायेंगे। भरत जी को तो श्रीरामचन्द्रजी प्राणों के समान प्यारे हैं।
चन्दु चवै बरु अनल कन सुधा होई बिषतूल। सपनेहुं कबहुं न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।_अर्थ_चन्द्रमा चाहे ( शीतल किरणों की जगह ) आग की चिंगारियां बरसाने लगे और अमृत चाहे विष के समान हो जाय, परन्तु भरत स्वप्न में भी श्रीरामचन्द्रजी के विरुद्ध कुछ नहीं करेंगे।
एक बिधातहिं दूषनु देहीं। सुधा देखाइ दीन्ह बिनु जेहीं। खरभरु नगर सोचु सब काहू। दुसह राहु उर मिटा उछाहू।।_अर्थ_कोई एक विधाता को दोष देते हैं, जिसने अमृत दिखाकर विष दे दिया। नगर भर में खलबली मच गयी, सब किसी को सोच हो गया। हृदय में दु:सह जलन है आनन्द_उत्साह मिट गया।
बिप्रबधू कुलमान्य जठेरी। जे प्रिय परम कैकेई कैकेई केरी।। लगीं देन सिख सीलु सराही। बचन बानसम लागहिं ताही।।_अर्थ_ब्राह्मणों की स्त्रियां, कुल की माननीय बड़ी_बूढ़ी और जो कैकेयी की परम_प्रिय थीं, वे उसके शील की सराहना करके उसे सीख देने लगीं। पर उसको उनके वचन बाण के समान लगते हैं।
भरतु न मोहि प्रिय राम समाना। सदा कहहु यहु सबु जगु जाना।। करहु राम पर सहज सनेहू। केहि अपराध आजु बनु देहू।।_अर्थ_( वे कहती हैं_ ) तुम तो सदा कहा करती थीं कि श्रीरामचन्द्र के समान मुझको भरत भी प्यारे नहीं हैं; इस बात को सारा जगत् जानता है। श्रीरामचन्द्रजी पर भी तो तुम स्वाभाविक ही स्नेह करती रही हो। आज किस अपराध से उन्हें वन देती हो?
कबहुं न कियहु सवति आरेसू। प्रीति प्रतीति जान सबु देसू।। कौसल्या अब काह बिगारा। तुम्ह जेहि लागि बज्र पुर जारा।।_अर्थ_तुमने कभी सौतिया डाह नहीं किया। सारा देश तुम्हारे प्रेम और विश्वास को जानता है। अब कौशल्या ने तुम्हारा कौन_सा बिगाड़ कर दिया, जिसके कारण तुमने सारे नगर पर वज्र गिरा दिया।
सीय कि पिय संग परिहरहिं लखनु कि रहिहहिं धाम। राज कि भूंजब भरत पुर नृपु कि रहिहहिं बिनु राम।।_अर्थ_क्या सीताजी अपने पति ( श्रीरामचन्द्रजी ) का साथ छोड़ देंगी ? क्या लक्ष्मणजी श्रीरामचन्द्रजी के बिना घर रह सकेंगे ? क्या भरत श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्यापुरी का राज्य भोग सकेंगे ? और क्या राजा श्रीरामचन्द्रजी के बिना जीवित रह सकेंगे ? ( अर्थात् न सीताजी यहां रहेंगी, न लक्ष्मणजी रहेंगे न भर्ती राज करेंगे और न राजा ही जीवित रहेंगे; सब उजाड़ हो जायगा।
अस बिचारि उर छाड़हु कोहू। सोक कलंक कोठि जनि होहू।। भरतहिं अवसि देहु जुबराजू। कानन काह राम कर काजू।।_अर्थ_हृदय में ऐसा विचार कर क्रोध छोड़ दो, शोक और कलंक की कोठी मत बनो। भरत को अवश्य युवराज पद दो, पर श्रीरामचन्द्रजी का वन में क्या काम है !
नाहिंन राम राज के भूखे। धरम धुरीन बिषय रस रूखे।। गुर गृह बसहुं रामु तजि गेहू। नृप सन अस बरु दूसर लेहू।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी राज के भूखे नहीं हैं। वे धर्म की दूरी को धारण करनेवाले विषय रस से रूखे हैं ( अर्थात् उनमें विषयाशक्ति है ही नहीं। ( इसलिये तुम यह शंका न करो कि श्री रामजी वन न गये तो भरत के राज्य में विघ्न करेंगे; इतने पर भी मन न माने तो ) तुम राजा से दूसरा ऐसा ( यह ) वर ले लो श्रीराम घर छोड़कर गुरु के घर रहें।
जौं नहिं लगिहहु कहें हमारे। नहिं लगिहि कछु हाथ तुम्हारे।। जौं परिहास कीन्हि कछु होई। जौं कहि प्रगट जनावहु सोई।।_अर्थ_जो तुम हमारे कहने पर न चलोगी तो तुम्हारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा। यदि तुमने कुछ हंसी की हो तो उसे प्रगट में कहकर जना दो ( कि मैंने दिल्लगी की है )।
राम सरिस सुत कानन जोगू। काह कहिहहिं सुनि तुम्ह कहुं लोगू।। उठहु बेगि सोई करहु उपाई। जेहिं बिधि सोकु कलंकु नसाई।।_अर्थ_राम_सरीखा पुत्र क्या वन के योग्य है ? यह सुनकर लोग तुम्हें क्या कहेंगे ! जल्दी उठो और वही उपाय करो जिस उपाय से इस शोक और कलंक का नाश हो।
जेहिं भांति सोकु कलंकु जाय उपाय करि कुल पालहि। हठि फेरु रामहि जात बन जनि बात दूसर चालहि।। जिमि भानु बिनु दिनु प्रान बिनु तनु चन्द बिनु जिमि जामिनी। जिमि अवध तुलसीदास प्रभु बिनु समुझि धौं जिमि भामिनी।।_अर्थ_जिस तरह ( नगरभर का ) शोक और तुम्हारा कलंक मिटे, वहीं उपाय करके कुल की रक्षा कर। वन जाते हुए श्रीरामजी को हठ करके लौटा ले, दूसरी कोई बात न चला। तुलसीदासजी कहते हैं_जैसे सूर्य के बिना दिन, प्राण के बिना शरीर और चन्द्रमा के बिना रात ( निर्जीव तथा शोभाहीन हो जाते हैं ) वैसे ही श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्या हो जायेगी; हे भामिनि ! तू अपने हृदय में इस बात को समझ ( विचारकर देख ) तो सही।
सखिन्ह सिखावनु दीन्ह सुनत मधुर परिनाम हित। तेईं कछु कान न दीन्ह कुटिल प्रबोधी कूबरी।।_अर्थ_इस प्रकार सखियों ने ऐसी सीख दी जो सुनने में मीठी और परिणाम में हितकारी थी। पर कुटिला कुबरी की सिखाती पढ़ाई हुई कैकेयी ने इसपर जरा भी कान नहीं दिया।
उतरु न देई दुसह रिस रूखी। मृगिन्ह चितव जनु बाघिनि भूखी।। ब्याधि असाधि जानि तिन्ह त्यागी। कहत मतिमन्द अभागी।।_अर्थ_कैकेयी कोई उत्तर नहीं देती, वह दु:सह क्रोध के मारे रूखी हो रही है। ऐसे देखती है मानो भूखी बाघिन हरिनियों को देख रही हो। तब सखियों ने रोग को असाध्य समझकर उसे छोड़ दिया। सब उसको मन्दबुद्धि अभागिनि कहती हुई चल दीं।
राजु करत यह दैअं बिगोई। कीन्हेसि अस जस करई न कोई।। एहि बिधि बिलपहिं पुर नर नारी। जेहिं कुचालिहि कोटिक गारीं।।_अर्थ_राज्य करते हुए इस कैकेई को दैव ने नष्ट कर दिया। इसने जैसा कुछ किया, वैसा कोई भी न करेगा। नगर के सब स्त्री_पुरुष ऐसा विलाप कर रहे हैं और उस कुमारी कैकेयी को करोड़ों गालियां दे रहे हैं।
जरहिं बिषम जल लेहिं उसासा। कवनि राम बिनु जीवन आसा।। बिपुल बियोग प्रजा अकुलानी। तनु जलचर गन सूखत पानी।।_अर्थ_लोग विषमज्वर ( भयानक दु:ख की आग ) से जल रहे हैं। लंबी सांसें लेते हुए वे कहते कि श्रीरामचन्द्रजी के बिना जीने की कौन आशा है। महान् वियोग ( की आशंका ) से प्रजा ऐसी व्याकुल हो गयी है मानो पानी सूखने के समय जलचर जीवों का समुदाय व्याकुल हो।
अति बिषाद बस लोग लोगाईं। गए मातु पहिं रामु गोसाईं।। मुख प्रसन्न चित चौगुन चाऊ। मिटा सोचु जनि राखै राऊ।।_अर्थ_सभी पुरुष और स्त्रियां अत्यन्त विषाद के वश हो रहे हैं। स्वामि श्रीरामचन्द्रजी माता कौशल्या के पास गये। उनका मुख प्रसन्न हैं और चित्त में चौगुना चाव ( उत्साह ) है। यह सोच मिट गया है कि राजा कहीं रख न लें। ( श्रीरामजी को राजतिलक की बात सुनकर विषाद हुआ था कि सब भाइयों को छोड़कर बड़े भाई मुझको ही राजतिलक क्यों होता है। अब माता कैकेयी की आज्ञा और पिता की मौन सम्मति पाकर वह सोच मिट गया।)
नव गयंदु रघुबीर मनु राजु मलान समान। छूट जानि बन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का मन पकड़े हुए हाथी के समान और राजतिलक उस हाथी के बांधने की कांटेदार लोहे की बेरी के समान है। ‘वन जाना है’ यह सुनकर अपने को बंधन से छूटा जानकर, उनके हृदय में आनन्द बढ़ गया है।
रघुकुलतिलक जोरि दोउ हाथा। मुदित मातु पद नायउ माथा।। दीन्ह असीस लाइ उर लीन्हे। भूषण बसन निछावरि कीन्हे।।_अर्थ_ रघुकुलतिलक श्रीरामचन्द्रजी ने दोनों हाथ जोड़कर आनंद के साथ माता के चरणों में सिर नवाया। माता ने आशीर्वाद दिया, अपने हृदय से लगा लिया और उनपर गहने तथा कपड़े न्यौछावर किये।
बार बार मुख चुंबति माता नयन नेह जलु पुलकित गाता।। गोद राखि पुनि हृदय लगाए। स्रवत प्रेमरस पयद सुहाए।।_अर्थ_माता बार_बार श्रीरामचन्द्रजी का मुख चूम रही है। नेत्रों में प्रेम का जल भर आया है और सब अंग पुलकित हो गये हैं। श्रीराम को अपनी गोद में बैठाकर फिर हृदय से लगा लिया और उनपर गहने तथा कपड़े न्यौछावर किये।
प्रेम प्रमोदु न कछु कहि जाई। रंक धनद पदबी जनु पाई।। सादर सुन्दर बदनु निहारी। बोली मधुर बचन महतारी।।_अर्थ_उनका प्रेम और आनंद कुछ कहा नहीं जाता। मानो कंगाल ने कुबेर का पद पा लिया हो। बड़े आदर के साथ सुन्दर मुख देखकर माता मधुर वचन बोलीं_