Monday, 23 May 2022

अयोध्याकाण्ड


 मासपारायण, चौदहवां विश्राम

मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं।। राजकुमारि सिखावनु सुनहू। आन भांति जियं जनि कछु गुनहू।।_अर्थ_माता के सामने सीताजी से कुछ कहने में सकुचाते हैं। पर मन में यह समझकर कि यह समय ऐसा ही है, वे बोले_ हे राजकुमारी ! मेरी सिखावन सुनो। मन में कुछ दूसरी तरह न समझ लेना।





आपन मोर नीक जौं चहहू। बचनु हमार मानि गृह रहहू।। आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधि भामिनि भवन भलाई।।_अर्थ_जो अपना और मेरा भला चाहती हो, तो मेरा वचन मानकर घर रहो। हे भामिनि ! मेरी आज्ञा का पालन होगा, सास की सेवा बन पड़ेगी। घर रहने में सभी प्रकार से भलाई है।





एहि ते अधिक धरमु नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।। जब जब मातु करिहिं सुधि मोरी। होइहि प्रेम बिकल मति भोरी।।_अर्थ_आदरपूर्वक सास_ससुर के चरणों की पूजा ( सेवा ) करने से बढ़कर कोई धर्म नहीं है। जब_जब माता मुझे याद करेंगी और प्रेम से व्याकुल होने के कारण उनकी बुद्धि बोली हो जायगी ( वे अपने आप को भूल जायेंगी ),





तब तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुंदरि समुझायहु मृदु बानी।। कहउं सुभायं सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउं मोही।। _अर्थ_हे सुन्दरी ! तब_तब तुम कोमल बाणी से पुरानी कथाएं कह_कहकर इन्हें समझाना। हे सुमुखि ! मुझे सैकड़ों सौगंध है, मैं यह स्वभाव से ही कहता हूं कि मैं तुम्हें केवल माता के लिये ही घर पर रखता हूं।





गुर श्रुति संमत धरमु फलु पाइअ बिनहिं कलेस। हठ बस सब संकट सहे गालब नहुष नरेस।।_अर्थ_( मेरी आज्ञा मानकर घर पर रहने से ) गुरु और वेद के द्वारा सम्मत धर्म ( के आचरण ) का फल तुम्हें बिना ही क्लेश के मिल जाता है। किन्तु हठ के वश होकर गालव मुनि और राजा नहुष आदि सबने संकट ही सहे।






मैं पुनि करि प्रवान पितु बानी। बेगि फिरब सुनु सुमुखि सयानी। दिवस जात नहिं लागिहिं बारा। सुंदरि सिखवनु सुनहु हमारा।।_अर्थ_हे सुमुखि ! हे सयानी ! सुनो, मैं भी पिता के वचन को सत्य करके शीघ्र ही लौटूंगा। दिन जाते देर नहीं लगेगी। हे सुन्दरी ! हमारी यह सीख सुनो !





 जौं हठ करहु प्रेम बस बामा। तौ तुम्ह दुख पाउब परिनामा।। काननु कठिन भयंकर भारी। घोर घामु हिम बारि बयारी।।_अर्थ_हे वामा ! यदि प्रेमवश हठ करोगी, तो तुम परिणाम में दुख पाओगी। वन बड़ा कठिन ( क्लेशदायक ) और भयानक है। वहां की धूप, जाड़ा, वर्षा और हवा सभी बड़े भयानक हैं।






कुस कंटक मग कांकर नाना। चलब पयादेहिं बिनु पदत्राना।। चरन कमल मृदु मंजु तुम्हारे। मारग अगम भूमिधर भारे।।_अर्थ_रास्ते में कुश, कांटे और बहुत_से कंकड़ हैं। उनपर बिना जूते के पैदल ही चलना होगा। तुम्हारे चरण कमल कोमल और सुंदर हैं और रास्ते में बड़े_बड़े दुर्गम पर्वत हैं।





कंदर खोह नदीं नद नारे। अगम अगाध न जाहिं निहारे।। भालु बाघ बृक केहरि नागा। करहिं नाद सुनि धीरजु भागा।।_अर्थ_पर्वतों की गुफाएं, खोह ( दर्रे ) नदियां, नद और नाले ऐसे अगम्य और गहरे हैं कि उनकी ओर देखा तक नहीं जाता।
 रीछ, बाघ, भेड़िये, सिंह और हाथी ऐसे ( भयानक ) शब्द करते हैं कि उन्हें सुनकर धीरज भाग जाता है।





भूमि सयन बलकल बसन असनु कंद फल मूल। ते कि सदा सब दिन मिलहिं सबुइ समय अनुकूल।।_अर्थ_जमीन पर सोना, पेड़ों की छाल के वस्त्र पहनना और कंद, मूल, फल का भोजन करना होगा। और वे भी क्या सदा सब दिन मिलेंगे ? सबकुछ अपने_अपने समय के अनुकूल ही मिल सकेगा।





नर आहार रजनीचर चरहीं। कपट बेस बिधि कोटिक करहीं।। लागी अति पहार कर पानी। बिपिन बिपति नहीं जाइ बखानी।।_अर्थ_मनुष्यों को खानेवाले निशाचर ( राक्षस ) फिरते रहते हैं। वे करोड़ों प्रकार के कपटरूप धारण करते हैं। पहाड़ का पानी बहुत ही लगता है। वन की विपत्ति बखानी नहीं जा सकती।





ब्याल कराल बिहग बन घोरा। निसिचर निकर नारि नर चोरा।। डरपहिं धीर गहन सुनि आएं। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएं।।_अर्थ_वन में भीषण सर्प, भयानक पक्षी और स्त्री_पुरुषों को चुरानेवाले राक्षसों के झुंड_के_झुंड रहते हैं। वन की ( भयंकरता ) याद आने मात्र से धीर पुरुष भी डर जाते हैं। फिर  हे मृगलोचनि ! तुम तो स्वाभाव से ही डरपोक हो।





हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहिं लोगू।। मानस सलिल सुधा प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधि मराली।।_अर्थ_हे हंसगमनि ! तुम वन के योग्य नहीं हो। तुम्हारे वन जाने की बात सुनकर लोग मुझे अपयश देंगे। मानसरोवर के अमृत के समान जल से पाली हुई हंसिनी कहीं खारे समुद्र में जी सकती है ?





नव रसाल बन बिहरनसीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला।। रहहु भवन अस हृदयं बिचारी। चंदबदनि दुखु कानन भारी।।_अर्थ_नवीन आम के वन में विहार करनेवाली कोयल क्या करील के जंगल में शोभा पाती है ? हे चन्द्रमुखी ! हृदय में ऐसा विचारकर तुम घर ही पर रहो। वन में बड़ा कष्ट है।





सहज सुहृद गुर स्वामि सिख जो न करिअ सिख मानि। होइ पछिताइ अघाई उर अवसि होई हित मानि।।_अर्थ_स्वाभाविक ही हित चाहनेवाले गुरु और स्वामी की सीख को जो सिर चढ़ाकर नहीं मानता, वह हृदय में भरपेट पछताता है और उसके हित की हानि अवश्य होती है।





सुनि मृदु बचन मनोहर पिय के। लोचन ललित भरे जल सिय के।। सीतल सिख दाहक भइ कैसें। चकइहि सरद चंद हित जैसें।।_अर्थ_प्रियतम के कोमल तथा मनोहर वचन सुनकर सीताजी के सुंदर नेत्र जल से भर गये। श्रीरामजी की यह शीतल सीख उनको कैसी जलानेवाली हुई, जैसे चकवी को शरद्_ऋतु की चांदनी रात होती है।





उतरु न आव बिकल बैदेही। तजन चहत सुचि स्वामि सनेही।। बरबस रोकि बिलोचन बारी। धरि धीरजु उर अवनिकुमारी।।_अर्थ_जानकीजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता, वे यह सोचकर व्याकुल हो उठीं कि मेरे पवित्र और प्रेमी स्वामी मुझे छोड़ जाना चाहते हैं। नेत्रों के जल ( आंसुओं ) को जबरदस्ती रोककर वे पृथ्वी की कन्या सीताजी हृदय में धीरज धरकर,





लागि सासु पग कह कर जोरी। छमबि देबि बड़ि अबिनय मोरी।। दीन्हि प्राधपति मोहि सिख सोई। जेहिं बिधि मोर परम हित होई।।_अर्थ_ सास के पैर लगकर, हाथ जोड़कर कहने लगीं_हे देवी ! मेरी इस बड़ी भारी ढ़िठाई को क्षमा कीजिये। मुझे प्राणपति ने वही शिक्षा दी है जिससे मेरा परम हित हो।





मैं पुनि समुझि दीख मन माहीं। पिय बियोग सम दुखु जग नाहीं।।_अर्थ_परन्तु मैंने मन में समझकर देख लिया कि पति के वियोग के समान जगत् में कोई दु:ख नहीं है।





प्राणनाथ करुनायतन सुंदर सुखद सुजान। तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद बिधु सुरपुर नरक समान।।_अर्थ_हे प्राणनाथ ! हे दया के नाम !  हे सुन्दर ! हे सुखों के देनेवाले ! हे सुजान ! हे रघुकुलरूपी कुमुद के खिलानेवाले चन्द्रमा ! आपके बिना स्वर्ग भी मेरे लिये नरक के समान है।





मातु पिता भगिनी प्रिय भाई। प्रिय परिवारु सुहृद समुदाई।। सासु ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुंदर सुशील सुखदाई।।_अर्थ_माता, पिता, बहन, प्यारा भाई, प्यारा परिवार, मित्रों का समुदाय, सास, ससुर, गुरु, स्वजन ( बन्धु_बान्धव ) सहायक और सुन्दर सुशील और सुख देने वाला पुत्र_





जहं लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहि तरनिहु ते ताते।। तनु धनु धाम धरनि पुर राजू। पिय बिहीन सबु सोक समाजू।।_अर्थ_हे नाथ ! जहां तक स्नेह और नाते हैं, पति के बिना स्त्री को सभी सूर्य से बढ़कर तपानेवाले हैं। शरीर, धन, घर, पृथ्वी, नगर और राज्य, पति के बिना स्त्री के लिये यह सब शोक का समाज है।





भोग रोगसम भूषण भालू। जम जातना सनरिस संसारू।। प्राणनाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुं सुखद कतहुं कछु नाहीं।।_अर्थ_भोग रोग के समान हैं, गहने भाररूप हैं और संसार यम_यातना ( नरक की पीड़ा ) के समान है। हे प्राणनाथ ! आपके बिना जगत् में मुझे कहीं कुछ भी सुखदायी नहीं है।





जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिअ नाथ पुरुष बिनु नारी।। नाथ सकल सुख साथ तुम्हारें। सरल बिमल बिधु बदन निहारे।।_अर्थ_जैसे बिना जीव के देह और बिना जल के नदी, वैसे ही हे नाथ ! बिना पुरुष के स्त्री है। हे नाथ !  आपके साथ रहकर आपका शरद्_पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान मुख देखने से मुझे समस्त सुख प्राप्त होंगे।





खग मृग परिजन नगरु बंधु बलकल बिमल दुकूल। नाथ साथ सुरसदन सम सब प्रसाद सुखमूल।।_अर्थ_हे नाथ ! आपके साथ पक्षी और पशु ही मेरे कुटुम्बी होंगे, वन ही नगर और वृक्षों की छाल ही निर्मल वस्त्र होंगे और पर्णकुटी ( पत्तों की बनी झोपड़ी ) ही स्वर्ग के समान सुखों की मूल होगी।





बनदेबीं बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम सारा।। कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु संग मंजु मनोज तुराई।।_अर्थ_उदार हृदय के वनदेवी और वनदेवता ही सास_ससुर के समान मेरी सार_संभार करेंगे,  और  कुशाल और पत्तों की सुन्दर साथरी ( बिछौना ) ही प्रभु के साथ कामदेव के मनोहर तोशक के समान होगी।





कंद मूल फल अधिक अहारू। अवध सौध सत सरिस पहारू।। बिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी रहिहउं मुदित दिवस जिमि कोकी।।_अर्थ_कन्द, मूल और फल ही अमृत के समान आहार होंगे। क्षण_क्षण में प्रभु के चरणकमलों को देख_देखकर मैं ऐसी आनंदित रहूंगी जैसी दिन में चकवी रहती है।






बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय विषाद परिताप घनेरे।। प्रभु बियोग लवलेस समाना। सब मिलि होहिं न कृपानिधाना।।_अर्थ_हे नाथ ! आपने वन के बहुत_से भय, विषाद और संताप कहे। परन्तु हे कृपानिधान! वे सब मिलकर भी प्रभु ( आप ) के वियोग ( से होनेवाले दु:ख ) के लवलेश के समान भी नहीं हो सकते।





अस जियो जानि सुजान सिरोमनि। लेइय संग मोहि छाड़िअ जनि।। बिनती बहुत करौं का स्वामी। करुनामय उर अंतरजामी।।_अर्थ_ऐसा जी में जानकर, हे सुजानशिरोमणि ! आप मुझे साथ ले लीजिये, यहां न छोड़िये। हे स्वामी ! मैं अधिक क्या विनती करूं ? आप करुणामय हैं और सबके हृदय के अंदर की जाननेवाले हैं।





राखिअ अवध जो अवधि लगि रहत न जनिअहिं प्रान। दीनबंधु सुंदर सुखद सील सनेह निधान।।_अर्थ_हे दीनबंधु ! हे सुन्दर ! हे सुखदेनेवाले ! हे शील और प्रेम के भण्डार ! यदि अवधि ( चौदह वर्ष ) तक मुझे अयोध्या में रखते हैं तो जान लीजिये कि मेरे प्राण नहीं रहेंगे।





मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।। सबहि भांति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।_अर्थ_क्षण_क्षण में आपके चरणकमलों को देखते रहने से मुझे मार्ग चलने से होने वाली सारी थकावट को दूर कर दूंगी।





पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउं बाई मुदित मन माहीं। श्रम कन सहित स्याह तनु देखें। कहीं दुख समउ प्राणपति देखे।।_अर्थ_आपके पैर धोकर, पेड़ों की छाया में बैठकर, मन में प्रसन्न होकर हवा करूंगी ( पंखा झलूंगी )। पसीने की बूंदों सहित स्याम शरीर देखकर_प्राणपति के दर्शन करते हुए दु:ख के लिये मुझे अवकाश ही कहां रहेगा ?





 को प्रभु संग मोहि चितवनिहारा। सिंघबधूहिं जिमि ससक सियारा।। मैं सुकुमारी नाथ बन जोगू। तुम्हहिं उचित तप मो कहुं भोगू।।_अर्थ_प्रभु के ( रहते ) मेरी ओर आंख उठाकर देखनेवाला कौन है ( अर्थात् कोई नहीं देख सकता )! जैसे सिंह की स्त्री सिंहनी को खरगोश और सियार नहीं देख सकते। मैं सुकुमारी हूं और नाथ वन के योग्य हैं ? आपको तो तपस्या उचित है और मुझको विषय भोग ?





ऐसेउ बचन कठोर सुनि जौं न हृदय बिलगान। तौं प्रभु बिषम बियोग दुख सहिहहिं पांवर प्रान।।_अर्थ_ऐसे कठोर वचन सुनकर भी जब मेरा हृदय नहीं फटा तो, हे प्रभु ! ( मालुम होता है ) ये पामर प्राण आपके वियोग का भीषण दुख सहेंगे।





अस कहि सीय बिकल भइ भारी। बचन बियोगु न सकी संभारी।। देखि दशा रघुपति जियं जाना।बचन राखें नहीं राखिहिं प्राना।।_अर्थ_ऐसा कहकर सीताजी बहुत ही व्याकुल हो गयीं। वे वचन के वियोग को भी न संभाल सकीं। ( अर्थात् शरीर से वियोग की बात तो अलग रही, वचन से भी वियोग की बात सुनकर वे अत्यन्त विकल हो गयीं ) उनकी यह दशा देखकर श्री रघुनाथजी ने अपने जी में जान लिया कि हठपूर्वक इन्हें यहां रखने से ये प्राणों को न रखेंगी।





कहेउ कृपाल भानुकुलनाथा। परिहरि सोच चलहु बन साथा।। नहिं विषाद कर अवसर आजू। बेगि करहु बनगवन समाजू।।_अर्थ_तब कृपालु, सूर्यकुल के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी ने कहा कि सोच छोड़कर मेरे साथ वन को चलो। आज विषाद करने का अवसर नहीं है। तुरंत वनगमन की तैयारी करो।





 कहि प्रिय बचन प्रिया समुझाई। लगे मातु पद आसिस पाई।। बेगि प्रजा दुख मेटब आई। जानि निठुर बिसरि जनि जाइ।।_अर्थ_श्रीरामचन्दजी ने प्रिय वचन कहकर प्रियतमा सीताजी को समझाया। फिर माता के पैरों लगकर आशीर्वाद प्राप्त किया। ( माता ने कहा_) बेटा ! जल्दी लौटकर प्रजा के दु:ख को मिटाना और यह निठुर माता तुम्हें भूल न जाय।





फिरिहि दसा बिधि बहुरि कि मोरी। देखिहउं नयन मनोहर जोरी।। सुदिन सुघरी तात कब होइहि। जननी जियं बदनु बिनु जोइहि।।_अर्थ_हे विधाता ! क्या मेरी दशा फिर पलटेगी ? हे पुत्र ! यह सुन्दर दिन और शुभ घड़ी कब होगी जब तुम्हारी जननी जीते_जी तुम्हारा चांद_सा मुखड़ा फिर देखेगी !





बहुरि बच्छ कहि लाल कहि रघुपति रघुबर तात। कबहिं बोलाइ लगाई हियं हरषि निरखिहउं गात।।_अर्थ_ हे तात ! ‘वत्स’ कहकर ‘लाल’ कहकर ‘रघुपति’ कहकर ‘रघुवर’ कहकर कब तुम्हें बुलाकर हृदय से लगाऊंगी और हर्षित होकर तुम्हारे अंगों को देखूंगी।





लखि सनेह कातर महतारी। बचनु न आव बिकल भइ भारी।। राम प्रबोधु कीन्ह बिधि नाना। समउ सनेह न जाइ बखाना।।_अर्थ_यह देखकर कि माता स्नेह के मारे अधीर हो गई है और इतनी अधिक व्याकुल है कि मुंह से वचन नहीं निकलता, श्रीरामचन्द्रजी ने अनेक प्रकार से उन्हें समझाया। वह समय और स्नेह वर्णन नहीं किया जा सकता।





तब जानकी सासु पद लागी। सुनिय माय मैं परम अभागी।। सेवा समय दैअं बनु दीन्हा। मोर मनोरथु सफल न कीन्हां।।_अर्थ_तब जानकी जी सास के पांव लगीं और बोलीं_ हे माता ! सुनिये, मैं बड़ी ही अभागिनि हूं। आपकी सेवा करने के समय दैव ने मुझे बनवास दे दिया। मेरा मनोरथ सफल न किया।