Saturday, 9 July 2022

अयोध्याकाण्ड

तबहिं मोह जनि छाड़िअ छोहू। करम कठिन कछु दोसु न मोहू।। सुनि सीय बचन सासु अकुलानी। दसा कवनि बिधि कहौं बखानी।।_अर्थ_आप क्षोभ का त्याग कर दें, परंतु कृपा न छोड़ियेगा। करम की गति कठिन है, मुझे भी कुछ दोष नहीं है। सीताजी के वचन सुनकर सास व्याकुल हो गयीं। उनकी दशा को मैं किस प्रकार बखान कर कहूं !





बारहिं बार लाइ उर लीन्ही। धरि धीरजु सिख असीस दीन्ही।। अचल होउ अहिवातु तुम्हारा। जब लगि गंगा जमुन जलधारा।।_अर्थ_उन्होंने सीताजी को बार_बार हृदय से लगाया और धीरज धरकर शिक्षा दी और आशीर्वाद दिया कि जबतक गंगाजी और यमुनाजी में जल की धारा बहे, जबतक तुम्हारा सुहाग अचल रहे।





सीतहि सासु असीस सिख दीन्ह अनेक प्रकार। चली नाइ पद पदुम सिरु अति हित बारहिं बार।।_अर्थ_सीताजी को सास ने अनेकों प्रकार से आशीर्वाद और शिक्षाएं दीं और वे ( सीताजी ) बड़े ही प्रेम से बार_बार चरणकमलों में सिर नवाकर चलीं।





समाचार जब लछिमन पाए। व्याकुल बिलख बदन उठि धाए।। कंप पुलक तन नयन सनीरा। ग हे चरन अति प्रेम अधीरा।।_अर्थ_जब लक्ष्मण जी ने ये समाचार पाया, तब वे व्याकुल होकर उदास_मुंह उठ दौड़े। शरीर कांप रहा है, रोमांच हो रहा है, नेत्र आंसुओं से भरे हैं। प्रेम से अत्यंत अधीर होकर उन्होंने श्री रामजी के चरण पकड़ लिये।





कहि न सकत कछु चित्तवत ठाढ़े। मीनु दीन जनु जल ते काढ़े।। सोचु हृदय बिधि का होनिहारा। सबु सुखु सुकृतु सिरान हमारा।।_अर्थ_वे कुछ कह नहीं सकते, खड़े_खड़े देख रहे हैं। ( ऐसे दीन हो रहे हैं ) मानो जल से मछली निकाले जाने पर दीन हो रही हो। हृदय में यह सोच है कि हे विधाता ! क्या होनेवाला है ? क्या हमारा सब सुख और पुण्य पूरा हो गया ?





मो कहुं काह कहब रघुनाथा। रखिहहिं भवन कि लेइहहिं साथा।। राम बिलोकि बन्धु कर जोरें। देह गेह सब सन तृनु तोरें।।_अर्थ_मुझको श्रीरघुनाथजी क्या कहेंगे ?  घर पर रखेंगे या साथ ले चलेंगे ? श्रीरामचन्द्रजी ने भाई लक्ष्मण को हाथ जोड़े और शरीर तथा घर सभी से नाता तोड़े हुए खड़े देखा।





बोले बचनु राम नय नागर। सील सनेह सरल सुख सागर।।  तात प्रेम बस जनि कदराहू। समुझि हृदयं परिणाम उछाहू।।_अर्थ_तब नीति में निपुण और शील, स्नेह, सरलता और सुख के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी बचन बोले_ हे तात ! परिणाम में होनेवाले आनंद को हृदय में समझकर तुम प्रेमवश अधीर मत होओ।





मातु पिता गुरु स्वामि सिख सिर धरि करहिं सुभायं। लहेउ लाभु तिन्ह जन्म कर नतरु जनम जग जायं।।_अर्थ_जो लोग माता, पिता, गुरु और स्वामी की शिक्षा को स्वाभाविक ही सिर चढ़ाकर उसका पालन करते हैं, उन्होंने ही जन्म लेने का लाभ पाया है; नहीं तो जगत् में जन्म ही व्यर्थ है।





अस जियं जानि सुनहु सिख भाई। करहु मातु पितु पद सेवकाई।। भवन भरतु रिपुसूदन नाहीं। राउ बृद्ध मम दुख मन माहीं।।_अर्थ_हे भाई ! हृदय में ऐसा जानकर मेरी सिख सुनो और माता_पिता के चरणों की सेवा करो। भरत और शत्रुघ्न घर पर नहीं हैं, महाराज वृद्ध हैं और उनके मन में मेरा दु:ख है।





मैं बन जाउं तुम्हहिं लै साथा। होई सबहि बिधि अवध अनाथा।। गुरु पितु मातु प्रजा परिवारू। सबु कहुं परइ दुसह दुख भारू।।_अर्थ_इस अवस्था में मैं तुमको साथ लेकर वन जाऊं तो अयोध्या सभी प्रकार से अनाथ हो जायगी। गुरु, पिता, माता और परिवार सभी पर दु:ख का दु:सह बार आ पड़ेगा।





रहहू करहू सब कर परितोषू। नतरु तात होइहीं बड़ दोषू।। जासु राज प्रिय प्रजा दुखारी। सो नृप अवसि नरक अधिकारी।।_अर्थ_ अत: तुम यहीं रहो और सबका संतोष करते रहो। नहीं तो हे तात ! बड़ा दोष होगा। जिसके राज्य में प्यारी प्रजा दु:की रहती है, वह राजा अवश्य ही नरक का अधिकारी होता है।





करहु तात असि नीति बिचारी। सुनत लखनु भए ब्याकुल भारी।। सिअरें बचन सूखि गए कैसे। परसत तुहिन तामरसु जैसें।।_अर्थ_हे तात ! ऐसी नीति विचार कर तुम घर रह जाओ। यह सुनते ही लक्ष्मण जी बहुत ही व्याकुल हो गये ! इन शीतल वचनों से वे कैसे सूख गये, जैसे पाले के स्पर्श से कमल सूख जाता है।





उतरु न आवत प्रेम बस गहे चरन अकुलाइ। नाथ दासु मैं स्वामि तुम्ह तजहु न काह बसाइ।।_अर्थ_प्रेमवश लक्ष्मणजी से कुछ उत्तर देते नहीं बनता । उन्होंने व्याकुल होकर श्रीरामजी के चरण पकड़ लिये और कहा_ हे नाथ ! मैं दास हूं और मैं स्वामी हैं; अतः आप मुझे छोड़ ही दें तो मेरा क्या वश है ?





दीन्ह मोहि सिख नीक गोसाईं। लागि अगम अपनी कदराई।। नरबर धीर धरम धुर धारी। निगम नीति कहुं ते अधिकारी।।_अर्थ_हे स्वामी ! आपने मुझे सीख तो बड़ी अच्छी दी है, पर मुझे अपनी कायरता से वह मेरे लिए अगम ( पहुंच के बाहर ) लगी। शास्त्र और नीति के तो वे ही श्रेष्ठ पुरुष अधिकारी हैं जो धीर हैं और धर्म की धूरी को धारण करनेवाले हैं। 





मैं सिसु प्रभु सनेह प्रतिपाला। मंदरु मेरु कि लेहिं मराला।। गुरु पितु मातु न जानउं काहू। कहउं सुभाउ नाथ पतिआहू।।_अर्थ_ मैं तो प्रभु ( आप ) के स्नेह में पला हुआ छोटा बच्चा हूं। कहीं हंस भी मंदरांचल या सुमेरु पर्वत को उठा सकते हैं। हे नाथ ! स्वभाव से ही कहता हूं, आप विश्वास करें, मैं आपको छोड़कर गुरु, माता, पिता किसी को भी नहीं जानता।





जहं लगि जगत सनेह सगाई। प्रीति प्रतीति निगम निज गाई।। मोरें सबई एक तुम्ह स्वामी। दीनबंधु उर अंतरजामी।।_अर्थ_जगत् में जहां तक स्नेह का संबंध, प्रेम और विश्वास है, जिनको स्वयं वेद ने गाया है_हे स्वामी ! हे दीनबंधु ! हे सबके हृदय की जाननेवाले ! मेरे तो सबकुछ केवल आप ही हैं।





धर्म नीति उपदेसिअ ताही। कीरति भूति सुगति प्रिय जाही।। मन क्रम बचन चरन रत होई। कृपासिंधु परिहरिअ कि सोई।।_अर्थ_धर्म और नीति का उपदेश तो उसको करना चाहिए जिसे कीर्ति, विभूति ( ऐश्वर्य ) या सद्गति प्यारी हो ! किन्तु जो मन, वचन और कर्म से चरणों में ही प्रेम रखता हो, हे कृपासिंधु ! क्या वह भी त्यागने के योग्य है ?





करुनासिंधु सुबंधु के सुनि मृदु बचन बिनीत। समुझाए उर लाइ प्रभु जानि सनेहं सभीत।।_अर्थ_दया के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी ने भले भाई के कोमल और नम्रतायुक्त वचन सुनकर और उन्हें स्नेह के कारण डरे हुए जानकर, हृदय से लगाकर समझाया।





मागहु विदा मातु सन जाई। आवहु बेगि चलहु बन भाई।। मुदित भए सुनि रघुबीर बानी। भयउ लाभ बड़ गई बड़ि हानी।।_अर्थ_( और कहा_ ) हे भाई ! जाकर माता से विदा मांग आओ और जल्दी वन को चलो ! रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामजी की वाणी सुनकर लक्ष्मणजी आनंदित हो गये। बड़ी हानि दूर हो गयी और बड़ा लाभ हुआ।





हरषित हृदयं मातु पहिं आए। मनहुं अंध फिरि लोचन पाए।।  जाइ जननि पग नायउ माथा। मनु रघुनंदन जानकी साथा।।_अर्थ_वे हर्षित हृदय से माता सुमित्रा जी के पास आये, मानो अंधा फिर से नेत्र पा गया हो। उन्होंने जाकर माता के चरणों में मस्तक नवाया। किन्तु उनका मन रघुकुल को आनंद देनेवाले श्रीरामजी और जानकी जी के साथ था।





पूंछें मातु मलिन मन देखी। लखन कहीं सब कथा बिसेषी।। गई सहमि सुनि बचन कठोरा। मृगी देखि दव तनु चहुं ओरा।।_अर्थ_माता ने उदास मन देखकर उनसे ( कारण ) पूछा। लक्ष्मणजी ने सब कथा विस्तार से कह सुनायी। सुमित्राजी कठोर वचनों को सुनकर ऐसी सहम गयीं जैसे हिरणी चारों ओर वन में आग लगी देखकर सहम जाती है।






समुझि सुमित्रां राम सिय रूप सुसीलु सुभाउ। नृप सनेह लखि धुनेउ सिरु पापिनि दीन्ह कुदाउ।।_अर्थ_सुमित्राजी ने श्रीरामजी और श्रीसीताजी के रूप, सुन्दर शील और स्वभाव को समझकर और उनपर राजा का प्रेम देखकर अपना सिर धुना( पीटा ) और कहा कि पापिनि कैकेयी ने बुरी तरह घात लगाया।





धीरजु धरेउ कुअवसर जानी। सहज सुहृद बोली मृदु बानी।। तात तुम्हारी मातु बैदेही। पिता रामु सब भांति सनेही।।_अर्थ_परन्तु कुसमय जानकर धैर्य धारण किया और स्वभाव से ही हित चाहनेवाली सुमित्रा जी बोलीं_हे तात ! जानकी जी तुम्हारी माता हैं और सब प्रकार से स्नेह करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी तुम्हारे पिता हैं।





अवध तहां जहां राम निवासू। तहां दिवस जहं भानु प्रकासू।। जौं पै सीय रामु बन जाहीं। अवध तुम्हार काजु कछु नाहीं।।_अर्थ_जहां श्रीरामजी का निवास  हो वही अयोध्या है। जहां सूर्य का प्रकाश हो वहीं दिन है। यदि निश्चय ही सीता_राम वन को जाते हैं तो अयोध्या में तुम्हारा कुछ भी काम नहीं है।





गुरु पितु मातु बंधु सुर साईं। सेइअहिं सकल प्रान की नाईं।। रामु प्रान प्रिय जीवन जी के। स्वारथ रहित सखा सबही के।।_अर्थ_गुरु, पिता, माता, भाई, देवता और स्वामी, इन सबकी सेवा प्राण के समान करनी चाहिये। फिर श्रीरामचन्द्रजी तो प्राणों के भी प्रिय हैं, हृदय के भी जीवन हैं और सभी के स्वार्थरहित सखा हैं।





पूजनीय प्रिय परम जहां ते। सब मानिअहिं राम के नाते।। अस जिअं जानि संग बन जाहू। लेहु तात जग जीवन लाहू।।_अर्थ_जगत् में जहां तक पूजनीय और परमप्रिय लोग हैं, वे सब रामजी के नाते से ही ( पूजनीय और परमप्रिय ) मानने योग्य हैं। हृदय में ऐसा जानकर हे तात ! उनके साथ वन जाओ और जगत् में जीने का लाभ उठाओ।





भूरि भाग भाजन भयहु मोहि समेत बलि जाउं। जौं तुम्हरें मन छाड़ि तरु कीन्ह राम पद ठाउं।।_अर्थ_मैं बलिहारी जाती हूं, ( हे पुत्र !) मेरे समेत तुम बड़े ही सौभाग्य के पात्र हुए, जो तुम्हारे चित्त ने जल छोड़कर श्रीरामजी के चरणों में स्थान प्राप्त किया है।





पुत्रवती जुवती जग सोई। रघुपति भगतु जासु सुत होई।। नतरु बांझ भलि बादि बिआनी। राम बिमुख सुत ते हित जानी।।_अर्थ_संसार में वही जुड़ती स्त्री पुत्रवती है जिसका पुत्र श्रीरघुनाथजी का भक्त हो। नहीं तो जो राम से बिमुख पुत्र से अपना हित जानती है, वह तो बांझ ही अच्छी। पशु की भांति उसका ब्याना ( पुत्र प्रसव करना ) व्यर्थ ही है।





तुम्हारे ही भाग राम बन जाहीं। दूसर हेतु तात कछु नाहीं।। सकल सुकृत कर बड़ फल एहू। राम सीय पद सहज सनेहू।।_अर्थ_तुम्हारे ही भाग्य से श्रीरामजी वन को जा रहे हैं। हे तात ! दूसरा कोई कारण नहीं है। संपूर्ण पुण्यों का सबसे बड़ा फल यही है कि श्रीसीतारामजी के चरणों में स्वाभाविक प्रेम हो।





रागु रोषु इरिषा मदु मोहू। जनि सपनेहु इन्ह के बस होहू।। सकल प्रकार बिकार बिहाई। मन क्रम बचन करेहु सेवकाई।।_अर्थ_राग, रोष, ईर्ष्या, मद और मोह_इनके वश स्वप्न में भी मत होना। सब प्रकार के विकारों का त्याग कर मन, वचन और कर्म से श्रीसीतारामजी की सेवा करना।





तुम्ह कहुं बन सब भांति सुपासू। संग पितु मातु राम सीय जासू।। जेहिं न राम बन लहहिं कलेसू। सुत सोइ करहु इहइ उपदेसू।।_अर्थ_तुमको वन में सब प्रकार से आराम है, जिसके साथ श्रीरामजी और सीताजी रूप माता_पिता हैं। हे पुत्र ! तुम वही करना जिससे श्रीरामचन्द्रजी वन में क्लेश न पालें, मेरा यही उपदेश है।





उपदेसु यहु जेहिं तात तुम्हरे राम सिय सुख पावहीं। पितु मातु प्रिय परिवार पुर सुख सुरति बन बिसरावहीं।। तुलसी प्रभुहिं सिख देइ आयसु दीन्ह पुनि आसिस दई। रति होई अबिरल अमल सिय रघुबीर पद नित नित नई।।_अर्थ_ हे तात ! मेरा यही उपदेश है ( अर्थात् तुम वही करना ) जिससे वन में तुम्हारे कारण श्रीरामजी और सीताजी सुख पावें और माता, पिता प्रिय परिवार तथा नगर के सुखों की याद भूल जायं। तुलसीदास जी कहते हैं कि सुमित्राजी ने इस प्रकार हमारे प्रभु ( श्रीलक्ष्मणजी ) को शिक्षा देकर ( वन जाने की ) की आज्ञा दी और फिर यह आशीर्वाद दिया कि श्रीसीताजी और श्रीरघुवीरजी के चरणों में तुम्हारा निर्मल ( निष्काम और अनन्य ) एवं प्रगाढ़ प्रेम नित नित नया हो।





मातु चरण सिर नाई चले तुरंत संकित हृदयं। बागुर बिषम तोराइ मनहुं भाग मृगु भाग बस।।_अर्थ_माता के चरणों में सिर नवाकर हृदय में डरते हुए ( कि अब कोई बिघ्न न आ जाय ) लक्ष्मणजी तुरंत इस तरह चल दिये जैसे सौभाग्यवश कोई हिरण कठिन फंदे को तुड़ाकर भाग निकला हो।





गए लखन जहं जानकीनाथू। भें मन मुदित पाई प्रिय साथू।। बंदि राम सिय चरन सुहाए। चले संग नृप मंदिर आए।।_अर्थ_लक्ष्मणजी वहां गये जहां श्रीजानकीनाथजी थे, और प्रिय का साथ पाकर मन में बड़े ही प्रसन्न हुए। श्रीरामजी और सीताजी के सुन्दर चरणों की वन्दना करके वे उनके साथ चले और राजभवन में आये।





कहहिं परस्पर पुर नर नारी। भलि बनाई बिधि बात बिगारी।। तन कृस मन दुख बदन मलीने। बिकल मनहुं माखी मधु छीने।।_अर्थ_नगर के स्त्री_पुरुष आपस में कह रहे हैं कि विधाता ने खूब बनाकर बात बिगाड़ी। उनके शरीर दुबले, मन दु:खी और मुख उदास हो रहे हैं। वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे शहद छीन लिये जाने पर शहद की मक्खियां व्याकुल हों।





कर मीजहिं सिरु धुनि पछिताहीं। जनु बिनु पंख बिहग अकुलाहीं।। भइ बड़ि भीर भूप दरबारा। बरनि न जाइ बिषादु अपारा।।_अर्थ_सब हाथ मल रहे हैं और सिर धुनकर ( पीटकर ) पछता रहे हैं। मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हों। राजद्वारे पर बड़ी भीड़ हो रही है। अपार विषाद का वर्णन नहीं किया जा सकता।





सचिवं उठाई राउ बैठारे। कहि प्रिय बचन रामु पगु धारे।। सिय समेत दोउ तनय निहारी। व्याकुल भयउ भूमिपति भारी।।_अर्थ_’श्रीरामचन्द्रजी पधारे हैं’ ये प्रिय वचन कहकर मंत्री ने राजा को उठाकर बैठाया। सीता सहित दोनों पुत्रों को ( वन के लिये तैयार ) देखकर राजा बहुत व्याकुल हुए।





सीय सहित सुत सुभग दोउ देखि देखि अकुलाइ। बारहिं बार सनेहबस राउ लेइ उर लाइ।।_अर्थ_ सीता सहित दोनों सुन्दर पुत्रों को देखकर राजा अकुलाते हैं और स्नेहवश बारंबार उन्हें हृदय से लगा लेते हैं। 





सकी न बोलि बिकल नरनाहू। सोक जनित उर दारुन दाहू।। नाइ सीसु पद अति अनुरागा। उठि रघुबीर बिदा तब मागा।।_अर्थ_राजा व्याकुल हैं, बोल नहीं सकते। हृदय में शोक से उत्पन्न हुआ भयानक संताप है। तब रघुकुल के वीर श्रीरामचन्द्रजी ने अत्यन्त प्रेम से चरणों में सिर नवाकर उठकर विदा मांगी।





पितु असीस आयसु मोहि दीजै। हरष समय बिसमय कत कीजै।। तात किएं प्रिय प्रेम प्रमादू। जगु जसु जाइ होई अपबादू।।_अर्थ_ हे पिताजी ! मुझे आशीर्वाद और आज्ञा दीजिये। हर्ष के समय आप शोक क्यों कर रहे हैं ? हे तात ! प्रिय के प्रेमवश प्रमाद ( कर्तव्यकर्म में त्रुटि ) करने से जगत् में यश जाता रहेगा और निंदा होगी।





सुनि सनेह बस उठि नरनाहां। बैठारे रघुपति गहि बाहां।। सुनहु तात तुम्ह कहुं मुनि कहहीं। रामु चराचर नायक अहहीं।।_अर्थ_यह सुनकर स्नेहवश राजा ने उठकर श्रीरघुनाथजी की बांह पकड़कर उन्हें बैठा लिया और कहा_हे तात ! सुनो तुम्हारे लिये मुनि लोग कहते हैं के श्रीराम चराचर के स्वामी हैं।





सुभ और असुभ कर्म अनुहारी। ईसु देइ बलु हृदय बिचारी।। करइ जो कर्म पाव फल सोई। निगम नीति असि कह सबु कोई।।_अर्थ_शुभ और अशुभ कर्मों के अनुसार ईश्वर हृदय में विचार कर फल देता है। जो कर्म करता है वही फल पाता है। ऐसी वेद की नीति है, यह सब कोई कहते है।





औरु करै अपराधु कोउ और पाव फल भोगु। अति बिचित्र भगवंत गति को जग जानै जोगु।।_अर्थ_( किन्तु इस अवसर पर तो इसके विपरीत हो रहा है ) अपराध तो कोई और ही करें और उसके फल का भोग को कोई और ही पावे। भगवान की लीला बड़ी ही विचित्र है, उसे जानने योग्य जगत् में कौन है ?





रांय राम राखन हित लागी। बहुत उपाय किए छलु त्यागी।। लखी राम रुख रहत न जाने। धर्म धुरंधर धीर सयाने।।_अर्थ_राजा ने इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी को रखने के रिमेक छल छोड़कर बहुत_से उपाय किये। पर जब उन्होंने धर्मधुरंधर, धीर और बुद्धिमान श्रीरामजी का रुख देख लिया और वे रहते हुए न जान पड़े।





तब नृप सीय लाइ उर लीन्ही। अति हित बहुत भांति सिख दीन्ही।। कहि बन के दुख दुसह सुनाए। सासु ससुर पितु सुख समुझाए।।_अर्थ_तब राजा ने सीताजी को हृदय से लगा लिया और बड़े प्रेम से बहुत प्रकार की शिक्षा दी। वन के दु:सह दु:ख कहकर सुनाये। फिर सास, ससुर और पिता के ( पास रहने के ) सुखों को समझाया।