सचिव नारि गुर नारि सयानी। सहित सनेह कहहिं मृदु बानी।। तुम्ह कहुं तौ न दीन्ह बनवासू। करहु जो कहहिं ससुर गुर सासू।।_अर्थ_मंत्री सुमंत्रजी की पत्नी और गुरु वसिष्ठजी की पत्नी अरुंधतीजी तथा और भी चतुर स्त्रियां स्नेह के साथ कोमल वाणी से कहती हैं कि तुमको तो ( राजा ने ) वनवास दिया नहीं है। इसलिए जो ससुर, गुरु और सास कहें तुम वही करो।
सिख सीतलि हित मधुर मृदु सुनि सीतहि न सोहानि। सरद चंद चंदिनि लगत जनु चकइ अकुलानि।।_अर्थ_यह शीतल, हितकारी, मधुर और कोमल सीख सुनने पर सीताजी को अच्छी नहीं लगी। ( वे इस प्रकार व्याकुल हो गयीं ) मानो शरद् ऋतु के चन्द्रमा की चांदनी लगते ही चकई व्याकुल हो उठी हो।
सीय सकुचबस उतरु न देई। सो सुनि तमकि उठी कैकेई।। मुनि पट भूषन भाजन आनी। आगे धरि बोली मृदु बानी।।_अर्थ_सीताजी संकोचवश उत्तर नहीं देतीं। इन बातों को सुनकर कैकेई तमककर उठी। उसने मुनियों के वस्त्र, आभूषण ( माला, मेखला आदि ) और बर्तन ( कमंडलु आदि ) लाकर श्री रामचन्द्रजी के सामने रख दिये और कोमल वाणी से कहा_
नृपहिं प्रानप्रिय तुम्ह रघुबीरा। सील सनेह न छाड़िहि भीरा।। सुकृतु सुजसु परलोक नसाऊ। तुम्हहिं जान बन कहिहिं न काऊ।।_अर्थ_हे रघुबीर ! राजा को तुम प्राणों के समान प्रिय हो। बीरु ( प्रेमवश दुर्बल हृदय के ) राजा शील और स्नेह नहीं छोड़ेंगे ! पुण्य, सुन्दर यश और परलोक चाहे नष्ट हो जाय, पर तुम्हें वन जाने को वे कभी न कहेंगे।
अस बिचारि सोई करहु जो भावा। राम जानि सिख सुनि सुख पावा ।। भूपहिं बचन बानसम लागे। करहिं न प्रान पयान अभागे।।_अर्थ_ ऐसा विचार कर जो तुम्हें अच्छा लगे वहीं करो। माता की सीख सुनकर श्रीरामचन्द्र जी ने ( बड़ा ) सुख पाया। परन्तु राजा को ये वचन बाण के समान लगे। ( वे सोचने लगे ) अब भी अभागे प्राण ( क्यों ) नहीं निकलते।
लोग बिकल मुरछित नरनाहू। काह करिय कछु सूझ न काहू।। रामु तुरत मुनि बेसु बनाई। चले जनक जननिहि सिरु नाई।।_अर्थ_राजा मूर्छित हो गये, लोग व्याकुल हैं। किसी को कुछ सूझ नहीं पड़ता कि क्या करें। श्रीरामचन्द्रजी स्त्री ( श्रीसीताजी ) और भाई ( लक्ष्मणजी ) सहित, ब्राह्मण और गुरु के चरणों की वन्दना करके सबको अचेत करके चले।
विकल बसिष्ठ द्वार भए ठाढ़े। देखे लोग बिरह दव दाढ़े।। कहि प्रिय बचन सकल समुझाए। बिप्र बृंद रघुबीर बोलाए।।_अर्थ_राजमहल से निकलकर श्रीरामचन्द्रजी वसिष्ठ जी के दरवाजे पर जा खड़े हुए और देखा कि सब लोग बिरहा की अग्नि में जल रहे हैं। उन्होंने प्रिय वचन कहकर सबको समझाया। फिर श्रीरामचन्द्रजी ने ब्राह्मणों की मण्डली को बुलाया।
गुरु सन कहि बरषासन दीन्हे। आदर दान बिनयबस कीन्हे।। जाचक दान मान संतोषे। मीत पुनीत प्रेम परितोषे।।_अर्थ_गुरुजी से कहकर उन सबको वर्षासन ( वर्षभर का भोजन ) दिये और आदर, दान तथा विनय से उन्हें वश में कर दिया। फिर याचकों को दान और मान देकर संतुष्ट किया तथा मित्रों को पवित्र प्रेम से प्रसन्न किया।
दासीं दास बोलाइ बहोरी। गुरहिं सौंपि बोले कर जोरी।। सब के साथ संभार गोसाईं। करहिं जनक जननी की नाई।।_अर्थ_फिर दास_दासियों को बुलाकर उन्हें गुरुजी को सौंपकर हाथ जोड़कर बोले_हे गोसाईं ! इन सबकी माता_पिता के समान सार_संभार ( देख_रेख ) करते रहियेगा।
बारहिं बार जोरि जुग पानी। कहत रामु सब सन मृदु बानी।। सोइ सब भांति मोर हितकारी। जेहिं में रहे भुआल सुखारी।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी बार_बार दोनों हाथ जोड़कर सबसे कोमल वाणी कहते हैं कि मेरा सब प्रकार से हितकारी मित्र वही होगा जिसकी चेष्टा से महाराज सुखी रहें।
मातु सकल मोरे बिरहं जेहिं न होहिं दुख दीन। सोई उपाय तुम्ह करेहु सब पुर जन परम प्रबीन।।_अर्थ_हे परम चतुर पुरबासी सज्जनों ! आपलोग सब वही उपाय करियेगा जिससे मेरी सब माताएं मेरे बिरह के दु:ख से दु:खी न हों।
एहि बिधि राम सबहिं समुझावा। गुर पद पदुम हरषि सिर नावा। गनपति गौरि गिरीसु मनाई। चले असीस पाई रघुराई।।_अर्थ_इस प्रकार श्रीरामजी ने सबको समझाया और हर्षित होकर गुरुजी के चरणकमलों में सिर नवाया। फिर गणेश जी, पार्वती जी और कैलाशपति महादेवजी को मनाकर तथा आशीर्वाद पाकर श्रीरघुनाथजी चले।
राम चलत अति भयउ बिषादू। सुनि न जाइ पुर आरत नादू ।। कुसगुन लंक अवध अति सोकू। हरष बिषाद बिबस सुरलोकू।।_अर्थ_श्रीरामजी के चलते ही बड़ा भारी विषाद छा गया। नगर का आर्तनाद ( हाहाकार ) सुना नहीं जाता। ल़ंका में बुरे शकुन होने लगे, अयोध्या में शोक छा गया और देवलोक में हर्ष तथा विषाद दोनों के वश में हो गये। ( हर्ष इस बात का था कि अब राक्षसों का नाश होगा और विषाद अयोध्यावासियों के शोक के कारण था )।
गई मुरुछा तब भूपति जागे। बोलि सुमंत्र कहन अस लागे।। रामु चले वन प्रान न जाहीं। केहि सुख लागि रहत तन माहीं।।_अर्थ_मूर्छा दूर हुई तब राजा जागे और सुमंत्र को बुलाकर ऐसा कहने लगे_श्रीराम वन को चले आते, पर मेरे प्राण नहीं जा रहे हैं। न जाने किस सुख के लिए शरीर में टिक रहे हैं।
एहि ते कवन व्यथा बलवाना। जो दुखु पाइ तजहिं तनु प्राना।। पुनि धरि धीर कहइ नरनाहू। लै रथु संग सखा तुम्ह जाहू।।_अर्थ_इससे अधिक बलवती और कौन सी व्यथा होगी जिस दु:ख को पाकर प्राण शरीर को छोड़ेंगे। फिर धीरज धरकर राजा ने कहा_हे सखा ! तुम रथ लेकर श्रीरामजी के साथ जाओ।
सुठि सुकुमार कुमार दोउ जनकसुता सुकुमारि। रथ चढ़ाई देखराइ बनु फिरेहु गये दिन चारि।।।_अर्थ_अत्यन्त सुकुमार दोनों कुमारों को और सुकुमारी जानकी जी को रथ में चढ़ाकर, वन दिखलाकर चार दिन बाद लौट जाना।
जौं नहिं फिरहिं धीर दोउ भाई। सत्यसंध दृढ़ब्रत रघुराई।। तौं तुम्ह बिनय करेहु कर जोरी। फेरिअ प्रभु मिथिलेसकिसोरी।।_अर्थ_यदि धैर्यवान दोनों भाई न लौटें_क्योंकि श्रीरघुनाथजी प्रण के सच्चे और दृढ़ता से नियम का पालन करने वाले हैं_तो तुम हाथ जोड़कर विनती करना कि हे प्रभो ! जनककुमारी सीताजी को तो लौटा दीजिये।
जब सीय कानन देखि डेराई। कहेहु मोरि सिख अवसरु पाई।। सासु ससुर अस कहेउ संदेसू। पुत्री फिरिअ बन बहुत कलेसू।।_अर्थ_जब सीता वन को देखकर डरें, तब मौका पाकर मेरी यह सीख उनसे कहना कि तुम्हारे सास और ससुर ने ऐसा संदेश कहा है कि पुत्री ! तुम लौट चलो, वन में बहुत क्लेश हैं।
पितु गृह कबहुंक कबहुंक ससुरारी। रहेहु जहां रुचि होई तुम्हारी।। एहि बिधि करेहु उपाय कदंबा। फिरइ तो होई प्राण अवलंबा।।_अर्थ_कभी पिता के घर, कभी ससुराल, जहां तुम्हारी इच्छा हो वहीं रहना। इस प्रकार तुम बहुत से उपाय करना। यदि सीताजी लौट आयीं तो मेरे प्राणों का सहारा हो जायगा।
नाहिंन तो मोर मरन परिनामा। कछु न बसाई भये बिधि बामा।। अस कहि मुरुछित परा महि राउ। राम लखन सीय आनि देखाऊ।।_अर्थ_नहिं तो अन्त में मेरा मरण ही होगा। विधाता के विपरीत होने पर कुछ वश नहीं चलता। हा ! राम, लक्ष्मण और सीता को लाकर दिखाओ। ऐसा कहकर राजा मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े।
पाई रजायसु नाई सिरु रथु अति वेग बनाइ। गयी जहां बाहेर नगर सीय सहित दोउ भाइ।।_अर्थ_सुमन्त्रजी राजा की आज्ञा पाकर, सिर नवाकर बहुत जल्दी रथ जुड़वाकर वहां गये जहां नगर के बाहर सीताजी सहित दोनों भाई थे।
तब सुमंत्र नृप बचन सुनाए। करि बिनती रथ रामु चढ़ाए।। चढ़ि रथ सीय सहित दोउ भाई। चले हृदयं अवधहिं सिरु नाई।।_अर्थ_तब ( वहां पहुंचकर ) सुमंत्र ने राजा के वचन श्रीरामचन्द्रजी को सुनाए और विनती करके उनको रथ पर चढ़ाया। सीताजीसहित दोनों भाई रथ पर चढ़कर हृदय में अयोध्या को सिर नवाकर चले।
चलत राम लखि अवध अनाथा। विकल लोग सब लागे साथा।। कृपासिंधु बहुबिधि समुझावहिं। फिरहिं प्रेमबस पुनि फिरि आवहीं।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी को जाते हुए और अयोध्या को अनाथ ( होते हुए ) देखकर सब लोग व्याकुल होकर उनके साथ हो लिये। कृपा के समुद्र श्रीरामजी उन्हें बहुत तरह से समझाते हैं, तो वे ( अयोध्या की ओर ) लौट जाते हैं; परन्तु प्रेमवश फिर लौट आते हैं।
लागति अवध भयावनि भारी। मानहुं कालरात्रि अंधियारी।। घोर जंतु सम पुर नर नारी। डरपहिं एकहि एक निहारी।।_अर्थ_अयोध्यापुरी बड़ी डरावनी लग रही है। मानो अंधकारमयी कालरात्रि ही हो। नगर के नर_नारी भयानक जन्तुओं के समान एक_दूसरे को देखकर डर रहे हैं।
घर मसान परिजन जनु भूता। सुत हित मीत मनहुं जमदूता।। बागन्ह बिटप बेलि कुम्हिलाहीं। हरित सरोबर देखि न जाहीं।।_अर्थ_घर श्मशान, कुटुम्बी भूत_प्रेत और पुत्र, हितैषी और मित्र मानो यमराज के दूत हैं। बगीचों में वृक्ष और बेलें कुम्हला रही हैं। नदी और तालाब ऐसे भयानक लगते हैं कि उनकी ओर देखा भी नहीं जाता।
हम गय कोटिन्ह केलिमृग पुरपसु चातक मोर। पिंक रथांग सुक सारिका सारस हंस चकोर।।_अर्थ_करोड़ों घोड़े_हाथी, खेलने के लिये पाले हुए हिरन, नगर के ( गाय, बैल, बकरी आदि ) पशु, पपीहे, मोर, कोयल, चकवे, तोता, मैना, सारस, हंस और चकोर_
राम बियोग बिकल सब ठाढ़े। जहं तहं मनहुं चित्र लिखि काढ़े।। नगरु सफल बनु गहबर भारी। खग मृग बिपुल सकल नर नारी।।_अर्थ_श्रीरामजी के वियोग में सभी व्याकुल हुए जहां_तहां ( ऐसे चुपचाप स्थिर होकर ) खड़े हैं, मानो तस्वीरों में लिखकर बनाये हुए हैं। नगर मानो फलों से परिपूर्ण बड़ा भारी सघन वन था। नगर निवासी सब स्त्री_पुरुष बहुत से पशु_पक्षी थे। ( अर्थात् अवधपुरी अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष चारों फलों को देनेवाली नगरी थी और सब स्त्री_पुरुष सुख से उन फलों को प्राप्त करते थे।)
बिधि कैकेई किरातिनि कीन्ही। जेहिं दव दुसह दसहुं दिसि दीन्ही।। सहि न सके रघुबर बिरहागी। चले लोग सब व्याकुल भागी।।_अर्थ_विधाता ने कैकेयी को भीलनी बनाया, जिसने दसों दिशाओं में दु:सह दावाग्नि ( भयानक आग ) लगा दी। श्रीरामचन्द्र जी के विरह की इस अग्नि को लोग सह न सके। सब लोग व्याकुल होकर भाग चले।
सबहिं बिचारु कीन्ह मन माहीं। राम लखन सिय बिनु सुख नाहीं।। जहां रामु तहं सबुई समाजू। बिनु रघुबीर अवध नहीं काजू।।_अर्थ_सबने मन में विचार कर लिया कि श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी के बिना सुख नहीं है। जहां श्रीरामजी रहेंगे, वहीं सारा समाज रहेगा। श्रीरामचन्द्रजी के बिना अयोध्या में हमलोगों का कुछ काम नहीं है।
चले साथ अस मंत्र दृढ़ाई। सुर दुर्लभ सुख सदन बिहाई।। राम चरन पंकज प्रिय जिन्हहीं। बिषय भोग बस करहिं कि तिन्हहीं।।_अर्थ_ऐसा विचार दृढ़ करके देवताओं को भी दुर्लभ सुखों से पूर्ण घरों को छोड़कर सब श्रीरामचन्द्र जी के साथ चल पड़े। जिनको श्रीरामचन्द्र जी के चरणकमल प्यारे हैं, उन्हें क्या अभी बिषयभोग वश में कर सकते हैं।
बालक बृद्ध बिहाई गृह लगे लोग सब साथ। तमसा तीर निवास किय प्रथम दिवस रघुनाथ।।_अर्थ_बच्चों और बूढ़ों को घरों में छोड़कर सब श्रीरामचन्द्रजी के साथ चल पड़े। पहले दिन श्रीरघुनाथजी ने तमसा के तट पर निवास किया।
रघुपति प्रजा प्रेमबस देखी। सदय हृदयं दुखु भयउ बिसेषी।। करुनामय रघुनाथ गोसाईं। बेगि पाइहहिं पीर पराई।।_अर्थ_प्रजा को प्रेमवश देखकर श्रीरघुनाथजी के दयालु हृदय में बड़ा दु:ख हुआ। प्रभु श्रीरघुनाथजी करुणामय हैं। प्यारी पीड़ा को वे तुरंत पा जाते हैं ( अर्थात् दूसरे के दु:ख को देखकर वे तुरंत दु:की हो जाते हैं।
कहि सप्रेम मृदु बचन सुहाए। बहुबिधि राम लोग समुझाए।। किए धर्म उपदेस घनेरे। लोग प्रेमबस फिरहिं न फेरे।।_अर्थ_प्रेमयुक्त कोमल और सुन्दर वचन कहकर श्रीरामजी ने बहुत प्रकार से लोगों को समझाया और बहुतेरे धर्म संबंधी उपदेश दिये; परन्तु प्रेमवश लोग लौटाए नहीं लौटते।
धीरु सनेह छाड़ि नहीं जाई। असमंजस बस भे रघुराई।। लोग सोग श्रम बस गए सोई। कछूक देवमाया मति गोई।।_अर्थ_शील और स्नेह छोड़ा नहीं जाता। श्री रघुनाथ जी असमंजस के अधीन हो गये ( दुविधा में पड़ गये )। शोक और परिश्रम ( थकावट ) के मारे लोग सो गये और कुछ देवताओं के माया से भी उनकी बुद्धि मोहित हो गयी।
जबहिं जाम जुग जामिनि बीती। राम सचिव सन कहेंगी सप्रीती।। खोज मारि रथ हांकहु ताता। आन उपाय बनिहि नहीं बाता।।_अर्थ_जब दो पहर रात बीत गयी, तब श्रीरामचन्द्रजी ने प्रेम पूर्वक मंत्री सुमंत्र से कहा_हे तात ! रथ को खोज मारकर ( अर्थात् पहियों के चिह्नो न से दिशा का पता न चले इस प्रकार ) रथ को हांकिये ! और किसी उपाय से बात नहीं बनेगी।
राम लखन सिय जान चढ़ि संभु चरन सिरु नाइ। सचिव चलायउ तुरत रथ इत उतर खोज दुराइ।।_अर्थ_शंकरजी के चरणों में सिर नवाकर श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी रथ पर सवार हुए। मंत्री ने तुरंत ही रथ को, इधर_उधर खोज छिपाकर चला दिया।
जागे सकल लोग भएं भोरू। गे रघुनाथ भयउ अति सोरू।। रथ कर खोज कतहुं नहिं पावहिं। राम राम कहि चहुं दिसि धावहिं।।_अर्थ_सवेरा होते ही सब लोग जागे, तो बड़ा शोर मचा कि श्रीरघुनाथजी चले आते । कहीं रथ का खोज नहीं पाते, सब ‘हा राम ! हा राम !’ पुकारते हुए चारों ओर दौड़ रहे हैं।
मनहुं बारिनिधि बूड़ जहाजू। भयउ बिकल बड़ बनिक समाजू।। एकहिं एक देहिं उपदेसू। तजे राम हम जानि कलेसू।।_अर्थ_मानो समुद्र में जहाज डूब गया हो, जिससे व्यापारियों का समुदाय बहुत ही व्याकुल हो उठा हो। वे एक_दूसरे को उपदेश देते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी ने, हमलोगों को क्लेश होगा, यह जानकर छोड़ दिया है।