प्रभु प्रसाद सुचि सुभाग सुबासा। सादर जासु रहा नित नासा।। तुम्हहि निवेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं।।_अर्थ_जिसकी नासिका प्रभु ( आप ) के पवित्र और सुगंधित ( पुष्पादि ) सुन्दर प्रसाद को नित्य आदर के साथ ग्रहण करती ( सूंघती ) हैं, और जो आपको अर्पण करके भोजन करते हैं और आपके प्रसाद रूप ही वस्त्राभूषण धारण करते हैं;
सीस नवहिं गुर द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनती बिसेषी।। कर नित करहिं राम पद पूजा। राम भरोस हृदय नहिं दूजा।।_अर्थ_जिनके मस्तक देवता, गुरु और ब्राह्मणों को देखकर बड़ी नम्रता के साथ प्रेमसहित झुक जाते हैं; जिनके हाथ नित्य श्रीरामचन्द्रजी ( आपके ) चरणों की पूजा करते हैं, और जिनके हृदय श्रीरामचन्द्रजी
( आप ) का ही भरोसा है, दूसरा नहीं;
चरन राम तीरथ चलि जाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।। मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा। पूजहिं तिन्हहिं सहित परिवारा।।_अर्थ_तथा जिनके चरण श्रीरामचन्द्रजी ( आप ) के तीर्थों में चलकर आते हैं; हे रामजी ! आप उनके मन में निवास कीजिये। जो नित्य आपके ( रामनामरूप ) मंत्रराज को जपते हैं और परिवार ( परिकर ) सहित आपकी पूजा करते हैं।
तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवांइ देहिं बहुत दाना।। तुम्ह तें अधिक गुरहि जियं जानी। सकल भायं सेवहिं सनमानी।।_अर्थ_जो अनेकों प्रकार से तर्पण और हवन करते हैं, तथा ब्राह्मणों को भोजन कराकर बहुत दान देते हैं; तथा जो गुरु को हृदय में आपसे भी अधिक ( बड़ा ) जानकर सर्वभाव से सम्मान करके उनकी सेवा करते हैं;
सब कर मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ। तिन्ह के मन मंदिर बसहु सिर रघुनंदन दोउ।।_अर्थ_और ये सब कर्म करके सबका एकमात्र यही फल मांगते हैं कि श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में हमारी प्रीति हो; उन लोगों के मनरूपी मंदिरों में सीताजी और रघुकुल को आनंदित करनेवाले आप दोनों बसिये।
काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।। जिन्ह कें कपट दंभ नहिं माया। तिन्ह कें हृदय बसहु रघुराया।।_अर्थ_ जिनके न तो काम, क्रोध, मद, अभिमान और मोह है; न लोभ है, न क्षोभ है; और न कपट, धम्म र माया ही है_हे रघुराज ! आप उनके हृदय में निवास कीजिये।
सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी।। कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी।।_अर्थ_जो सबके प्रिय और सबका हित करने वाले हैं, जिन्हें दु:ख और सुख तथा प्रशंसा ( बड़ाई ) और गाली ( निंदा ) समान हैं, जो विचार कर सत्य और प्रिय वचन बोलते हैं तथा जो जागते_सोते आपकी ही शरण हैं,
तुम्हहिं छाड़ि गति दूसरि नाहीं। राम बसहु तिन्ह के मन माहीं।। जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव बिष तें बिष भारी।।_अर्थ_और आपको छोड़कर जिनके दूसरी कोई गति ( आश्रय ) नहीं है, हे रामजी ! आप उनके मन में बसिये। जो पराई स्त्री को जन्म देनेवाली माता के समान जानते हैं, और पराया धन जिन्हें विष से भी भारी विष है;
जे हरषहिं पर संपत्ति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।। जिन्हहिं राम तुम प्रान पिआरे। तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे।।_अर्थ_जो दूसरे की संपत्ति देखकर हर्षित होते हैं और दूसरे की विपत्ति देखकर विशेष रूप से दु:खी होते हैं, और से रामजी ! जिन्हें आप प्राणों से प्यारे हैं, उनके मन आपके रहने योग्य शुभ भवन हैं।
स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात। मन मंदिर तिन्ह के बसहु सीय सहित दोउ भ्रात।।_अर्थ_हे तात ! जिनके स्वामी, सखा, पिता, माता और गुरु सब कुछ आप ही हैं उनके मन रुपी मन्दिर में आप दोनों भाई निवास कीजिये।
अवगुन तजि सब के गुन गहहिं। बिप्र धेनु हित संकट सहहीं।। नीति निपुण जिन्ह की जग लीका। घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका।।_अर्थ_जो अवगुणों को छोड़कर सबके गुणों को ग्रहण करते हैं, ब्राह्मण और गौ के लिये संकट सहते हैं, नीति निपुणता में जिनकी जगत् में मर्यादा है, उनका सुन्दर मन आपका घर हैं।
गुन तुम्हार समुझई निज दोसा। जेहिं सब भांति तुम्हार भरोसा।। राम भगत प्रिय लागहिं जेही। तेहि उर बसहु सहित बैदेही।।_अर्थ_ जो गुणों को आपका और दोषों को अपना समझता है, जिसे सब प्रकार से आपका ही भरोसा है, और रामभक्त जिसे प्यारे लगते हैं, उसके हृदय में आप सीता सहित निवास कीजिये।