सुमिरत राम तजहिं जन तृन सम विषय बिलासु। राम प्रिया जगजननी सिय कछु न आचरजु तासु।।_अर्थ_जिन श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करने से ही भक्तजन तमाम भोग_विलास को तिनके के समान त्याग देते हैं, उन श्रीरामचन्द्रजी की प्रिय पत्नी और जगत् की माता सीताजी के लिये यह ( भोग विलास का त्याग ) कुछ भी आश्चर्य नहीं है।
सिय लखन जेहिं बिधि सुखु लहहीं। सोई रघुनाथ करहिं सोई कहहीं।। कहहिं पुरातन कथा कहानी। सुनहिं लखनु सिय अति सुखु मानी।।_अर्थ_सीताजी और लक्ष्मणजी जिस प्रकार सुख मानकर सुख मिले, श्रीरघुनाथजी वहीं करते और वही करते हैं। भगवान् प्राचीन कथाएं और कहानियां कहते हैं और लक्ष्मणजी तथा अत्यंत सुख मानकर सुन रहे हैं।
जब जब राम अवध सुधि करहीं। तब तब बारिश बिलोचन भरहीं। सुमिरत मातु पितु परिजन भाई। भरत सनेहु सीलु सेवकाई।।_अर्थ_जब जब श्रीरामचन्द्रजी अयोध्या की याद करते हैं, तब तब उनके नेत्रों में जल भर आता है। माता_पिता, कुटुम्बियों और भाइयों तथा भरत के प्रेम, शील और सेवाभाव को याद करके_
कृपासिंधु प्रभु होहिं दुखारी। धीरजु धरहीं कुसमी बिचारी।। लगा सिय लखनु बिकल होई जाहीं। जिमि पुरुषहि अनुसार परिछाहीं।।_अर्थ_कृपा के समुद्र प्रभु श्रीरामचन्द्रजी दु:खी हो जाते हैं, परन्तु फिर कुसमय समझकर धीरज धारण कर लेते हैं। श्रीरामचन्द्रजी को दु:खी देखकर सीताजी और लक्ष्मणजी भी व्याकुल हो जाते हैं, जैसे किसी मनुष्य की परछाईं उस मनुष्य के समान ही चेष्टा करती है ।
प्रिया बंधु गति लखि रघुनंदनु। धीर कृपाल भगत उर चंदनु।। लगे कहन कछु कथा पुनीता। सुनि सुखु लहहीं लखनु अरु सीता।।_अर्थ_ तब धीर, कृपालु और भक्तों के हृदयों को शीतल करने के लिये चन्दनरूप रघुकुल को आनंदित करनेवाले श्रीरामचन्द्रजी प्यारी पत्नी और भाई लक्ष्मण की दशा देखकर कुछ पवित्र कथाएं कहने लगते हैं, जिन्हें सुनकर लक्ष्मणजी और सीताजी सुख प्राप्त करते हैं।
राम लखन सीता सहित सोहत परन निकेत। जिमि बासव बस अमरपुर सची जयंत समेत।।_अर्थ_लक्ष्मणजी और सीताजी सहित श्रीरामचन्द्रजी पर्णकुटी में ऐसे सुशोभित हैं जैसे अमरावती में इन्द्र अपनी पत्नी श्री और पुत्र जयंत सहित बसता है।
जोगवहिं प्रभु सिय लखनहिं कैसें। पलक बिलोचन गोलक जैसें।। सेवहिं लखन सीय रघुबरहि। जिमि अबिबेकी पुरुष सरीरहि।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी सीताजी और लक्ष्मणजी की कैसी संभाल रखते हैं, जैसे पलकें नेत्रों के गोलकों की। इधर लक्ष्मणजी श्रीसीताजी श्रीरामचन्द्रजी की ऐसी देखभाल करते हैं जैसे मूर्ख अपने शरीर का। ं
एहि बिधि प्रभु बन बसहीं सुखारी। खग मृग सुर तापस हितकारी।। कहेउं राम बन गवन सुहावा। सुनहु सुमंत्र अवध जिमि आवा।।_अर्थ_पक्षी, पशु, देवता और तपस्वियों के हितकारी इस प्रकार सुखपूर्वक वन में निवास कर रहे हैं। तुलसीदास जी कहते हैं _ मैंने श्रीरामजी का सुन्दर वनगमन कहा। अब जिस तरह सुमंत्र अयोध्या में आये वह ( कथा ) सुनो।
फिरेउ निषादु प्रभुहिं पहुंचाई। सचिव सहित रथ देखेसि आई।। मंत्री बिकल बिलोकि निषादू। कहि न जाइ जस भयउ बिषादू।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को पहुंचाकर जब निषादराज लौटा, तब आकर उसने रथ को मंत्री ( सुमंत सहित ) देखा। मंत्री को व्याकुल देखकर निषाद को जैसा दु:ख हुआ, वह कहा नहीं जाता।
राम राम सिय लखन पुकारी। परेउ धरनितल व्याकुल भारी।। देखि दखिन दिसि हय हिहिनाहीं। जनु बिनु पंख बिहंग अकुलाहीं।।_अर्थ_(निषाद को ऐसे आया देखकर ) सुमंत्र हा राम ! हा राम ! हा सीते, हा लक्ष्मण ! पुकारते हुए , बहुत व्याकुल होकर धरती पर गिर पड़े। ( रथ के ) घोड़े दक्षिण दिशा की ओर ( जिधर श्रीरामचन्द्रजी गये थे ( देख_देखकर हिनहिनाते हैं ) । मानो बिना पंख के पक्षी व्याकुल हो रहे हैं।
नहिं तृण चरहीं न पिअहिं जल मोचहिं लोचन बारि। व्याकुल भए निषाद सब रघुबर बाजी निहारि।।_अर्थ_वे न तो घास चलते हैं, न पानी पीते हैं। केवल आंखों से जल बहा रहे हैं। रामचन्द्रजी के घोड़ों को इस दशा में देखकर सब निषाद व्याकुल हो गये।
धरि धीरजु तब कहइ निषादू। अब सुमंत्र परिहरहू बिषादू।। तुम्ह पंडित परमारथ ज्ञाता। धरहु धीर लखि बिमुख बिधाता।।_अर्थ_तब धीरज धरकर निषादराज कहने लगा_हे सुमंत्र जी ! अब विषाद को छोड़िये। आप पंडित और परमार्थ को जाननेवाले हैं। विधाता को प्रतिकूल जानकर धैर्य धारण कीजिये।
कथा कहि कहि मृदु बानी। रथ बैठारेउ बरबस आनी।। सोक सिथिल रथ सकइ न हांकी। रघुबर बिरह पीर उर बांकी।।_कोमल बाणी से भांति भांति कथाएं कह_कहकर निषाद ने जबरदस्ती लाकर सुमंत्र को रथ पर बैठाया। परंतु शोक के मारे वे इतने शिथिल हो गये कि रथ को हांक नहीं सकते। उनके हृदय में श्रीरामचन्द्रजी के विरह की बड़ी तीव्र वेदना है।
चरफराहिं मग चरहीं न घोड़े। बन मृग मनहुं आनि रथ जोरे।। अढ़ुकि परहिं फिरि हेरहिं पीछें। राम बियोगि बिकल दुख तीछें।।_अर्थ_ घोड़े तड़फड़ाते हैं और ( ठीक ) रास्ते पर नहीं चलते। मानो जंगली पशु लाकर रथ में जोत दिये गये हैं। वे श्रीरामचन्द्रजी के वियोगी घोड़े भी कभी ठोकर खाकर गिर पड़ते हैं, कभी घूमकर पीछे की ओर देखने लगते हैं। वे तीक्ष्ण दु:ख से व्याकुल हैं।
जो कह राम लखन बैदेही। हिंकरि हिंकरि हित हेरहिं तेहीं।। बाजी बिरह गति कहि किमि जाती। बिनु मनि फनिक बिकल जेहिं भांती।।_अर्थ_जो कोई राम, लक्ष्मण या जानकी का नाम ले लेता है, घोड़े हिकर हिकर उसकी ओर प्यार से देखने लगते हैं। घोड़ों की विरहदशा कैसे कही जा सकती है ? वे ऐसे व्याकुल हैं जैसे मणि के बिना सांप व्याकुल होता है।
भयउ निषादु विषाद बस देखत सचिव तुरंग। बोली सुसेवक चारि तब दिए सारथि संग।।_अर्थ_मंत्री और घोड़ों की यह दशा देखकर निषादराज विषाद के वश हो गया। तब उसने अपने चार उत्तम सेवक बुलाकर सारथि के साथ कर दिये।
गुह सारथि ही फिरेउ पहुंचाई। बिरहु बिसाल बरनि नहीं जाई।। चले अवध लेइ रथहीन निषादा। होहिं छनहिं छन मगन बिषादा।।_अर्थ_निषादराज गुहा सारथि ( सुमंत्र जी ) को पहुंचाकर ( विदा करके ) लौटा। उसके विरह और दु:ख का वर्णन नहीं किया जा सकता। वे चारों निषाद रथ लेकर अवध को चले। ( सुमंत्र और घोड़ों को देख_देखकर ) वे भी क्षण_क्षणभर विषाद में डूबे जाते थे।
सोच सुमंत्र बिकल दुख दीना। धिग जीवन रघुबीर बिहीना।। रहिहि न अंतहुं अधम सरीरू। जसु न लहेउ बिछुरत रघुबीरू।।_अर्थ_व्याकुल और दु:ख से दीन हुए सुमंत्र जी सोचते हैं कि श्रीरघुवीर के बिना जीने को धिक्कार है। आखिर यह अधम शरीर रहेगा तो है ही नहीं। अभी श्रीरामचन्द्रजी के बिछुड़ते ही छूटकर इसने यश ( क्यों ) नहीं ले लिया ।
भए अजस अघ भाजन प्राना। कवन हेतु नहीं करत पयाना।। अहह मंद मनु अवसर चूका। अजहुं न हृदय होत दुइ टूका।_अर्थ_ये प्राण अपयश और पाप के भांड़े हो गये। अब ये किस कारण कूच नहीं करते ( निकलते नहीं ) ? हाय ! नीचे मन ( बड़ा अच्छा ) मौका चूक गया। अब भी तो हृदय के दो टुकड़े नहीं है जाते!
मीजि हाथ सिरु धुनि पछिताई। मनहुं कृपन धन राशि गवांई।। बिरिद बांधि बर बीरु कहाई। चलेउ समर जनु सुभट पराई।।_अर्थ_सुमंत्र हाथ मल_मलकर और सिर पीट-पीटकर पछताते हैं। मानो कोई कंजूस धन का खजाना को बैठा हो। वे इस प्रकार चले मानो कोई बड़ा योद्धा वीर का बाना पहनकर और उत्तम शूरवीर कहलाकर युद्ध से भाग चला हो।
बिप्र बिबेकी बेदबिद संमत साधु सुजाति। जिमि धोखें मदपान कर सचिव सोच तेहि भांति।।_अर्थ_जैसे कोई विवेकशील, वेद का ज्ञाता, साधु सम्मत आचरणों वाला और उत्तम जाति का ( कुलीन ) ब्राह्मण धोखे से मदिरा पी लें और पीछे पछतावे, उसी प्रकार मंत्री सुमंत्र सोच कर रहे ( पछता रहे ) हैं।
जिमि कुलीन तिय साधु सयानी। पतिदेवता करम मन बानी।। रहै करमबस परिहरि नाहू। सचिव हृदय तिमि दारुण दाहू।।_अर्थ_जैसे किसी उत्तम कुलवाली, साधु स्वभाव की, समझदार और मन, वचन और कर्म से पति को देवता माननेवाली पतिव्रता स्त्री को भाग्यवश पति को छोड़कर ( पति से अलग ) रहना पड़े, उस समय उसके हृदय में जो भयानक संताप होता है, वैसे ही मंत्री के हृदय में हो रहा है।
लोचन सजल डीठि भइ थोरी। सुनइ न श्रवन बिकल मति भोरी।। सूखइ अधर लागि मुहं लाटी। जिउ न जाइ उर अवधि कपाटी।।_अर्थ_नेत्रों में जल भरा है, दृष्टि मंद हो गयी है। कानों को सुनाई नहीं पड़ता, व्याकुल हुईं बुद्धि बएठइकआनए हो रही है। ओठ सूख रहे हैं, मुंह में लाटी लग गयी है। किन्तु ( ये सब मृत्यु के लक्षण होने पर भी ) प्राण नहीं निकलते; क्योंकि हृदय में अवधइरूपई किवाड़ लगे हैं ( अर्थात् चौदह वर्ष बीत जाने पर भगवान् फिर मिलेंगे, यही आशा रुकावट डाल रहीं हैं )।
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बिबरन भयउ न जाइ निहारी। मारेसि मनहुं पिता महतारी।। हानि ग्लानि बिपुल मन ब्यापी। जमपुर पंथ सोच जिमि पापी।।_अर्थ_सुमंत
जी के मुख का रंग बदल गया है, जो देखा नहीं जाता। ऐसा मालूम होता है जैसे इन्होंने माता_पिता को मार डाला हो। उनके मन में रामवियोगरूपी हानि की महान् ग्लानि ( पीड़ा ) छा रही है, जैसे कोई पापी मनुष्य नरक को जाता हुआ रास्ते में सोच कर रहा हो।
बचन न आव हृदयं पछिताई। अवध काह मैं देखब जाइ।। राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई।।_अर्थ_मुंह से वचन नहीं निकलते। हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूंगा ? श्रीरामचन्द्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वहीं मुझे देखने में संकोच करेगा ( अर्थात् मेरा मुंह नहीं देखना चाहेगा )।