बचन न आव हृदयं पछिताई। अवध काह मैं देखब जाइ।। राम रहित रथ देखिहि जोई। सकुचिहि मोहि बिलोकत सोई।।_अर्थ_मुंह से वचन नहीं निकलते। हृदय में पछताते हैं कि मैं अयोध्या में जाकर क्या देखूंगा ? श्रीरामचन्द्रजी से शून्य रथ को जो भी देखेगा, वहीं मुझे देखने में संकोच करेगा ( अर्थात् मेरा मुंह नहीं देखना चाहेगा )।
धाइ पूछिहहिं मोहि जब बिकल नगर नारि। उतरु देब मैं सबहि तब हृदयं बज्रु बैठारि।।_अर्थ_नगर के सब व्याकुल स्त्री_पुरुष जब दौड़कर मुझसे पूछेंगे, तब मैं हृदय पर वज्र रखकर सबको उत्तर दूंगा।
पूछिहहिं दीन दुखित सब माता। कहब काह मैं तिन्हहिं बिधाता।। पूछिहहिं जबहिं लखन महतारी। कहिहउं कवन संदेस सुखारी।।_अर्थ_जब दीन_दु_खी सब माताएं पूछेंगी, तब से विधाता ! मैं उन्हें क्या कहूंगा ? जब लक्ष्मणजी की माता मुझसे पूछेंगी, तब मैं उनसे कौन_सा सुखदायी संदेशा कहूंगा।
राम जननी जब आइहि धाइ। सुमिरि बच्छ जिमि धेनु लवाई।। पूछत उतरु देब मैं तेही। गए बनु राम लखनु बैदेही।।_अर्थ_श्रीरामजी की माता जब इस प्रकार दौड़ी आवेंगी जैसे श्री ब्यायी हुई गौ बछड़े को याद करके दौड़ी आती है, तब उसके पूछने पर मैं उन्हें यह उत्तर दूंगा कि श्रीराम, लक्ष्मण, सीता वन को चले गये।
जोइ पूछिहिं तेहि उतरु देबा। जाइ अवध अब यह सुख लेबा।। पूछिहिं जबहिं राऊ दुख दीना। जीवनी जासु रघुनाथ अधीना।।_अर्थ_ जो भी पूछेगा उसे यही उत्तर देना पड़ेगा ! हाय ! अयोध्या जाकर मुझे अब यही सुख लेना है ! जब दु:ख से दीन महाराज, जिनका जीवन रघुनाथजी के ( दर्शनके ) ही अधीन है, मुझसे पूछेंगे,।
देहंउ उतरु कोनु मुहु लाई। आयउं कुसल कुअंर पहुंचाई।। सुनत लखन सीय राम संदेसू। तृन जिमि तनु परिहरिहि नरेसू।।_अर्थ_प्रियतम ( श्रीरामजी) रूपी जल के बिछुड़ते मेरा हृदय कीचड़ की तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूं कि विधाता ने मुझे यह 'यातनाशरीर' ही दिया है ( जो पापी जीवों को नरक भोगने के लिये मिलता है )
हृदउ न बिदरेउ पंक जिमि बिछुरत प्रीतमु नीरु। जानत हों मोहि दीन्हा बिधि यही जितना सरीरु।।_अर्थ_प्रियतम ( श्रीरामजी ) रूपी जल के बिछुड़ते ही मेरा हृदय कीचड़ के तरह फट नहीं गया, इससे मैं जानता हूं कि विधाता ने मुझे यह 'यातनाशरीर' ही दिया है ( जो पापी जीवों को नरक भोगने के लिये मिलता है)
एहि बिधि करत पंथ पछितावा। तमसा तीर तुरंत रथु आवा।। बिदा किए करि बिनय निषादा। फिरेउ पायं परि बिकल बिषादा।।_अर्थ_सुमंत्र मार्ग में इस प्रकार पछतावा कर रहे थे, इतने में रथ तुरत तमसा नदी के तट पर आ पहुंचा। मंत्री ने विनय करके चारों निषादों को विदा किया। वे विषाद से व्याकुल होते हुए सुमंत्र के पैरों पड़कर लौटे।
पैठत नगर सचिव सकुचाई। जनु मारेसि गुर बांभन गाई।। बैठि बिटप तरु दिवसु गवांवा। सांझ समय तब अवसरु पावा।।_अर्थ_ नगर में प्रवेश करते समय मंत्री ( ग्लानि के कारण ) ऐसे सकुचाते हैं, मानो गुरु, ब्राह्मण या गौ को मारकर आये हों। सारा दिन एक पेड़ के नीचे बैठकर बिताया। जब सन्ध्या हुई तब मौका मिला।
अवध प्रबेसु कीन्ह अंधियारे। पैठ भवन रथ राखी दुआरें।। जिन्ह जिन्ह समाचार सुनि पाए। भूप द्वार रथ देखन आए।।_अर्थ_अंधेरा होने पर उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया और रथ को दरवाजे पर खड़ा करके वे ( चुपके से ) महल में घुसे। जिन जिन लोगों ने यह समाचार सुन पाया, वे सभी रथ को देखने राजद्वार पर आये।
रथु पहचानि बिकल लखि घोरे। गरहिं गात जिमि आतप ओरे।। नगर नारि नर व्याकुल कैसें। निघटत नीर मीनगन जैसें।।_अर्थ_रथ को पहचानकर और घोड़ों को व्याकुल देखकर शरीर ऐसे गले जा रहे हैं ( क्षीण हो रहे हैं ) जैसे घाम में ओले ! नगर के स्त्री_पुरुष कैसे व्याकुल हैं जैसे जल के घटने पर मछलियां ( व्याकुल होती हैं)।
सचिव आगमनु सुनत सबु बिकल भयउ रनिवासु। भवनु भयंकर लाग तेहि मानहुं प्रेत निवासु।।_अर्थ_मंत्री का ( अकेले ही ) आना सुनकर सारा रनिवास व्याकुल हो गया। राजमहल उनको ऐसा भयानक लगा मानो प्रेतों का निवासस्थान ( श्मशान ) हो।
अति आरती सब पूछहिं रानी। उतरु न आव बिकल भइ बानी।। सुनइ न श्रवन नयन नहिं सूझा। कहहु कहां नृपु तेहि तेहि बूझा।।_अर्थ_अत्यंत आर्त होकर जब रानियां पूछती हैं; पर सुमंत्र को कुछ उत्तर नहीं आता, उनकी वाणी विकल हो गयी ( रुक गयी ) है। न कानों से सुनायी पड़ता है और न आंखों से कुछ सूझता है। वे जो भी सामने आता है उस_उससे पूछते हैं_कहो, राजा कहां है ?
दासिन्ह दिख सचिव बिकलाई। कौशल्या गृह गईं लवाई।। जाइ सुमंत्र दिख कस राजा। अमिय रहित जनु चंदु बिराजा।।_अर्थ_दासियां मंत्री को व्याकुल देखकर उन्हें कौशल्याजी के महल में लगवा गयीं। सुमंत्र ने वहां जाकर राजा को कैसा ( बैठे ) देखा मानो अमृत का चन्द्रमा हो।
आसन सयन बिभूषन हीना। परेउ भूमितल निपट मलीना।। लेइ उसासु सोच एहि भांति। सुरपुर में जनु खंसेउ जजाती।।_अर्थ_राजा आसन, शय्या और आभूषणों से रहित बिलकुल मलिन ( उदास ) पृथ्वी पर पड़े हुए हैं। वे लेकर इस प्रकार सोच करते रहे हैं मानो राजा ययाति स्वर्ग से गिरकर सोच कर रहे हों।
लेत सोच भरी छिनु छिनु छाती। जनु जरि पंख परेउ संपाती।। राम राम कह राम सनेही। पुनि कह राम लखन बैदेही।।_ अर्थ_ राजा क्षण_क्षण में सोच से छाती भर लेते हैं। ऐसी विकल दशा है मानो ( गीधराज जटायु का भाई ) संपाती पंखों के जल जाने के बाद गिर पड़ा हो। राजा ( बार _बार ) 'राम', 'हा स्नेही ( प्यारे ) राम !' कहते हैं, फिर 'हा राम, हां लक्ष्मण, हां जानकी' ऐसा कहने लगते हैं।
देखि सचिवं जयजीव कहि किन्हेंउ दंड प्रनामु।। सुनत उठेउ ब्याकुल नृपति कहु सुमंत्र कहं राम ।।_अर्थ_मंत्री ने देखकर 'जयजीव' कहकर दण्डवत् प्रणाम किया। सुनते ही राजा व्याकुल होकर उठे और बोले_सुमन्त्र ! कहो, राम कहां हैं ?
भूप सुमंत्रु लीन्ह उर लाई। बूड़त कछु अधार जनु पाई।। सहित सनेह निकट बैठारी। पूछत राउ नयन भरी बारी।।_अर्थ_राजा ने सुमंत्र को हृदय से लगा लिया। मानो डूबते हुए आदमी को कुछ सहारा मिल गया हो। मंत्री को स्नेह के साथ बैठाकर नेत्रों में जल भरकर राजा पूछने लगे_
राम कुसल कहीं सखा सनेही। कहां रघुनाथु लखनु बैदेही।। आनेहु फेरि कि बनहिं सिधाए। सुनत सचिव लोचन जल छाए।।_अर्थ_हे मेरे प्रेमी सखा ! श्रीरामजी की कुशल कहो। बताओ, श्रीराम, लक्ष्मण और जानकी कहां हैं ? उनको लौटा लाए हो कि वे वन को चले गये ? यह सुनते ही मंत्री के नेत्रों में जल भर आया।
सोक बिकल पुनि पूंछ नरेसू। कहु सिय राम लखन संदेसू।। राम रूप गुन सील सुभाऊ। सुमिरि सुमिरि उर सोचत राऊ।।_अर्थ_शोक से व्याकुल होकर राजा फिर पूछने लगे_सीता, राम और लक्ष्मण का संदेसा तो कहो। श्रीरामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को याद कर_करके राजा हृदय में सोच करते हैं।
राउ सुनाइ दीन्ह बनबासू। सुनि मन भयउ न हरहुं हरांसू।। सो सुत बिछुड़त गए न प्राना। को पापी बड़े मोहि समाना।।_अर्थ_( और कहते हैं _) मैंने राजा होने की बात सुनकर वनवास दे दिया, यह सुनकर भी जिस ( राम ) के मन में हर्ष और विषाद नहीं हुआ, ऐसे पुत्र के बिछड़ने पर भी मेरे प्राण नहीं गये, तब मेरे समान बड़ा पापी कौन होगा ?
सखा रामु सिय लखनु जहं तहां मोहि पहुंचाव। नाही त चाहत चलन अब प्रान कहउं सतिभाउ।।_अर्थ_हे सखा ! श्रीराम, जानकी और लखन जहां हैं, मुझे भी वहीं पहुंचा दो। नहिं तो मैं सत्यभाव से कहता हूं कि मेरे प्राण अब चलना ही चाहते हैं।
पुनि पुनि पूंछत मंत्रिहिं राऊ। प्रियतम सुअन संदेस सुनाऊ।। करहि सखा सोई बेगि उपाऊ। राम लखन सीय नयन देखाऊ।।_अर्थ_राजा बार_बार मंत्री से पूछते हैं _मेरे प्रियतम पुत्रों का संदेसा सुनाओ। हे सखा ! तुम तुरंत वही उपाय करो जिससे श्रीराम, लक्ष्मण और सीता को मुझे आंखों दिखा दो।
सचिव धीर धरि कह मृदु बानी। महाराज तुम्ह पंडित ग्यानी।। बीर सुधीर धुरंधर देवा। साधु समाजु सदा तुम्ह सेवा।।_अर्थ_ मंत्री धीरज धरकर कोमल वाणी बोले_महाराज ! आप पण्डित और ज्ञानी हैं। हे देव ! आप शूरवीर तथा उत्तम धैर्यवान् पुरुषों में श्रेष्ठ हैं। आपने सदा साधुओं के समाज का सेवन किया है।
जनम मरन सब दुख सुख भोगा। हानि लाभ प्रिय मिलन बियोगा।। काल करम बस होहिं गोसाईं। बरबस राति दिवस की नाईं।।_अर्थ_जन्म_मरण, दु:ख_सुख के भोग, हानि_लाभ, प्यारों का मिलना_बिछुड़ना, ये सब से स्वामी ! काल और कर्म के अधीन रात और दिन की तरह बरबस होते रहते हैं।