Sunday, 31 March 2024

अयोध्याकाण्ड

देखि दूरी तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दण्ड प्रनामू।। जानि रामप्रिय दीन्ह असीसा। भरतहिं कहेउ बुझाई मुनीसा।।_अर्थ_निषादराज ने मुनिराज वशिष्ठ जी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर से ही दण्डवत् प्रणाम किया। मुनीश्वर वशिष्ठ जी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरत को समझाकर कहा ( कि यह श्रीरामजी का मित्र है)।







राम सखा सुनि स्यंदन त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।। गाउं जाति गुहं नाउं सुनाई। कीन्ह जोहारी माथ महि लाई।।_अर्थ_यह श्रीरामजी का मित्र है, इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। वे रथ से उतरकर प्रेम में उमंगते हुए चले। निषादराज गुह ने अपना गांव, जाति और नाम सुनाकर पृथ्वी पर माथा टेककर जोहार की।







करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ। मनहुं लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदय समाइ।।_अर्थ_दण्डवत् करते देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया। हृदय में प्रेम समाता ही नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मण जी से भेंट हो गयी हो।








भेंटत भरत ताहि अति प्रीती। लोग सहाहिं प्रेम को रीती।। धन्य_धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।_भरतजी गुह को अत्यंत प्रेम से गले लगा रहे हैं। प्रेम की रीति से सब लोग सिंहा रहे हैं ( ईर्ष्यापूर्व प्रशंसा कर रहे हैं ); मंगल की मूल ' धन्य_धन्य' की ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं।








लोक बेद सब भांतिहिं नीचा। जासु छांह छुइ लेइअ सींचा।। तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलती पुलक परिपूरित गाता।।_अर्थ_( वे कहते हैं _) जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीचा माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषाद से अंकवार भरकर ( हृदय से चिपटाकर ) श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई भरतजी ( आनंद और प्रेम वश ) शरीर में पुलकावली से परिपूर्ण हो मिल रहे हैं।








राम राम करि जे जमुहाहीं। तिन्हहिं न पाप पुंज समुहाहीं।। यह तौं राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जग पावन कीन्हा।।_अर्थ_ जो लोग राम_राम कहकर जंभाई लेते हैं ( अर्थात् आलस्य से भी जिनके मुंह से राम नाम का उच्चारण हो जाता है), पापों के समूह ( कोई भी पाप ) उनके सामने नहीं आते। फिर इस गुह को तो स्वयं श्रीरामचन्द्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत्पावन ( जगत् को पवित्र करनेवाला बना दिया।







करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरइ ।। उलटा नाम जपत जग जाना। बाल्मीकि में ब्रह्म समाना।।_अर्थ_कर्मनाशा नदी का जल गंगाजी में पड़ जाता है ( मिल जाता है ), तब कहिये, उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता ? जगत् जानता है कि उलटा नाम ( मरा_मरा ) जपते_जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गये।










स्वपच सबर खस जमन जड़ पावंर कोल किरात । रामु कहत पावन परम होत भुवन विख्यात।।_अर्थ_मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात भी रामनाम कहते ही परम पवित्र और त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं।









नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।। राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं।।_अर्थ _इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग_युगान्तर से यही रीति चली आ रही है। श्रीरघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी ? इस प्रकार देवता रामनाम की महिमा कह रहे हैं और उसे सुन_सुनकर अयोध्या के लोग सुख पा रहे हैं।








रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूंजी कुल सुमंगल खेमा।। देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।_अर्थ_ रामसखा  निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मंगल और क्षेम पूछी। भरतजी का शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया ( प्रेम मुग्ध होकर देह की सुध भूल गया)।








सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितइ एकटक ठाढ़ा।। धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।_अर्थ_उनके मन में संकोच, प्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा_खड़ा टकटकी लगाये भरतजी के चरणों की वन्दना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा।








कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तइहउं काल कुसल निज लेखी।। अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें।
सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।_अर्थ_ हे रहो ! कुशल के मूल आपके चरणकमलों के दर्शन कर मैंने तीनों कालों में अपना कुशल जान लिया। अब आपके परम अनुग्रह से करोड़ों कुलों ( पीढ़ियों ) सहित मेरा मंगल ( कल्याण) हो गया।








समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियं जोइ। जो न भजइ रघुबीर पद जग बिना संचित सोइ।।_अर्थ_मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की महिमा को मन में देख ( विचार ) कर ( अर्थात् कहां तो मैं नीच जाति और नीच कर्म करनेवाला जीव, और कहां अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के स्वामि श्रीरामचन्द्रजी ! पर उन्होंने मुझ जैसे नीच को भी अपनी अहैतु की कृपा वश अपना लिया_यह समझकर) जो रघुवीर श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का भजन नहीं करता, वह जगत् में विधाता के द्वारा ठगा गया है।






कपटी कायर कुमति कुजाति। लोक बेद बाहेर सब भांती।। राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउ भुवन भूषन तबही तें।।_अर्थ_मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूं और लोक_वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूं। पर जबसे श्रीरामचन्द्रजी ने मुझे अपनाया है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया।







देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरी भरत लघु भाई।। कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारीं रानी।।_अर्थ_ निषादराज की प्रीति को देखकर और सुन्दर विनय सुनकर फिर भरतजी के छोटे भाई शत्रुध्नजी उससे मिले। फिर निषाद ने अपना नाम ले_लेकर सुन्दर ( नम्र और मधुर ) वाणी से सब रानियों को आदरपूर्वक जोहार की।






Sunday, 17 March 2024

अयोध्याकाण्ड

होहु संजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल
मरै कर ठाटा।। सनमुख लोह भरत सन लेऊं। जिअत न सुरसरि उतरन देऊं।।_अर्थ_सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने का साज सजा लो ( अर्थात् भरत से युद्ध में मरने के लिये तैयार हो जाओ )। मैं भरत से सामने ( मैदान में ) लोहा लूंगा (: मुठभेड़ करूंगा) और जीते_जी उन्हें गंगापार उतरने न दूंगा।





होहु संजोइल रोकहु घाटा। ठाटहु सकल मरै के ठाटा।। सनमुख लोह भरत सन लेऊं। जिअत न सुरसरि उतरन देऊं।।_अर्थ_सुसज्जित होकर घाटों को रोक लो और सब लोग मरने के साथ सजा लो ( अर्थात् भरत से युद्ध में लड़ने के लिये तैयार हो जाओ )। मैं भरत से सामने ( मैदान में ) लोहा लूंगा ( मुठभेड़ करूंगा ) और जीते_जी उन्हें गंगापार उतरने न दूंगा।






समर मरनु पुनि सुरसरि तीरा। राम काजु छनभंगु सरीरा।। भरत भाई नृपु मैं जन नीचू। बड़ें भाग अहि पाइअ मीचू।।_अर्थ_युद्ध में मरण, फिर गंगाजी का तट, श्रीरामजी का काम और क्षणभंगुर शरीर ( जो चाहे जब नाश हो जाय )। भरत श्रीरामजी के भाई और राजा ( उनके हाथ से मरना ) और मैं नीचे सेवक_बड़े भाग से ऐसी मृत्यु मिलती है।






स्वामि काज करिहउं रन रारी। जब धवलिहउं भुवनु दस चारी।। तजउं प्रान रघुनाथ निहोरें। दुहूं हाथ मुद मोदक मोरें।।_अर्थ_मैं स्वामी के काम के लिये रण मेंश लड़ाई करूंगा और चौदहों लोकों को अपने यश से उज्जवल कर दूंगा। श्रीरघुनाथजी के निमित्त प्राण त्याग दूंगा। मेरे तो दोनों ही हाथों में आनन्द के लड्डू हैं ( अर्थात् जीत गया तो रामसेवक का यश प्राप्त करूंगा और मारा गया तो श्रीरामजी की नित्य सेवा प्राप्त करूंगा )।





साधु समाज न जाकर लेखा। राम भगत महुं जासु न रेखा।। जायं जिअत जग सो महिभारू। जननी जीवन विटप कुठारू।_अर्थ_साधुऔं के समाज में जिनकी गिनती नहीं और श्रीराम जी के भक्तों में जिसका स्थान नहीं वह जगत् में पृथ्वी का भार होकर व्यर्थ हो जाता है। वह माता के जीवन रूपी वृक्ष के काटने के लिये कुल्हाड़ामात्र है।






बिगत बिषाद निषाद पति सबहिं बढ़ाई उछाहु। सुमिरि राम मागेउ तुरत तरकस धनुष सनाहु।।_अर्थ_(इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी के लिये प्राण समर्पण का निश्चय करके) निषादराज विषाद से रहित हो गया और सबका उत्साह बढ़ाकर तथा श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके उसने तुरंत ही तरकस, धनुष और कवच मांगा।






चले निषाद जोहारि जोहारी। सूर सकल रन रूचइ रारी।। सुमिरि राम पद पंकज पनहीं। माथीं बांधि चढ़ाइन्हि धनहीं।_अर्थ_ निषादराज को जोहार कर_करके सब निषाद चले। सभी बड़े शूरवीर हैं और संग्राम में लड़ना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। श्रीरामचन्द्रजी के चरणकमलों की जूतियों का स्मरण करके उन्होंने भांजियां ( छोटे_छोटे तरकस ) बांधकर धनुहियों ( छोटे_छोटे धनुषों )_पर प्रत्यंचा चढ़ायीं।







अंगरी पहिरि कूड़ि सिर धरहीं। फरसा बांस सेल समय करहीं।। एक कुशल अति ओड़न खांड़ें। कूदहिं गगन मनहुं छिति छांड़े।।_अर्थ_ कवच पहनकर लोहे का टोप सिर पर रखते हैं और फरसे, भाले तथा बरछों को सीधा कर रहे हैं ( सुधार रहे हैं)। कोई तलवार वार रोकने में अत्यंत ही कुशल हैं। वे ऐसे उमंग में भरे हैं मानो धरती छोड़कर आकाश में कूद ( उछल ) रहे हों।





निज निज साजु समाजु बनाई। गुह राउतहइ जोहारे जाई।। देखि सुभट सब लायक जाने। लै लै नाम सकल सनमाने।।_अर्थ_अपना_अपना साज समाज ( लड़ाई का सामान और दल ) बनाकर उन्होंने जाकर निषादराज गुह को जोहार की। निषादराज ने सुंदर योद्धाओं को देखकर सबको सुयोग्य जाना और नाम ले_लेकय सबका सम्मान किया।






भाइहु लावहु धोख जनि आजु काज बड़ मोहि। सुनि सरोष बोले सुभट बीर अधीर न होहि।।_अर्थ_( उसने कहा_)हे भाइयों ! धोखा न लाना ( अर्थात् मरने से न घबराना), आज मेरा बड़ा भारी काम है। यह सुनकर सब योद्धा बड़े जोश सेके साथ बोल उठे_हे वीर ! अधीर मत हो।






राम प्रताप नाथ बल तोरे। करहिं कटकु बिनु भट बिनु घोरे।। जीवत पाउ न पाएं धरहीं। रुंड मुंडमय मेदिनी करहीं।।_अर्थ_हे नाथ ! श्रीरामचन्द्रजी के प्रताप से और आपके बल से हमलोग भरत की सेना को बिना वीर और और बिना घोड़े के ही कर देंगे ( एक_एक वीर और एक_एक घोड़े को मार डालेंगे )। जीते_जी पीछे पांव न रखेंगे। पृथ्वी को रुण्ड_मुण्डमयी कर देंगे ( सिरों और धरों से छा देंगें )।





दीख निषादनाथ भल टोलू। कहेउ बजाउ जुझाऊ ढ़ोलू।। एतना कहते छींक भइ बांए।। कहेउ सगुनिअन्ह खेत सुहाए।।_अर्थ_निषादराज ने वीरों का बढ़िया दल देखकर कहा_जुझाऊ ( लड़ाई का ) ढ़ोल बजाओ। इतना कहते ही बायीं ओर छींक हुई। शकुन विचारने वालों ने कहा कि खेत सुन्दर है ( जीत होगी )।





बूढ़ु एक कह सगुन बिचारी। भरतहिं मिलइ न होइहि रारी।। रामहिं भरतु मनावन जाहीं। सगुन कहइ अस बिग्रह नाहीं।।_अर्थ_एक बूढ़े ने शकुन विचारकर कहा_ भरत से मिलना होगा, उनसे लड़ाई नहीं होगी। भरत श्रीरामचन्द्रजी को मनाने जा रहे हैं। शकुन ऐसा कह रहा है कि विरोध नहीं है।





सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछताहिं बिमूढ़ा।। भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझे। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।_अर्थ_यह सुनकर निषादराज गुह ने कहा_बूढ़ा ठीक कह रहा है। जल्दी में ( बिना विचारे ) कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील_स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित नहीं है।






सुनि गुह कहइ नीक कह बूढ़ा। सहसा करि पछताहिं बिमूढ़ा।। भरत सुभाउ सीलु बिनु बूझे। बड़ि हित हानि जानि बिनु जूझें।।_अर्थ_यह सुनकर निषादराज गुह ने कहा_बूढ़ा ठीक कह रहा है। जल्दी में ( बिना विचारे ) कोई काम करके मूर्ख लोग पछताते हैं। भरतजी का शील_स्वभाव बिना समझे और बिना जाने युद्ध करने में हित नहीं है।





गहहु घाट भट समिति सब लेउं मिलि जाइ। बूझि मित्र अरि मध्य गति तस तब करिहउं आइ।।_अर्थ_अतएव हे वीरों ! तुमलोग इकट्ठे होकर सब घाटों को रोक लो, मैं जाकर भरतजी से मिलकर उनका भेद लेता हूं। उनका भाव मित्र का है या शत्रु का या उदासीन का, यह जानकर तब आकर वैसा ( उसी के अनुसार ) प्रबन्ध करूंगा।






लखि सनेहु सुभायं सुहाएं। बैरु प्रीति नहिं दुरइं दुराएं।। अस कहि भेंट संजोवन लागे। कंद मूल फल खग मृग मागे।।_अर्थ_उनके सुंदर स्वभाव से मैं उनके स्नेह को पहचान लूंगा। वैर और प्रेम छिपाने से नहीं छिपते। ऐसा कहकर वह भेंट का सामान सजाने लगा। उसने कंद, मूल, फल, पक्षी और हिरन मंगवाये।








मीन पीन पाठीन पुराने। भरि भरि भार कहारन्ह आने।। मिलन साजु सजि मिलन सिधाए। मंगल मूल सगुन सुभ पाए।।_अर्थ_कहारलोग पुराने और मोटी पहिना नामक मछलियों के भार भर_भरकर लाये। भेंट का सामान सजाकर मिलने के लिये चले तो मंगलदायक शुभ शकुन मिले।