देखि दूरी तें कहि निज नामू। कीन्ह मुनीसहि दण्ड प्रनामू।। जानि रामप्रिय दीन्ह असीसा। भरतहिं कहेउ बुझाई मुनीसा।।_अर्थ_निषादराज ने मुनिराज वशिष्ठ जी को देखकर अपना नाम बतलाकर दूर से ही दण्डवत् प्रणाम किया। मुनीश्वर वशिष्ठ जी ने उसको राम का प्यारा जानकर आशीर्वाद दिया और भरत को समझाकर कहा ( कि यह श्रीरामजी का मित्र है)।
राम सखा सुनि स्यंदन त्यागा। चले उतरि उमगत अनुरागा।। गाउं जाति गुहं नाउं सुनाई। कीन्ह जोहारी माथ महि लाई।।_अर्थ_यह श्रीरामजी का मित्र है, इतना सुनते ही भरतजी ने रथ त्याग दिया। वे रथ से उतरकर प्रेम में उमंगते हुए चले। निषादराज गुह ने अपना गांव, जाति और नाम सुनाकर पृथ्वी पर माथा टेककर जोहार की।
करत दंडवत देखि तेहि भरत लीन्ह उर लाइ। मनहुं लखन सन भेंट भइ प्रेम न हृदय समाइ।।_अर्थ_दण्डवत् करते देखकर भरतजी ने उठाकर उसको छाती से लगा लिया। हृदय में प्रेम समाता ही नहीं है, मानो स्वयं लक्ष्मण जी से भेंट हो गयी हो।
भेंटत भरत ताहि अति प्रीती। लोग सहाहिं प्रेम को रीती।। धन्य_धन्य धुनि मंगल मूला। सुर सराहि तेहि बरिसहिं फूला।।_भरतजी गुह को अत्यंत प्रेम से गले लगा रहे हैं। प्रेम की रीति से सब लोग सिंहा रहे हैं ( ईर्ष्यापूर्व प्रशंसा कर रहे हैं ); मंगल की मूल ' धन्य_धन्य' की ध्वनि करके देवता उसकी सराहना करते हुए फूल बरसा रहे हैं।
लोक बेद सब भांतिहिं नीचा। जासु छांह छुइ लेइअ सींचा।। तेहि भरि अंक राम लघु भ्राता। मिलती पुलक परिपूरित गाता।।_अर्थ_( वे कहते हैं _) जो लोक और वेद दोनों में सब प्रकार से नीचा माना जाता है, जिसकी छाया के छू जाने से भी स्नान करना होता है, उसी निषाद से अंकवार भरकर ( हृदय से चिपटाकर ) श्रीरामचन्द्रजी के छोटे भाई भरतजी ( आनंद और प्रेम वश ) शरीर में पुलकावली से परिपूर्ण हो मिल रहे हैं।
राम राम करि जे जमुहाहीं। तिन्हहिं न पाप पुंज समुहाहीं।। यह तौं राम लाइ उर लीन्हा। कुल समेत जग पावन कीन्हा।।_अर्थ_ जो लोग राम_राम कहकर जंभाई लेते हैं ( अर्थात् आलस्य से भी जिनके मुंह से राम नाम का उच्चारण हो जाता है), पापों के समूह ( कोई भी पाप ) उनके सामने नहीं आते। फिर इस गुह को तो स्वयं श्रीरामचन्द्रजी ने हृदय से लगा लिया और कुल समेत इसे जगत्पावन ( जगत् को पवित्र करनेवाला बना दिया।
करमनास जलु सुरसरि परई। तेहि को कहहु सीस नहिं धरइ ।। उलटा नाम जपत जग जाना। बाल्मीकि में ब्रह्म समाना।।_अर्थ_कर्मनाशा नदी का जल गंगाजी में पड़ जाता है ( मिल जाता है ), तब कहिये, उसे कौन सिर पर धारण नहीं करता ? जगत् जानता है कि उलटा नाम ( मरा_मरा ) जपते_जपते वाल्मीकिजी ब्रह्म के समान हो गये।
स्वपच सबर खस जमन जड़ पावंर कोल किरात । रामु कहत पावन परम होत भुवन विख्यात।।_अर्थ_मूर्ख और पामर चाण्डाल, शबर, खस, यवन, कोल और किरात भी रामनाम कहते ही परम पवित्र और त्रिभुवन में विख्यात हो जाते हैं।
नहिं अचिरिजु जुग जुग चलि आई। केहि न दीन्हि रघुबीर बड़ाई।। राम नाम महिमा सुर कहहीं। सुनि सुनि अवध लोग सुखु लहहीं।।_अर्थ _इसमें कोई आश्चर्य नहीं है, युग_युगान्तर से यही रीति चली आ रही है। श्रीरघुनाथजी ने किसको बड़ाई नहीं दी ? इस प्रकार देवता रामनाम की महिमा कह रहे हैं और उसे सुन_सुनकर अयोध्या के लोग सुख पा रहे हैं।
रामसखहि मिलि भरत सप्रेमा। पूंजी कुल सुमंगल खेमा।। देखि भरत कर सील सनेहू। भा निषाद तेहि समय बिदेहू।।_अर्थ_ रामसखा निषादराज से प्रेम के साथ मिलकर भरतजी ने कुशल, मंगल और क्षेम पूछी। भरतजी का शील और प्रेम देखकर निषाद उस समय विदेह हो गया ( प्रेम मुग्ध होकर देह की सुध भूल गया)।
सकुच सनेहु मोदु मन बाढ़ा। भरतहि चितइ एकटक ठाढ़ा।। धरि धीरजु पद बंदि बहोरी। बिनय सप्रेम करत कर जोरी।।_अर्थ_उनके मन में संकोच, प्रेम और आनंद इतना बढ़ गया कि वह खड़ा_खड़ा टकटकी लगाये भरतजी के चरणों की वन्दना करके प्रेम के साथ हाथ जोड़कर विनती करने लगा।
कुसल मूल पद पंकज पेखी। मैं तइहउं काल कुसल निज लेखी।। अब प्रभु परम अनुग्रह तोरें।
सहित कोटि कुल मंगल मोरें।।_अर्थ_ हे रहो ! कुशल के मूल आपके चरणकमलों के दर्शन कर मैंने तीनों कालों में अपना कुशल जान लिया। अब आपके परम अनुग्रह से करोड़ों कुलों ( पीढ़ियों ) सहित मेरा मंगल ( कल्याण) हो गया।
समुझि मोरि करतूति कुलु प्रभु महिमा जियं जोइ। जो न भजइ रघुबीर पद जग बिना संचित सोइ।।_अर्थ_मेरी करतूत और कुल को समझकर और प्रभु श्रीरामचन्द्रजी की महिमा को मन में देख ( विचार ) कर ( अर्थात् कहां तो मैं नीच जाति और नीच कर्म करनेवाला जीव, और कहां अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों के स्वामि श्रीरामचन्द्रजी ! पर उन्होंने मुझ जैसे नीच को भी अपनी अहैतु की कृपा वश अपना लिया_यह समझकर) जो रघुवीर श्रीरामचन्द्रजी के चरणों का भजन नहीं करता, वह जगत् में विधाता के द्वारा ठगा गया है।
कपटी कायर कुमति कुजाति। लोक बेद बाहेर सब भांती।। राम कीन्ह आपन जबही तें। भयउ भुवन भूषन तबही तें।।_अर्थ_मैं कपटी, कायर, कुबुद्धि और कुजाति हूं और लोक_वेद दोनों से सब प्रकार से बाहर हूं। पर जबसे श्रीरामचन्द्रजी ने मुझे अपनाया है, तभी से मैं विश्व का भूषण हो गया।
देखि प्रीति सुनि बिनय सुहाई। मिलेउ बहोरी भरत लघु भाई।। कहि निषाद निज नाम सुबानीं।
सादर सकल जोहारीं रानी।।_अर्थ_ निषादराज की प्रीति को देखकर और सुन्दर विनय सुनकर फिर भरतजी के छोटे भाई शत्रुध्नजी उससे मिले। फिर निषाद ने अपना नाम ले_लेकर सुन्दर ( नम्र और मधुर ) वाणी से सब रानियों को आदरपूर्वक जोहार की।