तेहि बासर बसि प्रातहीं चले सुमिरि रघुनाथ। राम दरस की लालसा भरत सरिस सब साथ।।_अर्थ_ उस दिन वहीं ठहरकर दूसरे दिन प्रात:काल ही श्रीरघुनाथजी का स्मरण करके चले। साथ के सब लोगों को भरतजी के समान ही श्रीरामजी के दर्शन की लालसा ( लगी हुई ) है।
मंगल सगुन होहिं सब काहू। फरकहिं सुखद बिलोचन बाहू।। भरतहिं सहित समाज उछाहू। मिलिहहिं राम मिटइ दुख दाहू।।_अर्थ_सबको मंगवसूचक शकुन हो रहे हैं। सुख देनेवाले ( पुरुषों के दाहिने और स्त्रियों के बायें ) नेत्र और भुजाएं फड़क रही हैं। समाजसहित भरतजी को उत्साह हो रहा है कि श्रीरामचन्द्रजी मिलेंगे और दु:ख का दाह मिट जायगा।
करत मनोरथ जस जियं जाके। जाहिं सनेह सुरां सब छाके।। सिथिल अंग पग मग डगि डोलहिं। बि बल बचन पेम बस बोलहिं।।_अर्थ_जिसके जी में जैसा है, वह वैसा ही मनोरथ करता है। सब स्नेह रूपी मदिरा से छके ( प्रेम में मतवाले हुए) चले जा रहे हैं। अंग शिथिल हैं, रास्ते में पैर डगमगा रहे हैं और प्रेमवश विह्वल बचन बोल रहे हैं।
रामसखा तेहि समय देखावा। सैल सिरोमनि सहज सुहावा।। जासु समीप स्थित पर तीरा। सीय समेत बसहिं दोउ बीरा।।_अर्थ_रामसखा निषादराज ने उसी समय स्वाभाविक ही सुहावना पर्वत शिरोमणि कामदगिरि दिखलाया, जिसके निकट ही पयस्वनइ नदी के तट पर सीता समेत दोनों भाई निवास करते हैं।
देखि करहिं सब दंड प्रनामा। कहि जय जानकी जीवन रामा।। प्रेम मगन अस राजसमाजू। जनु फिरि अवध चले रघुराजू।।_अर्थ_सबलोग उस पर्वत को देखकर ' जानकी_जीवन श्रीरामचन्द्रजी की जय हो।' ऐसा कहकर दण्डवत् प्रणाम करते हैं। राज-समाज प्रेम में ऐसा मग्न है मानो श्रीरघुनाथजी अयोध्या लौट चले हों।
भरत प्रेमु तेहि समय जस तस कहि सकइ न सेषु। कबिहि अगम जिमि ब्रह्मसुखु अह मम मलिन जनेषु।।_अर्थ_भरतजी का उस समय जैसा प्रेम था, वैसा शेषजी भी नहीं कह सकते। कवि के लिये तो वह वैसा ही अगम है जैसा अहंता और ममता से मलिन मनुष्यों के लिये ब्रह्मानंद।
सकल सनेह सिथिल रघुबर कें। गए कोस दुइ दिनकर ढ़रकें।। जलु जलु देखि बसे निसि बीतें। कीन्ह गवन रघुनाथ पिरीतें।।_अर्थ_सब लोग श्रीरामचन्द्रजी के प्रेम के मारे शिथिल होने के कारण सूर्यास्त होने तक ( दिनभरमें ) दो ही कोस चल पाये और जल_स्थल का सुपास देखकर रात को वहीं ( बिना खाये पाये ही ) रह गये। रात बीतने पर श्रीरघुनाथजी के प्रेमी भरतजी ने आगे गमन किया।
उहां राम रजनी अवसेषा। जागे सीयं सपन अस देखा।। सहित समाज भरत जनु आये। नाथ वियोग ताप तन ताए।।_अर्थ_उधर श्रीरामचन्द्रजी रात शेष रहते ही जागे। रात को सीताजी ने ऐसा स्वप्न देखा ( जिसे वे श्रीरामजी को सुनाने लगीं ) मानो समाजसहित भरतजी यहां आये हैं। प्रभु के वियोग की अग्नि से उनका शरीर संतप्त किया।
सकल मलिन मन दीन दुखारी। देखीं सासु आन अनुहारी।। सुनि सिय सपन भरे जल लोचन। भए सोचबस सोच बिमोचन।।_अर्थ_सभी लोग मन में उदास, दीन और दु:खी हैं। सासुओं को दूसरी ही सूरत में देखा। सीताजी का स्वप्न सुनकर श्रीरामचन्द्रजी के नेत्रों में जल भर आया और सबको सोच से छुड़ा देनेवाले प्रभु स्वयं ( लीलासे ) सोच के वश हो गये।
लखन सपन यह नीक न होई। कठिन कुचाल सुनाइहि कोई। अस कहि बंधु समेत नहाने। पूजा पुरारि साधु सनमाने।। _अर्थ _( और बोले ) लक्ष्मण ! यह स्वप्न अच्छा नहीं है। कोई भीषण कुसमाचार ( बहुत ही बुरी खबर ) सुनावेगा। ऐसा कहकर उन्होंने भाई सहित स्नान किया और त्रिपुरारि महादेवजी का पूजन करके साधुओं का सम्मान किया।
सनमानि सुर मुनिवृंद बैठे उतर दिसि देखत भए। नभ धूलि खग मृग भूरि भागे बिकल प्रभु आश्रम गए।। तुलसी उठे अवलोकि कारनु काह चित सचकित रहे। सब समाचार किरात कओलन्हइ आइ तेहि अवसर कहे।।_अर्थ_ देवताओं का सम्मान ( पूजन ) और मुनियों की वन्दना करके श्रीरामचन्द्रजी बैठ गये और उत्तर दिशा की ओर देखने लगे। आकाश में धूल छा रही है; बहुत _से पशु और पक्षी व्याकुल होकर भागे हुए प्रभु के आश्रम को आ रहे हैं। तुलसीदासजी कहते हैं कि प्रभु श्रीरामचन्द्रजी यह देखकर उठे और सोचने लगे कि क्या कारण है ? वे चित्त में आश्चर्य युक्त हो गये। इसी समय कोल_भीलों ने आकर सब समाचार कहे।
सुनत सुमंगल बैन मन प्रमोद तन पुलक भर। सर्द सरोरुह नैन तुलसी भरे सनेह जल।।_अर्थ_ तुलसीदासजी कहते हैं कि सुन्दर मंगल वचन सुनते ही श्रीरामजी के मन में बड़ा आनन्द हुआ। शरीर में पुलकावली छा गयी, और शरद ऋतु
के कमल के समान नेत्र प्रेमाश्रुओं से भर गये।
बहुरि सोचबस भे सियरवनू। कारन कवन भरत आगवनू।। एक आइ अस कहा बहोरी। सेना संग चतुरंग न थोरी।।_अर्थ_ सीतापति श्रीरामचन्द्रजी
पुनः सोच के वश हो गये कि भरत के आने का क्या कारण है? फिर एक ने आकर कहा कि उनके साथ में बड़ी भारी चतुरंगिणी सेना भी है।
सो सुनि रामहिं भा अति सोचू। इत पितु बच इत बंधु सकोचू।। भरत सुभाऊ समुझि मन माहीं। प्रभु चित हित थिति पावती नाहीं।।_अर्थ_यह बात सुनकर श्रीरामचन्द्रजी को अत्यंत सोच हुआ। इधर तो पिता का वचन और इधर भाई भरतजी का संकोच ! भरतजी के स्वभाव को मन में समझकर तो प्रभु श्रीरामचन्द्रजी चित
त को ठहराने के लिये कोई स्थान ही नहीं पाते हैं।
समाधान तब भा यह जाने। भरतु कहे महुं साधु सयाने।। लखन लखेउ प्रभु हृदय खभारु। कहत समय सब नीति बिचारू।।_अर्थ_ तब यह जानकर समाधान हो गया कि भरत साधु और सयाने हैं और मेरे कहने में ( आज्ञाकारी ) हैं। लक्ष्मणजी ने देखा कि प्रभु श्रीरामजी के हृदय में चिंता है तो वे समय के अनुसार अपना नीतियुक्त विचार कहने लगे_
बिनु पूछें कछु कहुं गोसाईं। सेवकों समान ढ़ईठ ढ़िठाई।। तुम्ह सर्बज्ञ सिरोमनि स्वामी। अपनी समुझि कहुं अनुगामी।।_अर्थ_ हे स्वामी ! आपके बिना ही पूछे मैं कुछ कहता हूं; सेवक समय पर ढ़िठाई करने से ढ़ीठ नहीं समझा जाता है ( अर्थात् जब आप पूछें तब मैं कहूं, ऐसा अवसर नहीं है; इसलिये मेरा यह कहना ढ़िठाई नहीं होगा ) । हे स्वामी ! आप सर्वज्ञ ओं में शिरोमणि हैं ( सब जानते ही हैं )। मैं सेवक तो अपनी समझ की बात कहता हूं।
नाथ सुहृदं सुचि सरल चित सील सनेह निधान। सब पर प्रीति प्रतीति जियं जानिअ आपु समान।।_अर्थ_ हे नाथ ! आप परम सुहृद ( बिना ही कारण परम हित करनेवाले), सरलहृदय तथा शील और स्नेह के भण्डार हैं, आपका सभी पर प्रेम और विश्वास है, और अपने हृदय में सबको अपने ही समान जानते हैं।
बिषई जीव पाइ प्रभु ताई। मूढ़ मोहबस होहिं जनाई।। भरतु नीति रत साधु सुजाना। प्रभु पद प्रेमु सकल जग जाना।।_अर्थ_ परन्तु मूढ़ विषयी जीव प्रभुता पाकर मओहवश अपने असली स्वरूप को प्रकट कर देते हैं। भरत नईतइपरआयण, साधु और चतुर हैं तथा प्रभु ( आप )_के चरणों में उनका प्रेम है, इस बात को सारा जगत् जानता है।
तेऊ आज राम पद पाई। चले धर्म मरजाद मेटाई।। कुटिल कुबंधु कुअवसरु ताकी। जानि राम बनबास एकाकी।।_अर्थ_वे भरतजी आज श्रीरामजी ( आप )_का पद ( सिंहासन या अधिकार) पाकर धर्म की मर्यादा को मिटाकर चले हैं। कुटिल खोटे भाई भरत कुसमय देखकर और यह जानकर कि रामजी ( आप ) वनवास में अकेले असहाय हैं,।।
करि कुमंत्रु मन साजि समाजू। आए करै अकंटक राजू।। कोटि प्रकार कलपि कुटिलाईं। आए दल बटोरि दोउ भाई।।_अर्थ_ अपने मन में बुरा विचार करके, समाज जोड़कर राज्य को निष्कंटक करने के लिये यहां आये हैं। करोड़ों ( अनेकों ) प्रकार की कुटिलताएं रचकर सेना बटोरकर दोनों भाई आये हैं।
जौं जियं होति न कपट कुचाली। केहि सोहाती रथ बाजि गजाली।। भरतहिं दोसु देखि को जाएं। जग बौराइ राजु पद पाएं।।_अर्थ_यदि इनके हृदय में कपट कुचाल न होती तो रथ, घोड़े, हाथियों की कतार ( ऐसे समय ) किसे सुहाती ? परन्तु भरत को ही व्यर्थ कौन दोष दे ? राजपद पा जाने पर सारा जगत् ही पागल ( मतवाला ) हो जाता है।
ससि गुर तिय गामी नहुष चढ़ेउ भूमि सुर जान। लोक बेद तें बिमुख भा अधम न बेन समान।।_अर्थ_चन्द्रमा गुरुपत्नीगामी हुआ, राजा नहुष ब्राह्मणों की पालकी पर चढ़ा। और राजा वेन के समान नीच तो कोई नहीं होगा, जो लोक और वेद दोनों से विमुख हो गया।
सहसबाहु सुरनाथु त्रिसंकू। केहि न राजमद दीन्ह कलंकू।। भरत कीन्ह यह उचित उपाऊ। रिपु रिन रंच न राखब काऊ।।_अर्थ _ सहस्त्रबाहु, देवराज इन्द्र और त्रिशंकू आदि किसको राजमद ने कलंक नहीं दिया ? भरत ने यह उपाय उचित ही किया है। क्योंकि शत्रु और ऋण को कभी जरा भी शेष नहीं रखना चाहिये।
एक कीन्ह नहिं भरत भलाई। निदरे राम जानि असहाई।। समुझि परहि सोच आजु बिसेषी। समर सरोष राम मुखु पेखी।।_अर्थ_हां, एक बात भरत ने अच्छी नहीं की, जो रामजी ( आप )_को असहाय जानकर उनका निरादर किया ! पर आज संग्राम में श्रीरामजी ( आप )_का क्रोधपूर्ण मुख देखकर यह बात भी उनकी समझ में विशेष रूप से आ जायगी ( अर्थात् इस निरादर का फल वे भी अच्छी तरह पा जायेंगे )।