कोल किरात भिल्ल बनवासी। मधु सुचि सुंदर स्वादु सुधा सी।। भरि भरि परन पूटीं रचि रूरी। कंद मूल फल अंकुर जूरी।।_अर्थ_कोल, किरात और भील आदि वन के रहनेवाले लोग पवित्र, सुंदर और अमृत के समान स्वादिष्ट मधु ( शहद ) को सुंदर दोने बनाकर और उनमें भर_भरकर कंद_मूल, फल और अंकुर आदि की चूड़ियों आंटियों _को।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानता साधु पेम पहिचानी।। तुम्ह सुकृति हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।_अर्थ_सबको विनय और प्रणाम करके उन चीजों के अलग_अलग स्वाद, भेद ( प्रकार), गुण और नाम बता_बताकर देते हैं। लोग उनका बहुत दाम दूतए हैं, पर वे नहीं लेते और लौटा लेने में श्रीरामजी की दुहाई देते हैं।
कहहिं सनेह मगन मृदु बानी। मानता साधु पेम पहिचानी।। तुम्ह सुकृति हम नीच निषादा। पावा दरसनु राम प्रसादा।।_अर्थ_प्रेम में मग्न हुए वे कोमल वाणी से कहते हैं कि साधु लोग प्रेम को पहचानकर उसका सम्मान करते हैं ( अर्थात्, आप साधु हैं, आप हमारे प्रेम को देखिये, दाम देकर या वस्तुएं लौटाकर हमारे प्रेम का तिरस्कार न कीजिये )। आप तो पुण्यात्मा हैं, हम नीच निषाद हैं। श्रीरामजी की कृपा से ही हमने आपलोगों के दर्शन पाये हैं।
हमहिं अगम अति दरसु तुम्हारा। जस मरु धरना देवधुनि धारा।। राम कृपाल निषाद नेवाजा। परिजन प्रभु चहइअ जस राजा।।_अर्थ_हमलोगों को आपके दर्शन बड़े ही दुर्लभ हैं, जैसे मरुभूमि के लिये गंगाजी की धारा दुर्लभ है। ( देखिये, ) कृपालु श्रीरामचन्द्रजी ने निषाद पर जैसी कृपा की है। जैसा राजा हैं वैसा ही उनके परिवार और प्रजा को भी होना चाहिए।
यह जियं जानि संकोचु तजि करिअ छोहु लखि नेहु। हमहिं कृतारथ करन लगि फल तृन अंकुर लेहु।।_अर्थ_हृदय में ऐसा जानकर संकोच छोड़कर और हमारा प्रेम देखकर कृपा कीजिये और हमको कृतार्थ करने के लिये ही फल, तृण और अंकुर लीजिये।
तुम्ह प्रिय पाहुने बन पगु धारे। सेवा जोगु न भाग हमारे।। देब काह हम तुम्हहिं गोसाईं। ईंधनु पात किरात मिताई।।_अर्थ_आप प्रिय पाहुने वन में पधारे हैं। आपकी सेवा करने के योग्य हमारे भाग्य नहीं है। हे स्वामी ! हम आपको क्या देंगे ? भीलों की मित्रता तो बस, ईंधन ( लकड़ी ) और पत्तों तक ही है।
यह हमारी अति बड़ि सेवकाईं। लेहिं न बासन बसन चोराई।। हम जड़ जीव जीव गन घाती। कुटिल कुचाली कुमति कुजाति।_अर्थ_हमारी तो यही बहुत भारी सेवा है कि हम आपके कपड़े और बर्तन चुरा लेते। हमलोग जड़ जीव हैं, जीवों को हिंसा करनेवाले हैं, कुटिल, कुचाली, कुबुद्धि और कुजाति हैं।
पाप करत निसि बासर जाहीं। नहिं पट कटि नहिं पेट अघाहीं।। सपनेहुं धरमबुद्वि कस काऊ। यह रघुनंदन दरस प्रभाउ।।_अर्थ_हमारे दिन रात पाप करते ही बीतते हैं। तो भी न तो हमारे कमरे में कपड़ा है और न पेट ही भरते हैं हममें स्वप्न में भी धरमबुद्वि कैसी ? यह सब तो श्रीरघुनाथजी के दर्शन का प्रभाव है।
जब तें प्रभु पद पदुम निहारे। मिटे दुसह दुख दोष हमारे।। बचन सुनि पुरजन अनुरागे। तिन्ह के भाग सराहन लागे।।_अर्थ_जब से प्रभु के चरणकमल देखे, तबसे हमारे दु:सह दु:ख और दोषों मिट गये। वनवासियों के वचन सुनकर अयोध्या के लोग प्रेम में भर गये और उनके भाग्य की सराहना करने लगे।
लागे सराहन भाग सब अनुराग सुनावहीं। बोलनि मिलनि सीय राम चरन सनेहु लखि सुखु पावहीं।। नर नारि निदरहिं नेहु निज सुनि कोल भिल्लनि की गिरा। तुलसी कृपा रघुबंसमनि की लोह लै लौका तिरा।।_अर्थ_सब उनके भाग्य की सराहना करने लगे और प्रेम के वचन सुनाने लगे। उन लोगों के बोलने और मिलने का ढंग तथा श्रीसीतारामजी के चरणों में उनका प्रेम देखकर सब सुख पा रहे हैं। उन कोल_भीलों की बातें सुनकर सभी नर_नारी अपने प्रेम का निरादर करते हैं ( उसे धिक्कार देते हैं )। तुलसीदासजी कहते हैं कि यह रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजी की कृपा है कि लोहा नौका को अपने ऊपर लेकर तैर गया।
बिसारहि बन चहुं ओर प्रतिदिन प्रमुदित लोग सब। जल ज्यों दादुर मोर भए पीन पावस प्रथम।।_अर्थ_सब लोग दिनों-दिन परम आनन्दित होते हुए वन में चारों ओर विचरते हैं। जैसे पहली वर्षा के जल से मेढ़क और मोर मोटे हो जाते हैं ( प्रसन्न होकर नाचते_कूदते हैं ) ।
पुरजन नारि मगन अति प्रीती। बासर जाहिं कल्प सम बीती।। सिय सासु प्रति बेष बनाई। सादर करि सरिस सेवकाई।।_अर्थ_अयोध्यापुरी के पुरुष और स्त्री सभी प्रेम में अत्यन्त मगन हो रहे हैं। उनके दिन पल के समान बीत जाते हैं। जितनी सासुओं थीं, उतने ही वेष ( रूप ) बनाकर सीताजी सब सासुओं की आदरपूर्वक एक_सी सेवा करती है।
लखा न मरमु राम बिनु काहूं। माया सब सिय माया माहूं।। सीयं सासु सेवा बस कीन्हीं। तिन्ह रहा सुख सिख आसिफ दीन्हीं।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के सिवा इस भेद को और किसी ने नहीं जाना। सब माताएं ( पराशक्ति महामाया ) श्रीसीताजी की माया में ही है। सीताजी ने सासुओं को सेवा से वश में कर लिया। उन्होंने सुख पाकर सीख और आशीर्वाद दिये।
लखि सिय सहित सरल दोउ भाई। कुटिल रानी पछितानी अघाई।। अवनि जमहि जाचति कैकेई। महि न बीचु बिधि मीचु न देई।।_अर्थ_सीताजी समेत दोनो भाईयों ( श्रीराम _लक्ष्मण )_का सरल स्वभाव देखकर कुटिल रानी कैकेयी भरपेट पछताई । वह पृथ्वी तथा यमराज से याचना करती है कि, धरती बीच ( फटकर समा जाने के लिये रास्ता ) नहीं देती और विधाता मौत नहीं देता।
लोकहुं बेद बिदित कबि कहहीं। राम बिमुख जलु नरक न लहहीं।। यहु हंसी सब के मन माहीं। राम गवनु बिधि अवध कि नाहीं।।_अर्थ_ लोक और वेद में प्रसिद्ध है और कवि ( ज्ञानी ) भी कहते हैं कि जो श्रीरामजी से बिमुख हैं इन्हें नरक में भी ठौर नहीं मिलती। सबके मन में यह संदेह हो रहा था कि हे विधाता ! श्रीरामचन्द्रजी का अयोध्या जाना होगा या नहीं ।