निसि न नींद नहीं भूख दिन भरतु बिकल सुचि सोच। नीच कीच बिच मगन जस मईनहइं सरल संकोच।।_अर्थ_भरतजी को न तो रात में नींद आती है, न दिन में भूख ही लगती है। वे पवित्र सोच में ऐसे विकल हैं, जैसे नीचे ( तल )_के कीचड़ में डूबीं हुई मछली को जल की कमी से व्याकुलता होती है।
कीन्ह मातु मिस काल कुचाली। ईति भीति जस पाकत साली।। केहि बिधि होइ राम अभिषेकू। मोहि अवकलत उपाऊ न एकू।।_अर्थ_( भरतजी सोचते हैं कि ) माता के बहाने से काल ने कुचाल की है। जैसे धान के पकते समय ईति का भय आ उपस्थित हो। अब श्रीरामचन्द्रजी का राज्याभिषेक किस प्रकार हो, मुझे तो एक भी उपाय नहीं सूझता।
अवसि फिरहिं गुर आयसु मानी। मुनि पुनि कहब राम रुचि जानी।। मातु कहेहुं बहुरहिं रघुराऊ। राम जननी हठ करि कि काऊ।।_अर्थ_गुरुजी की आज्ञा मानकर तो श्रीरामजी अवश्य ही अयोध्या लौट चलेंगे। परन्तु मुनि वशिष्ठजी तो श्रीरामचन्द्रजी की रुचि जानकर ही कुछ कहेंगे ( अर्थात् वे श्रीरामजी की रुचि देखें बिना जाने को नहीं कहेंगे )। माता कौसल्याजी के कहने से भी श्रीरघुनाथजी लौट सकते हैं; पर भला, श्रीरामजी को जन्म देनेवाली माता क्या कभी हठ करेगी ?
मोहि अनुचर कर केतिक बाता। तेहि महं कुसुम बाम बिधाता।। जौं हठ करउं तो निपट कुकरमू। हरगिरि तें गुरु सेवक धरमू।।_अर्थ_मुझ सेवक की बात ही कितनी है ? उसमें भी समय खराब है ( मेरे दिन अच्छे नहीं है ) और विधाता प्रतिकूल है। यदि मैं हठ करता हूं तो यह घोर कुकर्म ( अधर्म) होगा, क्योंकि सेवक का धर्म शिवजी के पर्वत कैलाश से भी भारी ( निबाहने में कठिन ) है ।
एकउ जुगुति न मन ठहरानी। सोचता भरतहिं रैन बिहानी।। प्रात नहाइ प्रभुहिं सिर नाई। बैठत पठए रिषय बोलाई।।_अर्थ_एक भी युक्ति भरतजी के मन में न ठहरी। सोचते_ही_सोचते रात बीत गयी। श्रीरामचन्द्रजी को सिर नवाकर बैठे ही थे कि ऋषि वशिष्ठजी ने उनको बुलवा भेजा।
गुर पद कमल प्रनामु करि बैठे आयसु पाइ। बिप्र महाजन सचिव सब जुरे सभासद आइ।।_अर्थ_भरतजी गुरु के चरणकमलों में प्रणाम करके आज्ञा पाकर बैठ गये। उसी समय ब्राह्मण, महाजन, मंत्री आदि सभी सभासद आकर जुट गये।
बोले मुनिबर समय समाना। सुनहु सभासद भरत सुजाना।। धर्म धुरीन भानुकुल भानू। राजा रामु स्वबस भगवानू।।_अर्थ_ श्रेठ मुनि वशिष्ठजी समयोचित वचन बोले_हे सभासदों ! हे सुजान भरत ! सुनो। सूर्यकुल के सूर्य महाराज श्रीरामचन्द्र धर्मधुरंधर और स्वतंत्र भगवान हैं।
सत्यसंध पालक श्रुति सेतू। राम जनमु जग मंगल हेतू।। गुर पितु मातु बचन अनुसारी। खल दलउ दलन देव हितकारी।।_अर्थ_ वे सत्यप्रतिज्ञ हैं और वेद के मर्यादा के रक्षक हैं। श्रीरामजी का अवतार ही जगत् के कल्याण के लिये हुआ है। वे गुरु, पिता और माता के वचनों के अनुसार चलने वाले हैं। दुष्टों के दल का नाश करनेवाले और देवताओं के हितकारी हैं।
नीति प्रीति परमारथ स्वारथु। कोउ न राम सम जान जथारथु।। बिधि हरिहरु ससि रबि दिसिपाला।।_अर्थ_ नीति, प्रेम, परमार्थ और स्वार्थ को श्रीरामजी के समान यथार्थ ( तत्वसे ) कोई नहीं जानता। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, चन्द्र, सूर्य, दिक्पाल, माया, जीव, सभी कर्म और काल।
अहिप महिप जहं लगि प्रभुताई। जोग सिद्धि निगमागम गाई।। करि बिचारी जियं देखहु नीके। राम रजाइ सीस सबहिं के।।_अर्थ_शेषजी और ( पृथ्वी और पाताल के अन्यान्य ) राजा आदि जहां तक प्रभुता है, और योग की सिद्धियां, जो वेद और शास्त्रों मे गाइ गयी हैं, हृदय में अच्छी तरह विचार कर देखो, ( तो यह स्पष्ट दिखाई देगा कि ) श्रीरामजी की आज्ञा इन सभी के सिर पर है ( अर्थात् श्रीरामजी ही सके एकमात्र महान् महेश्वर हैं )।
राखें राम रजाइ रुख हम सब कर हित होई। समुझि सयाने करहु अब सब मिलि संमत सोइ।।_अर्थ_अतएव श्रीरामजी की आज्ञा और रुख रखने में ही हम सब का हित होगा। ( इस तत्व और रहस्य को समझकर ) अब तुम सयाने लोग जो सबको सम्मत हो, वहीं मिलकर करो।
सब कहुं सुखद राम अभिषेकू। मंगल मोद मूल मग एकू।। केहि बिधि अवध चरहिं रघुराऊ। कहहु समुझि सोइ करि उपाऊ।।_अर्थ_श्रीरामजी का राज्याभिषेक सबके लिये सुखदायक है। मंगल और आनंद का मूल यही एक मार्गं है। ( अब ) श्रीरामजी अयोध्या किस प्रकार चलें ? विचारकर कहो, वहीं उपाय किया जाय।
सब सादर सुनि मुनिबर बानी। नय परमार्थ स्वारथ सानी।। उतरु न आव लोग भए भोरे। तब सिरु नाई भरत कर जोरे।।_अर्थ_ मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी की नीति, परमार्थ और स्वार्थ ( लौकिक हित )_में सनी हुई वानी सबने आदरपूर्वक सुनी। पर किसी को कोई उत्तर नहीं आता।, सब लोग भोले ( विचारशक्ति से रहित ) हो गये। तब भरतजी ने सिर नवाकर हाथ जोड़े।
भानुबंस भए भूप घनेरे। अधिक एक तें एक बड़ेरे।। जनम हेतु सब कहं पितु माता। कर्म सुभासुभ देखि विधाता।।_( और कहा_) सूर्यवंश मेनमें एक_से_एक राजा हो गये हैं। सभी के जन्म के कारण पिता_माता होते हैं और शुभ_अशुभ कर्मों को ( कर्मों का फल ) विधाता देते हैं।
दलि दुख सजइ सकल कल्याना। अस असीस राउरि जग जाना।। सो गोसाईं बिधि गति जेहिं छेंकी। सकइ को टारि टेक जो टेकी।।_अर्थ_आपकी आशिष ही एक ऐसी है जो दु:खों का दमन करके, समस्त कल्याणों को सज देती है; यह जगत् जानता है। हे स्वामी ! आप वही हैं जिन्होंने विधाता की गति ( विधान )_को भी रोक दिया। आपने जो टेक टेक दी ( जो निश्चय कर दिया ) उसे कौन टाल सकता है ?
बूझिअ मोहि उपाऊ अब सो सब मोर अभागु। सुनि स्नेहमय बचन गुर उर उमड़ा अनुरागु।_अर्थ_अब आप मुझसे उपाय पूछते हैं, यह सब मेरा अभाग्य है। भरतजी के प्रेममय वचनों को सुनकर गुरुजी के हृदय में प्रेम उमड़ आया।
तात बात फुरि राम कृपाहीं। राम बिमुख सिधि सपनेहुं नाहीं।। सकुचउं तात कहत एक बाता। अरध तजहिं बुध सरबस जाता।।_अर्थ_( वे बोले _ ) हे तात ! बात सत्य है, पर है रामजी की कृपा से ही। राम विमुख को तो स्वप्न में भी सिद्धि नहीं मिलती। हे तात ! मैं एक बात कहने में सकुचाता हूं। बुद्धिमान लोग सर्वस्व जाता देखकर ( आधे की रक्षा के लिये ) आधा छोड़ दिया करते हैं।
तुम्ह कानन गवनहु दोउ भाई। फेरिअहि लखन सीय रघुराई।। सुनि सुबचन हरषे दोउ भ्राता। भए प्रमोद परिपूरन गाता।।_अर्थ_अत: तुम दोनों भाई ( भरत_शत्रुध्न) वन को जाओ और लक्ष्मण, सीता और श्रीरामचन्द्र को लौटा दिया जाय। ये सुन्दर वचन सुनकर दोनों भाई हर्षित हो गये। उनके सारे अंग परमानंद से परिपूर्ण हो गये।
मन प्रसन्न तन तेजु बिराजा। जनु जियं राउ राम भए राजा।। बहुत लाभ लोगन्ह लघु हानी। सम दुख सुख सब रोवहिं रानी।।_अर्थ_उनके मन प्रसन्न हो गये। शरीर में तेज सुशोभित हो गया। मानो राजा दशरथ जी उठे हों और श्रीरामचन्द्रजी राजा हो गये हों! अन्य लोगों को तो इसमें लाभ अधिक और हानि कम प्रतीत हुई। परन्तु रानियों के दु:ख_सुख समान ही थे ( राम_लक्ष्मण वन में रहें या भरत_शत्रुध्न, दो पुत्रों का वियोग तो रहेगा ही, यह समझकर वे सब रोने लगीं।
कहहिं भरतु मुनि कहा सो कीन्हे। फलु जग जीवन अभिमत दीन्हे।। कानन करउं जन्म भरि बाहू। एहि तें अधिक न मोर सुपासू।।_अर्थ_भरतजी कहने लगे_मुनि ने जो कहा वह करने से जगत् भर के जीवों को उनकी इच्छित वस्तु देने का फल होगा। ( चौदह वर्ष की कोई अवधि नहीं, ) मैं जन्मभर वन में वास करूंगा।। मेरे लिये इससे बढ़कर और कोई सुख नहीं है।
अंतरजामी रामु सिय तुम्ह सर्बज्ञ सुजान। जौं फुर कहहु तो नाथ निज कीजिअ बचन प्रवान।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी और सीताजी हृदय के जाननेवाले हैं और आप सर्वज्ञ तथा सुजान हैं। यदि आप यह सत्य कह रहे हैं तो हे नाथ ! अपने वचनों का प्रमाण कीजिये। ( उसके अनुसार व्यवस्था कीजिये।
भरत बचन सुनि देखि सनेहू। सभा सहित मुनि में बिदेहू।। भरत महा महिमा जलरासी। मुनि मति ठाढी तीर अबला सी।।_अर्थ_भरतजी के वचन सुनकर और उनका प्रेम देखकर सारी सभा सहित मुनि वशिष्ठजी विदेह हो गये ( किसी को अपने देह की सुधि नहीं रही )। भरतजी की महान् महिमा समुद्र है, मुनि की बुद्धि उसके तट पर अबला स्त्री के समान खड़ी है।
गा चह पार जितनी हियं हेरा। पावती नाव न बोहितु बेरा।। औरत करिहिं को भरत बड़ाई। सरसरी सीपि कि सिंधु समाई।।_अर्थ_वह ( उस समुद्र के ) पार जाना चाहती है, इसके लिये उसने हृदय में उपाय भी ढ़ूंढ़कर ! पर ( उसे पार करने का साधन ) नाव, जहाज या बेड़ा कुछ भी नहीं पाती। भरतजी की बड़ाई और कौन करेगा ? तलैया की सीपी में भी कहीं समुद्र समान सकता है ?
भरतु मुनिहि मन भीतर भाए। सहित समाज राम पहिं आए।। प्रभु प्रणामु करि दीन्ह सुआसनु। बैठे सब सुनि मुनि अनुसासनु।।_अर्थ_मुनि वशिष्ठजी के अन्तरात्मा को भरतजी बहुत अच्छे लगे और वे समाजसहित श्रीरामजी के पास आये। प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने प्रणाम कर उत्तम आसन दिया। सबलोग मुनि की आज्ञा सुनकर बैठ गये।
बोले मुनिबरु बचन बिचारी। देस काल अवसर अनुहारी।। सुनहु राम सर्बग्य सुजाना। धर्म नीति गुन ज्ञान निधाना।।_अर्थ_श्रेष्ठ मुनि देश, काल और अवसर के अनुसार विचार करके वचन बोले_हे सर्वज्ञ ! हे सुजान! हे धरम, नीति, गुण और ज्ञान के भण्डार राम ! सुनिये_
सब के उर अंतर बहुत जानहु भाउ कुमाउ। पुरजन जननी भरत हित होई सो कहिअ उपाउ।।_अर्थ_आप सबके भीतर बसते हैं और सबके भले_बुरे भाव को जानते हैं। जिसमें पुरवासियों का, माताओं का और भरत का हित हो, वहीं उपाय बतलाइये।
आरत कहहिं बिचारि न काऊ। सूझ जुआरिहि आपन दाऊ।। सुनि मुनि बचन कहत रघुराऊ। नाथ तुम्हारे ही हाथ उपाऊ।।_अर्थ_ आर्त ( दु:खी ) लोग कभी विचारकर नहीं कहते। जुआरी को अपना ही दांव सूझता है। मुनि के वचन सुनकर श्रीरघुनाथजी कहने लगे_हे नाथ ! उपाय तो आपही के हाथ है।
सब कर हित रुख राउरि राखें। आयसु किएं मुदित फुर भायें।। प्रथम जो आयसु मो कहुं होई। मारें माना क्यों सिख सोई।।_अर्थ_आपका रुख रखने में और आपकी आज्ञा को सत्य कहकर प्रसन्नतापूर्वक पालन करने में ही सबका हित है। पहले तो मुझे जो आज्ञा हो, मैं उसी शिक्षा को माथे पर चढ़ाकर करूं।