Saturday, 12 April 2025

अयोध्याकाण्ड

जगु अनुभव भल एकउ गोसाईं। कहिअ होइ भल कासु भलाई।। देउ देवतरु सरिस सुभाऊ। सनमुख बिमुख न काहुहि काऊ।।_अर्थ_सारा जगत् बुरा ( करनेवाला ) हो, किन्तु हे स्वामी ! केवल एक आप ही भले ( अनुकूल ) हों, तो फिर कहिये, किसकी भलाई से भला हो सकता है ? हे देव ! आपका स्वभाव कल्पवृक्ष के समान है; वह भी कभी किसी के सम्मुख ( अनुकूल ) है, न विमुख ( प्रतिकूल )।

जाइ निकट पहिचानी तरु छांह समनि सब सोच। मागत अभिमत पांव जग राउ रिंकु भल पोच।।_अर्थ_उस वृक्ष ( कल्पवृक्ष ) को पहचानकर जो उसके पास जाय, तो उसकी छाया ही सारी चिंताओं का नाश करनेवाली है। राजा_रंक, भले_बुरे, जगत् में सभी उससे मांगते ही मनचाही वस्तु पाते हैं।

लखि सब बिधि गुर स्वामि सनेहू। मिटी छोभु नहिं मन संदेहू।। अब अरउनआकर कीजिअ सोई। जन हित प्रभु चित छोभु न होई।।_अर्थ_गुरु और स्वामी का सब प्रकार से स्नेह देखकर मेरा छोभ मिट गया, मन में कुछ भी संदेह नहीं रहा। हे दया के खान ! अब वही कीजिये जिसमें दास के लिये प्रभु के चित्त में छोभ ( किसी प्रकार का विचार ) न हो।

जो सेवकु साहिबहिं संकोची। निज हित चहइ तासु मति पोची।। सेवक हित साहिब सेवकाई। करै सकल सुख लोभ बिहाई।।_अर्थ_जो सेवक स्वामी को सोच में डालकर अपना भला चाहता है, उसकी बुद्धि नीच है। सेवक का हित तो इसी में है कि वह समस्त सुखों और लोभों को छोड़कर स्वामी की सेवा ही करे।

स्वारथु नाथ फिरें सबहिं का। किएं रजाइ कोटि बिधि नीका।। यह स्वार्थ परमार्थ सारू। सकल सुकृति फल सुसंगति सिंगारू।।_अर्थ_हे नाथ ! आपके लौटने में सभी का स्वार्थ है, और आपकी आज्ञा पालन करने में करोड़ों प्रकार के कल्याण है। यही स्वार्थ और परमार्थ का सार ( निचोड़ ) है, समस्त पुण्यों का फल और संपूर्ण शुभ गतियों का श्रृंगार है।

देव एक विनती सुनि मोरी। उचित होइ तस करब बहोरी।। तिलक समाजु साजिश सबु आना। करिअ सुफल प्रभु जौं मनु माना।।_अर्थ_हे देव ! आप मेरी विनती सुनकर, फिर जैसा उचित हो वैसा ही कीजिये। राजतिलक की सब सामग्री सजाकर लायी गयी है, यदि प्रभु का मन माने तो उसे सफल कीजिये ( उसका उपयोग कीजिये। 

सानुज पठइअ मोहि बन कीजिअ सबहिं सनाथ। नतरु फेरिअहि बंधु दोउ नाथ चलों मैं साथ।।_अर्थ_छोटे भाई शत्रुध्न समेत मुझे वन में भेज दीजिये और ( अयोध्या लौटकर ) सबको सनाथ कीजिये। नहीं तो किसी तरह भी ( यदि आप अयोध्या जाने के लिये तैयार न हों ) हे नाथ ! लक्ष्मण और शत्रुघ्न दोनों भाइयों को लौटा दीजिये और मैं आपके साथ चलूं।

नतरु जाहिं बन तीनिउ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई।। जेहिं बिधि प्रभु प्रसन्न मन होई। करीना सागर कीजिअ सोई।।_अर्थ_ अथवा हम तीनों भाई वन चले जायें और हे श्रीरघुनाथजी ! आप श्रीसीताजी सहित ( अयोध्या ) लौट जाइये। हे दया सागर ! जिस प्रकार से प्रभु का मन प्रसन्न हो वही कीजिये।

देवं दीन्ह सबु मोहि अभारू। मोरें नीति न धरम बिचारू।। कहउं बचन सब स्वारथ हेतू। रहत न आरत कें चित चेतू।।_अर्थ_हे देव ! आपने सारा भार ( जिम्मेवारी ) मुझपर रख दिया। पर मुझमें न तो नीति का विचार है, न धर्म का। मैं तो अपने स्वार्थ के लिये सब बातें कह रहा हूं। आर्त ( दु:खी ) मनुष्य के चित्त में चेत ( विवेक ) नहीं रहता।

उतरु देखि सुनि स्वामि रजाई। सो सेवकु लखि राज रजाई।। अस मैं अवगुन उदधि अगाधू। स्वामि सनेह सराहत साधू।।_अर्थ_स्वामी की आज्ञा सुनकर जो उत्तर दे, ऐसे सेवक को देखकर लज्जा भी लजा जाती है। मैं अवगुणों का ऐसा अथाह समुद्र हूं ( कि प्रभु को उत्तर दे रहा हूं )। किन्तु स्वामी ( आप ) स्नेहवश साधु कहकर मुझे सराहते हैं।

अब कृपाल मोहि सो मत भावा। सकुच स्वामि मन जाईं न पावा।। प्रभु पद साथ कहुं सति भाऊ। जग मंगल हित एक उपाऊ।।_अर्थ_हे कृपालु ! अब तो वहीं मत मुझे भाता है, जिससे स्वामी का मन संकोच न पावे।। प्रभु के चरणों की सपथ है, मैं सत्यभाव से कहता हूं, जगत् के कल्याण के लिये यही एक उपाय है।

प्रभु प्रसन्न मन सकुच तजि जो जेहिं आयसु देब। सो सिर धरि धरि करिहिं सबु मिटिहि अनट अवरेब।।_अर्थ_प्रसन्न मन से संकोच त्यागकर प्रभु जिसे जो आज्ञा देंगे, उसे सब लोग सिर चढ़ा_चढ़ाकर ( पालन ) करेंगे और सब उपद्रव और उलझनें मिट जायेंगी।

भरत बचन सुनि सुनि सुर हरषे। साधु सराहि सुमन बहु बरसे।। असमंजस बस अवध नेवासी। प्रमुदित मन तापस बनवासी।।_अर्थ_ भरतजी के पवित्र वचन सुनकर देवता हर्षित हुए और साधु_साधु कहकर सराहना करते हुए देवताओं ने फूल बरसाये। अयोध्या निवासी असमंजस के वश हो गये ( कि देखें अब श्रीरामजी क्या कहते हैं ) तपस्वी तथा वनवासी लोग ( श्रीरामजी के रहने की आशा से ) मन में परम आनन्दित हुए।

चुपहिं रहे रघुनाथ संकोची। प्रभु गति देखि सभा सब सोची।। जनक दूत तेहि अवसर आए। मुनि बसिष्ठजी सुनि बेनि बोलाए।।_अर्थ_किन्तु संकोची रघुनाथजी चुप ही रह गये। प्रभु की यह स्थिति ( मौन देख सारी सभा सोच में पड़ गयी। उसी समय जनकजी के दूत आये, यह सुनकर मुनि वशिष्ठजी ने उन्हें तुरंत बुलवा लिया।

करि प्रणाम तिन्ह राम निहारे। बेषु देखि में निपट दुखारे।। दूतन्ह मुनिबर बूझि बाता। कहहु बिदेहू भूप कुसलाता।।_अर्थ_उन्होंने ( आकर ) प्रणाम करके श्रीरामचन्द्रजी को देखा। उनका ( मुनियोंका_सा ) वेष देखकर वे बहुत दु:खी हुए। मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठजी ने दूतों से बात पूछी कि जनक का कुशल_समाचार कहो।

सुनि सकुचाई नाइ महि माथा। बोले चरबर जोरें हाथा।। बूझब राउर सादर साईं। कुसल हेतु सो भयउ गोसाईं।।_अर्थ_ यह ( मुनि का कुशलप्रश्न ) सुनकर सकुचाकर पृथ्वी पर मस्तक नवाकर वे श्रेष्ठ दूत हाथ जोड़कर बोले _हे स्वामी ! आपका आदर के साथ पूछना,  यही हे गोसाईं ! कुशल का कारण हो गया।


नाहिं त कोसलनाथ कें साथ कुसल गई नाथ। मिथिला अवध बिसेषी तें जगु सब भयउ अनाथ।।_अर्थ_नहीं तो हे नाथ ! कुसल_क्षेम तो सब कोसलनाथ दसरथजई के साथ ही चली गयी। ( उनके चले जाने से ) यों तो सारा जगत् ही अनाथ ( स्वामी के बिना असहाय) हो गया, किन्तु मिथिला और अवध तो विशेष रूप से अनाथ हो गये।

कोसलपति गति सुनि जनकौरा।  भे सब लोक सोकबस बौरा।। जेहिं देखें तेहि समय बिदेहू। नाम सत्य अस लाग न केहू।।_अर्थ_अयोध्यानाथ की गति ( दशरथ जी का मरण ) सुनकर जनकपुर वासी सभी लोग शोकवश बावले हो गये ( सुध_बुध भूल गये )। उस समय जिन्होंने विदेह को ( शोकमग्न ) देखा , उनमें से किसी को ऐसा न लगा कि उनका विदेह ( देहाभिमानरहित ) नाम सत्य है। ( क्योंकि देहाभिमान से शून्य पुरुष को शोक कैसा ?)