Wednesday, 25 June 2025

अयोध्याकाण्ड

सादर सब कहं रामगुर पठए भरि भरि भार। पूजि पितर सुर अतिथि गुर लगे करने फरहार।।_अर्थ_श्रीरामजी के गुरु वशिष्ठजी ने सबके पास बोझे भर_भरकर आदरपूर्वक भेजे। तब वे पितर, देवता, अतिथि और गुरु की पूजा करके फलाहार करने लगे।

एहि बिधि बासर बीते चारी। रामु निरखि नर नारि सुखारी।। दुहुं समाज अहि रुचि मन माहीं। बिनु सिय राम फिरि भल नाहीं।।_अर्थ_इस प्रकार चार दिन बीत गये। श्रीरामचन्द्रजी को देखकर सभी नर_नारी सुखी हैं। दोनों समाजों के मन में ऐसी इच्छा है कि श्रीसीतारामजी के बिना लौटना अच्छा नहीं है।

सीता राम संग बनवासू। कोटि अमरपुर सहित सुपासू।। परिहरि लखन रामु बैदेही। जेहिं घरु भाव बाम बिधि तेही।।_अर्थ_श्रीसीतारामजी के साथ वन में रहना करोड़ों देवलोकों के ( निवास ) के समान सुखदायक है। श्रीलक्ष्मणजी, श्रीरामजी और श्रीजानकीजी को छोड़कर जिसको घर अच्छा लगे, विधाता उसके विपरीत है।

दाहिने दइउ होइ जब सबही। राम समीप बसइअ बन तबही।। मन्दाकिनी मज्जनु तिहुं काला। राम दरसु मुद मंगल माला।।_अर्थ_जब दैव सबके अनुकूल हो, तभी श्रीरामजी के पास वन में निवास हो सकता है। मन्दाकिनीजी का तीनों समय स्नान और आनंद तथा मंगलों की माला ( समूह ) रूप श्रीराम का दर्शन,।

अटनु राम गिरि बन तापस थल। असनु अमिअ सम कंद मूल फल।। सुख समेत संबत दुइ साता। पल सम होइ न जनिअहिं जाता।।_अर्थ_श्रीरामजी के पर्वत ( कामदनाथ), वन और तपस्वियों के स्थानों में घूमना और अमृत के समान कन्द, मूल फलों का भोजन। चौदह वर्ष सुख के साथ पल के समान हो जायेंगे ( बीत जायेंगे ), जाते हुए जान ही न पड़ेंगे।

एहि सुख जोग न लोग सब कहहिं कहां अस भागु। सहज सुभायं समाज दुहुं राम चरन अनुरागु।।_अर्थ_ सब लोग कह रहे हैं कि हम इस सुख के योग्य नहीं हैं, हमारे ऐसे भाग्य कहां ? दोनों समाजों का श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में सहज स्वभाव से ही प्रेम है।

एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। बचन सप्रेम सुनते मन हरहीं।। सीयं मातु तेहि समय पठारी। दासीं देखि सुअवसरु आईं।।_अर्थ_इस प्रकार सब मनोरथ कर रहे हैं। उनके प्रेमयुक्त वचन सुनते ही ( सुननेवालों के ) मनों को हर लेते हैं। उसी समय सीताजी की माता श्रीसुनयनाजी की भेजी हुई दासियां ( कौसल्याजी आदि के मिलने का ) सुंदर अवसर देखकर आयीं।
 
सावकास सुनि सब सिय सासू। आयु जनकराज रनिवासू।। कौसल्यां सादर सनमाने। आसन दिए समय सम आनी।।_अर्थ_उनसे यह सुनकर कि सीताजी की सब सासुओं इस समय फुर्सत में हैं, जनकराज का रनिवास उनसे मिलने आया। कौसल्याजी ने आदरपूर्वक उनका सम्मान किया और समयोचित आसन लाकर दिये।

सीलु सनेहु सकल दुहु ओरा। द्रवहिं देखि सुनि सुनि कुलिस कठोरा।। पुलक सिथिल तन बारिश बिलोचन। महि नख लइखनलगईं सब सोचन।।_अर्थ_दोनों ओर सबके शील और प्रेम को देखकर और सुनकर कठोर वज्र भी पिघल जाते हैं। शरीर पुलकित और शिथिल हैं और नेत्रों में ( शोक और प्रेम के ) आंसू हैं। सब अपने ( पैरों के ) नखों से जमीन कुरेदने और सोचने लगीं।

सब सिय राम प्रीति की सी मूरति। जनु करुना बहुत बेष बिसूरती।। सीयं मातु कह बिधि बुद्धि बांटी। जो पर फेनु पबि टांकी।।_अर्थ_सभी श्रीसीतारामजी के प्रेम की मूर्ति_सी हैं, मानो स्वयं करुणा ही बहुत _से वेष ( रूप ) धारण करके विसूर रही हो ( दु:ख कर रही हो )। सीताजी की माता सुनयनाजी ने कहा_विधाता की बुद्धि बड़ी टेढ़ी है, जो दूध के फेन जैसी कोमल वस्तु को वज्र की टांकी से फोड़ रहा है ( अर्थात् जो अत्यंत कोमल और निर्दोष है उनपर विपत्ति_पर_विपत्ति ढ़हा रहा है)।

सुनिअ सुधा देखिअहिं गरल सब करतूति कराल। जहं तहं काक उलूक बक मानस सकृत मराल।।_अर्थ_अमृत केवल सुनने में आता है और विष जहां _तहां प्रत्यक्ष देखें जाते हैं। विधाता की सभी करतूतें भयंकर हैं। जहां _तहां कौए, उल्लू और बगुले ही ( दिखायी देते ) हैं; हंस तो एक मानसरोवर में ही है।

सुनि ससोच कह देवि सुमित्रा। बिधि गति बड़ि बिपरीत बिचित्रा।। जो सृजित पालि हरि बहोरी। बालकेलि सम बिधि मति भोरी।।_अर्थ_यह सुनकर देवी सुमित्राजी शोक के साथ कहने लगीं_विधाता की चाल बड़ी ही विपरीत और विचित्र है, जो सृष्टि को उत्पन्न करके पालता है और फिर नष्ट कर डालता है। विधाता की बुद्धि बालकों के खेल के समान भोली ( विवेकशून्य ) है।

कौसल्या कह दोसु न काहू। कर्म बिबस दुख सुख छति लाहू।। कठिन कर्मगति जान बिधाता। जो सुभ असुभ सकल फल दाता।।_अर्थ_कौसल्याजी ने कहा_किसी का दोष नहीं है; दु:ख_सुख हानि_लाभ सब कर्म के अधीन हैं। कर्म की गति कठिन ( दुर्विज्ञेय ) है, उसे विधाता ही जानता है, जो शुभ और अशुभ सभी फलों का देनेवाला है।

ईस रजाई सीस सबहिं कें। उतपति थिति लय बिषहु अमी कें।। देखि मोहि बस सोचिए बादी। बिधि प्रपंचु अस अचल अनादी।।_अर्थ_ईश्वर की आज्ञा सभी के सिर पर है। उत्पत्ति, स्थिति ( पालन ) और लय ( संहार ) तथा अमृत और विष के भी सिर पर है ( ये सब भी उसी के अधीन हैं )। हे देवि ! मओहवश सोच करना व्यर्थ है। विधाता का प्रपंच ऐसा ही अचल और अनादि है।

भूपति जिअब मरब उर आनी। सोचिए सखि लखि निज हित हानी।। सीयं मातु कह सत्य सुबानी। सुकृति अवधि अवध पति रानी।।_अर्थ_महाराज के मरने और जीने की बात को हृदय में याद करके जो चिन्ता करती है, वह तो हे सखी ! हम अपने ही हित की हानि देखकर ( स्वार्थवश ) करती हैं। सीताजी की माता ने कहा_आपका कथन उत्तम और सत्य है। आप पुण्यात्माओं के सीमा रूप अवध पति ( महाराज दशरथ जी )_की ही तो रानी हैं। ( फिर भला ऐसा क्यों न कहेंगी )

लखन राम सिय जाहुं बन भल परिनाम न पोचु। गहबरि हियं कह कौसिला मोहि भरत कर सोचु।।_अर्थ_कौसल्याजी ने दु:खबरें हृदय से कहा_श्रीराम, लक्ष्मण और सीता वन में जायं, इसका परिणाम तो अच्छा ही होगा, बुरा नहीं। मुझे तो भरत की चिंता है।

ईस प्रसाद असीस तुम्हारी। सुत सउतवधू देवसरी बारी।। राम संपत मैं कीन्ह न काऊ। सो करि कहुं सखी सतिभाऊ।।_अर्थ_ईश्वर के अनुग्रह और आपके आशीर्वाद से मेरे ( चारों ) पुत्र और ( चारों ) बहुएं गंगाजी के जल के समान पवित्र हैं। हे सखी ! मैंने कभी श्रीरामजी की सौगंध नहीं की, सो आज श्रीरामजी की शपथ करके सत्य भाव से कहती हूं_


भरत सील गुन बिनय बड़ाई। भायप भगति भरोस भलाई।। कहत सारदहु कर मति हीचे। सागर सीप कि जाहिं उलीचे।।_अर्थ_भरत के सील, गुन, नम्रता, बड़प्पन, भाईपन, भक्ति, भरोसे और अच्छेपन का वर्णन करने में सरस्वती जी की बुद्धि भी हिचकती है। सीप से कहीं समुद्र उलीचे जा सकते हैं।

जानउं सदा भरत कुलदीपा। बार बार मोहि कहेउ महीपा।। कसें कनक मनि पारिख पाएं। पुरुष परिखिअहिं समयों सुभाएं।।_अर्थ_मैं भरत को सदा कुल का दीपक कहती हूं। महाराज ने भी मुझे बार_बार यही कहा था। सोना कसौटी पर कसे जाने पर और रत्न पारखी ( जौहरी )_के मिलने पर ही पहचाना जाता है। वैसे ही पुरुष की परीक्षा समय पड़ने पर उसके स्वभाव से ही ( उसका चरित्र देखकर ) हो जाती है।

अनुचित आजु कहब अस मोरा। सोक सनेह सयानप थोरा।। सुनि सुरसरि सम पावनि बानी। भईं सनेह बिकल सब रानीं।।_अर्थ_किन्तु आज मेरा ऐसा कहना भी अनुचित है । सोक और स्नेह में सयानापन ( विवेक ) कम हो जाता है ( लोग कहेंगे कि मैं स्नेहवश भरत की बड़ाई कर रही हूं )। कौसल्याजी की गंगाजी के समान पवित्र करनेवाली वाणी सुनकर सब रानियां स्नेह के मारे विकल हो उठीं।

कौसल्या कह धीर धरि सुनहु देबि मिथिलेसु। को बिबेकनिधि बल्लभहिं तुम्हहिं सकि उपदेसि।।_अर्थ_कौसल्याजी ने धीरज धरकर कहा_हे देवि मिथिलेश्वरी ! सुनिये, ज्ञान के भण्डार श्रीजनकजी की प्रिया आपको कौन उपदेश दे सकता है ?

रानि राय सन अवसरु पाई। अपनी भांति कहब समुझाई।। रखिअहिं लखनु भरतु गवनहिं बन। जौं यह मत मानो महीप मन।।_अर्थ_हे रानी ! मौका पाकर आप राजा को अपनी ओर से जहां तक हो सके समझकर कहियेगा कि लक्ष्मण को घर रख लिया जाय और भरत वन को जायं। यदि यह राय राजा के मन में ( ठीक ) जंच जाए।

तौं भल जतन करब सुबिचारी। मोरें सोचु भरत कर भारी।। गूढ़ स्नेह भरत मन माहीं। रहें नीक मोहि लागत नाहीं।।_अर्थ_तो भली-भांति खूब विचारकर ऐसा यत्न करें। मुझे भरत का अत्यधिक सोच है। भरत के मन में गूढ़ प्रेम है। उनके घर रहने में मुझे भलाई नहीं जान पड़ती ( यह डर लगता है कि उनके प्राणों को कोई भय न हो जाय )।

लखि सुभाऊ सुनि सरल सुबहानी। सब भी मगन करुन रस रानी।। नभ प्रसून झरि धन्य धन्य धुनि। सिथिल सनेहं सिद्ध जोगी मुनि।।_अर्थ_ कौसल्याजी का स्वभाव देखकर और उनकी सरल और उत्तम वाणी को सुनकर सब रानियां करुणरस में निमग्न हो गयीं। आकाश से पुष्प वर्षा की झड़ी लग गयी और धन्य_धन्य की ध्वनि होने लगी। सिद
ध, योगी और मुनि स्नेह से शिथिल हो गये।

सबु रनिवासु बिथकि लखि रहेऊ। तब धरि धीर सुमित्रा कहेऊ।। देबि दंड जुग जामिनि बीती। राम मातु सुनि उठी सप्रीती।।_अर्थ_ सारा रनिवास देखकर थकित रह गया ( निस्तब्ध हो गया ), तब सुमित्राजी ने धीरज धरकर कहा कि हे देवि ! दो घड़ी रात बीत गयी है। यह सुनकर श्रीरामजी की माता कौसल्याजी प्रेमपूर्वक उठीं_

बेगि पाउ धारिअ थलहि कह सनेह सतिभाय। हमरें तौ अब इस गति को मिथिलेस सहाय।।_अर्थ_और प्रेम सहित सद्भाव से बोलीं_अब आप शीघ्र डेरे को पधारिये। हमारे तो अब अब ईश्वर ही गति हैं, अथवा मिथिलेश्वर जनकजी सहायक हैं।

लखि सनेह सुनि बचन बिनीता। जनक प्रिया गह पाय पुनीता।। देबि उचित अहि बिनय तुम्हारी। दशरथ घरिनि राम महतारी।।_अर्थ_कौसल्याजी के प्रेम को देखकर और उनके विनम्र वचनों को सुनकर जनकजी की प्रिय पत्नी ने उनके पवित्र चरण पकड़ लिये और कहा_हे देवी ! आप राजा दशरथ जी की रानी और श्रीरामजी की माता हैं। आपकी ऐसी नम्रता उचित ही है।

प्रभु अपने नीचहुं आदरहीं। अगिनि धूम गिरि सिर तिनु धरहीं।। सेवकु राउ कर्म मन बानी। सदा सहाय महेसु भवानी।।_अर्थ_प्रभु अपने नीच जनों का आदर भी करते हैं। अग्नि धुएं को पर्वत तृण ( घास )_ को अपने सिर पर धारण करते हैं। हमारे राजा तो कर्म, मन और वाणी से आपके सेवक हैं और सदा सहायक तो श्रीमहादेव_पार्वतीजी हैं।

रउरे अंग जोगु जग को है। दीप सहाय कि दिनकर सोहै।। रामु जाइ बनु करि सुरकाजू। अचल अवधपुर करिअहिं राजू।।_अर्थ_आपका सहाय होने योग्य जगत् में कोन है ? दीपक सूर्य की सहायता करने जाकर कहीं शोभा पा सकता है ? श्रीरामचन्द्रजी वन में जाकर देवताओं का कार्य करके अवधपुरी में अचल राज्य करेंगे।

अमर नाग नर राम बाहुबल। सुख बसिहहिं अपने अपने थल।। यह सब जागबलिक कहि राखा। देबि न होइ मुदा मुनि भाषा।।_अर्थ_देवता, नाग और मनुष्य सब श्रीरामचन्द्रजी के भुजाओं के बल पर अपने_अपने स्थानों ( लोकों )_में सुखपूर्वक बसेंगे। यह सब याज्ञवल्क्य मुनि ने पहले से कह रखा है। हे देवी ! मुनि का कथन व्यर्थ ( झूठा ) नहीं हो सकता।

अस कहि पग परि पेम अति सिय हित बिनय सुनाइ। सिय समेत सियमातु तब चली सुआयसु पाइ।।_अर्थ_ऐसा कहकर बड़े प्रेम से पैरों पड़कर सीताजी ( को साथ भेजने )_के लिये विनती करके और सुन्दर आज्ञा पाकर तब सीताजी समेत सीताजी की माता डेरे पर चलीं।

प्रिय परिजनहिं मिली बैदेही। जो जेहिं जोगु भांति तेहि तेही।। तापस बेष जानकी देखी। भा सबु बिकल बिषाद बिसेषी।।_अर्थ_जानकीजी अपने प्यारे कुटुम्बीसहित_जो जिस योग्य था, उससे उसी प्रकार मिलीं। जानकीजी को तपस्विनी के वेष में देखकर सभी शोक से अत्यंत व्याकुल हो गये।