जनक राम गुर आयसु पाई। चले थलहइं सिय देखी आई।। लीन्ह लाइ उर जनक जानकी। पाहुनी पावन पेम प्रान की।।_अर्थ_जनकजी श्रीरामजी के गुरु वशिष्ठजी की आज्ञा पाकर डेरे को चले और आकर उन्होंने सीताजी को देखा। जनकजी ने अपने पवित्र प्रेम और प्राणों की पाहुनी जानकीजी को हृदय से लगा लिया।
उर उमगेउ अंबुधि अनुरागू। भयउ भूप मनु मनहुं पयागू।। सिय सनेह बटु बाढ़त जोहा। ता पर राम पेम सिसु सोहा।।_अर्थ_उनके हृदय में ( वात्सल्य ) प्रेम का समुद्र उमड़ पड़ा। राजा का मन मानो प्रयाग हो गया। उस समुद्र के अंदर उन्होंने ( आदिशक्ति ) सीताजी के ( अलौकिक) स्नेह रूपी अक्षय वट को बढ़ते हुए देखा। उस ( सीताजी के प्रेमरूपी वट )_पर श्रीरामजी का प्रेमरूपी बालक ( बालरूपधारी भगवान् ) सुशोभित हो रहा है।
चिरजीवी मुनि ग्यान बिकल जनु। बूड़ती लहेउ बाल अवलंबनु।। मोह मगन मति नहिं बिदेह की। महिमा सिय रघुबर स्नेह की।।_अर्थ_जनकजी का ज्ञानरूपी चिरंजीवी ( मार्कण्डेय मुनि व्याकुल होकर डूबते_डूबते मानो उस श्रीरामप्रेमरूपी बालक का सहारा पाकर बच गया। वस्तुत: ( ज्ञानशिरोमणि ) विदेहराज की बुद्धि मोह में मग्न नहीं है। यह तो श्रीसीतारामजी के प्रेम की महिमा है ( जिसने उन जैसे महान् ज्ञानी के ज्ञान को भी विकल कर दिया )।
सिय पितु मातु सनेह बस बिकल न सकी संभारि। धरनिसुतां धीरजु धरएउ समउ सुधरमु बिचारि।।_अर्थ_पिता_माता के प्रेम के मारे सीताजी ऐसी विकल हो गयीं कि अपने को संभाल न सकीं। ( परन्तु परम धैर्यवती ) पृथ्वी की कन्या सीताजी ने समय और सुन्दर धर्म का विचार कर धैर्य धारण किया।
तापस बेष जनक सिय देखी। भयउ पेमु परितोषु बिसेषी।। पुत्री पित्र किए कुल दोऊ। सुजस धवल जगु कह सबु कोऊ।।_अर्थ_सीताजी को तपस्विनी_वेष में देखकर जनकजी को विशेष प्रेम और संतोष हुआ। (उन्होंने कहा__) बेटी ! तूने दोनों कुल पवित्र कर दिये। तेरे निर्मल यश से सारा जगत् उज्जवल हो रहा है; ऐसा सब कोई कहते हैं।
जिमि सुरसरि कीरति सरि तोरी। गवनु कीन्ह बिधि अंड करोरी।। गंग अवनि थल तीनि बड़ेरे। एहिं किए साधु समाज घनेरे।।_अर्थ_तेरी कीर्तिरूपी नदी देवनदी गंगाजी को भी जीतकर ( जो एक ही ब्रह्माण्ड में बहती है) करोड़ों ब्रह्मांडों में बह चली है। गंगाजी ने तो पृथ्वी पर तीन ही स्थानों ( हरिद्वार, प्रयागराज और गंगासागर)_को बड़ा ( तीर्थ ) बनाया है। पर तेरी इस कीर्तिनगर ने तो अनेकों संतसमआजरूपई तीर्थस्थान बना दिये हैं।
पितु कह सत्य सनेह सुबानी। सीयं सकुच महुं मनहुं समानी।। पुनि पितु मातु लीन्ह उर लाई। सिख असीस हित दीन्ह सुहाई।।_अर्थ_पिता जनकजी ने तो स्नेह से सच्ची सुन्दर वाणी कहीं। परन्तु अपनी बड़ाई सुनकर सीताजी मानो संकोच में समा गयीं। माता_पिता ने उन्हें फिर हृदय से लगा लिया और हितभरी सुदर सीख और अशीष दी।
कहति न सीय सकुचि मन माहीं। कहां बसब रजनी भल नाहीं।। लखि रुख रानी जनायउ राऊ। हृदयं सराहत सीलु सुभाऊ।।_अर्थ_सीताजी कुछ कहती नहीं हैं परन्तु मन में सकुचा रही हैं कि रात में ( सासुओं की सेवा छोड़कर ) यहां रहना अच्छा नहीं है। रानी सुनयनाजी ने जानकीजी का रुख देखकर ( उनके मन की बात समझकर ) राजा जनकजी को जना दिया। तब दोनों अपने हृदय में सीताजी के शील और स्वभाव की सराहना करने लगे।
बार बार मिलि भेंटि सिय बिदा कीन्हि सनमानि। कही समय सिर भरत गति रानी सुबानि सयानी।।_अर्थ_ राजा_रानी ने बार_बार मिलकर और हृदय से लगाकर तथा सम्मान करके सीताजी को विदा किया। चतुर रानी ने समय पाकर राजा से सुन्दर वाणी में भरतजी की दशा का वर्णन किया।
सुनि भूपाल भरत व्यवहारू। सोन सुगंध सुधा ससि सारू।। मूदे सजन नयन पुलके तन। सुजसु सराहन लगे मुदित मन।।_अर्थ_सोने में सुगंध और ( समुद्र से निकाली हुई ) सुधा में चन्द्रमा के साथ अमृत के समान भरतजी का व्यवहार सुनकर राजा ने ( प्रेमविह्वल ) होकर अपने ( प्रेमाश्रुओं के ) जल से भरे नेत्रों को मूंद लिया। ( वे भरतजी के प्रेम में मानो ध्यानस्थ हो गये )। वे शरीर से पुलकित हो गये और मन में आनंदित होकर भरतजी के सुंदर यश की सराहना करने लगे।
सावधान सुनु सुमुखि सुलोचनी। भरत कथा भव बंधन बिमोचनी।। धरम राजनय ब्रह्मबिचारू। कहां जथामति मोर प्रचारू।।_अर्थ_( वे बोले )_हे सुमुखि ! हे सुनयनी ! सावधान होकर सुनो। भरतजी की कथा संसार के बन्धन से छुड़ाने वाली है। धर्म, राजनीति और ब्रह्मविचार_ इन तीनों विषयों में अपनी बुद्धि के अनुसार मेरी ( थोरी_बहुत ) गति है ( अर्थात् इनके सम्बन्ध में, मैं कुछ नहीं जानता हूं )
सो मति मोरी भरत महिमा ही। कहे काह छवि छुअति न छांही।। बिधि गणपति अहिपति सिव सारद। कबि कोबिद बुध बुद्धि बिसारद।।_अर्थ_वह ( धर्म, राजनीति और ब्रह्मज्ञान में प्रवेश रखनेवाली ) मेरी बुद्धि भरतजी की महिमा का वर्णन तो क्या करें, छल करके उसकी छाया तक को छू नहीं पाती ! ब्रह्माजी, गणेशजी, शेषजी, महादेवजी, सरस्वतीजी, कवि, ज्ञानी, पण्डित और बुद्धिमान _
भरत चरित कीरती करतूती। धरम सील गुन बिमल बिभूती।। समुझत सुनते सुखद सब काहू। सुचि सुरसरि रुचि निद्रा सुधाहू।।_अर्थ_ सब किसी को भरतजी के चरित्र, कीर्ति, करनी, धर्मशील, गुण और निर्मल ऐश्वर्य समझने में और सुनने में सुख देनेवाले हैं और पवित्रता में गंगाजी का स्वाद ( मधुरता )_में अमृत का भी तिरस्कार करनेवाले हैं।
निरवधि गुन निरुपम षउरउषउ भरतु भरत सम जानि।। कहिअ सुमेरु कि सेर हम कबिकुल मति सकुचानि।।_अर्थ_भरतजी असीम गुणसम्पन्न और उपमारहित पुरुष हैं। भरतजी के समान बस भरतजी ही हैं, ऐसा जानो। सुमेरु पर्वत को क्या सेर के बराबर कह सकते हैं ? इसलिये ( उन्हें किसी पुरुष के साथ उपमा देने में ) कवि समाज की बुद्धि भी सकुचा गई।
अगम सबहि बरनत बरबरनी। जिमि जलहीन मीन गमु धरनी।। भरत अमित महिमा सुनु रानी। जानहिं रामु न सकहीं बखानी।।_अर्थ_हे श्रेष्ठ वर्णवाली ! भरतजी की महिमा का वर्णन करना सभी के लिये वैसे ही अगम है जैसे जलरहित द्वीप पर मछली का चलना। हे रानी ! सुनो, भरतजी की अपरिमित महिमा को एक श्रीरामचन्द्रजी ही जानते हैं; किन्तु वे भी उसका वर्णन नहीं कर सकते।
बरनि सप्रेम भरत अनुभाऊ। तिय जियं की रुचि लखि कह राऊ।। बहुरहिं लखनउ भरतु बन जाहीं। सब कर भल सबके मन माहीं।।_अर्थ_इस प्रकार प्रेमपूर्वक भरतजी के प्रभाव का वर्णन करके, फिर पत्नी के मन की रुचि जानकर राजा ने कहा_ लक्ष्मणजी लौट जायें और भरतजी वन को जायं, इसमें सभी का भला है और यही सबके मन में है।
देबि परंतु भरत रघुबर की। प्रीति प्रतीति जाइ नहिं तरकीं।। भरतु अवधि सनेह ममता की। यद्यपि रामु सीम समता की।।_अर्थ_परंतु हे देवि ! भरतजी और श्रीरामजी का प्रेम और एक_दूसरे पर विश्वास, बुद्धि और विचार की सीमा में नहीं आ सकता। यद्यपि श्रीरामचन्द्रजी समता की सीमा हैं तथापि भरतजी प्रेम और ममता कईं सीमा हैं।
परमारथ स्वारथ सुख सारे। भरत न सपनेहुं मनहुं निहारे।। साधन सिद्धि राम पग नेहू। मोहि लखि परत भरत मत एहू।।_अर्थ_( श्रीरामचन्द्रजी के प्रति अनन्य प्रेम को छोड़कर) भरतजी ने समस्त परमार्थ, स्वार्थ और सुखों की ओर स्वप्न में भी मन से नहीं ताका है। श्रीरामजी के चरणों में प्रेम ही उनका साधन है और वही सिद्धि है। मुझे तो भरतजी का बस एकमात्र सिद्धांत जान पड़ता है।
भोरेहुं भरत न पेलिहहिं मनसहुं राम रजाइ। करिअ न सोचु सनेह बस कहेउ भूप बिलखाइ।।_अर्थ_ राजा ने बिलखकर ( प्रेम से गद्गद् होकर ) कहा_भरतजी भूलकर भी श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा को मन से भी नहीं टालेंगे। अतः स्नेह के वश होकर चिंता नहीं करनी चाहिये।
राम भरत गुन गनत सप्रीती। निसि दंपतिहिं पलक सम बीती।। राज समाज प्रात जुग जागे। न्हाइ न्हाइ सुर पूजन लागे।_अर्थ_श्रीरामजी और भरतजी के गुणों की प्रेमपूर्वक गणना करते ( कहते_सुनते ) पति_पत्नी को रात पलक के समान बीत गयी। प्रात:काल दोनों राज-समाज जागे और नहा_नहाकर देवताओं की पूजा करने लगे।
गए नहाइ गुर पहिं रघुराई। बंदि चरन बोले रुख पाई।। नाथ भरत पुरजन महतारी। सोक बिकल बनबास दुखारी।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी स्नान करके गुरु वशिष्ठजी के पास गये और चरणों की वन्दना कर उनका रुख पाकर बोले_हे नाथ ! भरत, अवध पुरवासी तथा माताएं, सब शोक से व्याकुल और लें हाथावनवास से दु:खी हैं।
सहित समाज राउ मिथिलेसू। बहुत दिवस में सहित कलेसू।। उचित होइ सोइ कीजिअ नाथा। हित सबही कर रौरें हाथा।।_अर्थ_मिथिलापति राजा जनकजी को भी समाजसहित क्लेश सहते बहुत दिन हो गये। इसलिये हे नाथ ! जो उचित हो वहीं कीजिये। आपही के हाथ सभी का हित है।
अस कहि अति सकुचे रघुराऊ। मुनि पुलके लखि सीलु सुभाऊ।। तुम्ह बिनु राम सकल सुख साजा। नरक सरिस दुहुं राज समाजा।।_अर्थ_ऐसा कहकर श्रीरघुनाथजी अत्यन्त ही सकुचा गये। उनका सील स्वभाव देखकर ( प्रेम और आनन्द से मुनि वशिष्ठजी पुलकित हो गये। ( उन्होंने खुलकर कहा_) हे राम ! तुम्हारे बिना ( घर_बार आदि ) संपूर्ण सुखोंके साज दोनों राज-समाजों को नरक के समान हैं।
प्रान प्रान के जीव के जीव सुख के सुख राम। तुम्ह तजि तात सोहाती गृह जिन्हहि तिन्हहिं बिधि बाम।।_अर्थ_ हे राम ! तुम प्राणों के प्राण, आत्मा के भी आत्मा और सुख के भी सुख हो। हे तात ! तुम्हें छोड़कर जिन्हें घर सुहाता है, उन्हें विधाता विपरीत है।
सो सुख करमु धरमु जरिए जाऊ। जहं न राम पद पंकज भाऊ।। जोगु कुजोगु ग्यान अग्यानू। जहं नहिं राम पेम परधानू।।_अर्थ_ जहां श्रीराम के चरणकमलों में प्रेम नहीं है, वह सुख, कर्म और धर्म जल जाय। जिसमें श्रीराम प्रेम की प्रधानता नहीं है, वह योग कुयोग है और ज्ञान अज्ञान है।
तुम्ह बिनु दुखी सुखी तुम्ह तेहीं। तुम्ह जानहु जिय जो जेहिं केहीं।। राउर आयसु सिर सबही कें। बिदित कऋपआलहइं गति सब नीके।।_अर्थ_तुम्हारे बिना ही सब दुखी हैं और जो सुखी हैं वे तुम्हीं से सुखी हैं। जिस किसी के जी में जो कुछ है वह सब तुम जानते हो। आपकी आज्ञा सभी के सिर पर है। कृपालु ( आप )_को सभी की स्थिति अच्छी तरह मालूम है।
आपु आश्रमहिं धारिअ पाऊ। भयऊ सनेह सिथिल मुनिराऊ।। करि प्रनामु तब रामु सिधाए। रिषि धरि धीर जनक पहिं आए।।_अर्थ _अत: आप आश्रम को पधारिये। इतना कह मुनिराज स्नेह से सिथिल हो गये । तब श्रीरामजी प्रणाम करके चले गये और ऋषि वशिष्ठजी धीरज धरकर जनकजी के पास आये।