Wednesday, 23 September 2015

बालकाण्ड

बालकाण्ड

गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन। नयन अमिय दृग दोष विभंजन।। तेहि करि बिमल बिबेक बिलोचन। बरनऊँ रामचरित भव मोचन।।---अर्थ--श्रीगुरुमहाराज के चरणों की रज कोमल और सुन्दर नयनामृत अंजन है, जो नेत्रों के दोषों को नाश करनेवाला है।उस अंजन से विवेकरुपी नेत्रों को निर्मल करके मैं संसाररुपी बंधन से छुड़ानेवाले श्रीरामचरित्र का वर्णन करता हूँ।।1।।

बन्दऊँ प्रथम महीसुर चरना। मोह जनित संशय सब हरना।। सुजन समाज सकल गुण खानी। करऊँ प्रणाम सप्रेम सुबानी।।---अर्थ--पहले पृथ्वी के देवता के चरणों की वन्दना करता हूँ, जो अज्ञान से उत्पन्न सब संदेहों को हरनेवाले हैं। फिर सब गुणों की खान संत-समाज को प्रेम सहित सुन्दर वाणी से प्रणाम करता हूँ।।2।।

साधु चरित सुभ चरित कपासू। निरस बिसद गुनमय फल जासू।। जो सहि दुःख परछिद्र दुरावा। बंदनीय जेहिं जग जस पावा।।---अर्थ--संतों का चरित्र कपास के चरित्र (जीवन) -के समान शुभ है, जिसका फल नीरस, विशद और गुणमय होता है। (कपास की डोडी नीरस होती है, संत-चरित्र में भी विषयासक्ति नहीं है, इससे वह भी नीरस है; कपास उज्वल होता है, संत का हृदय भी अज्ञान और पाप रुपी अंधकर से रहित होता है, इसलिे वह विशद है, और कपास में गुण (तन्तु) होते हैं, इसी प्रकार संत का चरित्र भी सद्गुणों का भण्डार होता है, इसलिये वह गुणमय है।) जैसे कपास का धागा सूई के लिये किये हुए छेद को अपना तन देकर ढ़क देता है, अथवा कपास जैसे लोढ़े जाने, काते जाने और बुने जाने का कष्ट सहकर भी वस्त्र के रूप में परिणत होकर दूसरों के गोपनीय स्थानों को ढ़कता है, उसी प्रकार संत स्वयं दुःख सहकर दूसरों के छिद्रों (दोषों)-को ढ़कता है, जिसके कारण उसने जगत् में वन्दनीय यश प्राप्त किया है।

मुद मंगलमय संत समाजू। जो जग जंगम तीरथराजू।। रामभक्ति जहँ सुरसरि धारा। सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा।।---अर्थ--संतों का समाज आनन्द और कल्याणमय है, जो जगत् में चलता-फिरता तीरथराज (प्रयाग) है। जहाँ (उस संतसमाजरुपी प्रयागराज में) रामभक्तिरूपि गंगाजी की धारा है और ब्रह्मविचार का प्रचार सरस्वतीजी हैं।

बिधि निषेधमय कलिमल हरनी। करम कथा रबिनंदिनि बरनी।। हरिहर कथा बिराजति बेनी। सुनत सकल मुद मंगल देनी।।---अर्थ--विधि और निषेध (यह करो और यह करो) रूपी कर्मों की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली सूर्य-पुत्री यमुनाजी हैं और भगवान् विष्णु और शंकरजी की कथाएँ त्रिवेणी रूप से सुशोभित हैं, जो सुनते ही सब आनन्द और कल्याण को देनेवाली है।

बटु बिस्वास अचल निज धरमा। तीरथराज समाज सुकरमा।। सबहिं सुलभ सब दिन सब देसा। सेवत सादर समन कलेसा।।---अर्थ--(उस संतसमाजरुपी प्रयाग में) अपने धर्ममें जो अटल विश्वास है, और शुभकर्म ही उस तीर्थराज का समाज (परिकर) है। वह (संतसमाजरुपी प्रयागराज) सब देशों में, सब समय सभी को सहजही में प्राप्त हो सकता हैऔर आदरपूर्वक सेवन करने से क्लेशों को नष्ट करनेवाला है।

अकथ अलौकिक तीरथराऊ। देइ सद्य फल प्रकट प्रभाऊ।।---अर्थ--वह तीर्थराज अलौकिक और अकथनीय है, एवं तत्काल फल देनेवाला है; उसका प्रभाव प्रत्यक्ष है।

सुनि समुझहिं मन मुदित मन मज्जहिं अति अनुराग। लहहिं चारि फल अछत तनु साधु समाज प्रयाग।।---अर्थ--जो मनुष्य इस संत समाज रुपी तीर्थराज का प्रभाव प्रसन्न मन से सुनते और समझते हैं और फिर अत्यंत परेमपूर्वक इसमें गोते लगाते हैं, वे इस शरीर के रहते ही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चारों फल पा जाते हैं।

मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला।। सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहीं गोई।।---अर्थ--इस तीर्थराज में स्नान का फल तत्काल ऐसा देखने में आता है कि कौए कोयल बन जाते हैं और बगुले हंस। यह सुनकर कोई आश्चर्य करे, क्योंकि सत्संग की महिमा छिपी नहीं है।

बालमीक नारद घटजोनी। निज-निज मुखनि कही निज होनी।। जलचर, थलचर नभचर नाना। जे जड़ चेतन जीव जहाना।।---अर्थ--वाल्मीकिजी, नारदजी और अगस्त्यजी ने अपने-अपने मुखों से अपनी होनी (जीवन का वृतांत) कही है। जल में रहनेवाले, जमीनपर चलनेवाले और आकाश में विचरनेवाले और नाना प्रकार के जड़-चेतन कितने जीव इस जगत् में हैं।

मति कीरति गति भूति भलाई। जब जेहि जतन जहाँ जेहि पाई।। सो जानब सतसंग प्रभाऊ। लोकहुँ बेद आन उपाऊ।।---अर्थ--उनमें से जिसने जिस समय जहाँ कहीं भी जिस किसी यत्न से बुद्धि, कीर्ति, सद्गति, विभूति (ऐश्वर्य) और भलाई पायी है, सो सब सत्संग का प्रभाव समझना चाहिये। वेदों में और लोक में इनकी प्राप्ति का दूसरा कोई उपाय नहीं है।

बिनु सत्संग विवेक होई। राम कृपा बिनु सुलभ सोई।। सतसंगत मुद मंगल मूला। सोइ फल सिधि सब साधन फूला।।---अर्थ--सत्संग के बिना विवेक नहीं होता और श्रीरामजी की कृपा के बिना वह सत्संग सहज में मिलता नहीं। सत्संगति आनंद और कल्याण की जड़ है। सत्संग की सिद्धि (प्राप्ति) ही फल है और सब साधनही फूल हैं।

सठ सुधरहिं सतसंगति पाई। पारस परस कुधातु सुहाई।। बिधि बस सुजन कुसंगत पड़हीं। फनि मनि सम निज गुण अनुसरहिं।।---अर्थ--दुष्ट भी सत्संगति पाकर सुधर जाते हैं, जैसे पारस के स्पर्श से लोहा सुहावना हो जाता है (सुन्दर सोना बन जाता है) किन्तु दैवयोग से यदि कभी सज्जन कुसंगति में पड़ जाते हैं, तो वे वहाँ भी साँप की मणि के समान अपने गुणों का ही अनुसरण करते हैं (अर्थात् जिस प्रकार साँपों का संसर्ग पाकर भी मणि उसके विष को ग्रहण नहीं करती तथा अपने सहज गुण प्रकाश को नहीं छोड़ती, उसी प्रकार साधु पुरुष दुष्टों के संग में रहकर भी दूसरों को प्रकाश ही देते हैं, दुष्टों का उनपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता)

बिधि हरिहर कबि कोबिद बानी। कहत साधु महिमा सकुचानी।। सो मो सन कहि जात कैसें। साक बनिक मणि गुन गन जैसे।।---अर्थ--ब्रह्मा,विष्णु, शिव, कवि और पण्डितों की वाणी भी संत-महिमा का वर्णन करने में सकुचाती है; वह मुझसे किस प्रकार नहीं कही जाती, जैसे साग-तरकारी बेचनेवाले से मणियों के गुण समूह नहीं कहे जा सकते।