बालकाण्ड
जो सुमिरत सिधि होइ गणनायक करिबर बदन। करउ अनुग्रह सोय बुद्धि रासि सुभ गुन सदन।।---अर्थ--जिन्हें स्मरण करने से सब कार्य सिद्ध होते हैं, जो गुणों के स्वामी और सुन्दर हाथी के मुखवाले हैं, वे ही बुद्धि के राशि और शुभ गुणों के धाम (श्रीगणेशजी) मुझपर कृपा करें।
नील सरोरुह श्याम तरुन अरुन बारिज नयन। जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन।।---अर्थ--जो नील कमल के समान श्याम वर्ण है, पूर्ण खिले हुए लाल कमल के समान जिनके नेत्र हैं और जो सदा क्षीरसागर में शयन करते हैं, वे भगवान् (नारायण) मेरे हृदय में निवास करें।
मूक होई बाचाल पंगु चढ़ई गिरिबर गहन। जासु कृपा सो दयाल द्रवउ सकल कलिमल दहन।।---अर्थ--जिनकी कृपा से गूँगा बहुत सुन्दर बोलनेवाला हो जाता है और लँगड़ा-लूला दुर्गम पहाड़ पर चढ़ जाता है, वे कलियुग के सब पापों को जला डालनेवाले दयालु (भगवान्) मुझपर द्रवित हों (दया करें)।
कुंद इंदु सम देह उमा रमन करुणा अयन। जाहि दीन पर नेह करउ कृपा मर्दन मयन।।--अर्थ--जिनका कुन्द के पुष्प और चन्द्रमा के समान (गौर) शरीर है, जो पार्वतीजी के प्रियतम और दया के धाम हैं और जिनका दोनो पर स्नेह है, वे कामदेव का मर्दन करनेवाले (शंकरजी) मुझपर कृपा करें।
बंदउँ गुरु पद कंज कृपा सिंधु नररूप हरि। महामोह तम पुंज जासु बचन रबि कर निकर।।---अर्थ--मैं उन गुरु महाराज के चरणकमल की वन्दना करता हूँ, जो कृपा के समुद्र और नररूप में श्रीहरि ही हैं और जिनके वचन महामोहरुपि घने अंधकार के माश करने के लिये सूर्य-किरणों के समूह हैं।
बंदउँ गुरु पद पदुम परागा। सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।। अमिय मूरिमय चूरन चारू। समन सकल भव रुज परिवारु।।---अर्थ--मैं गुरु महाराज के के चरणकमलों की रज की वन्दना करता हूँ, जो सुरुचि (सुन्दर स्वाद), सुगंध तथा अनुराग रुपी रस से पूर्ण है। वह अमर मूल (संजीवनी जड़ी) का सुन्दर चूर्ण है, जो संपूर्ण भवरोगों के परिवार को नाश करनेवाला है।।1।।
सुकृति संभु तन बिमल बिभूति। मंजुल मंगल मोद प्रसूती।। जन-मन मंजु मुकुर मल हरनी। किएँ तिलक गुन गन बस करनी।।---अर्थ--यह रज सुकृति (पुण्यवान् पुरुष) रूपी शिवजी के शरीर पर सुशोभित निर्मल विभूति है और सुन्दर कल्याण और आनन्द की जननी है, भक्त के मन रूपी सुन्दर दर्पण के मैल को दूर करनेवाली और तिलक करने से गुणों के समूह को वशमें करनेवाली है।।2।।
श्रीगुरु पद नख मनि गन जोती। सुमिरत दिव्यदृष्टि हियँ होती।। दलन मोह तम सो सप्रकासू। बड़े भाग उर आवइ जासू।। अर्थ---श्रीगुरु महाराज के चरण नखों की ज्योति मणियों के प्रकाश के समान है, जिसके स्मरण करते ही हृदय में दिव्यदृष्टि उत्पन्न हो जाती है। वह प्रकाश अज्ञानरुपि अंधकार का नाश करनेवाला है; वह जिसके हृदय में आ जाता है उसके बड़े भाग्य हैं।।3।।
उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुःख भव रजनी के।। सूझहिं रामचरित मनि मनिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक।।---अर्थ--उसके हृदय में आते ही हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रुपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्रीरामचरित्ररुपी मणि और माणिक्य, गुप्त और प्रकट जहाँ जो जिस खान में है, सब दिखाई पड़ने लगते हैं।।4।।
जथा सुअंजन अंजि दृग साधक सिद्ध सुजान। कौतुक देखत सैल बन भूतल भूरि निधान।---अर्थ--जैसे सिद्धजन को नेत्रों में लगाकर साधक, सिद्ध और सुजान पर्वतों, वनों और पृथ्वी के अन्दर कौतुक से ही बहुत सी खानें देखते हैं।।1।।
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