बालकाण्ड
आकर
चारि लाख चौरासी। जाति जीव जल थल नभ वासी।। सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रणाम जोरि
जुग पानी।।---अर्थ--चौरासी लाख योनियों में चार प्रकार के ( स्वेदज, अण्डज, उद्भिज्ज,
जरायुज ) जीव जल, पृथ्वी और आकाश में रहते हैं, उन सबसे भरे हुए सारे जगत् को मैं श्री
सीताराममय जानकर दोनो हाथ जोड़कर प्रणाम करता हूँ।
जानि
कृपाकर किंकर मोहू। सब मिलि करहु छाड़ि छल छोहू।। निज बुधि बल भरोस मोहि नाही। ताते
विनय करउँ सब पाहीं।।---अर्थ--मुझको अपना दास जानकर कृपा की खान सब लोग मिलकर छल छोड़कर
कृपा कीजिये। मुझे अपने बुद्धि बल का भरोसा नहीं है, इसलिये मैं सबसे विनती करता हूँ।
करन
चहउँ रघुपति गुण गाहा। लघु मति मोरि चरित अवगाहा।। सूझ न एकउ अंग उपाऊ। मन ति रंक मनोरथ
राऊ।।---अर्थ--मैं श्रीरघुनाथजी के गुणों का वर्णन करना चाहता हूँ, परन्त मेरी बुद्धि
छोटी है और श्रीरामजी का चरित अथाह है। इसके लिये मुझे उपाय का एक भी अंग अर्थात् कुछ
(लेशमात्र) भी उपाय नहीं सूझता। मेरे मन और बुद्धि कंगाल है, किन्तु मनोरथ राजा है।
मति
अति नीच ऊँचि रुचि आछी। चहिय अमिय जग जुरइ न छाछी।। छमिहहिं सज्जन मोरि ढ़िठाई। सुनिहहिं
बालबचन मन लाई।।---अर्थ--मेरी बुद्धि तो अत्यन्त नीची है और चाह बड़ी ऊँची है;चाह तो
अमृत पीने की है, पर जगत् में छाछ भी नहीं मिलती। सज्जन मेरी ढ़िठाई को क्षमा करेंगे
और मेरे बालक जैसे वचनों को मन लगाकर (प्रेमपूर्वक) सुनेंगे।
जौं
बालक कह तोतरि बाता। सुनहिं मुदित मन पितु अरु माता।। हँसिहहिं क्रूर कुटिल कुविचारी।जे
पर दोष भूषणधारी।।---अर्थ--जैसे बालक जब तोतले वचन बोलता है तो उसके माता-पिता उन्हें
प्रसन्न मन से सुनते हैं। किन्तु क्रूर, कुटिल और बुरे विचारवाले लोग जो दूसरे के दोषों
को ही गहने के तरह धारण किये रहते हैं ( अर्थात् जिन्हें पराये दोष ही प्यारे होते
हैं ), हँसेंगे।
निज
कबित्त केहि लाग न नीका। सरस होउ अथवा अति फीका।। जै पर भनिति सुनत हरषाहीं। ते बर
पुरुष बहुत जग माहीं।। ---अर्थ--अच्छी हो या फीकी, अपनी कविता किसे अच्छी नहीं लगती ? किन्तु जो दूसरे
की रचना को सुनकर हर्षित होते हैं, ऐसे उत्तम पुरुष इस संसार में बहुत कम हैं।
जग
बहु नर सर सरि सम भाई। जे निज बाढ़ि बढ़हिं जल पाई।। सज्जन सुकृत सिंधु सम कोई। देखि
पूर बिधु बाढ़इ जोई।।---अर्थ--हे भाई ! जगत् में तालाबों और नदियों के समान मनुष्य ही
अधिक हैं, जो जल पाकर अपनी ही बाढ़ से बढ़ते हैं (अर्थात् अपनी ही उन्नति से प्रसन्न
होते हैं)। समुद्र सा तो कोई एक विरला ही सज्जन होता है जो चन्द्रमा को पूर्ण देखकर
( दूसरों का उत्कर्ष देखकर ) उमड़ पड़ता है।
भाग
छोट अभिलाष बड़ करउँ एक विश्वास। पैहहिं सुनि सुख सुजन सब खल करिहहिं उपहास।।---अर्थ--मेरा
भाग्य छोटा है और इच्छा बहुत बड़ी है, परन्तु मुझे एक विश्वास है कि इसे सुनकर सज्जनसभी
सुख पायेगे और दुष्ट हँसी उड़ावेंगे।
खल
परिहास होइ हित मोरा। काक कहहिं कलकंठ कठोरा।। हंसहिं बक दादुर चातकही। हँसहिं मलिन
खल बिमल बतकहि।।---अर्थ--किन्तु दुष्टों के हँसने से मेरा हित ही होगा। मधुर कंठवाली
कोयल को कौए तो कठोर ही कहा करते हैं। जैसे बगुले हंस को और मेढ़क पपीहे को हँसते हैं,
वैसे ही मलिन मन वाले दुष्ट निर्मल वाणी को हँसते हैं।
कबित
रसिक न राम पद नेहू। तिन्ह कहँ सुखद हास रस एहू।। भाषा भनिति भोरि मति मोरी। हँसिबे
जोग हँसे नहीं खोरी।।---अर्थ--जो न तो कविता के रसिक हैं और न जिनका श्रीरामचन्द्रजी
के चरणों में प्रेम है, उनके लिये भी यह कविता सुखद हास्यरस का काम करेगी। प्रथम तो
यह भाषा की रचना है, दूसरे मेरी बुद्धि भोली है; इससे यह हँसने के योग्य ही है, हँसने
में उन्हें कोई दोष नहीं।
प्रभु
पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहिं कथा सुनि लागिहिं फीकी।। हरि हर पद रति मति न कुतरकी।
तिन्ह कहुँ मधुर कथा रघुबर की।।---अर्थ--जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है
और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनकी श्रीहरि (भगवान् विष्णु
) और श्री हर ( भगवान् शिव ) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करनेवाली
नहीं है (जो श्री हरि-हर में भेद की या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते ), उन्हें श्रीरघुनाथजी
की यह कथा मीठी लगेगी।
राम
भगति भूषित जियँ जानी।सुनिहहिं सुजन सराहि सुबानी।। कबि न होऊँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल
कला सब विद्या हीनू।।---अर्थ--सज्जनगण इस कथा को अपने जी में श्रीरामजी के भक्ति से
भूषित जानकर सुन्दर वाणी से सराहना करते हुए सुनेंगे। मैं न तो कवि हूँ,न वाक्यरचना
में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ।