बालकाण्ड
बंदउँ संत समान चित हित अनहित नहीं कोइ। अंजलि गत सुभ सुमन जिमि सम सुगंध कर दोइ।।---अर्थ--मैं संतों को प्रणाम करता हूँ, जिनके चित्त में समता है, जिसका न कोई मित्र है न कोई शत्रु । जैसे अंजलि में रखे हुए सुन्दर फूल (जिस हाथ ने फूलों को तोड़ा और जिसने उनको रखा उन ) दोनो ही हाथों को समान रूप से सुगन्धित करते हैं (वैसे ही संत शत्रु और मित्र दोनो का ही समान रूप से कल्याण करते हैं)।
संत सरल चित जगत हित जानि सुभाउ सनेहु। बालविनय सुनि करि कृपा रामचरण रति देहु।।---अर्थ--संत सरलचित और जगत के हितकारी होते हैं, उनके ऐसे स्वभाव और स्नेह को जानकर, मेरी इस बाल-विनय को सुनकर कृपा करके श्रीरामजी के चरणों में मुझे प्रीति दें।
बहुरि बंदि खलगण सतिभाएँ। जे बिनु काज दाहिनेहु बाएँ।। पर हित हानि लाभ जिन्ह केरें। उजरे हरष बिषाद बसेरें।।---अर्थ--अब मैं सच्चे भाव से दुष्टों को प्रणाम करता हूँ, जो बिना ही प्रयोजन, अपना हित करनेवाले के भी प्रतिकूल आचरण करते हैं। दूसरों केहित की हानि ही जिनकी दृष्टि में लाभ है, जिनको दूसरों के उजड़ने में हर्ष और बसने में विषाद होता है।
हरिहर जस राकेस राहु से। पर अकाज भट सहसबाहु से।। जे पर दोष लखहिं सहसाखी। परहित घृत जिनके मन माखी।।---अर्थ--जो हरि और हर के यश रुपी पूर्णिमा के लिये राहू के समन है (अर्थात् जहाँ कहीं भगवान् विष्णु और शंकर के यश का वर्णन होता है, उसी में वे बाधा देते हैं) और दूसरों की बुराई करने में सहस्त्रबाहु के समान वीर हैं। जो दूसरों के दोषों को हजार आँखों से देखते हैं और दूसरों के हित रुपी घी के लिये जिनका मन मक्खी के समान है (अर्थात् जिस प्रकार मक्खी में घी गिरकर उसे खराब कर देती है और स्वयं भी मर जाती है, उसी प्रकार दुष्ट लोग दूसरों के बने-बनाये काम को अपनी हानि करके भी बिगाड़ देते हैं।
तेज कृसानु रोष महिषेसा। अघ अवगुन धन धनी धनेसा।। उदय केत सम हित सबही के। कुम्भकरन सम सोवत नीके।।---अर्थ--जो तेज (दूसरों को जलानेवाले ताप) में अग्नि और क्रोध में यमराज के समान हैं, पाप और अवगुणरुपी धन में कुबेर के समान धनी हैं, जिनकी बढ़ती सभी के हित का नाश करने के लिये केतू (पुच्छल तारे) के समान हैं, औरजिनके कुम्भकरण के तरह सोते रहने में ही भलाई है।
पर
अकाज लगि तन परिहरहिं। जिमि हिम उपल कृषि दलि गरहिं।। बंदउँ खल जस सेष सरोषा। सहस बदन
बरनई पर दोषा।।---अर्थ--जैसे ओले खेती का नाश करके आप भी गल जाते हैं, वैसे ही वे दूसरों
का काम बिगाड़ने के लिये अपना शरीर तक छोड़ देते हैं। मैं दुष्टों को (हजार मुखवाले)
शेषजी के समान समझकर प्रणाम करता हूँ, जो पराये दोषों का हजार मुखों से बड़े रोष के
साथ वर्णन करते हैं।
पुनि
प्रणवउँ पृथुराज समाना। पर अघ सुनई सहस दस काना।। बहुरि सक्र सम विनवउँ तेही। संतत
सुरानीक जेहि केही।।---अर्थ--पुनः उनको राजा पृथु ( जिन्होंने भगवान का यश सुनने के
लिये दस हजार कान माँगे थे ) के समान जानकर प्रणाम करता हूँ,जो दस हजार कानों से दूसरों
के पापों को सुनते हैं। फिर इन्द्र के समान मानकर उनकी विनय करता हूँ, जिनको सुरा
( मदिरा ) नीकी और हितकारी मालूम होती है। ( इन्द्र के लिये सुरानीक अर्थात् देवताओं
की सेना हितकारी है)।
बचन
बज्र जेहि सदा पियारा। सहस नयन परदोष निहारा।।---अर्थ--जिनको कठेर वचनरूपी वज्र सदा
प्यारा लगता है और हजार आँखों से दूसरों के दोषों को देखते हैं।
उदासीन
अरि मीत हित सुनत जरहिं खल रीति। जानि पानि जुग जोरि जन बिनती करइ सप्रीति।।---अर्थ--दुष्टों
की यह रीति है कि वे उदासीन, शत्रु अथवा मित्र, किसी का भी हित सुनकर जलते हैं। यह
जानकर दोनो हाथ जोड़कर यह जन प्रेमपूर्वक उनसे विनय करता है।
लखि
सुबेष जग बंचक जेऊ। बेष प्रताप पूजियहिं तेऊ।। उघरहिं अंत न होई निबाहु। कालनेमि जिमि
रावण राहू।।---अर्थ--जो (वेषधारी) ठग हैं, उन्हें भी अच्छा ( साधु का-सा) वेष बनाये
देखकर वेष के प्रताप से जगत् पूजता है; परन्तु एक-न-एक दिन वे चौड़े आ ही जाते हैं,
अंत तक उनकाकपट नहीं निभता, जैसे कालनेमि, रावण और राहू का हाल हुआ।
किएहुँ
कुबेषु साधु सनमानू। जिमि जग जामवंत हनुमानू।। हानि कुसंग सुसंगति लाहू। लोकहुँ बेद
बिदित सब काहू।।---अर्थ--बुरा वेष बना लेने पर भी साधु का सम्मान न होता है, जैसे जगत्
में जाम्बवान् और हनुमानजी का हुआ। बुरे संग से हानि और अच्छे संग से लाभ होता है,
यह बात लोक और वेद में है और सभी लोग इसको जानते हैं।
गगन
चढ़इ रज पवन प्रसंगा। कीचहिं मिलइ नीच जल संगा।। साधु-असाधु सदन सुख सारीं। सुमिरहिं
राम देहिं गनि गारीं।---अर्थ--पवन के संग से धूल आकाश पर चढ़ जाती है और वही नीच ( नीचे
की ओर बहनेवाले ) जल के संग कीचड़ बन जाती है। साधु के घर तोता-मैना राम-राम सुमिरते
हैं और असाधु के घर केे तोता-मैना गिन-गिनकर गालियाँ देते हैं।
धूम
कुसंगति कालिख होई। लिखिअ पुराण मंजु मसि सोई।। सोई जग अनल अनिल संघाता। होई जलद जग
जीवन दाता।।---अर्थ--कुसंग के कारण धुआँ कालिख कहलाता है, वही धुआँ (सुसंग से) सुन्दर
स्याही होकर पुराण लिखने में काम आता है और वही धुआँ, जल अग्नि और पवन के संग से बादलहोकर
जगत् को जीवन देनेवाला बन जाता है।
ग्रह
भेषज जल पवन पट पाइ कुजोग सुजोग। होहिं कुबस्तु सुबस्तु जग लखहिं सुलक्षण लोग।।---अर्थ--ग्रह,
औषधि, जल, वायु और वस्त्र---ये सब भी कुसंग और सुसंग पाकर बुरे और भले पदार्थ हो जाते
हैं। चतुर और विचारशील पुरुष ही इस बात को जान पाते हैं।
सम
प्रकास तम पाख दुहुँ नाम भेद बिधि कीन्ह।ससि सोषक पोषक समुझि जग जस अपयश दीन्ह।।---अर्थ--महीने
के दोनो पखवाड़े में उजियाला और अँधेरा समान ही रहता है ( एक का नाम शुक्ल और दूसरे
का कृष्ण रख दिया )। एक को चन्द्रमा को बढ़ानेवाला और दूसरे को उसका घटानेवाला समझकर जगत् ने एक को सुयश और दूसरे को अपयश दे दिया।
जड़
चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि। बंदउँ सबके पद कमल सदा जोरि जुग पानि।।---अर्थ--जगत्
में जितने जड़ और चेतन जीव हैं, सबको राममय जानकर मैं सबके चरणकमलों की सदा दोनो हाथ
जोड़कर वन्दना करता हूँ।
देव-दनुज
नर नाग खग प्रेत पितर गन्धर्ब। बंदउँ किंनर रजनीचर कृपा करहु अब सर्ब।।---अर्थ--देवता,
दैत्य, मनुष्य, नाग, पक्षी, प्रेत, पितर, गन्धर्व, किंनर और निशाचर सबको मैं प्रणाम
करता हूँ। अब सब मुझपर कृपा कीजिए।
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