Friday, 4 August 2017

बालकाण्ड

राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी।। अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं।।___हे पार्वती ! वही परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी हैं। उनमें भ्रम [ देखने में आता ] है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यन्त ही अनुचित है। इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य और सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं।

सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना।। भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती।।___अर्थ___शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गयी। श्रीरघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना ( जिसका होना संभव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना ) जाती रही।

पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि। बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि।।___अर्थ___बार_बार स्वामी ( शिवजी ) के चरणकमलों को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथों को जोड़कर पार्वतीजी मानो प्रेमरस में सानकर सुन्दर वचन बोलीं।

ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी।। तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ।।___अर्थ___आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञानरूपी शरद_ऋतु ( क्वार ) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु ! आपने मेरा सब संदेह हर लिया, अब श्रीरामचन्द्रजी का यथार्थ स्वरूप मेरा समझ में आ गया।

नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा। अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड़ नारि अयानी।।___अर्थ___हे नाथ ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गयी। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी आप मुझे अपनी दासी जानकर___

प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू।। राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी।। सर्ब रहित सब उर पुर बासी।।___अर्थ___हे प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिये। [ यह सत्य है कि ] श्रीरामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय ( ग्यानस्वरूप ) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके मन में निवास करनेवाले हैं।

नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू।। उमा बचन सुनि परम विनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता।।___अर्थ___फिर हे नाथ ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया ? हे धर्म की ध्वजा धारण करनेवाले प्रभो ! यह मुझे समझाकर कहिये। पार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्रीरामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर___

हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान। बहुत बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान।।___अर्थ___तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपानिधान शिवजी मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले___

Thursday, 3 August 2017

बालकाण्ड

तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई।। जिन्ह हरि कथा सुनी नहिं काना। श्रवनरन्ध्र अहि भवन समाना।।___अर्थ___तो भी वही शंका की है जिसके कहने_सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने हरि_कथा अपने कानों से नहीं सुनी उसके कान साँप के बिल के समान हैं।

नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा।। ते सिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुरु पद मूला।।___अर्थ___जिसने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किये उनके नेत्र मोरपंखों में लिखे हुए नेत्रों के समान हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं जो हरि गुरु के चरणों में नहीं झुकते।

जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहीं आनी। जीवत मृत समान तेइ प्रानी।। जो नहिं करहिं राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना।।___अर्थ___जिन्होंने अपने हृदय में हरिभक्ति धारण नहीं की, वे प्राणी जीते हुए मुर्दों के समान हैं। जो लोग रामगुण गान नहीं करते, उनकी जीभ मेढक के जीभ के समान है।

कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरि चरित न जो हरषाती। गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित असुर बिमोहन सीला।।___अर्थ___वह छाती बज्र के समान कड़ी और निठुर है जो हरि_चरित्र को सुनकर प्रसन्न नहीं होती। हे पार्वती ! श्रीरामजी की लीला सुनो, जो देवताओं के हित करनेवाली और राक्षसों को मोहित करनेवाली है।

रामकथा सुरधेनु सम, सेवत सब सुख दानि। सतसमाज सुरलोक सब, को न सुने इस जानि।।___अर्थ___श्रीराम कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देनेवाली है, सत्पुरुषों की सभा देवलोक है, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा।

रामकथा सुन्दर करतारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी।। रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी।।___अर्थ___रामकथा हाथ की सुन्दर ताली है जो संदेहरूपी पक्षी को उड़ा देती है। रामजी की कथा कलियुग रूपी वृक्ष के काटने की कुल्हाड़ी है, हे पार्वती ! आदर के साथ इसे सुनो।

रामनाम गुनि चरित सुहाए। जनमकरम अगनित श्रुति गाए।। जथा अनन्त राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना।।___अर्थ___वेदों ने श्रीरामजी के नाम, गुण, सुन्दर चरित्र, जन्म, कर्म सभी असंख्य कहे हैं। जैसे भगवान् राम अनन्त हैं, वैसे ही उनकी कथा, कीर्ति और अनेक गुणों का भी अन्त नहीं है।

जदपि जथा श्रुति जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी।। उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसम्मत मोहि भाई।।___अर्थ___जो भी जैसे मैंने सुनी और जैसी मेरी बुद्धि है उसके अनुसार तुम्हारी बहुत प्रीति देखकर कहूँगा। हे पार्वती ! तुम्हारे प्रश्न स्वाभाविक, सुहावने, सुखदायक और साधुसंमत हैं। मुझे भी अच्छे लगे हैं।

एक बात नहीं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी।। तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना।।___अर्थ___हे पार्वती ! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी यद्यपि तुमने अग्यानवश होकर कही है। तुमने जो यह कहा है कि वे राम कोई और हैं जिन्हें वेद गाते  और मुनि जिनका ध्यान धरते हैं।

कहहिं सुनहिं अस अधम नर, ग्रसे जे मोह पिशाच। पाखण्डी हरि पद बिमुख, जानहिं झूठ न साच।।___अर्थ___ऐसी बात अधम मनुष्य ही कहते सुनते हैं, जो अग्यानरूपी पिशाच से ग्रस्त, पाखण्डी और हरि भगवान के चरणों से विमुख हैं और झूठ_सच कुछ नहीं जानते हैं।

अज्ञ अकोबिद अंध अभागी। काई विषय मुकुर मन लागी।। लंपट कपटी कुटिल बिसेषी। सपनेहुँ संतसभा नहीं देखी।।___अर्थ___जो अज्ञानी, मूर्ख, अंधे और अभागे हैं और जिनके मनरूपी दर्पण पर विषयरूपी काई लग रही है, जो लंपट, बली और कुटिल हैं और जिन्होंने सपने में भी कभी संत_समाज नहीं देखा।

कहहिं जे बेद असम्मत बानी। जिन्ह के सूझ लाभ नहिं हानी।। मुकुर मलिन अरु नयन बिहीना। रामरूप देखहिं किमि दीना।।___अर्थ___जिन्हें लाभ_हानि नहीं सूझती वे ही ऐसी वेद विरुद्ध बात कहते हैं। जिनका मनरूपी दर्पण मैला है और जिनके ज्ञानरूपी नेत्र नहीं, वे बेचारे श्रीरामचन्द्रजी के रूप को कैसे देखें।

जिन्ह के अगुन न सगुन बिबेका। जल्पहिं कल्पित बचन अनेका।। हरिमाया बस जगत भ्रमाहीं। उन्हहिं कहर कुछ अघटित नाहीं।।___अर्थ___जिनको निर्गुण और सगुण का ज्ञान नहीं है, जो अनेक प्रकार की मनमानी बातें बकते हैं, जो हरि की माया के वश में भ्रमते हैं उनको कुछ भी कह डालना असम्भव नहीं है।

बातुल भूत बिबस मतवारे। ये नहिं बोलहिं बचन बिचारे।। जिन्ह कृत महामोह मद पाना। तिन्ह कर कहा करिअ नहिं काना।।___अर्थ___जो बात_रोग से बकवाद करनेवाले, सन्निपाती, उन्मत्त और मतवाले हैं, वे संभालकर वचन नहीं बोलते। जिन्होंने भारी अज्ञानरूपी मदिरा को पी लिया है, उनके कहने पर ध्यान नहीं देना चाहिये।

अस निज हृदयँ बिचारि, तजु संशय भजु राम पद। सुनु गिरिराजकुमारि, भ्रम तम रबि कर बचन मम।।___अर्थ___ऐसा अपने मन में विचारकर संदेह को छोड़ दो और रामजी के चरणों को भजो। हे पार्वती ! संदेहरूपी अंधकार को दूर करने के लिए सूर्य की किरणों के समान मेरे वचनों को सुनो।

सगुनहि अगुनहि नहिं कछु भेदा। गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा।। अगुन अरूप अलख अज जोई। भगत प्रेम बस सगुन सो सोई।।___अर्थ___सगुण_निर्गुण में कुछ भेद नहीं है। मुनि, पुराण, पण्डित और वेद ऐसा कहते हैं कि जो निर्गुण रूप रहित, अव्यक्त और अजन्मा है, वही भक्तों के प्रेमवश सगुण हो जाता है।

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें। जल हिम उपल बिलगनहिं जैसें।। जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा। तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा।।___अर्थ___जो निर्गुण है वह सगुण कैसा होता है ? जैसे जल और ओले में कुछ अंतर नहीं है। जिसका नाम संदेहरूपी अंधकार को दूर करने के लिये सूर्य के समान है, उनको मोह होना कैसे कहा जा सकता है ?

राम सच्चिदानन्द दिनेसा। नहिं तँह मोह निशा लवलेसा। सहज प्रकाशरूप भगवाना। नहिं तहँ पुनि विग्यान बिहाना।।___अर्थ___रामचन्द्रजी सत्_चित्_आनन्द स्वरूप सूर्य हैं, वहाँ मोहरूपी रात्रि होती ही नहीं। भगवान् स्वभाव से ही प्रकाशरूप हैं, वहाँ सबेरा भी नहीं होता।

हरष बिषाद ग्यान अग्याना। जीव धर्म अह मिति अभिमाना।। राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना। परमानन्द परेस पुराना।।___अर्थ___हर्ष, शोक, ज्ञान, अज्ञान, अहंकार, अभिमान ये सब जीव के धर्म हैं। श्रीरामजी तो साक्षात् ब्यापक, परमब्रह्म, परमानन्दस्वरूप, सबसे परे और महापुरुष हैं। इन्हें संसार जानता है।

पुरुष प्रसिद्ध प्रकाशनिधि, प्रगट परावर नाथ। रघुकुलमनि मम स्वामि सोइ, कहि सिव नायउ माथ।।___अर्थ___शास्त्रों में जो पुरुष नाम से प्रसिद्ध हैं, प्रकाश की खान हैं, प्रगट और सबके स्वामी हैं, वही रघुवंशमणि श्रीरामचन्द्रजी मेरे स्वामी हैं, यह कहकर शिवजी ने उनको मस्तक नवाया।

निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी। प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्राणी।। जथा गगन घन पटल निहारी। झाँपेहु भानु कहहिं कुबिचारी।।___अर्थ___अज्ञानी लोग  अपनी भूल तो नहीं समझते हैं, वे जड़ प्रभु पर उसका आरोप करते हैं। जैसे आकाश में सूर्य को बादल से ढका हुआ देखकर वे लोग कहते हैं कि सूर्य छिप गया।

चितव जो लोचन अंगुलि लाएँ। प्रगट जुगल ससि तेहि के भाएँ। उमा राम बिषइक अस मोहा। नभ तम धूम धूरि जिमि सोहा।।___अर्थ___जो आँखों में अँगुली लगाकर देखता है, उसको तो दो चन्द्रमा प्रत्यक्ष दिखायी देते हैं। हे पार्वती ! रामजी के विषय में मोह की बात ऐसी है, जैसे आकाश में धुआँ, धूल और अंधेरे का दीखना।

बिषय करन सुर जीव समेता। सकल एक तें एक सचेता।। सब कर परम प्रकासक जोई। राम अनादि अवधपति सोई।।___अर्थ___ विषय, इन्द्रियाँ, इन्द्रियों के देवता और जीव, सब एक से एक चेतन हैं। इन सबके परम प्रकाश वही अनादि ब्रह्म अयोध्यापति श्रीरामचन्द्रजी हैं।

जगत प्रकास्य प्रकासक रामू। मायाधीस ग्यान गुन धामू।। जासु सत्यता तें जड़ माया। भास सत्य इव मोह सहाया।।___अर्थ___यह जगत् प्रकास्य है और श्रीरामचन्द्रजी इसके प्रकाशक हैं। वे माया के स्वामी और ज्ञान तथा गुणों को धाम हैं। जिनकी सत्ता से, मोह की सहायता पाकर जड़ माया भी सत्य_सी भासित होती है।

रजत सीप महुँ भास जिमि जथा भानु कर बारि। जदपि मृषा तिहुँ काल सोइ भ्रम न सकइ कोउ टारि।।___अर्थ___जैसे सीप में चाँदी की और सूर्य की किरणों में पानी की ( बिना हुए भी ) प्रतीति होती है। यद्यपि यह प्रतीति तीनों कालों में झूठ है, तथापि इस भ्रम को कोई हटा नहीं सकता।

एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई। जदपि असत्य देत दुख अहई।। जौं सपने सिर काटै कोई। बिनु जागे न दूरि दुःख होई।।___अर्थ___इसी तरह यह संसार भगवान् के आश्रित रहता है। यद्यपि यह असत्य है, तो भी दुःख तो देता ही है; जिस तरह कोई स्वप्न में सिर काट ले तो बिना जागे वह दुःख दूर नहीं होता।

तासु कृपाँ अस भ्रम मिटि जाई। गिरिजा सोई कृपाल रघुराई। आदि अंत कोउ तासु न पावा। मति अनुमानि निगम अस गावा।।___अर्थ___हे पार्वती ! जिनकी कृपा से इस प्रकार का भ्रम मिट जाता है, वही कृपालु श्रीरघुनाथजी हैं। जिनका आदि और अन्त किसी ने नहीं ( जान ) पाया। वेदों ने अपनी बुद्धि से अनुमान करके इस प्रकार गाया है___

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना। कर बिनु करम करइ बिधि नाना।। आनन रहित सकल रस भोगी। बिनु बानी बकता बर जोगी।।___वह ( ब्रह्म ) बिना पैर के चलता है, बिना ही कान के सुनता है, बिना ही हाथ के नाना प्रकार के काम करता है, बिना मुँह ( जिह्वा ) के सारे ( छहों ) रसों का आनन्द लेता है और बिना ही वाणी के बहुत योग्य वक्ता है।

तन बिनु परस नयन बिनु देखा। ग्रहण घ्रान बिना बाय असेषा।। असि सब भाँति अलौकिक करनी महिमा जासु जाइ नहिं बरनी।।___अर्थ___वह बिना ही शरीर ( त्वचा ) के स्पर्श करता है, बिना ही आँखों के देखता है और बिना ही नाक के सब गंधों को ग्रहण करता है ( सूँघता ) है। उस ब्रह्म की करनी सभी प्रकार से ऐसी अलौकिक है कि जिसकी महिमा कही नहीं जा सकती।

जेहि इमि गावहिं बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान। सोई दसरथ सुर भगत हित कोसलपति भगवान।।___अर्थ___जिसका वेद और पण्डित इस प्रकार वर्णन करते हैं और मुनि जिसका ध्यान करते हैं, वही दशरथनन्दन भक्तों के हितकारी, अयोध्या के स्वामी भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हैं।

कासीं मरत जंतु अवलोकी। जासु नाम बल करउँ बिसोकी।। सोई प्रभु मोर चराचर स्वामी। परिहार सब उर्दू अंतरजामी।।___अर्थ___ ( हे पार्वती ! ) जिनके नाम के बल से काशी में मरते हुए प्राणी को देखकर मैं उसे [ राममंत्र देकर ] शोकरहित कर देता हूँ ( मुक्त कर देता हूँ ), वही मेरे प्रभु रघुश्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी जड़_चेतन के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले हैं।

बिबसहुँ जासु नाम नर कहहीं। जनम अनेक रचित अघ दहहीं।। सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं।।___अर्थ___विवश होकर ( बिना इच्छा के ) भी जिसका नाम लेने से मनुष्यों के अनेक जन्मों में किये हुए पाप जल जाते हैं। फिर जो मनुष्य आदरपूर्वक उनका स्मरण करते हैं, वे तो संसाररूपी [ दुस्तर ]  समुद्र को गाय के खुराना से बने हुए गड्ढे के समान ( अर्थात् बिना किसी परिश्रम के ) पार कर जाते हैं।