राम सो परमातमा भवानी। तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी।। अस संसय आनत उर माहीं। ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं।।___हे पार्वती ! वही परमात्मा श्रीरामचन्द्रजी हैं। उनमें भ्रम [ देखने में आता ] है, तुम्हारा ऐसा कहना अत्यन्त ही अनुचित है। इस प्रकार का संदेह मन में लाते ही मनुष्य के ज्ञान, वैराग्य और सारे सद्गुण नष्ट हो जाते हैं।
सुनि सिव के भ्रम भंजन बचना। मिटि गै सब कुतरक कै रचना।। भइ रघुपति पद प्रीति प्रतीती। दारुन असंभावना बीती।।___अर्थ___शिवजी के भ्रमनाशक वचनों को सुनकर पार्वतीजी के सब कुतर्कों की रचना मिट गयी। श्रीरघुनाथजी के चरणों में उनका प्रेम और विश्वास हो गया और कठिन असंभावना ( जिसका होना संभव नहीं, ऐसी मिथ्या कल्पना ) जाती रही।
पुनि पुनि प्रभु पद कमल गहि जोरि पंकरुह पानि। बोलीं गिरिजा बचन बर मनहुँ प्रेम रस सानि।।___अर्थ___बार_बार स्वामी ( शिवजी ) के चरणकमलों को पकड़कर और अपने कमल के समान हाथों को जोड़कर पार्वतीजी मानो प्रेमरस में सानकर सुन्दर वचन बोलीं।
ससि कर सम सुनि गिरा तुम्हारी। मिटा मोह सरदातप भारी।। तुम्ह कृपाल सबु संसउ हरेऊ। राम स्वरूप जानि मोहि परेऊ।।___अर्थ___आपकी चन्द्रमा की किरणों के समान शीतल वाणी सुनकर मेरा अज्ञानरूपी शरद_ऋतु ( क्वार ) की धूप का भारी ताप मिट गया। हे कृपालु ! आपने मेरा सब संदेह हर लिया, अब श्रीरामचन्द्रजी का यथार्थ स्वरूप मेरा समझ में आ गया।
नाथ कृपाँ अब गयउ बिषादा। सुखी भयउँ प्रभु चरन प्रसादा। अब मोहि आपनि किंकरि जानी। जदपि सहज जड़ नारि अयानी।।___अर्थ___हे नाथ ! आपकी कृपा से अब मेरा विषाद जाता रहा और आपके चरणों के अनुग्रह से मैं सुखी हो गयी। यद्यपि मैं स्त्री होने के कारण स्वभाव से ही मूर्ख और ज्ञानहीन हूँ, तो भी आप मुझे अपनी दासी जानकर___
प्रथम जो मैं पूछा सोइ कहहू। जौं मो पर प्रसन्न प्रभु अहहू।। राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी।। सर्ब रहित सब उर पुर बासी।।___अर्थ___हे प्रभो ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो जो बात मैंने पहले आपसे पूछी थी, वही कहिये। [ यह सत्य है कि ] श्रीरामचन्द्रजी ब्रह्म हैं, चिन्मय ( ग्यानस्वरूप ) हैं, अविनाशी हैं, सबसे रहित और सबके मन में निवास करनेवाले हैं।
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू। मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू।। उमा बचन सुनि परम विनीता। रामकथा पर प्रीति पुनीता।।___अर्थ___फिर हे नाथ ! उन्होंने मनुष्य का शरीर किस कारण से धारण किया ? हे धर्म की ध्वजा धारण करनेवाले प्रभो ! यह मुझे समझाकर कहिये। पार्वती के अत्यन्त नम्र वचन सुनकर और श्रीरामचन्द्रजी की कथा में उनका विशुद्ध प्रेम देखकर___
हियँ हरषे कामारि तब संकर सहज सुजान। बहुत बिधि उमहि प्रसंसि पुनि बोले कृपानिधान।।___अर्थ___तब कामदेव के शत्रु, स्वाभाविक ही सुजान, कृपानिधान शिवजी मन में बहुत ही हर्षित हुए और बहुत प्रकार से पार्वती की बड़ाई करके फिर बोले___
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