Saturday, 22 December 2018

बालकाण्ड

यह सब चरित कहा मैं गाई। आगिलि कथा सुनहु मन लाई।। बिस्वामित्र महामुनि ग्यानी। बसहिं बिपिन शुभ आश्रम जानी।।____ अर्थ___ यह सब चरित्र मैंने गाकर ( बखानकर ) कहा। अब आगे की कथा मन लगाकर सुनो। ज्ञानी महामुनि विश्वामित्रजी वन में शुभ आश्रम ( पवित्र स्थान ) जानकर बसते थे।

जहँ जप जग्य जोग मुनि करहीं। अति मारीच सुबाहुहिं डरहीं।। देखत जग्य निसाचर धावहिं। करहिं उपद्रव मुनि दुख पावहिं।।___ अर्थ____ जहाँ वे मुनि जप, यज्ञ और योग करते थे। यज्ञ देखते ही राक्षस दौड़ पड़ते थे और उपद्रव मचाते थे, जिससे मुनि [ बहुत ] दुःख पाते थे।

गाधितनय मन चिंता ब्यापी। हरि बिनु मरहिं न निसिचर पापी।। तब मुनिबर मन कीन्ह बिचारा। प्रभु अवतरेउ हरन महि भारा।।___ अर्थ____गाधि के पुत्र विश्वामित्रजी के मन में चिंता छा गयी कि ये पापी राक्षस भगवान् के [ मारे ] बिना न मरेंगे। तब श्रेष्ठ मुनि ने मन में विचार किया कि प्रभु ने पृथ्वी का भार हरने के लिये अवतार लिया है।

एहूँ मिस देखौं पद जाई। करि बिनती आनौं दोउ भाई।। ग्यान बिराग सकल दिन अयना। सो प्रभु मैं देखब भरि नयना।।____ अर्थ____इसी बहाने जाकर मैं उनके चरणों का दर्शन करूँ और विनती करके दोनों भाइयों को ले,आऊँ। [ अहा ! ] जो ज्ञान, वैराग्य और सब गुणों के धाम हैं, उन प्रभु को मैं नेत्र भरकर देखूँगा।

बहुबिधि करत मनोरथ जात लाग नहिं बार। करि मज्जन सरऊ जल गए भूप दरबार।।____ अर्थ_____ बहुत प्रकार से मनोरथ करते हुए जाने में देर नहीं लगी। सरयूजी के जल में स्नान करके वे राजा के दरवाजे पर पहुँचे।

मुनि आगवन सुना जब राजा। मिलन गयउ लै बिप्र समाजा।। करि दण्डवत् मुनिहि सनमानी। निज आसन बैठारेन्हि आनी।।___ अर्थ___ जब राजा ने मुनि का आना सुना, तब वे ब्राह्मणमण्डली को संग लेकर मिलने गए। मुनि को दण्डवत् करके आदरपूर्वक उन्हें लाकर आसन पर बैठाया।

चरन पखारि कीन्हि अति पूजा। मो सम आजु धन्य नहि दूजा।। बिबिध भाँति भोजन करवावा। मुनिवर हृदयँ हरष अति पावा।।___ अर्थ____चरण धोकर भली_भाँति पूजा की और कहा___ आज मेरे समान धन्य दूसरा नहीं है। फिर अनेक प्रकार के भोजन करवाये। मुनिश्रेष्ठ ने मन में अत्यन्त आनन्द पाया।

पुनि चरननि मेले सुत चारी। राम देखि मुनि देह बिसारी।। भए मगन देखत मुख सोभा। जनु चकोर पूरन ससि लोभा।।___ अर्थ___ फिर राजा ने चारों पुत्रों को बुलाकर मुनि के चरणों में प्रणाम कराया। रामचन्द्रजी को देखकर मुनि बहुत सुखी हुए। मुख की शोभा देखकर ऐसे मग्न हुए जैसे चकोर पूर्ण चन्द्रमा को देखकर लुभाता है।

तब मन हरषि बचन तह राऊ। मुनि अस कृपा न कीन्हिहु काऊ।। केहि कारन आगमन तुम्हारा। कहहु सो करत न लावउँ बारा।।___ अर्थ___मन में प्रसन्न होकर राजा ने यह वचन कहा__हे मुनि ! मुझपर ऐसी कृपा पहले कभी नहीं की। आज किस कारण आपका आगमन हुआ सो कहिये ? उसे करने में देर नहीं लगाऊँगा।

असुर समूह सतावहिं मोही। मैं जाचन आयउँ नृप तोही।। अनुज समेत देहु रघुनाथा। निसिचर बध मैं होब सनाथा।।___ अर्थ___ विश्वामित्रजी बोले___हे राजन् ! राक्षस मुझको सताते हैं। इस कारण मैं तुमसे लक्ष्मणसहित रामचन्द्रजी को माँगने आया हूँ। निसाचरों के मारे जाने से मैं सनाथ हो जाऊँगा।

देहु भूप मन हर्षित, तजहु मोह अज्ञान। धरम सुजस प्रभु तुम्ह कौं, इन्ह कहँ अति कल्यान।।___ अर्थ___हे राजन् ! मन में प्रसन्न होकर मोह और अज्ञान को छोड़ दो। हे स्वामी ! तुम्हारा धर्म और यश बढ़ेगा और इनका भी अत्यन्त कल्याण होगा।

सुनि राजा अति अप्रिय बानी। हृदयँ कम्प मुख दुति कुम्हलानी।। चौथेपन पायऊँ सुत चारी। बिप्र वचन नहिं कहेहु बिचारी।।___ अर्थ ___बहुत अप्रिय वचन सुनकर राजा का हृदय काँपने लगा। उनके मुख का तेज फीका पड़ गया और वे बोले__चौथेपन में मैंने चार पुत्र पाये हैं, हे विप्र ! आपने विचारकर वचन नहीं कहा।

माँगहु भूमि धेनु धन कोषा। सर्बस देउँ आज सहरोषा।। देह प्रानते प्रिय कछु नाहीं। सोउ मुनि देउँ निमिष एक माहीं।।___ अर्थ___भूमि, गौ, खजाना माँगिये, आज सहर्ष सर्वस्व दे दूँगा। देह और प्राण से अधिक कुछ प्यारा नहीं है, हे मुनि ! वह भी एक पल में दे दूँगा।

सब सुत प्रिय मोहि प्रान की नाईं। राम देत नहिं बनई गोसाईं।। कहँ निसिचर अति घोर कठोरा। कहँ सुन्दर सुत परम किसोरा।।___ अर्थ___ सब पुत्र मुझे प्राणों के समान प्यारे हैं तथापि हे स्वामी ! राम को देते नहीं बनता। कहाँ बड़े भयंकर कठोर राक्षस और कहाँ मेरे बहुत सुकुमार बालक ?

सुनि नृप गिरा प्रेम रस सानी। हृदयँ हरष माना मुनि ज्ञानी।। तब बसिष्ठ बहुबिधि समझावा। नृप सन्देह नास कहँ पावा।।___ अर्थ___ राजा की प्रेम रस से भरी हुई बाणी को सुनकर ज्ञानी मुनि ने मन में बहुत आनन्द माना। तब बशिष्ठजी ने बहुत प्रकार से समझाया। तब राजा का संदेह दूर हो गया।

अति आदर दोउ तनय बोलाये। हृदयँ लाइ बहु भाँति सिखाये।। मेरे प्रान नाथ सुत दोऊ। तुम्ह पुनि पिता आन नहिं कोऊ।।___ अर्थ___ बड़े आदर से दोनों को बुलाया और छाती से लगाकर बहुत प्रकार से शिक्षा दी और कहा__ हे नाथ ! यह दोनों पुत्र मेरे प्राण हैं। हे मुनि ! अब आपही इनके पिता हैं दूसरा कोई नहीं।

सौंपे भूप रिषिहिं सुत। बहु बिधि देहिं असीस। जननी भवन गये प्रभु, चले नाइ पद सीस।।___अर्थ___राजा ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दे दोनों पुत्र ऋषि को सौंप दिये, तब प्रभु माता के महल में गए और उनके चरणों में सिर नवाकर चले।

पुरुषसिंह दोउ बीर, हरषि चले मुनि भय हरन। कृपासिंधु मतिधीर, अखिल बिस्व कारन करन।।___ अर्थ___पुरुषों में सिंहरूप दोनों वीर जो मुनियों के भय हरण करनेवाले, कृपा के समुद्र, धीरबुद्धि और सब जगत् के कारण के भी कर्ता हैं, प्रसन्न होकर चले।

अरुन नयन उर बाहु बिसाला। नील जलज तनु स्याम तमाला।। कटि पट पीत कसें बर भाथा। रुचिर चाप सायक दुहुँ हाथा।।___ अर्थ___श्रीरामजी के लाल_नेत्र, चौड़ी छाती, लम्बी भुजायें, नील_कमल और तमाल के समान सुन्दर श्याम शरीर है। कमर में पीताम्बर और सुन्दर तरकस कसे, दोनों हाथों में सुन्दर धनुष_बाण लिये हैं।

स्याम गौर सुन्दर दोउ भाई। बिस्वामित्र महानिधि पाई।। प्रभु ब्रह्मण्यदेव मैं जाना। मोहि हित पिता तजेउ भगवाना।।___ अर्थ___ श्याम और गौर_ वर्ण के दोनों सुन्दर भाई विश्वामित्रजी को महानिधि रूप प्राप्त हुए। वे विचार करने लगे___मैंने जान लिया कि प्रभु ब्रह्मण्यदेव हैं। भगवान ने मेरे लिये पिता को भी छोड़ दिया।

चले जात मुनि दीन्ही देखाई। सुनि ताड़का क्रोध करि धाई।। एकहिं बान प्राण हरि लीन्हा। दीन जानि तेहि निज पद दीन्हा।।___ अर्थ___मार्ग में जाते हुए मुनि ने ताड़का को दिखाया। शब्द सुनते ही वह क्रोध करके दौड़ी। रामचन्द्रजी ने एक ही बाण में उसके प्राणपन लिये और दीन जानकर अपना पद ( दिव्यलोक ) दिया।

तब मुनि निज नाथहिं जियँ चीन्ही। विद्यानिधि कहुँ विद्या दीन्ही।। जाते लाग न छुधा पिपासा। अतुलित बल तनु तेज प्रकासा।।___ अर्थ____तब मुनि ने अपने प्रभु को सब विद्याओं की खान समझकर भी ऐसी विद्या दी जिससे भूख प्यास न सतावे, शरीर में अतुलित बल और तेज का प्रकाश हो।

आयुध सर्ब समर्पि कै, प्रभु निज आश्रम आनि। कन्द मूल फल भोजन, दीन्ह भगति हित जानि।।___ अर्थ___फिर मुनि प्रभु को सब अस्त्र_ शस्त्र दे अपने आश्रम में ले आए और भक्त_हितकारी जानकर कन्द, मूल, फल भोजन के लिए दिये।

प्रात कहा मुनि सन रघुराई। निर्भय जज्ञ करहु तुम्ह जाई।। होम करन लागे मुनि झारी। आपु रहे मख की रखवारी।।___ अर्थ___ प्रातःकाल श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि से कहा__ आप जाकर मण्डप होकर यज्ञ कीजिये। तब मुनि होम करने लगे। आप यज्ञ की रक्षा करने लगे।

सुनि मारीच निसाचर कोही। लै सहाय भागा मुनि द्रोही।। बिनु फर बान राम तेहि मारा। सत जोजन गा सागर पारा।। ___ अर्थ___क्रोधी राक्षस मारीच ने सुना तो वह मुनिद्रोही अपने सहायकों को लेकर दौड़ा। रामचन्द्रजी ने बिना फर का बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन पर समुद्र के पार जा गिरा।


पावक सर सुबाहु पुनि मारा। अनुज निसाचर कटकु सँघारा।। मारि असुर द्विज निर्भयकारी। अस्तुति करहिं देवमुनिझारी।।___ अर्थ___फिर अग्निबाण से सुबाहु को भस्म किया। लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का नाश किया। असुरों को मारनेवाले, ब्राह्मणों को निर्भय करनेवाले भगवान का सब देवता और मुनि स्तुति करने लगे।

तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया। रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया।। भगति हेतु कहि कथा पुराना। कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना।।___ अर्थ___फिर श्रीरघुनाथजी ने कुछ दिन रहकर ब्राह्मणों पर दया की। भक्तिवश ब्राह्मण अनेकों कथा_पुराण सुनाते थे, यद्यपि प्रभु सब जानते थे।


तब मुनि सादर कहा बुझाई। चरित एक प्रभु देखिअ जाई।। धनुषजग्य सुनि रघुकुलनाथा। हरषि चले मुनिबर के साथा।।___ अर्थ___तदनन्तर मुनि ने आदर के साथ समझाकर कहा___ हे प्रभो ! अब चलकर एक चरित्र देखिये। धनुष_यज्ञ सुनकर श्रीरघुनाथजी प्रसन्न होकर मुनिवर के साथ चले।

Wednesday, 5 September 2018

बालकाण्ड

बालचरित अति सरल सुहाए। सारद सेष संभु श्रुति गाए।। जिन्ह कर मन इन्ह सन नहिं राता। ते जन बंचित किए बिधाता।।___ अर्थ___श्रीरामचन्द्रजी की बहुत ही सरल ( भोली ) और सुन्दर ( मनभावनी ) बाललीलाओं का सरस्वती, शेषजी, शिवजी और वेदों ने गान किया है। जिनका मन इन लीलाओं में अनुरक्त नहीं हुआ, विधाता ने उन मनुष्यों को वंचित कर दिया ( नितान्त भाग्यहीन बनाया )।


भए कुमार जबहिं सब भ्राता। दीन्ह जनेऊ गुरु पितु माता।। गुरगृहँ गए पढ़न रघुराई। अलप काल विद्या सब आई।।___ अर्थ____ज्यों ही सब भाई कुमारावस्था के हुए, त्यों ही गुरु, पिता और माता ने उनका यज्ञोपवीत संस्कार कर दिया। श्रीरघुनाथजी [ भाइयोंसहित ] गुरु के घर में विद्या पढ़ने गये और थोड़े ही समय में उनको सब विद्याएँ आ गयीं।


जाकी सहज स्वास श्रुति चारी। सो हरि पढ़ यह कौतुक भारी।। बिद्या बिनय निपुन गुन सीला। खेलहिं खेल सकल नृप लीला।।___ अर्थ___चारों वेद जिन के स्वाभाविक श्वास हैं, वे भगवान् पढ़ें े यह बड़ा कौतुक ( अचरज ) है। चारों भाई विद्या, विनय, गुण और शील में [ बड़े ] निपुण हैं और सब राजाओं की लीलाओं के ही खेल खेलते हैं।


करतल बान धनुष अति सोहा। देखत रूप चराचर मोहा।। जिन्ह बीथिन्ह बिहरहिं सब भाई। थकित होहिं सब लोग लुगाई।।___ अर्थ___ हाथों में बाण और धनुष बहुत ही शोभा देते हैं। रूप देखते ही चराचर ( जड़_चेतन ) मोहित हो जाते हैं। वे सब भाई जिन गलियों में खेलते [ हुए निकलते ] हैं, उन गलियों के सभी स्त्री_पुरुष उनको देखकर स्नेह से शिथिल हो जाते हैं अथवा ठिठककर रह जाते हैं।


कोसलपुर बासी नर नारि बृद्ध अरु बाल। प्रानहु ते प्रिय लागत सब कहुँ राम कृपाल।।___ अर्थ____ कोसलपुर के रहनेवाले स्त्री, पुरुष, बूढ़े और बालक सभी को कृपालु श्रीरामचन्द्रजी प्राणों ये भी बढ़कर प्रिय लगते हैं।


बंधु सखा सँग लेहिं बोलाई। बन मृगया नित खेलहिं जाई।। पावन मृग मारहिं जियँ जानी। दिन प्रति नृपहि देखावहिं आनी।।___ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी भाइयों और इष्ट_मित्रों को बुलाकर साथ ले लेते हैं और नित्य वन में जाकर शिकार खेलते हैं। मन में पवित्र समझकर मृगों को मारते हैं और प्रतिदिन लाकर राजा ( दशरथजी ) को दिखाते हैं।


जे मृग राम बान के मारे। ते तनु तजि सुरलोक सिधारे।। अनुज सखा सँग भोजन करहीं। मातु पिता अग्या अनुसरहीं।।____ अर्थ____जो मृग श्रीरामजी के बाण से मारे जाते थे, वे शरीर छोड़कर देवलोक को चले जाते थे। श्रीरामचन्द्रजी अपने छोटे भाइयों और सखाओं के साथ भोजन करते हैं और माता_पिता की आज्ञा का पालन करते हैं।


जेहि बिधि सुखी होहिं पुर लोगा। करहिं कृपानिधि सोइ संजोगा।। बेद पुरान सुनहिं मन लाई। आपु कहहिं अनुजन्ह समुझाई।।____अर्थ____जिस प्रकार नगर के लोग सुखी हों, कृपानिधान श्रीरामचन्द्रजी वही संयोग ( लीला ) करते हैं। मन लगाकर वेद_पुराण सुनते हैं और फिर स्वयं छोटे भाइयों को समझाकर कहते हैं।


प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।। आयसु मागि करहिं पुर काजा। देखि चरित हरषइ मन राजा।।___ अर्थ___ श्रीरघुनाथजी प्रातःकाल उठकर माता_पिता और गुरु को मस्तक नवाते हैं और आज्ञा लेकर नगर की काम करते हैं। उनके चरित्र को देख_देखकर राजा मन में बड़े हर्षित होते हैं।


ब्यापक अकल अनीह अज निर्गुन नाम न रूप। भगत हेतु नाना बिधि करत चरित्र अनूप।।___ अर्थ___जो व्यापक, अकल ( निरवयव ), इच्छारहित, अजन्मा और निर्गुण हैं; तथा जिनका न नाम है न रूप, वही भगवान् भक्तों के लिये नाना प्रकार के अनुपम ( अलौकिक ) चरित्र करते हैं।

Monday, 3 September 2018

बालकाण्ड

कैकयसुता सुमित्रा दोऊ। सुंदर सुत जनमत भैं ओऊ।। वह सुख संपति समय समाजा। कहि न सकइ सारद अहिराजा।।___अर्थ___कैकेयी और सुमित्रा___इन दोनों ने भी सुन्दर २पुत्रों को जन्म दिया। उस सुख, सम्पत्ति, समय और समाज का वर्णन सरस्वती और सर्पों को राजा शेषजी भी नहीं कर सकते।    

अवधपुरी सोहइ एहि भाँती। प्रभुहि मिलन आई जनु राती।। देखि भानु जनु मन सकुचानी। तदपि बनी संध्या अनुमानी।।___ अर्थ____ अवधपुरी इस प्रकार सुशोभित हो रही है, मानो रात्रि प्रभु से मिलने आयी हो और सूर्य को देखकर मानो मन में सकुचा गयी हो, परन्तु फिर भी मन में विचारकर वह मानो सन्ध्या बन [ कर रह ] गयी हो।

अगर धूप बहु जनु अँधियारी। उड़इ अबीर मनहुँ अरुनारी।। मंदिर मनि समूह जनु तारा। नृप गृह कलस सो इंदु उदारा।।___ अर्थ___ अगर की धूप का बहुत_सा धुँआ मानो [ सन्ध्याका ] अंधकार है और जो अंबार उड़ रहा है, वह उसकी ललाई है। मंगलों में जो मणि के समूह हैं, वे मानो तारागण हैं। राजमहल का जो कलश है, वही मानो श्रेष्ठ चन्द्रमा है।

भवन बेदधुनि अति मृदु बानी। जनु खग मुखर समयँ जनु सानी।।कौतुक देखि पतंग भुलाना। एक मास तेइँ जात न जाना।।___ अर्थ ____राजभवन में जो अति कोमल बाणी से वेदध्वनि हो रही है, वही मानो समय से  ( समयानुकूल ) सनी हुई पक्षियों की चहचहाहट है। यह कौतुक देखकर सूर्य भी [ अपनी चाल ] भूल गये। एक महीना उन्होंने जाता हुआ न जाना ( अर्थात् उन्हें एक महीना वहीं बीत गया।

मास दिवस कर दिवस भा मरम न जानइ कोइ। रथ समेत रबि थाकेउ निसा कवन बिधि होइ।।___ अर्थ___महीनेभर का दिन हो गया। इस रहस्य को कोई नहीं जानता। सूर्य अपने रथसहित वहीं रुक गये, फिर रात किस तरह होती।

यह रहस्य काहूँ नहिं जाना। दिनमनि चले करत गुनगाना।। देखि महोत्सव सुर मुनि नागा। चले भवन बरनत निज भागा।।___ अर्थ___ यह रहस्य किसी ने नहीं जाना। सूर्यदेव [ भगवान् श्रीरामजी का ] गुणगान करते हुए चले। यह महोत्सव देखकर देवता, मुनि और नाग अपने भाग्य की सराहना करते हुए अपने_ अपने घर को चले।

औरउ एक कहउँ निज चोरी। सुनु गिरिजा अति दृढ़ मति तोरी।। काकभुसुंडि संग हम दोऊ। मनुजरूप जानइ नहिं कोऊ।।___ अर्थ___हे पार्वती ! तुम्हारी बुद्धि [ श्रीरामजी के चरणों में ] बहुत दृढ़ है, इसलिये मैं और भी अपनी एक चोरी ( छिपाव ) की बात कहता हूँ, सुनो। काकभुसुण्डि और मैं दोनों वहाँ साथ_साथ थे, परन्तु मनुष्यरूप में होने के कारण हमें कोई जान न सका।

परमानंद प्रेम सुख फूले। बीथिन्ह फिरहिं मगन मन भूले।। यह सुभ चरित जान पै सोई। कृपा राम कै जापर होई।।___अर्थ___परम आनन्द और प्रेम के सुख में फूले हुए हम दोनों मगन मन से ( मस्त हुए ) गलियों में [ तन_मन की सुधि ] भूले हुए फिरते थे। परन्तु यह शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्रीरामजी की कृपा हो।

तेहि अवसर जो जेहि बिधि आवा। दीन्ह भूप जो जेहि मन भावा।। गज रथ तुरग हेम गो हीरा। दीन्हे नृप नानाबिधि चीरा।।___अर्थ____उस अवसर पर जो जिस प्रकार आया और जिसके मन को जो अच्छा लगा, राजा ने उसे वही दिया। हाथी, रथ, घोड़े, सोना, गौएँ, हीरे और भाँति_ भाँति के वस्त्र राजा ने दिये।

मन संतोषे सबन्हि के जहँ तहँ देहिं असीस। सकल तनय चिर जीवहुँ तुलसीदास के ईस।।___ अर्थ___राजा ने सबके मन को संतुष्ट किया। [ इसी से ] सब लोग जहाँ_तहाँ आशीर्वाद दे रहे थे कि तुलसीदास के स्वामी सब पुत्र ( चारों राजकुमार ) चिरंजीवी ( दीर्घायु हों )।

कछुक दिवस बीते एहि भाँती। जात न जानिअ दिन अरु राती।। नामकरन कर अवसर जानी। भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी।।___अर्थ___इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। दिन और रात जाते हुए जान नहीं पड़ते। तब नामकरण_ संस्कार का समय जानकर राजा ने ज्ञानी मुनि श्रीवसिष्ठजी को बुला भेजा।

करि पूजा भूपति अस भाषा। धरिअ नाम जो मुनि गुनि राखा।। इन्ह के नाम अनेक अनूपा। मैं नृप कहब स्वमति अनुरूपा।।___ अर्थ___मुनि की पूजा करके राजा ने कहा___ हे मुनि ! आपने मन में जो विचार रखे हों, वे नाम रखिये। [ मुनि ने कहा___] हे राजन् ! इनके अनेक अनुपम नाम हैं, फिर भी मैं अपनी बुद२ के अनुसार कहूँगा।

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी।। सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक विश्रामा।।___ अर्थ___ ये जो आनंद के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस ( आनंदसिन्धु ) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन ( आपके सबसे बड़े पुत्र ) का नाम ‘राम' है, जो सुख का भवन और संपूर्ण लोकों को शान्ति देनेवाला है।

बिस्व भरन पोषण कर जोई। ताकर नाम भरत अस होई।। जाके सुमिरन तें रिपु नासा। नाम सत्रुहन बेद प्रकासा।।___अर्थ___ जो संसार का भरण_पोषण करते हैं, उन ( आपके दूसरे पुत्र ) का नाम ‘भरत’ होगा। जिनके स्मरणमात्र से शत्रु का नाश होता है, उनका वेदों में प्रसिद्ध ‘शत्रुध्न’ नाम है।

लच्छन धाम राम प्रिय सकल जगत आधार। गुरु बसिष्ट तेहि राखा लछिमन नाम उदार।।___ अर्थ___जो शुभ लक्षणों के धाम, श्रीरामजी के प्यारे और सारे जगत् के आधार हैं, गुरु वसिष्ठजी ने  उनका ‘लक्ष्मण’ ऐसा श्रेष्ठ नाम रखा।

धरे नाम गुर हृदयँ बिचारी। बेद तत्व नृप तव सुत चारी।। मुनि धन जन सरबस सिव प्राना। बाल केलि रस तेहिं सुख माना।।___ अर्थ___गुरुजी ने हृदय में विचारकर ये नाम रखे [ और कहा__] हे राजन् ! तुम्हारे चारों पुत्र वेद के तत्व ( साक्षात् परात्पर भगवान् ) हैं। जो मुनियों के धन, भक्तों के सर्वस्व और शिवजी के प्राण हैं, उन्होंने [ इस समय तुमलोगों के प्रेमवश ] बाललीला के रस में सुख माना है।

बारेहि ते निज हित पति जानी। लछिमन राम चरन रति मानी।। भरत सत्रुहन दूनउ भाई। प्रभु सेवक जसि प्रीति बड़ाई।।___ अर्थ___ बचपन से ही श्रीरामचन्द्रजी को अपना परम हितैषी स्वामी जानकर लक्ष्मणजी ने उनके चरणों में प्रीति जोड़ ली। भरत और शत्रुध्न दोनो भाइयों में स्वामी और सेवक की जिस प्रीति की प्रशंसा है वैसी प्रीति हो गयी।

स्याम गौर सुंदर दोउ जोरी। निरखहिं छबि जननीं तृन तोरी।। चारिउ सील रूप गुन धामा। तदपि अधिक सुखसागर रामा।।___ अर्थ___ श्याम और गौर शरीरवाली दोनों सुन्दर जोड़ियों की शोभा को देखकर माताएँ तृण तोड़ती हैं [ जिसमें दीठ न लग जाय ] । यों तो चारों पुत्र शील, रूप और गुण के धाम हैं, तो भी सुख के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी सबसे अधिक हैं।

हृदयँ अनुग्रह इंदु प्रकासा। सूचत किरन मनोहर हासा।। कबहुँ उछंग कबहुँ पर पलना। मातु दुलारइ कहि प्रिय ललना।।___ अर्थ___ उनके हृदय में कृपारूपी चन्द्रमा प्रकाशित है। उनकी मन को हरनेवाली हँसी उस ( कृपारूपी चन्द्रमा ) की किरणों को सूचित करती है। कभी गोद में [ लेकर ] और कभी उत्तम पालने में [ लिटाकर ] माता ‘प्यारे ललना !’ कहकर दुलार करती है।

ब्यापक ब्रह्म निरंजन निर्गुन बिगत बिनोद। सो अज प्रेम भगति बस कौसल्या कें गोद।।___ अर्थ___जे सर्वव्यापक, निरंजन ( मायारहित ), निर्गुण, विनोदरहित और अजन्मा ब्रह्म हैं, वही प्रेम और भक्ति के वश कौसल्याजी की गोद में [ खेल रहे ] हैं।

काम कोटि छबि स्याम सरीरा। नील कंज बारिद गंभीरा।। अरुन नयन पंकज नख जोती। कमल दलन्हि बैठे जनु मोती।।___अर्थ___उनके नीलकमल और गंभीर ( जल से भरे हुए )  मेघ के समान श्याम शरीर में करोड़ों कामदेवों की शोभा है। लाल_लाल चरणकमलों की नखों की [ शुभ्र ] ज्योति ऐसी मालूम होता है जैसे [ लाल ] कमल के पत्तों पर मोती स्थिर हो गये हों।

रेख कुलिस ध्वज अंकुस सोहे। नूपुर धुनि सुनि मुनि मन मोहे।। कटि किंकिनी उदर त्रय रेखा। नाभि गभीर जान जेहिं देखा।।___ अर्थ____  [ चरणतलों में ] वज्र, ध्वजा और अंकुश के चिह्न शोभित हैं। नूपुर ( पैंजनी ) की ध्वनि सुनकर मुनियों का भी मन मोहित हो जाता है। कमर में करधनी और पेट पर तीन रेखाएँ ( त्रिवली ) हैं। नाभि की गम्भीरता को तो वही जानते हैं जिन्होंने उसे देखा है।

भुज बिसाल भूषन जुत भूरी। हियँ हरि नख अति सोभा रूरी।। उर मनिहार पदिक की सोभा। बिप्र बरन देखत मन लोभा।।___अर्थ___बहुत से आभूषणों से सुशोभित विशाल भुजाएँ हैं। हृदय पर बाघ के नख की बहुत ही निराली छटा है। छाती पर रत्नों से युक्त मणियों के हार की शोभा और ब्राह्मण ( भृगु ) के चरणचिह्न को देखते ही मन लुभा जाता है।

कंबु कंठ अति चिबुक सुहाई। आनन अमित मदन छबि छाई।। दुइ दुइ दसन अधर अरुनारे। नासा तिलक को बरनै पारे।।___अर्थ___ कण्ठ शंख के समान ( उतार_चढ़ाववाला, तीन रेखाओं से सुशोभित ) है और ठोड़ी बहुत ही सुन्दर है। मुख पर असंख्य कामदेवों की छटा छा रही है। दो_दो सुंदर दँतुलियाँ हैं, लाल_लाल ओठ हैं। नासिका और तिलक [ के सौन्दर्य ] का तो वर्णन ही कौन कर सकता है।

सुंदर श्रवन सुचारु कपोला। अति प्रिय मधुर तोतरे बोला।। चिक्कन कच कुंचित गभुआरे। बहु प्रकार रचि मातु सँवारे।।___ अर्थ___सुन्दर कान और बहुत ही सुन्दर गाल हैं, मधुर तोतले शब्द बहुत ही प्यारे लगते हैं। जन्म के समय से रखे हुए चिकने और घुँघराले बाल हैं, जिनको माता ने बहुत प्रकार से सँवार दिया है।

पीत झगुलिआ रवि पहिराई। जानु पानि बिचरनि मोहि भाई।। रूप सकहिं नहिं कहि श्रुति सेषा. सो जानइ सपनेहुँ जेहिं देखा।।___शरीर पर पीली झँगुली पहनायी हुई है। उनका घुटनों और हाथों के बल चलना मुझे बहुत ही प्यारा लगता है। उनके रूप का वर्णन वेद और शेषजी भी नहीं कर सकते। उसे वही जानता है जिसने कभी स्वप्न में भी देखा हो।

सुख संदोह मोह पर ग्यान गिरा गोतीत। दंपति परम प्रेम बस कर सिसुचरित पुनीत।।___ अर्थ___जो सुख के पुंज, मोह से परे तथा ज्ञान, वाणी और इन्द्रियों से अतीत है, वे भगवान् दशरथ_कौसल्या के अत्यन्त प्रेम के वश होकर पवित्र बाललीला करते हैं।

एहि बिधि राम जगत पितु माता। कोसलपुर बासिन्ह सुखदाता।। जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी। तिन्ह की यह गति प्रगट भवानी।।___ अर्थ____ इस प्रकार [ संपूर्ण ] जगत् के माता_पिता श्रीरामजी अवधपुर के निवासियों को सुख देते हैं। जिन्होंने श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में प्रीति जोड़ी है, हे भवानी ! उनकी यह प्रत्यक्ष गति है [ कि भगवान् उनके प्रेमवश बाललीला करके उन्हें आनंद दे रहे हैं।

रघुपति बिमुख जतन कर कोरी। कवन सकइ भव बंधन छोरी।। जीव चराचर बस कै राखे। सो माया प्रभु सों भय भाखे।।___ अर्थ___ श्रीरघुनाथजी से विमुख रहकर मनुष्य चाहे करोड़ों उपाय करे, परन्तु उसका संसारबंधन कौन छुड़ा सकता है। जिसने सब चराचर जीवों को अपने वश में कर रखा है, वह माया भी प्रभु से भय खाती है।

भृगुटि बिलास नचावइ ताही। अस प्रभु छाड़ि भजिअ कहु काही।। मन क्रम बचन छाड़ि चतुराई। भजत कृपा करिहहिं रघुराई।।___अर्थ___भगवान् उस माया को भौंह के इशारे पर नचाते हैं। ऐसे प्रभु को छोड़कर कहो, [ और ] किसका भजन किया जाय। मन, वचन और कर्म से चतुराई छोड़कर भजते ही श्रीरघुनाथजी कृपा करेंगे।

एहि बिधि सिसुबिनोद प्रभु कीन्हा। सकल नगरबासिन्ह सुख दीन्हा।। लै उछंग कबहुँक हलरावै। कबहुँ पालने घालि सुलावै।।___अर्थ___इस प्रकार प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने बालक्रीड़ा की और समस्त नगरवासियों को सुख दिया। कौसल्याजी कभी उन्हें गोद में लेकर हिलाती_डुलाती और कभी पालने में लिटाकर झुलाती थीं।

प्रेम मगन कौसल्या निसि दिन जात न जान। सुत सनेह बस माता बालचरित कर गान।।___ अर्थ___ प्रेम में मग्न कौसल्याजी रात और दिन का बीतना नहीं जानती थीं। पुत्र के स्नेहवश माता उनके बालचरित्रों का गान किया करतीं।

एक बार जननी अन्हवाए। करि सिंगार पलना पौढ़ाए।। निज कुल इष्टदेव भगवाना। पूजा हेतु कीन्ह अस्नाना।।___ अर्थ___एक बार माता ने श्रीरामचन्द्रजी को स्नान कराया और श्रृंगार करके पालने पर पौढ़ा दिया। फिर अपने कुल के इष्टदेव भगवान् की पूजा के लिये स्नान किया।

करि पूजा नैवेद्य चढ़ावा। आपु गई जहँ पाक बनावा।। बहुरि मातु तहवाँ चलि आई। भोजन करत देख सुत जाई।।___ अर्थ___पूजा करके नैवेद्य चढ़ाया और स्वयं वहाँ गयी, जहाँ रसोई बनायी गयी थी। फिर माता वहीं ( पूजा के स्थान में ) लौट आयी, और वहाँ आने पर पुत्र को [ इष्टदेव भगवान् को चढ़ाये हुए नैवेद्य का ] भोजन करते देखा।

गै जननी सिसु पहिं भयभीता। देखा बाल तहाँ पुनि सूता।। बहुरि आइ देखा सुत सोई। हृदय कंप मन धीर न होई।।___अर्थ___ माता भयभीत होकर ( पालने में सोया था, यहाँ किसने लाकर बैठा दिया, इस बात से डरकर ) पुत्र के पास गयी, तो वहाँ बालक को सोया हुआ देखा। फिर [ पूजा_स्थान में लौटकर ] देखा कि वही पुत्र वहाँ [ भोजन कर रहा ] है। उनके हृदय में कम्प होने लगा और मन को धीरज नहीं होता।

इहाँ उहाँ दुइ बालक देखा। मतिभ्रम मोर कि आन बिसेषा।। देखि राम जननी अकुलानी। प्रभु हँसि दीन्ह मधुर मुसुकानी।।___ अर्थ___ [ वह सोचने लगी कि ] यहाँ और वहाँ मैंने दो बालक देखे। यह मेरी बुद्धि का भ्रम है या और कोई विशेष कारण है ? प्रभु श्रीरामचन्द्रजी ने माता तो घबरायी हुई देखकर मधुर मुसकान से हँस दिया।

देखरावा मातहि निज अद्भुत रूप अखंड। रोम रोम प्रति लागे कोटि कोटि ब्रह्मंड।।___ अर्थ___ फिर उन्होंने माता को अपना अखण्ड  अद्भुत रूप दिखलाया, जिसके एक एक रोम में करोड़ों ब्रह्माण्ड लगे हुए हैं।

अगनित रबि ससि सिव चतुरानन। बहु गिरि सरिता सिंधु महि कानन।। काल कर्म गुन ग्यान सुभाऊ। सोउ देखा जो सुना न काऊ।।___ अर्थ___अगनित सूर्य, चन्द्रमा, शिव, ब्रह्मा, बहुत_से पर्वत, नदियाँ, समुद्र, पृथ्वी, वन, काल, कर्म, गुण, ज्ञान और स्वभाव देखे। और वे पदार्थ देखे जो कभी सुने भी न थे।

देखी माया सब बिधि गाढ़ी। अति सभीत जोरें कर ठाढ़ी।। देखा जीव नचावइ जाही। देखि भगति जो छोरइ ताही।।___ अर्थ___सब प्रकार से बलवती माया को देखा कि वह [ भगवान् के सामने ] अत्यन्त भयभीत हाथ जोड़े खड़ी है। जीव को देखा, जिसे वह माया नचाती है और [ फिर ] भक्ति को देखा, जो जीव को [ माया से ] छुड़ा देती है।

तन पुलकित मुख बचन न आवा। नयन मूदि चरननि सिरु नावा।। बिसमयवंत देखि महतारी। भए बहुरि सिसुरूप खरारी।।___ अर्थ___[ माता का ] शरीर पुलकित हो गया, मुख से वचन नहीं निकलता। तब आँखें मूँदकर उसने श्रीरामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाया। माता रो आश्चर्यचकित देखकर खर के शत्रु श्रीरामजी फिर बालरूप हो गये।

अस्तुति करि न जाइ भय माना। जगतपिता मैं सुत करि जाना।। हरि जननी बहुबिधि समुझाई। यह जनि कतहुँ कहसि सुनु माई।।___ अर्थ____[ माता से ] स्तुति भी नहीं की जाती। वह डर गयी कि मैंने जगत्पिता परमात्मा को पुत्र करके जाना। श्रीहरि ने माता को बहुत प्रकार से समझाया [ और कहा___]  हे माता ! सुनो, यह बात कहीं पर कहना नहीं।

बार बार कौसल्या बिनय करइ कर जोरि। अब जनि कबहूँ ब्यापै प्रभु मोहि माया तोरि।।___ अर्थ___ कौसल्याजी बार_बार हाथ जोड़कर विनय करती हैं कि हे प्रभो ! मुझे आपकी माया अब कभी न व्यापे।

बालचरित हरि बहुबिधि कीन्हा। अति आनंद दासन्ह कहँ दीन्हा।। कछुुक काल बीतें सब भाई। बड़े भए परिजन सुखदाई।।___अर्थ___भगवान् ने बहुत प्रकार से बाललीलाएँ कीं और अपने सेवकों को अत्यन्त आनन्द दिया। कुछ समय बताने पर चारों भाई बड़े होकर कुटुम्बियों को सुख देनेवाले हुए।

चूड़ाकरन कीन्ह गुरु जाई। बिप्रन्ह पुनि दछिना बहु पाई।। परम मनोहर चरित अपारा। करत फिरत चारिउ सुकुमारा।।___अर्थ___तब गुरुजी ने जाकर चूड़ाकर्म_संस्कार किया। ब्राह्मणों ने फिर बहुत_सी दक्षिणा पायी। चारों सुन्दर राजकुमार बड़े ही मनोहर अपार चरित्र करते फिरते हैं।

मन क्रम बचन अगोचर जोई। दसरथ अजिर बिचर प्रभु सोई।। भोजन करत बोल जब राजा। नहिं आवत तजि बाल समाजा।।___ अर्थ____ जो मन, वचन और कर्म से अगोचर है, वही प्रभु दशरथजी के आँगन में विचर रहे हैं। भोजन करने के समय जब राजा बुलाते हैं, तब वे अपने बालसखाओं के समाज को छोड़कर नहीं आते।

कौसल्या जब बोलन जाई। ठुमुकु ठुमुकु प्रभु चलहिं पराई।। निगम नेति सिव अंत न पावा। ताहि धरै जननी हठि धावा।।___ अर्थ___ कौसल्याजी दब बुलाने जाती हैं, तब प्रभु ठुमुक_ठुमुक भाग चलते हैं। जिनका वेद ‘नेत्’  ( इतना ही नहीं )  कहकर निरूपण करते हैं और शिवजी ने जिनका अंत नहीं पाया, माता उन्हें हठपूर्वक पकड़ने के लिये दौड़ती है।

धूसर धूरि भरें तनु आए। भूपति बिहसि गोद बैठाए।।____ अर्थ___ वे शरीर में धूल लपटें हुए आए और राजा ने उन्हें हँसकर गोद में बैठा लिया।

भोजन करत चपल चित इत उत अवसरु पाइ।। भाजि चले किलकत मुख दधि ओदन लपटाइ।।___ अर्थ___भोजन करते हैं पर चित्त चंचल है। अवसर पाकर मुँह में दही_भात लपटाये किलकारी मारते हुए इधर_उधर भाग चले।