Wednesday, 31 January 2018

बालकाण्ड

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं।। बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला।।___अर्थ___जिनमें मुनियों के मनरूपी भौंरे बसते हैं, भगवान् के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान् के बायें भाग में सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभा की राशि, जगत् की मूलकारणरूपा आदिशक्ति श्रीजानकीजी सुशोभित हैं।

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी।। भृगुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई।।___अर्थ___जिनके अंश से गुणों की खान अगनित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी ( त्रिदेवों की शक्तियाँ ) उत्पन्न होती हैं रथी जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत् की रचना हो जाती है, वही [ भगवान् की स्वरूपा_शक्ति ] श्रीसीताजी श्रीरामचन्द्रजी की बीसवीं ओर स्थित हैं।

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी।। चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा।।___अर्थ___शोभा के समुद्र श्रीहरि के रूप को देखकर मनु_सतरूपा नेत्रों के पट ( पलकें ) रोके हुए एकटक ( स्तब्ध ) रह गये। उस अनुपम रूप को वे आदरसहित देख रहे थे और देखते_देखते अघाते ही न थे।

हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी।। सिर परसे प्रभु निज तर पंजा। तुरंत उठाए करुनापुंजा।।___अर्थ___आनन्द के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गयी। वे हाथों से भगवान् के चरण पकड़कर दण्ड की तरह ( सीधे ) भूमि पर गिर पड़े। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श क्या और उन्हें तुरंत ही उठा लिया।

बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। मागहु बर जोइ भाव महादानि अनुमानि।।___अर्थ___फिर कृपानिधान भगवान् बोले___मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाये, वही वर माँग लो।

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी।। नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे।।___अर्थ___प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही___हे नाथ ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मन: कामनाएँ पूरी हो गयीं।

एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं। तुम्हहिं देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं।।___अर्थ___फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी ! आपके लिये तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे बड़ी कृपणता ( दीनता ) के कारण वह अत्यंत कठिन मालूम होता है।

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई।। तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई।।___अर्थ___जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में संकोच करता है, क्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है।

सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी।। सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरे नहिं अदेय कछु तोही।।___अर्थ___हे स्वामी ! आप अन्तर्यामी हैं, इसलिये उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरम पूरा कीजिये। [ भगवान् ने कहा___] हे राजन् ! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है।

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ। चहिय  तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।___अर्थ___[ राजा ने कहा___] हे दानियों के शिरोमणि ! हे कृपानिधान ! हे नाथ ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ।

देखि प्रीति सुनी बचन अमोले। एवमस्तु करुणानिधि बोले।। आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई।।___अर्थ___राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य  वचन सुनकर करुणानिधान भगवान् बोले___ ऐसा ही हो। हे राजन् ! मैं अपने समान [ दूसरा ] कहाँ जाकर खोजूँ। अत: स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा।

सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें।। जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोई कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।___ शतरूपाजी को हाथ जोड़े देखकर भगवान् ने कहा___हे देवि ! तुम्हारी जो इच्छा हो सो वर माँग लो। [ शतरूपा ने कहा___] हे नाथ ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु ! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा।

प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहिं सोहाई।। तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।।___अर्थ___परन्तु हो प्रभु ! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तों का हित करनेवाले ! वह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता ( उत्पन्न करनेवाले ), जगत् के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले ब्रह्म हैं।

अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई।। जे निज भगत नाथ तव अहहिं। सो सुख पावहिं जो गति लहहिं।।___अर्थ___ऐसा समझने पर मन में संदेह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण ( सत्य ) है। [ मैं तो यह माँगती हूँ कि ] हे नाथ ! आपके जो निज जन हैं वे जो ( अलौकिक, अखण्ड ) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं।

सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोई निज चरन सनेहू। सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु।।___अर्थ___हे प्रभो ! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणों में प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन_सहन कृपा करके हमें दीजिये।

सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।। जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।___अर्थ___ ( रानी की ) कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्यरचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान् कोमल वचन बोले___तुम्हारे मन में जो कुछ इच्छा है, वह सब मैंने तुमको दिया, इसमें कोई संदेह न समझना।

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटहिं अनुग्रह मोरें।। बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी।।___अर्थ___हे माता ! मेरी कृपा से तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनु ने भगवान् के चरणों की वन्दना करके फिर कहा___ हे प्रभु ! मेरी एक विनती और है।

सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।। मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहिं अधीना।।___अर्थ___आपके चरणों में मुझे वैसी ही प्रीति हो जैसे पुत्र के लिये पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली  [ नहीं रह सकती ], वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे ( आपके बिना न रह सके ) ।

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुणानिधि कहेऊ।। अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी।।___अर्थ___ऐसा वर माँगकर राजा भगवान् के चरण पकड़े रह गये। अब दया के निधान भगवान् ने कहा___ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इन्द्र की राजधानी ( अमरावती ) में जाकर वास करो।

तहँ करि भोग बिसाल, तात गएँ कछु काल पुनि। होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत।।___अर्थ___हे तात ! वहाँ ( स्वर्ग के ) बहुत_से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा।

इच्छामय नरबेष सँवारे। होइहउँ प्रकट निकेत तुम्हारे। अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।___अर्थ___ इच्छानिर्मित मनुष्यरूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात ! मैं अपने अंशोंसहित देह धारण करके भक्तों को सुख देनेवाले चरित्र करूँगा।

जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।। आदिशक्ति जेहि जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।___अर्थ___जिन ( चरित्रों ) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जायँगे। आदिशक्ति यह मेरी [ स्वरूपभूता ] माया भी, जिसने जगत् को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी।

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा।। पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना।।___अर्थ___इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान भगवान् बार बार ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये।

दंपति उर धरि भगति कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला।। समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावती बासा।।___ अर्थ___ वे स्त्री_पुरुष ( राजा_रानी ) भक्तों पर कृपा करनेवाले भगवान् को हृदय में धारण करके कुछ समय तक उस आश्रम में रहे। फिर उन्होंने समय पाकर, सहज ही ( बिना किसी कष्ट के ) शरीर छोड़कर, अमरावती ( इन्द्र की पुरी ) में जाकर वास किया।

यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु। भरद्वाज सुनु अपर पुनि रामजन्म कर हेतु।।[ याज्ञवल्क्यजी कहते है___ ] हे भरद्वाज ! इस अत्यन्त पवित्र इतिहास को शिवजी ने पार्वतीजी से कहा था। अब श्रीराम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो।




Tuesday, 16 January 2018

बालकाण्ड

हरि अनंत हरि कथा अनंता। कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता।। रामचन्द्र के चरित सुहाए। कलप कोटि लगि जाहिं न गाए।।___ अर्थ___ श्रीहरि अनंत हैं ( उनका कोई पार नहीं पा सकता ) और उनकी कथा भी अनंत है; सब संतलोग उसे बहुत प्रकार सो कहते_सुनते हैं। श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाये नहीं जा सकते।

यह प्रसंग मैं कहा भवानी। हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी।। प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी। सेवत सुलभ सकल दुखहारी।।___अर्थ___[ शिवजी कहते हैं कि ] हे पार्वती ! मैंने यह बतलाने के लिये इस प्रसंग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान् की माया से मोहित हो जाते हैं। प्रभु कौतुकी ( लीलामय ) हैं और शरणागत का हित करनेवाले हैं। वे सेवा करने में बहुत सुलभ और सब दुःखों को हरनेवाले हैं।

सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल। अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि।।___अर्थ___देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है जिसे भगवान् की महान् बलवती माया मोहित न कर दे। मन में ऐसा विचारकर उस महामाया के स्वामी ( प्रेरक ) श्रीभगवान् का भजन करना चाहिये।

अपर हेतु सुनु सैलकुमारी। कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी।। जेहि कारन अज अगुन अरूपा। ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा।।____अर्थ___हे गिरिराजकुमारी ! अब भगवान् के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो___मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ___जिस कारण से जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित ( अव्यक्त सच्चिदानन्दघन )ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए।

जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा। बन्धु समेत धरें मुनिबेषा।। जासु चरित अवलोकि भवानी। सती सरीर रहिहु बौरानी।।___अर्थ___जिन प्रभु श्रीरामचन्द्रजी को तुमने भाई लक्ष्मणजी के साथ मुनियों का_सा वेष कारण किये वन में फिरते देखा था और हे भवानी ! जिनके चरित्र देखकर सती के शरीर में तुम ऐसी बावली हो गयी थीं कि___

अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी। तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी।। लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा। सो सब कहिहउँ मति अनुसारा।।__अर्थ___अब भी तुम्हारे उस बावलेन की छाया नहीं मिटती, उन्हीं के भ्रमरूपी रोग के हरण करनेवाले चरित्र को सुनो। उस अवतार में भगवान् ने जो_जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हें कहूँगा।

भरद्वाज सुनि संकर बानी। सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी।। लगे बहुरि बरनै बृषकेतू सो अवतार भयउ जेहि हेतू।।___अर्थ___[ याज्ञवल्क्यजी ने कहा___] हे भरद्वाज ! शंकरजी के वचन सुनकर पार्वतीजी सकुचाकर प्रेमसहित मुस्करायीं। फिर वृषकेतु शिवजी जिस कारण से भगवान् का वह अवतार हुआ था, उसका वर्णन करने लगे।

सो मैं तुम्हें कहब सबु सुनु मुनीस मन लाइ। रामकथा कलिमल हरन मंगल करनि सुहाइ।।___अर्थ___हे मुनीश्वर भरद्वाज ! मैं वह सह तुमसे कहता हूँ, मन लगाकर सुनो। श्रीरामचन्द्रजी की कथा कलियुग के पापों को हरनेवाली, कल्याण करनेवाली और बड़ी सुन्दर है।

स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। तिन्ह तें भा नरसृष्टि अनूपा।। दंपति धरम आचरन नीका। अजहूँ गाँव श्रुति जिन्ह कै लीका।।___अर्थ___स्वायम्भुव मनु और [ उनकी पत्नी ] शतरूपा, जिनसे मनुष्यों की यह अनुपम सृष्टि हुई, इन दोनों पति_पत्नी के धर्म और आचरण बहुत अच्छे थे। आज भी वेद जिनकी मर्यादा का गान करते हैं।

नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू।। लघु सुत नाम प्रियब्रत ताही। बेद पुरान प्रसंसहिं जाही।।___ अर्थ___राजा उत्तानपाद उनके पुत्र थे, जिनके पुत्र [ प्रसिद्ध ]  हरिभक्त ध्रुवजी हुए। उन ( मनुजी ) के छोटे लड़के का नाम प्रियव्रत था, जिसकी प्रशंसा वेद और पुराण करते हैं।

देवहूति पुनि तासु कुमारी। जो मुनि कर्दम कै प्रिय नारी।। आदिदेव प्रभु दीनदयाला। जठर धरेउ जेहिं कपिल कृपाला।।___अर्थ___पुनः देवहूति उनकी कन्या थी, जो कर्दम मुनि की पत्नी हुई और जिन्होंने आदिदेव, दावों पर दया करनेवाले समर्थ एवं कृपालु भगवान् कपिल को गर्भ में धारण किया।

सांख्य सास्त्र जिन्ह प्रगट बखाना। तत्व बिचार निपुन भगवाना।। तेहिं मनु राज कीन्ह बहु काला। प्रभु आयसु सब बिधि प्रतिपाला।।___ अर्थ____तत्वों का विचार करने में अत्यन्त निपुण जिन ( कपिल ) भगवान् ने सांख्यशास्त्र का प्रकट रूप में वर्णन किया, उन ( स्वायम्भुव ) मनुजी ने बहुत समय तक राज किया और सब प्रकार से भगवान् की आज्ञा [ रूप शास्त्रों की मर्यादा ] का पालन किया।

होइ न बिषय बिराग भवन बसत भा चौथपन। हृदयँ बहुत दुख लाग जनम गयउ हरिभगति बिनु।।___अर्थ___घर में रहते बुढ़ापा आ गया, परन्तु विषयों से वैराग्य नहीं होता; [ इस बात की सोचकर ] मन में बड़ा दुःख हुआ कि श्रीहरि की भक्ति बिना जन्म यों ही चला गया।

बरबस राज सुतहि तब दीन्हा। नारि समेत गवन बन कीन्हा।। तीरथ बर नैमिष बिख्याता। अति पुनीत साधक सिधि दाता।।___अर्थ___तब मनुजी ने अपने पुत्र को जबर्दस्ती राज्य देकर स्वयं स्त्रीसहित वन को गमन किया। अत्यन्त पवित्र एवं ताकतों को सिद्धि देने वाला तीर्थों में श्रेष्ठ नैमिषारण्य प्रसिद्ध है।

बसहिं तहाँ मुनि सिद्ध समाजा। तहँ हियँ हरषि चलेउ मनु राजा।। पंथ जात सोहहिं मतिधीरा। ग्यान भगति जनु  धरें सरीरा।।___अर्थ___वहाँ मुनियों और सिद्धों के समूह बसते हैं। राजा मनु हृदय में हर्षित होकर वहाँ चले। वे धीर बुद्धिवाले राजा_रानी मार्ग में जाते हुए ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो ज्ञान और भक्ति ही शरीर धारण किये जा रहे हों।

पहुँचे जाइ धेनुमति तीरा। हरषि नहाने निर्मल नीरा।। आए मिलन सिद्ध मुनि ग्यानी। धरम धुरंधर नृपरिषि जानी।।___अर्थ___[ चलते_चलते ] वे गोमति के किनारे जा पहुँचे। हर्षित होकर उन्होंने निर्मल जल में स्नान किया। उनको धर्म धुरंधर राजर्षि जानकर सिद्ध और ज्ञानी मुनि उनसे मिलने आए।

जहँ तहँ तीरथ रहे सुहाए। मुनिन्ह सकल सादर करवाए।। कृस सरीर मुनिपट परिधाना। सत समाज नित सुनहिं पुराना।।___अर्थ___जहाँ_जहाँ सुन्दर तीर्थ थे, मुनियों ने आदरपूर्वक सभी तीर्थ उनको करा दिये। उनका शरीर दुर्बल हो गया था, वे मुनियों के_से ( वल्कल ) वस्त्र धारण करते थे और संतो के समाज में नित्य पुराण सुनते थे।

द्वादस अच्छर मंत्र पुनि जपहिं सहित अनुराग। बासुदेव पद पंकरुह दंपति मन अति लाग।।___अर्थ___ और द्वादशाक्षर मंत्र ( ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय ) का प्रेमसहित जप करते थे। भगवान् वासुदेव के चरणकमलों में उन राजा_रानी का मन बहुत ही लग गया।

करहिं अहार साक फल कंदा। सुमिरहिं ब्रह्म सच्चिदानन्दा।। पुनि हरि हेतु करन तप लागे। बारि अधार मूल फल त्यागे।।___अर्थ___वे साग, फल और कन्द का आहार करते थे और सच्चिदानन्दब्रह्म का स्मरण करते थे। फिर वे श्रीहरि के लिये तप करने लगे और मूल_फल को त्यागकर केवल जल रे आधार पर रहने लगे।

उर अभिलाष निरंतर होई। देखिअ नयन परम प्रभु सोई।। अगुन अखंड अनंत अनादी। जेहि चिंतहिं परमारथबादी।।___अर्थ___हृदय में निरन्तर यही अभिलाषा हुआ करती कि हम [ कैसे ] उन परम प्रभु को आँखों से देखें, जो निर्गुण, अखण्ड, अनन्त और अनादि हैं और परमार्थवादी ( ब्रह्मज्ञानी, तत्ववेत्ता ) लोग जिसका चिन्तन किया करते हैं।

नेति नेति जेहि बेद निरूपा। निजानंद निरुपाधि अनूपा।। संभु बिरंचि बिष्णु भगवाना। उपजहिं जासु अंस तें नाना।।___अर्थ___जिन्हें वेद ‘नेति_नेति’ ( यह भी नहीं, यह भी नहीं ) कहकर निरूपण करते हैं। जो आनन्दस्वरूप, उपाधिरहित और अनुपम हैं, और जिनके अंश से अनेकों शिव, ब्रह्मा और विष्णुभगवान् प्रकट होते हैं।

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई। भगत हेतु लीलातनु धरई।। जौं यह बचन सत्य श्रुति भाषा। तौं हमार पूजहिं अभिलाषा।।___अर्थ___ऐसे [ महान् ] प्रभु भी सेवक के वश में हैं और भक्तों के लिये [ दिव्य ] विग्रह कारण करते हैं। यदि वेदों में यह वचन सत्य कहा है तो हमारी अभिलाषा भी अवश्य पूरी होगी।

एहि बिधि बीते बरष षट सहस बारि आहार। संबत सप्त सहस्त्र पुनि रहे समीर आधार।।___अर्थ___इस प्रकार जल का आहार [ करके तप ] करते छः हजार वर्ष बीत गये। फिर सात हजार वर्ष वे वायु के आधार पर रहे।


बरष सहस दस त्यागेउ सोऊ। ठाढ़े रहे एकपद दोऊ।। बिधि हरिहर तप देखि अपारा। मनु समीप आए बहु बारा।।____अर्थ___दस हजार वर्ष तक उन्होंने वायु का आधार भी छोड़ दिया। दोनों एक पैर से खड़े रहे। उनका अपार तप देखकर ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी कई बार मनु के पास आये।

माँगहु हर बहु भाँति लोभाए। परम धीर नहिं चलहीं चलाए।। अस्थिमात्र होइ रहे सरीरा। तदपि मनाग मनहिं नहिं पीरा।।___अर्थ___उन्होंने ने इन्हें अनेक प्रकार से ललचाया और कहा कि कुछ वर माँगो। पर ये परम धैर्यवान् [ राजा_रानी अपने तप से किसी के ] डिगाये नहीं डिगे। यद्यपि उनका शरीर हड्डियों का ढाँचामात्र रह गया था, फिर भी उनके मन में जरा भी पीड़ा नहीं थी।

प्रभु सर्बग्य दास निज जानी। गति अनन्य तापस नृप रानी।। मागु मागु बरु भै नभ बानी। परम गभीर कृपामृत सानी।।___अर्थ___सर्वज्ञ प्रभु ने  अनन्य गति ( आश्रय ) वाले तपस्वी राजा_रानी को ‘निज दास’ जाना। तब परम गम्भीर और कृपालु अमृत से सनी हुई यह आकाशवाणी हुई कि ‘वर माँगो’।

मृतक जिआवनि गिरा सुहाई। श्रवन रंध्र होइयेउर जब आई।। हृष्ट पुष्ट तन भए सुहाए। मानहुँ अबहिं भवन ते आए।___अर्थ___मरे हुए को भी जिलानेवाली सुन्दर वाणी कानों में होकर जब हृदय में आई, तब उनका शरीर ऐसा हृष्ट पुष्ट हो गया मानो अभी घर से आए हैं।

श्रवण सुधा सम बचन सुनि, पुलक प्रफुल्लित गात। बोले मनु करि दण्डवत्, प्रेम न हृदयँ समात।।___अर्थ___कानों से अमृत के समान वचन सुनकर शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। प्रेम हृदय में नहीं समाता था। तब मनुजी दण्डवत् करके बोले___।

सुनु सेवक सुर तरु सुरधेनू। बिधि हरिहर बंदित पद रेनू।। सेवत सुलभ सकल सुखदायक। प्रनतपाल सचराचरनायक।।___अर्थ___हे भक्तों के कल्पवृक्ष व कामधेनु ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश आपके चरणरज की वन्दना करते हैं। आप सेवा से सुलभ और संपूर्ण सुखों को देनेवाले हैं। आप दीनों के पालक  और सब चराचर के स्वामी हैं।

मैं अनाथ हित हम पर नेहू। तौं प्रसन्न होइ यह बर देहू।। जो स्वरूप बस सिव मन माहीं। जेहि कारन मुनि जतन कराहीं।।___अर्थ___हे अनाथों के हितकारी ! यदि हमपर आपका स्नेह है तो प्रसन्न होकर यह वर दीजिये कि आपका जो स्वरूप शिवजी के मन में वास करता है और जिसके निमित्त मुनिलोग उपाय करते हैं।

जो भुसुण्डि मन मानस हंसा। सगुन अगुन जेहि निगम प्रसंसा।। देखहिं हम सो रूप फिर लोचन। कृपा करहु प्रनतारति मोचन।।___अर्थ___जो स्वरूप कागभुशुण्डिजी के मान_सरोवर में हंस के समान विहार करता है, निर्गुण सगुण कहकर वेदों ने जिसकी बड़ाई की है, हे शरणागत के दुःख भंजन करनेवाले ! ऐसी  कृपा कि वह स्वरूप हम देखें।

दंपति बचन परम प्रिय लागे। मृदुल बिनीत प्रेम रस पागे।। भगत बछल प्रभु कृपानिधाना। बिस्वबास प्रगटे भगवाना।।___अर्थ___राजा_रानी के कोमल. विनययुक्त और प्रेमरस में पगे हुए वचन भगवान् को बहुत ही प्रिय लगे। भक्तवत्सल, कृपानिधान, संपूर्ण विश्व के निवासस्थान ( या समस्त विश्व में व्यापक ), सर्वसमर्थ भगवान् प्रकट हो गये।

नील सरोरुह नील मनि नील नीरधर स्याम। लाजहिं तन सोभा निरखि कोटि कोटि कर काम।।___ अर्थ___ भगवान् के नीले कमल, नीलमणि और नीले ( जलयुक्त ) मेघ के समान [ कोमल, प्रकाशमय और सरस ] श्यामवर्ण [ चिन्मय ] शरीर की शोभा देखकर करोड़ों कामदेव लजा जाते हैं।

सरद मयंक बदन छबि सींवा। चारु कपोल चिबुक दर ग्रीवा।। अधर अरुन रद सुंदर नासा। बिधु कर निकर बिनिंदक हासा।।___ अर्थ___उनका मुख शरद् [ पूर्णिमा ] के चन्द्रमा को समान छवि की सीमास्वरूप था। जाल और ठोड़ी सुन्दर थे, गला शंख को समान ( त्रिरेखायुक्त, चढ़ाव_उतारवाला ) था। लाल ओंठ, दाँत और नाक अत्यन्त सुन्दर थे। हँसी चन्द्रमा की किरणावली को नीचा दिखानेवाली थी।

नव अंबुज अंबक छबि नीकी। चितवनि ललित भाँवती जी की।। भृकुटि मनोज चाप छबि हारी। तिलक ललाट पटल दुतिकारी।।___ अर्थ___नेत्रों की छबि नये [ खिले हुए ] कमल के समान बड़ी सुन्दर थी। मनोहर चितवत जी को बहुत प्यारी लगता थी। टेढ़ी भौंहें कामदेव के धनुष की शोभा हरनेवाली थी। ललाटपटल पर प्रकाशमय तिलक था।

कुंडल मकर मुकुट सिर भ्राजा। कुटिल केस जनु मधुप समाजा।। उर श्रीबत्स रुचिर बनमाला। पदिक हार भूषन मनिजाला।।___अर्थ____कानों में मकराकृत ( मछली के आकार के ) कुण्डल और सिर पर मुकुट सुशोभित था। टेढ़े ( घुँघराले ) काले बाल ऐसे सघन थे, मानो भौरों के झुंड हों। हृदय पर श्रीवत्स, सुन्दर वनमाला, रत्नजटित हार और मणियों के आभूषण सुशोभित थे।

केहरि कंधर चारु जनेऊ। बाहु बिभूषन सुंदर तेऊ।। करि कर सरिस सुभग भुजदंडा। कटि निषंग कर सर कोदंडा।।___अर्थ___सिंह की_सी गर्दन थी, सुंदर जनेऊ था। भुजाओं में जो गहने थे, वे भी सुन्दर थे। हाथी के सूँड़ के समान ( उतार_चढ़ाववाले ) सुन्दर भुजदण्ड थे। कमर में तरकस और हाथ में बाण और धनुष [ शोभा पा रहे ] थे।

तड़ित बिनिंदक पीत पट उदर रेख बर तीनि। नाभि मनोहर लेति जनु जमीन भवँर छबि छीनि।।___अर्थ___[ स्वर्ण_वर्ण का प्रकाशमय ] पीताम्बर बिजली को लजानेवाला था। पेट पर सुन्दर तीन रेखाएँ ( त्रिवली ) थीं। नाभि ऐसी मनोहर थी, मानो यमुनाजी के भँवरों की छबि को छीने लेती हो।