Wednesday, 31 January 2018

बालकाण्ड

पद राजीव बरनि नहिं जाहीं। मुनि मन मधुप बसहिं जेन्ह माहीं।। बाम भाग सोभति अनुकूला। आदिसक्ति छबिनिधि जगमूला।।___अर्थ___जिनमें मुनियों के मनरूपी भौंरे बसते हैं, भगवान् के उन चरणकमलों का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। भगवान् के बायें भाग में सदा अनुकूल रहनेवाली, शोभा की राशि, जगत् की मूलकारणरूपा आदिशक्ति श्रीजानकीजी सुशोभित हैं।

जासु अंस उपजहिं गुनखानी। अगनित लच्छि उमा ब्रह्मानी।। भृगुटि बिलास जासु जग होई। राम बाम दिसि सीता सोई।।___अर्थ___जिनके अंश से गुणों की खान अगनित लक्ष्मी, पार्वती और ब्रह्माणी ( त्रिदेवों की शक्तियाँ ) उत्पन्न होती हैं रथी जिनकी भौंह के इशारे से ही जगत् की रचना हो जाती है, वही [ भगवान् की स्वरूपा_शक्ति ] श्रीसीताजी श्रीरामचन्द्रजी की बीसवीं ओर स्थित हैं।

छबिसमुद्र हरि रूप बिलोकी। एकटक रहे नयन पट रोकी।। चितवहिं सादर रूप अनूपा। तृप्ति न मानहिं मनु सतरूपा।।___अर्थ___शोभा के समुद्र श्रीहरि के रूप को देखकर मनु_सतरूपा नेत्रों के पट ( पलकें ) रोके हुए एकटक ( स्तब्ध ) रह गये। उस अनुपम रूप को वे आदरसहित देख रहे थे और देखते_देखते अघाते ही न थे।

हरष बिबस तन दसा भुलानी। परे दंड इव गहि पद पानी।। सिर परसे प्रभु निज तर पंजा। तुरंत उठाए करुनापुंजा।।___अर्थ___आनन्द के अधिक वश में हो जाने के कारण उन्हें अपने देह की सुधि भूल गयी। वे हाथों से भगवान् के चरण पकड़कर दण्ड की तरह ( सीधे ) भूमि पर गिर पड़े। कृपा की राशि प्रभु ने अपने करकमलों से उनके मस्तकों का स्पर्श क्या और उन्हें तुरंत ही उठा लिया।

बोले कृपानिधान पुनि अति प्रसन्न मोहि जानि। मागहु बर जोइ भाव महादानि अनुमानि।।___अर्थ___फिर कृपानिधान भगवान् बोले___मुझे अत्यन्त प्रसन्न जानकर और बड़ा भारी दानी मानकर, जो मन को भाये, वही वर माँग लो।

सुनि प्रभु बचन जोरि जुग पानी। धरि धीरजु बोली मृदु बानी।। नाथ देखि पद कमल तुम्हारे। अब पूरे सब काम हमारे।।___अर्थ___प्रभु के वचन सुनकर, दोनों हाथ जोड़कर और धीरज धरकर राजा ने कोमल वाणी कही___हे नाथ ! आपके चरणकमलों को देखकर अब हमारी सारी मन: कामनाएँ पूरी हो गयीं।

एक लालसा बड़ि उर माहीं। सुगम अगम कहि जाति सो नाहीं। तुम्हहिं देत अति सुगम गोसाईं। अगम लाग मोहि निज कृपनाईं।।___अर्थ___फिर भी मन में एक बड़ी लालसा है। उसका पूरा होना सहज भी है और अत्यन्त कठिन भी, इसी से उसे कहते नहीं बनता। हे स्वामी ! आपके लिये तो उसका पूरा करना बहुत सहज है, पर मुझे बड़ी कृपणता ( दीनता ) के कारण वह अत्यंत कठिन मालूम होता है।

जथा दरिद्र बिबुधतरु पाई। बहु संपति मागत सकुचाई।। तासु प्रभाउ जान नहिं सोई। तथा हृदयँ मम संसय होई।।___अर्थ___जैसे कोई दरिद्र कल्पवृक्ष को पाकर भी अधिक द्रव्य माँगने में संकोच करता है, क्योंकि वह उसके प्रभाव को नहीं जानता, वैसे ही मेरे हृदय में संशय हो रहा है।

सो तुम्ह जानहु अंतरजामी। पुरवहु मोर मनोरथ स्वामी।। सकुच बिहाइ मागु नृप मोही। मोरे नहिं अदेय कछु तोही।।___अर्थ___हे स्वामी ! आप अन्तर्यामी हैं, इसलिये उसे जानते ही हैं। मेरा वह मनोरम पूरा कीजिये। [ भगवान् ने कहा___] हे राजन् ! संकोच छोड़कर मुझसे माँगो। तुम्हें न दे सकूँ ऐसा मेरे पास कुछ भी नहीं है।

दानि सिरोमनि कृपानिधि नाथ कहउँ सतिभाउ। चहिय  तुम्हहि समान सुत प्रभु सन कवन दुराउ।।___अर्थ___[ राजा ने कहा___] हे दानियों के शिरोमणि ! हे कृपानिधान ! हे नाथ ! मैं अपने मन का सच्चा भाव कहता हूँ कि मैं आपके समान पुत्र चाहता हूँ।

देखि प्रीति सुनी बचन अमोले। एवमस्तु करुणानिधि बोले।। आपु सरिस खोजौं कहँ जाई। नृप तव तनय होब मैं आई।।___अर्थ___राजा की प्रीति देखकर और उनके अमूल्य  वचन सुनकर करुणानिधान भगवान् बोले___ ऐसा ही हो। हे राजन् ! मैं अपने समान [ दूसरा ] कहाँ जाकर खोजूँ। अत: स्वयं ही आकर तुम्हारा पुत्र बनूँगा।

सतरूपहि बिलोकि कर जोरें। देबि मागु बरु जो रुचि तोरें।। जो बरु नाथ चतुर नृप मागा। सोई कृपाल मोहि अति प्रिय लागा।।___ शतरूपाजी को हाथ जोड़े देखकर भगवान् ने कहा___हे देवि ! तुम्हारी जो इच्छा हो सो वर माँग लो। [ शतरूपा ने कहा___] हे नाथ ! चतुर राजा ने जो वर माँगा, हे कृपालु ! वह मुझे बहुत ही प्रिय लगा।

प्रभु परंतु सुठि होति ढिठाई। जदपि भगत हित तुम्हहिं सोहाई।। तुम्ह ब्रह्मादि जनक जग स्वामी। ब्रह्म सकल उर अंतरजामी।।___अर्थ___परन्तु हो प्रभु ! बहुत ढिठाई हो रही है, यद्यपि हे भक्तों का हित करनेवाले ! वह ढिठाई भी आपको अच्छी ही लगती है। आप ब्रह्मा आदि के भी पिता ( उत्पन्न करनेवाले ), जगत् के स्वामी और सबके हृदय के भीतर की जाननेवाले ब्रह्म हैं।

अस समुझत मन संसय होई। कहा जो प्रभु प्रवान पुनि सोई।। जे निज भगत नाथ तव अहहिं। सो सुख पावहिं जो गति लहहिं।।___अर्थ___ऐसा समझने पर मन में संदेह होता है, फिर भी प्रभु ने जो कहा वही प्रमाण ( सत्य ) है। [ मैं तो यह माँगती हूँ कि ] हे नाथ ! आपके जो निज जन हैं वे जो ( अलौकिक, अखण्ड ) सुख पाते हैं और जिस परम गति को प्राप्त होते हैं।

सोइ सुख सोइ गति सोइ भगति सोई निज चरन सनेहू। सोइ बिबेक सोइ रहनि प्रभु हमहि कृपा करि देहु।।___अर्थ___हे प्रभो ! वही सुख, वही गति, वही भक्ति, वही अपने चरणों में प्रेम, वही ज्ञान और वही रहन_सहन कृपा करके हमें दीजिये।

सुनि मृदु गूढ़ रुचिर बर रचना। कृपासिंधु बोले मृदु बचना।। जो कछु रुचि तुम्हरे मन माहीं। मैं सो दीन्ह सब संसय नाहीं।।___अर्थ___ ( रानी की ) कोमल, गूढ़ और मनोहर श्रेष्ठ वाक्यरचना सुनकर कृपा के समुद्र भगवान् कोमल वचन बोले___तुम्हारे मन में जो कुछ इच्छा है, वह सब मैंने तुमको दिया, इसमें कोई संदेह न समझना।

मातु बिबेक अलौकिक तोरें। कबहुँ न मिटहिं अनुग्रह मोरें।। बंदि चरन मनु कहेउ बहोरी। अवर एक बिनती प्रभु मोरी।।___अर्थ___हे माता ! मेरी कृपा से तुम्हारा अलौकिक ज्ञान कभी नष्ट न होगा। तब मनु ने भगवान् के चरणों की वन्दना करके फिर कहा___ हे प्रभु ! मेरी एक विनती और है।

सुत बिषइक तव पद रति होऊ। मोहि बड़ मूढ़ कहै किन कोऊ।। मनि बिनु फनि जिमि जल बिनु मीना। मम जीवन तिमि तुम्हहिं अधीना।।___अर्थ___आपके चरणों में मुझे वैसी ही प्रीति हो जैसे पुत्र के लिये पिता की होती है, चाहे मुझे कोई बड़ा भारी मूर्ख ही क्यों न कहे। जैसे मणि के बिना साँप और जल के बिना मछली  [ नहीं रह सकती ], वैसे ही मेरा जीवन आपके अधीन रहे ( आपके बिना न रह सके ) ।

अस बरु मागि चरन गहि रहेऊ। एवमस्तु करुणानिधि कहेऊ।। अब तुम्ह मम अनुसासन मानी। बसहु जाइ सुरपति रजधानी।।___अर्थ___ऐसा वर माँगकर राजा भगवान् के चरण पकड़े रह गये। अब दया के निधान भगवान् ने कहा___ऐसा ही हो। अब तुम मेरी आज्ञा मानकर देवराज इन्द्र की राजधानी ( अमरावती ) में जाकर वास करो।

तहँ करि भोग बिसाल, तात गएँ कछु काल पुनि। होइहहु अवध भुआल तब मैं होब तुम्हार सुत।।___अर्थ___हे तात ! वहाँ ( स्वर्ग के ) बहुत_से भोग भोगकर, कुछ काल बीत जाने पर, तुम अवध के राजा होगे। तब मैं तुम्हारा पुत्र होऊँगा।

इच्छामय नरबेष सँवारे। होइहउँ प्रकट निकेत तुम्हारे। अंसन्ह सहित देह धरि ताता। करिहउँ चरित भगत सुखदाता।।___अर्थ___ इच्छानिर्मित मनुष्यरूप सजकर मैं तुम्हारे घर प्रकट होऊँगा। हे तात ! मैं अपने अंशोंसहित देह धारण करके भक्तों को सुख देनेवाले चरित्र करूँगा।

जे सुनि सादर नर बड़भागी। भव तरिहहिं ममता मद त्यागी।। आदिशक्ति जेहि जग उपजाया। सोउ अवतरिहि मोरि यह माया।।___अर्थ___जिन ( चरित्रों ) को बड़े भाग्यशाली मनुष्य आदरसहित सुनकर, ममता और मद त्यागकर, भवसागर से तर जायँगे। आदिशक्ति यह मेरी [ स्वरूपभूता ] माया भी, जिसने जगत् को उत्पन्न किया है, अवतार लेगी।

पुरउब मैं अभिलाष तुम्हारा। सत्य सत्य पन सत्य हमारा।। पुनि पुनि अस कहि कृपानिधाना। अंतरधान भए भगवाना।।___अर्थ___इस प्रकार मैं तुम्हारी अभिलाषा पूरी करूँगा। मेरा प्रण सत्य है, सत्य है, सत्य है। कृपानिधान भगवान् बार बार ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये।

दंपति उर धरि भगति कृपाला। तेहिं आश्रम निवसे कछु काला।। समय पाइ तनु तजि अनयासा। जाइ कीन्ह अमरावती बासा।।___ अर्थ___ वे स्त्री_पुरुष ( राजा_रानी ) भक्तों पर कृपा करनेवाले भगवान् को हृदय में धारण करके कुछ समय तक उस आश्रम में रहे। फिर उन्होंने समय पाकर, सहज ही ( बिना किसी कष्ट के ) शरीर छोड़कर, अमरावती ( इन्द्र की पुरी ) में जाकर वास किया।

यह इतिहास पुनीत अति उमहि कही बृषकेतु। भरद्वाज सुनु अपर पुनि रामजन्म कर हेतु।।[ याज्ञवल्क्यजी कहते है___ ] हे भरद्वाज ! इस अत्यन्त पवित्र इतिहास को शिवजी ने पार्वतीजी से कहा था। अब श्रीराम के अवतार लेने का दूसरा कारण सुनो।




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