Monday, 13 August 2018

बालकाण्ड


अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ। बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ।। धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी। हृदयँ भगति मति सारँगपानी।।___अर्थ___ अवधपुरी में रघुकुलशिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है। वे धर्मधुरंधर, गुणों के भण्डार और ज्ञानी थे। उनके हृदय में सारंगधनुष धारण करनेवाले भगवान् की भक्ति थी, और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी।

कौसल्यादि नारि प्रिय सब आचरन पुनीत। पति अनुकूल प्रेम दृढ़ हरि पद कमल विनीत।।___ अर्थ___उनकी कौसल्या आदि प्रिय रानियाँ सभी पवित्र आचरणवाली थीं। वे [ बड़ी ] विनीत और पति के अनुकूल [ चलनेवाली ] थीं और श्रीहरि के चरणकमलों में उनका दृढ़ प्रेम था।

एक बार भूपति मन माहीं। भै गलानि मोरें सुत नाहीं।। गुर गृह गयउ तुरत महीपाला। चरन लागि करि बिनय बिसाला।।___ अर्थ___एक बार राजा के मन में बड़ी ग्लानि हुई कि मेरे पुत्र नहीं है। राजा तुरंत ही गुरु के घर गये और चरणों में प्रणाम कर बहुत विनय की।

निज दुख सुख सब गुरहि सुनायउ। कहि बसिष्ठ बहुबिधि समुझायउ।। धरहु धीर होइहहिं सुर चारि। त्रिभुवन बिदित भगत भय हारी।।___अर्थ___राजा ने अपना सारा दुःख_सुख गुरु को सुनाया। गुरु वसिष्ठजी ने उन्हें बहुत प्रकार से समझाया [ और कहा___] धीरज धरो, तुम्हारे चार पुत्र होंगे, जो तीनों लोकों में प्रसिद्ध और भक्तों के भय को हरनेवाले होंगे।

सृिंगी रिषिहि बसिष्ठ बोलावा। पुत्रकाम सुभ जग्य करावा।। भगति सहित मुनि आहुति दीन्हें। प्रगटे अगिनि चरू कर लीन्हें।।___ अर्थ___वसिष्ठजी ने श्रृंगी ऋषि को बुलवाया और उनसे शुभ पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया। मुनि के,भक्तिसहित आहुतियाँ देने पर अग्निदेव हाथ में चरु ( हविष्यान्न खीर ) लिये प्रकट हुए।

जो बसिष्ठ कछु हृदयँ बिचारा। सकल काजु भा सिद्ध तुम्हारा।। यह हबि बाँटि देहु नृप जाई। जथा जोग जेहि भाग बनाई।।___अर्थ___[ और दशरथ से बोले___ ] वसिष्ठ ने हृदय में जो कुछ विचारा था, तुम्हारा वह सब काम सिद्ध हो गया। हे राजन् ! [ अब ] तुम जाकर इस हविष्यान्न ( पायस ) को, जिसको जैसा उचित हो, वैसा भाग बनाकर बाँट दो।

तब अदृस्य भए पावक सकल सभहि समुझाइ। परमानंद मगन नृप हर्ष न हृदयँ समाइ।।___अर्थ___ तदनन्तर अग्निदेव सारी सभा को समझाकर अन्तर्धान हो गये। राजा परमानन्द में नर्म हो गये, उनके हृदय में हर्ष समाता न था।

तबहिं रायँ प्रिय नारि बोलाईं। कौसल्यादि तहाँ चलि आईं।। अर्ध भाग कौसल्यहि दीन्हा। उभय भाग आधे करि लीन्हा।।___ अर्थ____ उसी समय राजा ने अपनी प्यारी पत्नियों को बुलाया। कौसल्या आदि सब [ रानियाँ ] वहाँ चली आयीं। राजा ने [ पायस ] का आधाभाग कौसल्या को दिया, [ और शेष ] आधे के दो भाग किये।

कैकेई कहँ नृप सो दयऊ। रह्यो सो उभय भाग पुनि भयऊ।। कौसल्या कैकेई हाथ धरि। दीन्ह सुमित्रहि मन प्रसन्न करि।।___अर्थ___वह ( उनमें से एक भाग ) राजा ने कैकेयी को दिया,  शेष जो बच रहा उसके फिर दो भाग हुए और राजा ने उनको कौसल्या और कैकेयी के हाथ पर रखकर ( अर्थात् उनकी अनुमति लेकर ) और इस प्रकार उनका मन प्रसन्न करके सुमित्रा को दिया।

एहि बिधि गर्भसहित सब नारी। भईं हृदयँ हरषित सुख भारी।। जा दिन तें हरि गर्भहिं आए। सकल लोक सुख संपति छाए।।___अर्थ___ इस प्रकार सब स्त्रियाँ गर्भवती हुईं। वे हृदय में बहुत हर्षित हुईं। उन्हें बड़ा सुख मिला। जिस दिन से श्रीहरि [ लीला से ही ] गर्भ में आये, सब लोकों में सुख और सम्पत्ति छा गयी।

मंदिर महँ सब राजहिं रानीं। शोभा सील तेज की खानीं।। सुख जुत कछुक काल चलि गयऊ। जेहिं प्रभु प्रगट सो अवसर भयउ।।___अर्थ___ शोभा, शील और तेज की खान [ बनी हुई ] सब रानियाँ महल में सुशोभित हुईं। इस प्रकार कुछ समय सुखपूर्वक बीता और वह अवसर आ गया जिसमें प्रभु को प्रकट होना था।

जोग लगन ग्रह बार तिथि सकल भए अनुकूल। चर अरु अंतर हर्षजुत राम जनम सुखमूल।।___ अर्थ___ योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि सभी अनुकूल हो गये। जड़ और चेतन सब हर्ष से भर गये। [ क्योंकि ] श्रीराम का जन्म सुख का मूल है।

नौमी तिथि मधुमास पुनीता। सुकल पच्छ अभिजित हरिप्रीता। मध्य दिवस अति सीत न घामा। पावन काल लोक विश्रामा।।___अर्थ___ पवित्र चैत्र का महीना था, नवमी तिथि थी। शुक्लपक्ष और भगवान् का प्रिय अभिजित् मुहूर्त था। दोपहर का समय था। न बहुत सरदी थी, न धूप ( गरमी ) थी। वह पवित्र समय सबलोगों को,शान्ति देनेवाला था।

सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।। बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सुरितामृत धारा।।___अर्थ___ शीतल, मन्द और सुगन्धित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में [ बड़ा ] चाव था। वन फूले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रहीं थीं।

सीतल मंद सुरभि बह बाऊ। हरषित सुर संतन मन चाऊ।। बन कुसुमित गिरिगन मनिआरा। स्रवहिं सकल सरितामृत धारा।।___ अर्थ___ शीतल, मंद और सुगंधित पवन बह रहा था। देवता हर्षित थे और संतों के मन में [ बड़ा ] चाव था। रन उबले हुए थे, पर्वतों के समूह मणियों से जगमगा रहे थे और सारी नदियाँ अमृत की धारा बहा रही थीं।

सो अवसर बिरंचि जब जाना। चले सकल सुर साजि बिमाना।। गगन बिमल संकुल सुर जूथा। गावहिं गुन गंधर्ब बरूथा।।___अर्थ___ जब ब्रह्माजी ने वह ( भगवान् के प्रकट होने का ) अवसर जाना तब [ उनके समेत ] सारे देवता विमान सजा_ सजाकर चले। निर्मल आकाश देवताओं के समूहों से भर गया। गन्धर्वों का दल गुणों का गान करने लगे।

बरसहिं सुमन सुअंजुलि साजी।गहगहि गगन दुंदुभि बाजी।। अस्तुति करहिं नाग मुनि देवा। बहुबिधि लावहिं निज निज सेवा।।___ अर्थ___ और सुन्दर अंजुलियों में सजा_ सजाकर पुष्प बरसाने लगे। नाग, मुनि और देवता स्तुति करने लगे और बहुत प्रकार से अपनी_ अपनी सेवा ( उपहार ) भेंट करने लगे।

सुर समूह बिनती करि पहुँचे निज निज धाम। जगनिवास प्रभु प्रगटे अखिल लोक बिश्राम।।___अर्थ___देवताओं के समूह विनती करके अपने_ अपने लोक में जा पहुँचे। समस्त लोकों को शान्ति देनेवाले, जगदाधार प्रभु प्रकट हुए।

भए प्रगट कृपाला दीनदयाला कौसल्या हितकारी। हरषित महतारी मुनि मन हारी अद्भुत रूप बिचारी।। लोचन अभिरामा तनु घनस्यामा निज आयुध भुज चारी। भूषन बनमाला नयन बिसाला सोभासिंधु खरारी।।___ अर्थ___दीनों पर दया करनेवाले, कौसल्याजी के हितकारी कृपालु प्रभु प्रकट हुए। मुनियों के मन को हरनेवाले उनके अद्भुत रूप का विचार करके माता हर्ष से भर गयी। नेत्रों को,आनंद देनेवाला मेघ के समान श्यामशरीर था; चारों भुजाओं में अपने ( खास ) आयुध [ धारण किये हुए ] थे; [ दिव्य ] आभूषण और वनमाला पहने थे; बड़े_बड़े नेत्र थे। इस प्रकार शोभा के समुद्र तथा खर राक्षस को मारनेवाले भगवान् प्रकट हुए।

कह दुइ कर जोरी अस्तुति तोरी केहि बिधि करौं अनंता। माया गुन ग्यानातीत अमाना बेद पुरान भनंता।। करुना सुख सागर सब गुन आगर जिहि गावहिं श्रुति संता। सो मम हित लागी जन अनुरागी भयउ प्रगट श्रीकंता।।___ अर्थ___ दोनों हाथ जोड़कर माता कहने लगी___ हे अनंत ! मैं किस प्रकार तुम्हारी स्तुति करूँ। वेद और पुराण तुमको माया, गुण और ज्ञान से परे और परिमाणरहित बतलाते हैं। श्रुतियाँ और संतजन दया और सुख का समुद्र, सब गुणों का धाम कहकर जिनका गान करते हैं, वही भक्तों पर प्रेम करनेवाले लक्ष्मीपति भगवान् मेरे कल्याण के लिये प्रकट हुए हैं।

ब्रह्मांड निकाया निर्मित माया रोम रोम प्रति बेद कहै। मम उर सो बासी यह उपहासी सुनत धीर मति थिर न रहै। उपजा जब ज्ञाना प्रभु मुसकाना चरित्र बहुत बिधि कीन्ह चहै। कहि कथा सुहाई मातु बुझाई जेहि प्रकार सुत प्रेम लहै।।___अर्थ___ वेद कहते हैं कि तुम्हारे प्रत्येक रोम में माया के रचे हुए अनेकों ब्रह्माण्डों के समूह [ भरे ] हैं। वे तुम मेरे गर्भ मे रहे___ इस हँसी की बात सुनने पर कीर [ विवेकी ] पुरुषों की बुद्धि भी स्थिर नहीं रहती ( विचलित हो जाती है )। जब माता को ज्ञान उत्पन्न हुआ, तब प्रभु मुसकराये। वे बहुत प्रकार के चरित्र करना चाहते हैं। अतः उन्होंने [ पूर्वजन्मकी ] सुन्दर कथा कहकर माता को समझाया, जिससे उन्हें पुत्र का ( वात्सल्य ) प्रेम प्राप्त हो ( भगवान् के प्रति पुत्रभाव हो जाय )।

माता पुनि बोली सो मति डोली तजहु तात यह रूपा। कीजै सिसुलीला अति प्रियसीला यह सुख परम अनूपा।। सुनि बचन सुजाना रोदन ठाना होइ बालक सुरभूपा। यह चरित जे गावहिं हरि पद पावहिं ते न परहिं भवकूपा।।___ अर्थ___माता की वह बुद्धि बदल गयी, तब फिर वह बोली___ हे तात ! यह रूप छोड़कर अत्यंत प्रिय बाललीला करो, [ मेरे लिये ] यह सुख परम अनुपम होगा। [ माताका ] यह वचन सुनकर देवताओं के स्वामी सुजान भगवान् ने बालक [ रूप ] होकर रोना शुरू कर दिया। [ तुलसीदासजी कहते हैं___] जो इस चरित्र का गान करते हैं, वे श्रीहरि का पद पाते हैं और [ फिर ] संसाररूपी कूप में नहीं गिरते।

बिप्र धेनु सुर संत हित लीन्ह मनुज अवतार। निज इच्छा निर्मित तनु माया गुन गो पार।।___ अर्थ___ब्राह्मण, गौ, देवता और संतों के लिये भगवान् ने मनुष्य का अवतार लिया। वे [ अज्ञानमयी, मलिना ] माया और उसके गुण ( सत्, रज, तम )  और [ बाहरी तथा भीतरी ] इन्द्रियों से परे है। उनका [ दिव्य ] शरीर अपनी इच्छा से ही बना है [ किसी कर्मबन्धन से परवश त्रिगुणात्मक भौतिक पदार्थों के द्वारा नहीं ]।

सुनि सिसु रुदन परम प्रिय बानी। संभ्रम चली आईं सब रानी।। हरषित जहँ चहँ धाईं दासी। आनँद मगन सकल पुरबासी।।___ अर्थ___बच्चे के रोने की बहुत ही प्यारी ध्वनि सुनकर सब रानियाँ उतावली होकर दौड़ी चली आयीं। दासियाँ हर्षित होकर जहाँ तहाँ दौड़ीं। सारे पुरवासी आनन्द में मग्न हो गये।

दसरथ पुत्रजन्म सुनि काना। मानहुँ ब्रह्मानंद समाना।। परम प्रेम मन पुलक सरीरा। चाहत उठन करत मतिधीरा।।___अर्थ___राजा दशरथजी पुत्र का जन्म कानों से सुनकर मानो ब्रह्मानंद में समा गये। मन में अतिशय प्रेम है, शरीर पुलकित हो गया। [ आनंद में अधीर हुई ] बुद्धि रो धीरज देकर [ और प्रेम में शिथिल हुए शरीर को संभालकर ] वे उठना चाहते हैं।

जाकर नाम सुनत सुभ होई। मोरें गृह आवा प्रभु सोई।। परमानंद पूरि मन राजा। कहा बोलाई बजावहु बाजा।।___ अर्थ_____ जिनका नाम सुनते ही कल्याण होता है, वही प्रभु मेरे घर आये हैं। [ यह सोचकर ] राजा का मन परम आनंद से पूर्ण हो गया। उन्होंने बाजेवाले को बुलाकर कहा कि बाजा बजाओ।

गुर बसिष्ठ कहँ गयउ हँकारा। आए द्विजन्ह सहित नृपद्वारा।। अनुपम बालक देखेन्हि जाई। रूप रासि गुन रही न सिराई।।___अर्थ___ गुरु वशिष्ठजी के पास बुलावा गया। वे ब्राह्मणों को साथ लिये राजद्वार पर आये। उन्होंने जाकर अनुपम बालक को देखा, जो रूप की राशि है और जिसके गुण कहने ले समाप्त नहीं होते।

नंदीमुख सराध करि जातकरम सब कीन्ह। हाटक धेनु बसन मनि नृप बिप्रन्ह कहँ दीन्ह।।___अर्थ____ फिर राजा ने नान्दीमुख श्राद्ध करके सब जातकर्म_ संस्कार आदि किये और ब्राह्मणों को सोना, गौ, वस्त्र और मणियों का दान दिया।

ध्वज पताक तोरन पुर छावा। कहि न जाइ जेहि भाँति बनावा।। सुमनबृष्टि अकास तें होई। ब्रह्मानंद मगन सब लोई।।___ अर्थ____ध्वजा, पताका और तोरणों से नगर छा गया। जिस प्रकार से वह सजाया गया, उसका तो वर्णन ही नहीं हो सकता। आकाश से फूलों की वर्षा हो रही है, सब लोग ब्रह्मानन्द में मग्न हैं।

बृंद बृंद मिलि चलाईं लोगाईं। सहज सिंगार किएँ उठी धाईं।। कनक कलस मंगल भरि थारा। गावत पैठहिं भूप दुआरा।।____अर्थ____स्त्रियाँ झुंड_ की_ झुंड चलीं। स्वाभाविक श्रृंगार किये ही वे उठ दौडीं। सोने का कलश लेकर और थालों में मंगल द्रव्य भरकर गाती हुई राजद्वार में प्रवेश करती हैं।

करि आरति नेवछावरि करहीं। बार बार सिसु चरनन्हि परहीं। मागध सूत बंदिगन गायक। पावन गुन गावहिं रघुनायक।।____ अर्थ____ वे आरती करके निछावर करती हैं और बार_ बार बच्चे के चरणों पर गिरती हैं। मागध, सूत, वन्दीजन और गवैये रघुकुल के स्वामी के पवित्र गुणों का गान करते हैं।

सर्बस दान दीन्ह सब काहू। जेहि पावा राखा नहिं ताहू।। मृगमद चंदन कुंकुम कीचा। मची सकल बीथिन्ह बिच बीचा।।___ अर्थ___राजा ने सब किसी को भरपूर दान दिया। जिसने पाया उसने भी नहीं रखा ( लुटा दिया ) । [ नगरकी ] सभी गलियों के बीच_ बीच में कस्तूरी, चंदन और केसर की कीच मच गयी।

गृह गृह बाज बधाव सुभ प्रगटे सुषमा कंद। हरषवंत सब जहँ तहँ नगर नारि नर बृंद।।___ अर्थ___
घर_घर मंगल बधावा बजने लगा, क्योंकि शोभा के मूल भगवान् प्रकट हुए हैं। नगर के स्त्री_ पुरुषों के झुंड_ के_ झुंड जहाँ_ तहाँ आनन्दमग्न जो रहे हैं।

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