Tuesday, 24 November 2020

बालकाण्ड

जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु। सो न सकहिं कहि कलप  सत सहस सारदा सेषु।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का वर वेष देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते।





नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछन करहिं मुदित मन रानी।। बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू।।_अर्थ_मंगल_अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही है। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भली_भाँति किये।





पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना।। करि आरति अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा।।_अर्थ_पंचशब्द ( तत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरहि _इन पाँच प्रकार के बाजों का शब्द, पंचध्वनि ( वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि ) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने ( रानी ने ) आरती करके अर्ध्य दिया, तब श्रीरामजी ने मण्डप में गमन किया।





दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे।। समयँ समयँ सुर बरसहिं फूला। सांति पढहिं महिसुर अनुकूला।।_अर्थ_दशरथजी अपनी मण्डली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गये। समय_समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शान्तिपाठ करते हैं।





नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनई न कोई।।  एहि बिधि राम मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए।।_अर्थ_आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी परायी कोई कुछ नहीं सुनता। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी मण्डप में आए और अर्ध्य देकर आसन पर बैठाए गए।





बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं। मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं। ब्रम्हादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं। अवलोकि रघुकुलकमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।_अर्थ_आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलहे को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढ़ेर_के_ढ़ेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेष बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुलरूपी कमल के प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल मान रहे हैं।





नाऊ बारि भाट नट राम निछावरि पाइ। मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।_अर्थ_नाई, बारी, भाट और नट श्रीरामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनन्दित हो सिर नवाकर आशिष देते हैं; उनके हृदय में हर्ष समा नहीं रहा।





मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।। मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।_अर्थ_वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े शोभित हुए, कवि उनके लिये उपमा खोज_खोजकर लजा गये।





लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।। सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।_अर्थ_जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त हो गये और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे।





जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।। सकल भाँति सम साजू समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।_अर्थ_[ वे कहने लगे_] जबसे ब्रह्माजी ने जगत् को उत्पन्न किया, तबसे हमने बहुत विवाह देखे_सुने; परन्तु सब प्रकार से समान साज_समाज और बराबरी के ( पूर्ण समतायुक्त ) समधी तो आज ही देखे।





देवगिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहुँ दिसि माची।। देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।_अर्थ_देवताओं ती सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गयी।  सुन्दर पाँवड़े और अर्ध्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मण्डप में ले आए।





मंडपु बिलोकि बिचित्र रचना रुचिरताँ मुनि मन हरे। निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।। कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही। कौसिकहि पूजत परम प्रीति की रीति तौ न परै कही।।__अर्थ_ मण्डप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुन्दरता से मुनियों के मन भी हरे गये ( मोहित हो गये )। 





सुजान जनकजी ने  अपने हाथों से ला_लाकर सबके लिये सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वसिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती।




बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस। दिए दिव्य आसन सबहि सब सन लही असीस।।_अर्थ_राजा ने बामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिये और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया।





बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा।। कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई।।_अर्थ_फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश ( महादेवजी ) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदनन्तर [ उनके सम्बन्ध से ] अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की।




पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती।। आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुँह एक उछाहू।।_ अर्थ_राजा जनकजी ने सब बरातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिये। मैं एक मुख से उत्साह का क्या वर्णन करूँ।





सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी।। बिधि हरिहरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ।।_अर्थ_राजा जनक ने दान, मान_सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्रीरघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,





कपट विप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सच पाएँ।। पूजे जनक देवसम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचाने।।_अर्थ_ वे कपट से ब्राह्मणों का सुन्दर वेष बनाये बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहचाने भी उन्हें सुन्दर आसन दिये।





 पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरि भई। आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनंदभई।। सुर लखे राम सुजानपूजे मानसिक आसन दए। अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए।।_अर्थ_कौन किसको जाने_पहिचाने ! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है।  सुजान ( सर्वज्ञ ) श्रीरामचन्द्रजी ने देवताओं को पहचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिये। प्रभु का शील_स्वभाव देखकर देवगण मन में में बहुत आनंदित हुए।





रामचन्द्र मुख चन्द छबि लोचन चारु चकोर। करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के मुखरूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुन्दर नेत्ररूपी चकोर आदरपूर्वक पान कर रहे हैं; प्रेम और आनन्द कम नहीं है ( अर्थात् बहुत है )।





समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए।। बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित  मुनि आयसु पाई।।__अर्थ_समय देखकर वसिष्ठजी ने शतानंदजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आये। वसिष्ठजी ने कहा_अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र ले आइये। मुनि की आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले।





रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी।। विप्रवधू कुलविप्र बोलाई। करि कुलरीति सुमंगल गाई।।_अर्थ_बुद्धिमति रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों सहित बहुत प्रसन्न हुई। ब्राह्मणों ती स्त्रियों और कुल की बूढ़ी स्त्रियों को बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुन्दर मंगलगीत गाये।




नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुन्दरी स्यामा।। तिन्हहिं देखि सुख पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहुँ ते प्यारी।।_अर्थ_श्रेष्ठ देवांगनाए, जो सुन्दर मनुष्य_स्त्रियों के वेष में हैं, सभी स्वभाव से ही सुन्दरि और स्यामा ( सोलह वर्ष की अवस्थावाली ) हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहचान के ही वे सबको प्राणों से प्यारी हो रही हैं।





बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी।। सीय सँवारि समाज बनाई। मुदित मंडपहिं चली लवाई।।_अर्थ_उन्हे पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार_बार उनका सम्मान करती हैं। [ रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ ] सीताजी का श्रृंगार करके, मण्डली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें लिवा चलीं।




चलि ल्याइ  सीतहिं सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं। नवसप्त साजें सुन्दरीं सब मत्त कुंजर गामिनीं। कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं। मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं।।_अर्थ_सुन्दर मंगल का साज सजकर [ रनिवास की ] स्त्रियाँ  और सखियाँ आदरसहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी सुन्दरियाँ सोलहों श्रृंगार किये हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलनेवाली हैं। उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें लजा जाती हैं। पायजेब, पैंजनी और सुन्दर कंकण ताल की गति पर बड़े सुन्दर बज रहे हैं।





सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय। छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय।।_अर्थ_सहज ही सुन्दरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबिरूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात् मनोहर शोभारूपीस्त्री सुुशोभित है।





सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघुमति बहुत मनोहरताई।। आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता।।_अर्थ_ सीताजी की सुन्दरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बरातियों को आते देखा।





सबहिं मनहिं मन कीन्ह प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा।। हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता।।_ अर्थ_ सभी ने उन्हें मन_ही_मन प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजी को देखकर तो सभी पूर्णकाम ( कृतकृत्य ) हो गये। राजा दशरथजी पुत्रोंसहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना आनंद था कहा नहीं जा सकता।
सुर प्रणाम करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला।। गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नरी।।_ अर्थ_ देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर नारी प्रेम में मगन हैं।





एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।। तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह आचारू।।_अर्थ_इसप्रकार सीताजी मण्डप में आयीं। मुनिराज बहुत ही आनंदित होकर शांतिपाठ कर रहे हैं। उस अवसर की सब रीति, व्वहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किये।





आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहिं। सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं।। मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं। भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं।।_अर्थ_कुलाचार करके गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी और ब्राह्मणों की पूजा करा रहे हैं [ अथवा ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश की पूजा करवा रहे हैं ] । देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी मांगलिक पदार्थ की मुनि जिस समय मन में चाहमात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन पदार्थों को लिये तैयार रहते हैं।




कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सब सादर कियो। एहि भाँति देव पुजाइ सीतहिं सुभग सिंहासन दियो।। सिय राम अवलोकनि परस्पर प्रेम काहुँ न लखि परै। मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसे करैं।।_अर्थ_स्वयं सूर्यदेव प्रेमसहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं की पूजा करा के मुनियों ने सीताजी को सिंहासन दिया। श्रीसीताजी और श्रीरामजी का आपस में एकदूसरे का देखना तथा तथा उनका परस्पर प्रेम किसी को पता नहीं चल रहा है। जो बात मन, बुद्धि और वाणी से भी परे ह, उसे कवि क्योंकर प्रगट करे?





जय धुनि बंदि बेद धुनि मंगल गान निसान। सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सरतरु सुमन सुजान।।_अर्थ_जयध्वनि, बन्दिध्वनि, वेदध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं।





कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं।। जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।_अर्थ_वर और कन्या सुन्दर भाँवरे दे रहे हैं। सबलोग आदरपूर्वक [ उन्हें देखकर ] नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा होगी वही थोड़ी होगी।





राम सीय सुन्दर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खम्भन्ह माहीं।। मनहुँ मदन रति धरि बहुरूपा। देखत राम बिआह अनूपा।।_अर्थ_श्रीरामजी और श्रीसीताजी की सुन्दर परछाई मणियों के खम्भों में जगमगा रही है, मानो कामदेव और रति बहुत_से रूप धारणकरके  श्रीरामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं।

दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरि।। भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।_अर्थ_उन्हें ( कामदेव और रति को ) दर्शन की लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं है ( अर्थात् बहत हैं ); इसलिये वे बार_बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखनेवाले आनंदमग्न हो गये और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गये।





प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निबेरीं।। राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जात बिधि केहीं।।_अर्थ_मुनियों ने  आनन्दपूर्वक भाँवरें फिरायीं और नेगसहित सब रीतियों को पूरा किया। श्रीरामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर दे रहे हैं; यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती।






अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।। बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।_अर्थ_मानो कमल को लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है। ( यहाँ श्रीराम के हाथ को कमल की, सेंदुर को पराग की, श्रीराम के श्याम भुजाओं को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गयी है ) फिर वसिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब दूलह और दुलहिन एक आसन पर बैठे।





बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए। तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए।। भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा। केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगल महा।।_अर्थ_ श्रीरामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे; उन्हें देखकर दशरथजी मन में बहुत आनंदित हुए। अपने सुकृतरूपी कल्पवृक्ष में नये फल [ आये ] देखकर उनका शरीर बारबार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया; सबने कहा कि श्रीरामचन्द्रजी का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मंगल महान् है; फिर भला, वह वर्ण करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है!





तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै। मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै।। कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई। सब रीति प्रीति समेत सो ब्याहि भूप भरतहिं दई।।_अर्थ_तब बसिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का समान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्ति और उर्मिलाजी_इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुशध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया।





जानकी लघु भगिनी सकल सुन्दर सिरोमनि जानि कै। सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहिं सकल बिधि सनमानि कै।। जेहि नामु श्रुतिकीरति सुलोचनि सकल गुन आगरी। सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी।।_अर्थ_जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुन्दरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया; और जिसका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुन्दर नेत्रोंवाली, सुन्दर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर है, उनको राजा ने शत्रुध्न को ब्याह दिया। 





अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहिं। सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं।। सुन्दरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं। जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं।।_अर्थ_दूलह और दुलहिनें परस्पर अपने_ अपने अनुरूप जोड़ी को देखकर सकुचते हुए हृदय में हरषित हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुन्दरता की सराहना करते हैं और देवगण फूल बरसा रहे हैं।सब सुन्दरी दुलहिनें सुन्दर दूल्हों के साथ एक ही मण्डप में ऐसी शोभा पा रही हैं, मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ ( जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय ) अपने चारों स्वामियों ( विश्व, तैजस, प्राज्ञ और ब्रह्म ) सहित विराजमान हों।





मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि। जनु पाए महिपालमनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।_अर्थ_ सब पुत्रों को बहुओंसहित देखकर अवधनरेश दशरथजी ऐसे आनन्दित हैं मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं ( यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया और ज्ञानक्रिया ) सहित चारों फल ( अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ) पा गये हों।





जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी।। कहि न जाइ कछु दाइज भूरी।। रहा कनकमनि मंडपु पूरी।।_ अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गयी, उसी रीति से सब राजकुमार विवाहे गये। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती; सारा मंडप सोने और मणियों से भर गया।





कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे।। गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी।।_अर्थ_बहुत से कंबल वस्त्र और भाँति_भाँति के विचित्र रेशमी कपड़े, जो थोड़ी कीमत के न थे ( अर्थात् बहुमूल्य थे ) तथा हाथी, रथ घोड़े, दास,_दासियाँ और गहनों से सजी हुई कामधेनु_सरीखी गायें_





बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा।। लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने।।_अर्थ_ [ आदि ] अनेकों  वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाय। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने देखा है वही जानते हैं। उन्हेंवदेखकर लोकपाल भी सिहा गये। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सबकुछ ग्रहण किया।





दीन्ह जाचकन्ह जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा।। तब कर जोरि जनक मृदु बानी बोले सब बरात सनमानी।।_अर्थ_उन्होंने वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब जनकजी ने हाथ जोड़कर सारी बरात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले_





सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै। प्रमुदित महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै।। सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ। सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ।।_अर्थ_आदर, दान, विनय और बड़ाई के द्वारा सारी बरात का सम्मान कर राजा जनक ने महान् आनन्द के साथ प्रेमपूर्वक  लड़ाकर ( लाड़ करके ) मुनियों के समूह की पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं ( वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे संतुष्ट कर सकता है ); क्या एक अंजलि जल देने से कहीं समुद्र संतुष्ट हो सकता है।





कर जोरि जनक बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों। बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों।। संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए। एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए।।_अर्थ_फिर जनकजी भाई सहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और सुन्दर प्रेम में सानकर मनोहर वचन बोले_हे राजन् ! आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सब प्रकार से बड़े हो गये। इस राज_पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिये हुए सेवक ही समझियेगा।





ए दारिका परिचारिका करि पालिबि करुना नईं। अपराधु छमिबों बोलि पठए बहुत हौं ढ़ीठ्यो कईं।। पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए। कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए।।_अर्थ_ इन लड़कियों को टहलनी मानकर, नयी_नयी दया करके पालन कीजियेगा। मैंने बड़ी ढ़िठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को संपूर्ण सम्मान का निधि कर दिया ( इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के भण्डार ही हो गये )। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं।





बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहिं चले। दुंदुभी जय धुनि  बेद धुनि नगर कौतूहल भले।। तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै। दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै।।_अर्थ_देवतागण फूल बरसा रहे हैं; राजा जनवासे को चले। नगाड़े की ध्वनि, जयध्वनि और वेद की ध्वनि हो रही है; आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल हो रहा है ( आनन्द छा रहा है ), तब मुनिश्वर की आज्ञा पाकर सुंदरी सखियाँ मंगलगान करती हुईं दुलहिनों सहित दूल्हों को लिवाकर कोहबर को चलीं।





पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचित मनु सकुचै न। हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पियासे नैन।।सीताजी बार_बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं; पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके नेत्र सुन्दर मछलियों के छबि को हर रहे हैं।

Sunday, 4 October 2020

बालकाण्ड

मासपरायण दसवाँ विश्राम

कनक कलस मरि कोपर थारा। भाजन ललित अनेक प्रकारा।।  भरे सुधा सम सब पकवाने। नाना भाँति न जाहिं बखाने।।_अर्थ_ [ दूध, शर्बत, ठंडाई और जल आदि से ]  भरकर सोने के कलश तथा जिनका वर्णन नहीं हो सकता ऐसे अमृत के समान भाँति_भाँति के सब पकवानों से भरे हुए परात , थाल आदि अनेक प्रकार के सुन्दर बर्तन







फल अनेक बर बस्तु सुहाईं। हरषि भेंट हित भूप पठाईं।। भूषन बसन महामनि नाना। खग मृग हय गय बहुबिधि जाना।_अर्थ_ उत्तम फल तथा और भी अनेकों सुन्दर वस्तुएँ राजा ने हर्षित होकर भेंट के लिषे भेजीं। गहने, कपड़े, नाना प्रकार की मूल्यवान मणियाँ ( रत्न ), पक्षी, पशु, घोड़े, हाथी और बहुत तरह की सवारियाँ,






मंगल सगुन सुगंध सुहाए। बहुत भाँति महिपाल पठाए।। दधि चिउड़ा उपहार अपारा। भरि भरि काँवरि चले कहारा।।_अर्थ_तथा बहुत प्रकार के सुहावने तथा मंगल द्रव्य और सगुन के पदार्थ राजा ने भेजे। दही चिउड़ा और अगणित उपहार की चीजें काँवरों में भर_भरकर कहार चले।






अगवानन्ह जब दीख बराता। उर आनन्दु पुलक भर गाता।। देखि बनाव सहित अगवाना। मुदित बरातिन्ह हने निसाना।।_अर्थ_अगवानी करनेवालों को जब बरात दिखायी दी, तब उनके हृदय में आनन्द छा गया और शरीर रोमांच से भर गय। अगवानों को सज_धज के साथ देखकर बरातियों ने प्रसन्न होकर नगाड़े बजाये।





हरषि परस्पर मिलन हित कछुक चले बगमेल। जनु आनंद समुद्र दुइ मिलत बिहाइ सुबेल।।_अर्थ_ [ बराती तथा अगवानों में से ] कुछ लोग परस्पर मिलने के लिये हर्ष के मारे बाग छोड़कर ( सरपट ) दौड़ चले,और ऐसे मिले मानो आनन्द के दो समुद्र मर्यादा छोड़कर मिलते हों।





बरषि सुमन सुर सुंदरि गावहिं। मुदित देव दुंदुभि बजावहिं।। बस्तु सकल राखी नृप आगें। बिनय कीन्हि तिन्ह अति अनुरागें।।_अर्थ_ देवसुन्दरियाँ फूल बरसाकर गीत गा रही हैं, और देवता आनंदित होकर नगाड़े बजा रहे हैं। [ अगवानी में आये हुए ] उन लोगों ने सब दशरथजी के आगे रख दीं और अत्यन्त प्रेम से विनती की।





प्रेम समेत रायँ सब लीन्हा। भै बकसीस जाचकन्हि दीन्हा।। करि पूजा मान्यता बड़ाई।। जनवासे कहुँ चले लवाई।।_अर्थ_राजा दशरथजी ने प्रेमसहित सब वस्तुएँ ले लीं, फिर उनकी बख्शीशें होने लगीं और वे याचकों को दे दी गयीं। तदनन्तर पूजा, आदर_सत्कार और बड़ाई करके अगवानलोग उनको जनवासे की ओर लिवा ले चले।





बसन बिचित्र पाँवड़े परहीं। देखि धनदु धन मदु परिहरहीं।। अति सुंदर दीन्हेउ जनवासा। जहँ सब कहँ सब भाँति सुपासा।।_अर्थ_विलक्षण वस्त्रों के पाँवड़े पर रहे हैं, जिन्हें देखकर कुबेर भी अपने धन का अभिमान छोड़ देते हैं। बड़ा सुंदर जनवासा दिया गया, जहाँ सबको सब प्रकार का सुविधा था।





जानि सीय बरात पुर आई। कछु निज महिमा प्रगटि जनाई।। हृदयँ सुमिरि सब सिद्धि बोलाई। भूप पहुनई करन पठाई।।_अर्थ_सीताजी ने बरात जनकपुर में आयी जानकर अपनी कुछ महिमा प्रगट करके दिखलायी। हृदय में स्मरण कर सब सिद्धियों को बुलाया और उन्हें राजा दशरथजी की मेहमानी करने के लिये भेजा।





सिधि सब सिय आयसु अकनि गईं जहाँ जनवास। लिएँ संपदा सकल सुख सुरपुर भोग बिलास।।_अर्थ_सीताजी की आज्ञा सुनकर सब सिद्धियाँ जहाँ जनवासा था वहाँ सारी सम्पदा, सुख और इन्द्रपुरी के भोगविलास को लिये हुए गयीं।





निज निज बास बिलोकि बराती। सुरसुख सकल सुलभ सब भाँती।। विभव भेद कछु कोउ न जाना। सकल जनक कर करहिं बखाना।।_अर्थ_ बरातियों ने अपने_अपने ठहरने के स्थान देखे तो वहाँ देवताओं के सब सुखों को सब प्रकार से सुलभ पाया। इस ऐश्वर्य का कुछ भी भेद कोई जान न सका। सब जनकजी की बड़ाई कर रहे हैं।




सिय महिमा रघुनायक जानी। हरषे हृदय हेतू पहिचानी।। पितु आगमनु सुनत दोउ भाई। हृदयँ न अति आनंदु अमाई।।_अर्थ_श्रीरघुनाथजी यह सब सीताजी की महिमा जानकर और उनका प्रेम जानकर हृदय में हर्षित हुए। पिता दशरथजी के आने का समाचार सुनकर दोनों भाइयों के हृदय में महान् आनन्द था।






सकुचन्ह कहि न सकत गुर पाहीं। पितु दरसन लालचु मन माहीं।। बिस्वामित्र बिनय बड़ि देखी। उपजा उर संतोषु बिसेषी।।_अर्थ_संकोचवश वे गुरु विश्वामित्रजी से कह नहीं सकते थे; परन्तु मन में पिताजी के दर्शनों की लालसा थी। विश्वामित्रजी ने उनकी बड़ी नम्रता देखी, तो उनके हृदय में बहुत संतोष उत्पन्न हुआ।





हरषि बंधु दोउ हृदयँ लगाए। पुलक अंग अंबक जल छाए।। चले जहाँ दसरथु जनवासे।  मनहुँ सरोबर तकेउ पिआसे।।_अर्थ_प्रसन्न होकर उन्होंने हृदय से लगा लिया। उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में ( प्रेमाश्रुओं का ) जल भर गया। वे उस जनवासे को चले, जहाँ दशरथजी थे। मानो सरोवर प्यासे की ओर लक्ष्य करके चला हो।





भूप बिलोके जबहिं मुनि आवत सुतन्ह समेत। उठे हरषि सुखसिंधु महुँ चले थाह सी लेत।।_अर्थ_जब राजा दशरथजी ने पुत्रों सहित मुनि को आते देखा, तब वे हर्षित होकर उठे और सुख के समुद्र में थाह सी लेते हुए चले।





मुनिहि दंडवत् कीन्ह महीसा। बार बार पद रज धरि सीसा।। कौसिक राउ लिए उर लाई। कहि असीस पूछी कुसलाई।।_अर्थ_पृथ्वीपति दशरथजी ने मुनि की चरणधूलि को बारंबार सिर पर चढ़ाकर उनको दण्डवत् प्रणाम किया। 
विश्वामित्रजी ने राजा को उठाकर हृदय से लगा लिया और आशीर्वाद देकर कुशल पूछी।





पुनि दंडवत करत दोउ भाई। देखि नृपति उर सुखु न समाई।। सुत हियँ लाइ दुसह दुख मेटे। मृतक सरीर प्रान जनु भेंटे।।_अर्थ_फिर दोनों भाइयों को दण्डवत्_प्रणाम करते देखकर राजा के हृदय में अपार सुख हो रहा था। पुत्रों को [ उठाकर ] हृदय से लगाकर उन्होंने अपने [ वियोगजनित ] दुःसह दुःख को मिटाया। मानो मृतक शरीर को प्राण मिल गये हों।





पुनि बसिष्ठ पद सिर तिन्ह नाए। प्रेम मुदित मुनिबर उर लाए।। बिप्र बृंद बंदे दुहुँ भाई।  मनभावति  असीसें पाई।।_अर्थ_ फिर उन्होंने बसिष्ठजी के चरणों में सिर नवाया। मुनिश्रेष्ठ  ने प्रेम के आनन्द में उन्हें हृदय से लगा लिया। दोनों भाइयों ने सब ब्राह्मणों की वन्दना की और मनभाये आशीर्वाद पाये।





भरत सहानुज कीन्ह प्रणामा। लिए उठाई लाई उर रामा।। हरषे लखन देखि दोउ भ्राता। मिले प्रेम परिपूरित गाता।।_अर्थ_भरतजी ने छोटे भाई शत्रुध्नसहित श्रीरामचन्द्रजी को प्रणाम किया। श्रीरामजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया। लक्ष्मणजी दोनों भाइयों को देखकर हर्षित हुए और प्रेम से परिपूर्ण हुए शरीर से उनसे मिले।





पुरजन परिजन जातिजन जाचक मंत्री मीत। मिले जथाबिधि सबहि प्रभु परम कृपाल बिनीत।।_अर्थ_तदनन्तर परम कृपालु और विनयी  श्रीरामचन्द्रजी अयोध्यावासियों, कुटुम्बियों, जाति के लोगों, याचकों, मंत्रियों और मित्रों_ सभी से यथायोग्य मिले।





रामहिं देखि बरात जुड़ानी। प्रीति कि रीति न जाति बखानी।। नृप समीप सोहहिं सुत चारी। जनु धन धरमादिक तनुधारी।।_ अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी को देखकर बरात शीतल हुई ( राम के वियोग में सबके हृदय में जो आग जल रही थी, वह शान्त हो गयी)। प्रीति की रीति का बखान नहीं हो सकता। राजा के पास चारों पुत्र ऐसे शोभा पा रहे हैं मानो अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष शरीर धारण किये हुए हों।





सुतन्ह समेत दशरथहि देखी। मुदित नगर नर नारि बिसेषी।। सुमन बरसि सुर हनहिं निसाना। नाकनटीं नाचहिं करि गाना।।_अर्थ_पुत्रोंसहित दशरथजी को देखकर नगर के स्त्री_पुरुष बहुत ही प्रसन्न हो रहे हैं। [ आकाशमें ] देवता फूलों की वर्षा करके नगाड़े बजा रहे हैं और अप्सराएँ गागाकर नाच रही हैं।





सतानंद अरु बिप्र सचिव गन। मागध सूत बिदुष बंदीजन।। सहित बरात राउ सनमाना। आयसु मागि फिरे अगवाना।।_अर्थ_अगवानी में आये हुए शतानन्दजी, अन्य ब्राह्मण, मंत्रीगण, मागध, सूत, विद्वान और भाटों ने बरातसहित राजा दशरथजी का आदर_सत्कार किया। फिर आज्ञा लेकर वे वापस लौटे।





प्रथम बरात लगन ते आई। तातें पुर प्रमोदु अधिकाई।। ब्रह्मानंदु लोग सब लहहीं। बढ़हुँ दिवस निसि बिधि सन कहहीं।।_अर्थ_ बरात लग्न के पहले दिन से पहले आ गयी है, इससे जनकपुर में अधिक आनंद छा रहा है। सब लोग ब्रह्मानंद प्राप्त कर रहे हैं और विधाता से मनाकर कहते हैं कि दिन रात बढ़ जायँ ( बड़े हो जायँ )।





राम सीय सोभा अवधि सुकृत अवध दोउ राज। जहँ तहँ पुरजन  कहहिं अस मिलि नर नारि समाज।।_अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी और सुन्दरता की सीमा हैं और दोनों राजा पुण्य की सीमा हैं, जहाँ_तहाँ जनकपुरवासी स्त्री_पुरुषों के समूह इकट्ठे हो_ होकर यही कह रहे हैं।





जनक सुकृति मूरति बैदेही। दशरथ सुकृति रामु धरें देही।। इन्ह सम काहु न सिव अवराधे। काहुँ न इन्ह समान फल लाधे।।_अर्थ_ जनकजी के सुकृत ( पुण्य ) की मूर्ति जानकीजी हैं और दशरथजी के सुकृत देह धारण किये हुए श्रीरामजी हैं। इन [ दोनों राजाओं ] के समान किसी ने शिवजी की अराधना नहीं की; और न इनके समान किसी ने फल ही पाये।





इन्ह सम कोउ न भयउ जग माहीं। है नहीं कतहूँ होनेउ नाहीं।। हम सब सकल सुकृति कै रासी। भए जग जनमि जनकपुर बासी।।_अर्थ_इनके समान जगत् में न कोई हुआ, न कहीं है, न होने का ही है। हम सब भी संपूर्ण पुण्यों की राशि हैं, जो जगत् में जन्म लेकर जनकपुर के निवासी हुए।





जिन्ह जानकी राम छबि देखी। को सुकृति हम सरिस बिसेषी।। पुनि देखब रघुबीर बिआहू। लेब भली बिधि लोचन लाहू।।_ अर्थ_ और जिन्होंने जानकीजी और श्रीरामचन्द्रजी की छबि देखी है। हमारे सरीखा विशेष पुण्यात्मा कौन होगा ! और अब हम श्रीरघुनाथजी का विवाह देखेंगे और भलीभाँति लोचन का लाभ लेंगे।





कहहिं परस्पर कोकिलबयनीं। एहि बिआहँ बड़ लाभु सुनयनीं।। बड़ें भाग बिधि बात बनाईं। नयन अतिथि होइहहिं दोउ भाई।।_अर्थ_कोयल के समान मधुर बोलनेवाली स्त्रियाँ आपस में कहती हैं कि हे सुन्दर नेत्रोंवाली ! इस विवाह में बड़ा लाभ है। बड़े भाग्य से विधाता ने सब बात बना दी है, ये दोनों भाई हमारे नेत्रों के अतिथि हुआ करेंगे।





बारहिं बार सनेह बस जनक बोलाउब सीय। लेन आइहहिं बंधु दोउ कोटि काम कमनीय।।_अर्थ_जनकजी स्नेहवश बार_बार सीताजी को बुलावेंगे, और करोड़ों कामदेवों के समान सुन्दर दोनों भाई सीताजी को लेने ( विदा कराने )  आया करेंगे।





बिबिध भाँति होइहहिं पहुनाई। प्रिय न काहि अस सासुर माई।। तब तब राम लखनहिं निहारी। होइहहिं सब पुर लोग सुखारी।।_अर्थ_तब उनकी अनेकों प्रकार से पहुनाई होगी। सखी ! ऐसी ससुराल किसे प्यारी न होगी ! तब_तब हम सब नगरवासी श्रीराम_लक्ष्मण को देख_देखकर सुखी होंगे।




सखि जस राम लखन कर जोटा। तैसेइ भूप संग दुइ ढोटा।। स्याम गौर सब अंग सुहाए। ते सब कहहिं देखि जे आए।।_अर्थ_सखी ! जैसा श्रीराम_ लक्ष्मण का जोड़ा है, वैसे ही दो कुमार राजा के साथ और भी हैं। वे भी एक श्याम और दूसरे गौर वर्ण के हैं, उनके भी सब अंग बहुत सुन्दर हैं। जो लोग उन्हें देख आये हैं, वे सब यही कहते हैं।





कहा एक मैं आजु निहारे। जनु बिरंचि निज हाथ सँवारे।। भरतु रामहिं की अनुहारी। सहसा लखि न सकहिं नर नारी।।_ अर्थ_एक ने कहा__मैंने आज ही उन्हें देखा है; इतने सुन्दर हैं मानो ब्रह्माजी ने उन्हें अपने हाथों से सँवारा है। भरत तो श्रीरामचन्द्रजी की ही शकल सूरत के हैं। स्त्री_पुरुष उन्हें सहसा पहचान नहीं सकते।





लखनु सत्रुसूदनु एकरूपा। नख सिख ते सब अंग अनूपा।। मन भावहिं मुख बरनि न जाहीं। उपमा कहुँ त्रिभुवन कोउ नाहीं।।_अर्थ_ लक्ष्मण और शत्रुध्न दोनों का एक रूप है। दोनों के नख से शिखा तक सभी अंग अनुपम हैं। मन को बड़े अच्छे लगते हैं, पर मुख से उनका वर्णन नहीं हो सकता। उनकी उपमा के योग्य तीनों लोकों में कोई नहीं है।





उपमा न कोउ कह दास तुलसी कतहुँ कबि कोबिद कहैं। बल बिनय बिद्या सील सोभा सिंधु इन्ह से एइ अहैं।। पुर नारि सकल पसारि अंचल बिधिहिं बचन सुनावहीं। ब्याहिअहु चारिउ भाइ एहिं पुर हम सुमंगल गावही।।_अर्थ_तुलसीदास कहता है कवि और कोविद ( विद्वान) कहते हैं, इनकी उपमा कहीं कोई नहीं है। बल, विनय, विद्या, शील और शोभा के समुद्र इनके समान ये ही हैं। जनकपुर की सब स्त्रियाँ आँचल फैलाकर विधाता को यह वचन ( विनती ) सुनाती हैं कि चारों भाइयों का विवाह इसी नगर में हो और हम सब सुन्दर मंगल गावें।





कहहिं परस्पर नारि बारि बिलोचन पुलक तन। सखि सब करब पुरारि पुन्य पयोनिधि भूप दोउ।।_अर्थ_नेत्रों में  [ प्रेमाश्रुओं का ]
 का जल भरकर पुलकित शरीर से स्त्रियाँ आपस में कह रही हैं कि यह सखी ! दोनों राजा पुण्य के समुद्र हैं। त्रिपुरारी शिवजी सब मनोरथ पूर्ण करेंगे।





एहि बिधि सकल मनोरथ करहीं। आनंद उमगि उमगि उर भरहीं।। जे नृप सीय स्वयंबर आए। देखि बंधु सब तिन्ह सुख पाए।।_अर्थ_ इस प्रकार सब मनोरथ कर रही हैं और हृदय को आनंद से भर रही हैं। सीताजी के स्वयंवर में जो राजा आए थे, उन्होंने भी चारों भाइयों को देखकर सुख पाया।





कहत राम जसु बिसद बिसाला। निज निज भवन गए महिपाला।। गए बीति कछु दिन एहि भाँति। प्रमुदित पुरजन सकल बराती।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का निर्मल और महान् यश कहते हुए राजालोग अपने_अपने घर गये। इस प्रकार कुछ दिन बीत गये। जनकपुरनिवासी और बराती सभी बड़े आननंदित हैं।




मंगल मूल लगन दिनु आवा। हिमरितु अगहनु मासु सुहावा।। ग्रह तिथि नखतु जोगु बर बारू। लगन सोधि बिधि कीन्ह बिचारू।। _अर्थ_मंगलों का मूल लग्न का दिन आ गया। हेमन्त ऋतु और सुहावना अगहन का महीना था। ग्रह, तिथि, नक्षत्र, योग और वार श्रेष्ठ थे। लग्न ( मुहूर्त ) शोधकर ब्रह्माजी ने उसपर विचार किया।





पठै दीन्हि नारद सन सोई। गनी जनक के गनकन्ह जोई।। सुनी सकल लोगन्ह यह बाता। कहहिं जोतिषी आहिं बिधाता।।_ अर्थ_ और उस ( लग्नपत्रिका ) को नारदजी के हाथ [ जनकजी के यहाँ ] भेज दिया। जनकजी के ज्योतिषियों ने भी यही गणना कर रखी थी। जब सब लोगों ने यह बात सुनी तब वे कहने लगे_ यहाँ के ज्योतिषी ब्रह्माजी हैं।





धेनुधूरि बेला बिमल सकल सुमंगल मूल। बिप्रन्ह कहेउ बिदेह सन जानि सगुन अनुकूल।।_अर्थ_निर्मल और सभी सुन्दर मंगलों की मूल गोधूलि की पवित्र वेला आ गयी और अनुकूल शकुन होने लगे, यह जानकर ब्राह्मणों ने जनकजी से कहा।





उपरोहितहि कहेउ नरनाहा। अब बिलंबु कर कारनु काहा।। सतानंद तब सचिव बोलाए। मंगल सकल साजि सब ल्याए।।_अर्थ_तब राजा जनक ने पुरोहित शतानंदजी से कहा कि अब देर का क्या कारण है। तब शतानंदजी ने मंत्रियों को बुलाया। वे सब मंगल का सामान सजाकर ले आये।





संख निसान पनव बहु बाजे। मंगल कलस सगुन सुभ साजे।। सुभग सुआसिनि गावहिं गीता। करहिं  बेद धुनि बिप्र पुनीता।।_अर्थ_शंख, नगाड़े, ढ़ोल और बहुत से बाजे बजने लगे तथा मंगलकलश औरशुभ शकुन की वस्तुएँ ( दधि, दूर्वा  आदि) सजायी गयीं। सुन्दर सुहागिन स्त्रियाँ गीत गा रही हैं और पवित्र ब्राह्मण वेद की ध्वनि कर रहे हैं।






लेन चले सादर एहि भाँती। गए जहाँ जनवास बराती।। कोसलपति कर देखि समाजू। अति लघु लाग तिन्हहि सुरराजू।।_अर्थ_सबलोग इस प्रकार आदरपूर्वक बरात को लेने चले और जहाँ बरातियों का जनवासा था, वहाँ गये। अवधपति दशरथजी का समाज ( वैभव ) देखकर उनको देवराजइन्द्र भी बहुत तुच्छ लगने लगे।





भयउ समउ अबधारिय पाऊ।  यह सुनि परा निसानहिं घाऊ।। गुरहि पूछि करि कुल बिधि राजा। चले संग मुनि साधु समाजा।।_अर्थ_[ उन्होंने जाकर विनती की_ ] समय हो गया, अब पधारिये। यह सुनते ही नगाड़ों पर चोट पड़ी। गुरु वशिष्ठजी से पूछकर और कुल की सब रीतियों को करके राजा दशरथजी मुनियों और साधुओं के समाज के साथ लेकर चले।





भाग्य विभव अवधेस कर देखि देव ब्रह्मादि। लगे सराहन सहस मुख जानि जनम निज बादि।।_अर्थ_अवधनरेश दशरथजी का भाग्य और वैभव देखकर और अपना जन्म व्यर्थ समझकर, ब्रह्माजी आदि देवता हजारों मुखों से उसकी सराहना करने लगे।





सुरन्ह सुमंगल अवसरु जाना। बरषहिं सुमन बजाइ निसाना।। सिव ब्रह्मादिक बिबुध बरूथा। चढ़े बिमानन्हि नाना जूथा।।_अर्थ_देवगण सुन्दर मंगल का अवसर जानकर, नगाड़े बजा_बजाकर फूल बरसाते हैं। शिवजी, ब्रह्माजी, आदि देववृंद टोलियाँ बना_बनाकर विमानों पर जा चढ़े।





प्रेम पुलक तन हृदय उछाहू। चले बिलोकन राम बिआहू।। देखि जनकपुरु सुर अनुरागे। निज_निज लोक सबन्हि लघु लागे।।_अर्थ_और प्रेम से पुलकित शरीर तथा हृदय में उत्साह भरकर श्रीरामचन्द्रजी का विवाह देखने  चले। जनकपुर को देखकर देवता इतने अनुरक्त हो गये कि उन सबको अपने_ अपने लोक बहुत तुच्छ लगने लगे।





चितवहिं चकितबिचित्र बिताना। रचना सकल अलौकिक नाना। नगर नारि नर रूप निधाना। सुघर सुधरम सुसील सुजाना।।_अर्थ_विचित्र मण्डप को तथा नाना प्रकार की सब अलौकिक रचनाओं को वे चकित होकर देख रहे हैं। नगर के स्त्री_पुरुष रूप के भण्डार, सुघड़, श्रेष्ठ धर्मात्मा, सुशील और सुजान हैं।





तिन्हहीं देखि सब सुर सुरनारीं। भए नखत जनु बिधु उजियारीं।।  बिधिहि भयउ आचरजु बिषेषी। निज करनी कछु कतहुँ न देखी।।_अर्थ_उन्हें देखकर सब देवता और देवांगनाएँ ऐसे प्रभाहीन हो गये जैसे चन्द्रमा के उजियाले में तारागण फीके पड़ जाते हैं। ब्रह्माजी को विशेष आश्चर्य हुआ; क्योंकि वहाँ उन्होंने अपनी कोई करनी ( रचना ) तो कहीं देखी ही नहीं।





सिवँ समुझाए देव सब जनि आचरज भुलाहु। हृदयँ बिचारहु धीर धरि सिय रघुबीर बिआहु।।__ अर्थ_तब शिवजी ने सब देवताओं को समझाया कि तुमलोग आश्चर्य में मत भूलो। हृदय में धीरज धरकर विचार करो कि यह [ भगवाव् की महिमामयी निजशक्ति ] श्रीसीताजी और [ अखिल ब्रह्माण्डों के परम ईश्वर साक्षात् भगवान् ] श्रीरामचन्द्जी का विवाह है।





जिन्ह कर नाम लेत जग माहीं। सकल अमंगल मूल नसाहीं।। करतल होहिं पदारथ चारी। तेइ सिय राम कहेउ कामारी।।_अर्थ_जिनका नाम लेते ही जगत् में सारे अमंगलों की जड़ कट जाती है और चारों पदारथ ( अर्थ,धर्म,काम और मोक्ष ) मुट्ठी में आ जाते हैं, ये वही ( जगत् के माता_पिता ) श्री सीतारामजी हैं; काम के शत्रु शिवजी ने ऐसा कहा।





एहि बिधि संभु सुरन्ह समुझावा। पुनि आगें बर बसह चलावा।। देवन्ह देखे दसरथु जाता। महामोद मन पुलकित गाता।।_अर्थ_ इस प्रकार शिवजी ने देवताओं को समझाया और फिर अपने श्रेष्ठ बैल नन्दीश्वर को आगे बढ़ाया। देवताओं ने देखा कि दशरथजी मन में मन में बड़े ही प्रसन्न और शरीर से पुलकित हुए चले जा रहे हैं।





साधु समाज संग महिदेवा। जनु तनु धरे करहिं सुख सेवा।। सोहत साथ सुभग सुत चारी। जनु अपबरग सकल तनु धारी।।_अर्थ_उनके साथ [ परम हर्षयुक्त ] साधुओं और ब्राह्मणों की मण्डली ऐसी शोभा दे रही है, मानो समस्त सुख शरीर धारण कर उनकी सेवा कर रहे हों। चारों सुन्दर पुत्र साथ में ऐसे सुशोभित हैं, मानो संपूर्ण मोक्ष ( सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य ) शरीर धारण किये हुए हों।





मरकत कनक बरन बर जोरी। देखि सुरन्ह भै प्रीति न थोरी।। पुनि रामहिं बिलोकि हियँ हरषे। नृपहिं सराहि सुमन तिन्ह बरसे।।_ अर्थ_मरकतमणि और सुवर्ण के रंग की सुन्दर जोड़ियों को देखकर देवताओं को कम प्रीति नहीं हुई ( अर्थात् बहुत ही प्रीति हुई ) । फिर श्रीरामराचन्द्रजी को देखकर वे हृदय में ( अत्यन्त ) हर्षित हुए और राजा की सराहना करके उन्होंने फूल बरसाये।





राम रूपु नख सिख सुभग बारहिं बार निहारि। पुलक गात लोचन सजल उमा समेत पुरारि।।_अर्थ_नख से शिखा तक श्रीरामचन्द्रजी के सुन्दर रूप को बार बार देखते हुए पार्वतीजी सहित श्री शिवजी  का शरीर पुलकित हो गया और उनके नेत्र [ प्रेमाश्रुओं के ] जल से भर गये।





केकि कंठ दुति स्यामल अंगा। तड़ित बिनिंदक बसन सुरंगा।। ब्याह बिभूषन बिबिध बनाए। मंगल सब सब भाँति सुहाए।।_अर्थ_रामजी के मोर के कण्ठ की_सी कांतिवाला [ हरिताभ ] श्याम शरीर है। बिजली का अत्यन्त निरादर करनेवाले प्रकाशमय सुन्दर [ पीत ] रंग के वस्त्र हैं। सब मंगलरूप और सब प्रकार से सुन्दर भाँति_भाँति के विवाह के आभूषण शरीर पर सजाये हुए हैं।





सरद बिमल बिधु बदनु सुहावन। नयन नवल राजीव लजावन।। सकल अलौकिक सुन्दरताई। कहि न जाइ मनहिं मन भाई।।_अर्थ_उनका सुन्दर मुख शरत्पूर्णिमा के निर्मल चन्द्रमा के समान और [ मनोहर ] नेत्र नवीन कमल को लजानेवाले हैं। सारी सुन्दरता अलौकिक है। ( माया की बनी नहीं है, दिव्य सच्चिदानन्दमयी है ) वह कहि नहीं जा सकती, मन_ही_मन बहुत प्रिय लगती है।





बंधु मनोहर सोहहिं संगा। जात नचावत चपल तुरंगा।। राजकुअँर बर बाजि देखावहिं। बंस प्रसंसक बिरिद सुनावहिं।।_अर्थ_साथ में मनोहर भाई शोभित हैं, जो चंचल घोड़ों को नचाते हुए चले जा रहे हैं। राजकुमार श्रेष्ठ घोड़ों को ( उनकी चालको ) दिखला रहे हैं और वंश की प्रशंसा करनेवाले ( मागध_भाट ) विरुदावली सुना रहे हैं।





जेहि तुरंग पर राम बिराजे । गति बिलोकि खगनायकु लाजे।। कहि न जाइ सब भाँति सुहावा। बाजि बेषु जनु काम बनावा।।_अर्थ_जिस घोड़े पर श्रीरामजी विराजमान हैं, उसकी [ तेज ] चाल देखकर गरुड़ भी लजा जाते हैं। उसका वर्णन नहीं हो सकता, वह सब प्रकार सुन्दर है। मानो कामदेव ने ही घोड़े का वेष धारण कर लिया हो।






जनु बाजि बेषु बनाइ मनसिजु राम हित अति सोहई। आपनें बय बल रूप गुन गति सकल भुवन बिमोहई।। जगमगत जीनु जराव जोति सुमोति मनि मानिक लगे। किंकिनि ललाम लगामु ललित बिलोकि सुर नर मुनि ठगे।।_अर्थ_मानो श्रीराचन्द्रजी के लिये कामदेव घोड़े का वेष बनाकर अत्यन्त शोभित हो रहा है। वह अपनी अवस्था, बल, रूप, गुण और चाल से समस्त लोकों को मोहित कर रहा है। सुन्दर मोती, मणि और माण्क्य लगी हुई जड़ाऊ जीन ज्योति से जगमगा रहा। उसकी सुन्दर घुँघरू लगी ललित लगाम को देखकर देवता, मनुष्य और मुनि सभी ठगे जाते हैं।





प्रभु मनसहिं लयनीन मनु चलत बाजि छबि पाव। भूषित उड़गण तड़ित घनु जनु बर बरहिं नचाव।।_अर्थ_प्रभु की इच्छा में अपने मन को लीन किये चलता हुआ वह घोड़ा बड़ी शोभा पा रहा है। मानो तारागण तथा बिजली से अलंकृत मेघ सुन्दर मोर को नचा रहा हो।





जेहि बर बाजि राम असवारा। तेहि सारदउ न बरनै पारा।। संकरु राम रूप अनुरागे। नयन पंचदस अति प्रिय लागे।।_अर्थ_जिस श्रेष्ठ घोड़े पर श्रीरामचन्द्रजी सवार हैं उसका वर्णन सरस्वतीजी भी नहीं कर सकतीं। शंकरजी श्रीरामचन्द्रजी के रूप में ऐसे अनुरक्त हुए कि कि उन्हें अपने पंद्रह नेत्र इस समय बहुत ही प्यारे लगने लगे।





हरि हित सहित रामु जब जोहे। रमा समेत रमापति मोहे।। निरखि राम छबि बिधि हरषाने। आठइ नयन जानि पछिताने।।_अर्थ_भगवान् विष्णु ने जब प्रेमसहित श्रीराम को देखा, तब वे  [ रमणीयता की मूर्ति ] श्रीलक्ष्मीजी के पति श्रीलतक्ष्मीजीसहित मोहित हो गये। श्रीरामचन्द्रजी की शोभा देखकर ब्रह्माजी बड़े प्रसन्न हुए, पर अपने आठ ही नेत्र जानकर पछताने लगे।





सुर सेनप उर बहुत उछाहू। बिधि ते डेवढ़ लोचन लाहू।। रामहिं चितव सुरेस सुजाना। गौतमु श्रापु परम हित माना।_अर्थ_देवताओं के सेनापति स्वामी कार्तिकेय के हृदय में बड़ा उत्साह है, क्योंकि वे ब्रह्माजी से ड्योढ़े अर्थात् बारह नेत्रों से रामदर्शन का सुन्दर लाभ उठा रहे हैं। सुजान इन्द्र [ अपने हजार नेत्रों से ] श्रीरामचन्द्रजी को देख रहे हैं और गौतमजी के शाप को अपने लिये परम हितकर मान रहे हैं।





देव सकल सुरपतिहि सिहाहीं। आजु पुरंदर सम कोउ नाहीं।। मुदित देवगन रामहिं देखी। नृपसमाज दुहुँ हरषु बिसेषी।।_अर्थ_सभी देवता देवराज इन्द्र से ईर्ष्या कर रहे हैं [ और कह रहे हैं ]  कि आज इन्द्र के समान भाग्यवान्  दूसरा कोई नहीं है। श्रीरामचन्द्रजी को देखकर देवगण प्रसन्न हैं और दोनों राजाओं के समाज में विशेष हर्ष छा रहा है।





अति हरषु राजसमाज दुहु दिसि दुंदुभि बाजहिं घनी। बरषहिं सुमन सुर हरषि कहि जय जयति जय रघुकुलमनि।। एहि भाँति जानि बरात आवत बाजने बहु बाजहीं। रानी सुआसिनि बोलि परिछनि हेतु मंगल साजहीं।।_अर्थ_दोनों ओर से  राजसमाज में अत्यंत हर्ष है और बड़े जोर से नगाड़े बज रहे हैं। देवता प्रसन्न होकर ‘रघुकुलमणि श्रीराम की जय हो,जय हो, जय हो’ कहकर फूल बरसा रहे हैं। इस प्रकार बरात को आती हुई जानकर बहुत प्रकार के बाजे बजने लगे और रानी सुहागिन स्त्रियों को बुलाकर परछन के लिये मंगलद्रव्य सजाने लगीं।





सजि आरति अनेक बिधि मंगल सकल सँवारि। चलि मुदित परिछनि करन गजगामिनि बर नारि।।_अर्थ_अनेक प्रकार से आरती सजाकर और समस्त मंगलद्रव्यों को यथायोग्य सजाकर गजगामिनि ( हाथी_की सी चालवाली ) उत्तम स्त्रियाँ आनन्दपूर्वक परछन के लिये चलीं।
बिधुबदनीं सब सब मृगलोचनि। सब निज तन छबि रति मदु मोचनि।। पहिरे बरन बरन बर चीरा। सकल बिभूषन सजें सरीरा।।_अर्थ_सभी स्त्रियाँ चन्द्रमुखी ( चन्द्रमा के समान मुखवाली ) और सभी मृगलोचनी ( हरिण के समान आँखोंवाली ) हैं और सभी अपने शरीर की शोभा से रति के गर्व को चूर करनेवाली हैं। रंग रंग की सुन्दर साड़ियाँ पहने हैं और शरीर पर सब आभूषण सजे हुए हैं।





सकल सुमंगल अंग बनाएँ। करहिं गान कलकंठि लजाएँ।। कंकन किंकिनि नूपुर बाजहिं। चालि बिलोकि काम गज लाजहिं।।_अर्थ_समस्त अंगों को सुंदर मंगल पदार्थों से सजाये हुए वे कोयल को भी लजाती हुई [ मधुर स्वर से ] गान कर रही हैं। कंगन, करधनी और नूपुर बज रहे हैं। स्त्रियों के चाल देखकर कामदेव के हाथी भी लजा जाते हैं।





बाजहिं बाजने बिबिध प्रकारा। नभ अरु नगर सुमंगलचारा।। सची सारदा रमा भवानी। जे सुरतिय सुचि सहज भवानी।।_अर्थ_अनेक प्रकार के बाजे बज रहे हैं, आकाश और नगर दोनों स्थानों में सुन्दर मंगलाचार हो रहे हैं। शची (इन्द्राणी ), सरस्वती, लक्ष्मी, पार्वती और जो स्वभाव से ही पवित्र और सयानी देवांगनाएँ थीं,





कपट नारि बर बेष बनाई। मिलि सकल रनिवासन्ह जाई।। करहिं गान कल मंगलबानीं। हरष बिबस सम काहु न जानी।।_अर्थ_वे सब कपट से सुन्दर स्त्री का वेष बनाकर रनिवास में जा मिलीं और मनोहर वाणी से मंगलगान करने लगीं। सब कोई हर्ष के विशेष वश थे इसलिये उन्हें किसी ने पहचाना नहीं।






को जान केहि आनंद बस सब ब्रह्मु बर परिछन चली। कल गान मधुर निसान बरषहिं सुमन सुर सोभा भली।। आनंदकंदु बिलोकि दूलहु सकल हियँ हरषित भई। अंभोज अंबक अंबु उमगि सुअंग पुलकावलि छई।।_अर्थ_कौन किसे जाने_पहिचाने !  आनंद के बस हुई सब दूलह बने हुए ब्रह्म का परिछन करने चलीं। मनोहर गान हो रहा है। मधुर_मधुर नगाड़े बज रहे हैं, देवता फूल बरसा रहे हैं, बड़ी अच्छी शोभा है। आनन्दकन्द दूलह को देखकर सब स्त्रियाँ हृदय में हरषित हुईं। उनके कमल सरीखे नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल उमड़ आया और सुन्दर अंगों में पुलकावली छा गयी।

Monday, 20 July 2020

बालकाण्ड

सुनि बोले गुर अति सुखु पाई। पुन्य पुरुष कहुँ महि सुख छाई।। जिमि सरिता सागर महुँ जाहीं। जद्यपि ताहि कामना नाही।।__अर्थ__सब समाचार सुनकर और अत्यन्त सुख पाकर गुरु बोले___पुण्यात्मा पुरुष के लिये पृथ्वी सुखों से छायी हुई है। जैसे नदियाँ समुद्र में जाती हैं, यद्यपि समुद्र को नदी की कामना नहीं होती।





तिमि सुख संपति बिनहिं बोलाएँ। धरमसील पहिं जाहिं सुभाएँ।। तुम्ह गुर बिप्र धेनु सुर सेबी। तसि पुनीत कौसल्या देबी।।__अर्थ__वैसे ही सुख और सम्पत्ति बिना ही बुलाये स्वाभाविक ही धर्मात्मा पुरुष के पास जाती है। तुम जैसे गुरु ब्राह्मण, गाय और देवता की सेवा करनेवाले हो, वैसी ही पवित्र कौसल्या देवी भी हैं।





सुकृति तुम्ह समान जग माहीं। भयउ न है कोउ होनेउ नाहीं।। तुम्ह ते अधिक पुन्य बड़ काकें। राजन राम सरिस सुत जाकें।।___अर्थ___तुम्हारे समान पुण्यात्मा जगत् में न कोई हुआ् न है और न होने का ही है।। हे राजन् ! तुमसे अधिक पुण्य और किसका होगा, जिसके राम सरीखे पुत्र हैं।





बीर बिनीत धरम ब्रत धारी। गुन सागर बर बालक चारी। तुम्ह कहुँ सर्ब काल कल्याना। सजहु बरात बजाइ निसाना।___अर्थ___और जिसके चारों बालक वीर, विनम्र, धर्म का व्रत धारण करनेवाले और गुणों के सुन्दर समुद्र हैं। तुम्हारे लिये सभी कालों में कल्याण है। अतएव डंका बजाकर बरात सजवाओ।





चलहु बेगि सुन गुर बचन भलेहि नाथ सिरु नाइ। भूपति गवने भवन तब दूतन्ह बासु देवाइ।।___अर्थ___और जल्दी चलो। गुरुजी के ऐसे वचन सुनकर, हे नाथ ! बहुत अच्छा, कहकर और सिर नवाकर तथा दूतों को डेरा दिलवाकर राजा महल में गये।





राजा सबु रनिवास बोलाई। जनक पत्रिका बाचि सुनाई।। सुनि संदेसु सकल हरषानीं। अपर कथा सब भूप बखानीं।।___अर्थ___राजा ने सारे रनिवास को बुलाकर जनकजी की पत्रिका बाँचकर सुनायी। समाचार सुनकर सब रानियाँ हर्ष से भर गयीं। राजा ने फिर दूसरी सब बातों का ( जो दूतों के मुख से सुनी थीं ) वर्णन किया।





प्रेम प्रफुल्लित राजहिं रानी। मनहुँ सिखिनि सुनि बारिद बानी।। मुदित असीस देहिं गुर नारीं। अति आनंद मगन महतारी।।___अर्थ__प्रेम में प्रफुल्लित हुई रानियाँ ऐसी सुशोभित हो रही हैं जैसे मोरनी बादलों की गरज सुनसुनकर प्रफुल्लित होती हैं। बडी_बूढी [ अथवा गुरुओं की ] स्त्रियाँ प्रसन्न होकर आशीर्वाद दे रही हैं माताएँ आनन्द में मग्न हैं।



लेहिं परस्पर अति प्रिय पाती। हृदयँ लगाइ जुडावहिं छाती।। राम लखन कै कीरति करनी। बाहिं बार भूपबर बरनी।।_अर्थ_उस अत्यन्त प्रिय पत्रिका को आपस में लेकर सब हृदय से लगाकर छाती शीतल करती  है। राजाओं में श्रेष्ठ दशरथजी ने श्रीराम लक्ष्मण की कीरती और करनी का बार बार वर्णन किया।





सुनि प्रसादु कहि द्वार सिधाए। रानिन्ह तब महिदेव बोलाए। दिए दान आनन्द समेता। चले विप्रवर आसिष देता।।__अर्थ__’यह सब मुनि की कृपा है’ ऐसा कहकर वे बाहर चले आये। तब रानियों ने ब्राह्मणों को बुलाया और आनन्दसहित उन्हें दान दिये। श्रेष्ठ ब्राह्मण आशीर्वाद देते हुए चले।





जाचक लिये हँकारि दीन्ही निछावरि कोटि बिधि। चिरु जीवहुँ सुत चारि चक्रबर्ति दशरथ के।।__अर्थ___फिर भिक्षुकों को बुलाकर करोडों प्रकार की निछावरें उनको दीं। ‘चक्रवर्ती महाराज दशरथ के चारों पुत्र चिरंजीवी हों।‘





कहत चले पहिरें पट नाना। हरषि हने गहगहे निसाना।। समाचार सब लोगन्ह पाए। लागे घर घर होन बधाए।।_अर्थ_यों कहते हुए वे अनेक प्रकार सुन्दर वस्त्र पहन_पहनकर चले। आनन्दित होकर नगाड़ेवालों ने जोर से नगाड़ों पर चोट लगायी। सब लोगों ने जब यह समाचार पाया, तब घर_घर बधावे होने लगे।




भुवन चारिदस भरा उछाहू।  जनकसुता रघुबीर बिआहू।। सुनि सुभ कथा लोग अनुरागे। मग गृह गलीं सँवारन लागे।।_अर्थ_चौदहों लोकों में उत्साह भर गया कि जानकीजी और श्रीरघुनाथजी का विवाह होगा। यह शुभ समाचार पाकर लोग प्रेममग्न हो गये और रास्ते, घर तथा गलियाँ सजाने लगे।





जद्यपि अवध सदैव सुहावनी। रामपुरी मंगलमय पावनि।। तदपि प्रीति कै प्रीति सुहाई। मंगल रचना रची बनाई।।_अर्थ_यद्यपि अयोध्या सदा सुहावनी है, क्योंकि यह श्रीरामजी की मंगलमयी पवित्र पुरी है, तथापि प्रीति_पर_प्रीति होने होने से वह सुन्दर मंगलरचना से सजायी गयी।





ध्वज पताक पट चामर चारू। छावा परम बिचित्र बजारू।। कनक कलस तोरन मनि जाला। हरद दूध दधि अच्छत माला।।_अर्थ_ ध्वज, पताका, परदे और सुन्दर चँवरों से सारा बाजार बहुत ही अनूठा छाया हुआ है। सोने के कलश, तोरण, मणियों की झालरें, हल्दी, दूब, दही अक्षत और मालाओं से_





मंगलमय निज निज भवन लोगन्ह रचे बनाइ। बीथीं सीचीं चतुरसम चौकें चारु पुराइ।।_अर्थ_लोगों ने अपने_अपने घरों को सजाकर मंगलमय बना लिया। गलियों को चतुरसम से सींचा और [ द्वारों पर ] सुन्दर चौक पुराये। [ चन्दन, केशर, कस्तूरी और कपूर से बने एक सुगन्धित द्रव्य को चतुरसम कहते हैं।





जहँ तहँ जूथ मिलि भामिनि। सजि नव सप्त सकल दुति दामिनि।। बिधुबदनीं मृग सावक लोचनि। निज सरूप रति मानु बिलोचनि।।_अर्थ_बिजली_की_सी कान्तिवाली चन्द्रमुखी, हरिन के बच्चे के_से नेत्रवाली और अपने सुन्दर रूप से कामदेव की स्त्री रति के अभिमान को छुडानेवाली सुहागिन स्त्रियाँ सभी सोलहों श्रृंगार सजकर, जहाँ_तहाँ झुंड_की_झुंड मिलकर,





गावहिं मंगल मंजुल बानीं। सुनि कलरव कलकंठि लजानीं। भूप भवन किमि जाइ बखाना। बिस्व बिमोहन रचेउ बिताना।।__अर्थ__मनोहर वाणी से मंगलगीत गा रही हैं, जिनके सुन्दर स्वर को सुनकर कोयलें भी लजा जाती हैं। राजमहल का वर्णन कैसे किया जाय, जहाँ विश्व को विमोहित करनेवाला मण्डप बनाया गया है।





सोभा दसरथ भवन कइ को कबि बरनै पार। जहाँ सकल सुर सीस मनि राम लीन्ह अवतार।।__अर्थ__दशरथ के शोभा का वर्णन कौन कवि कर सकता है, जहाँ समस्त देवताओं के शिरोमणि रामचन्द्रजी ने अवतार लिया है।





भूप भरत पुनि लिए बोलाई। हय गय स्यंदन साजहु जाई।। चलहु बेगि रघुबीर बराता। सुनत पुलक पूरे दोउ भ्राता।।_अर्थ_फिर राजा ने भरतजी को बुला लिया और कहा कि जाकर घोडे, हाथी और रथ सजाओ, जल्दी रामचन्द्रजी की बरात में चलो। यह सुनते ही दोनों भाई ( भरतजी और शत्रुध्नजी ) आनन्दित हो गये।





भरत सकल साहनी बोलाए। आयसु दीन्ह मुदित उठि धाए।। रुचि रुचि जीन तुरग तिन्ह साजे। बरन बरन बर बाजि बिराजे।।_अर्थ_भरतजी ने सब साहनी ( घुडसाल के अध्यक्ष ) बुलाये और उन्हें [ घोडों को सजाने की ] आज्ञा दी, वे प्रसन्न होकर उठ दौडे। उन्होंने रुचि के साथ ( यथायोग्य ) जीनें कसकर घोडे सजाये। रंग रंग के उत्तम घोडे शोभित हुए।



सकल सुठि चंचल करनी। अय इव जरत धरत पग धरनी।। नाना जाति न जाहिं बखाने। निदरि पवनु जनु चहत उडाने।।_अर्थ_सब घोडे बडे ही सुन्दर और चंचल करनी ( चाल ) के हैं। वे धरती पर ऐसे पैर रखते हैं जैसे जलते हुए लोहे पर रखते हों। अनेकों जाति के घोडे हैं, जिनका वर्णन नहीं हो सकता। [ ऐसी तेज चाल के हैं ] मानो हवा का निरादर करके उड़ना  चाहते हैं।





तिन्ह सब छयल भए असवारा। भरत सरिस बय राजकुमारा।। सब सुंदर सब भूषनधारी। कर सर चाप तून कटि भारी।।_अर्थ_उन सब  घोडों पर भरतजी के समान अवस्थावाले सब छैल_छबीले राजकुमार सवार हुए। वे सभी सुन्दर हैं और आभूषण धारण किये हुए हैं।





छरे छबीले छयल सब सूर सुजान नबीन। जुग पदचर असवार प्रति जे असिकला प्रबीन।।_अर्थ_सभी चुने हुए छबीले छैल, शूरवीर, चतुर और नवयुवक हैं। प्रत्येक सवार के साथ दो पैदल सिपाही हैं, जो तलवार चलाने की कला में निपुण हैं।





बाँधे बिरद बीर रन गाढे। निकसि भए पुर बाहर ठाढे।। फेरहिं चतुर तुरग गति नाना। हरषहिं सुनि सुनि पनव निसाना।।_अर्थ_शूरता का बाना धारण किये हुए रणधीर वीर सब निकलकर नगर के बाहर आ खड़े हुए। वे चतुर अपने घोडों को तरह_तरह की चालों से फेर रहे हैं और भेरी कथा नगाडे की आवाज सुन_सुनकर प्रसन्न हो रहे हैं।





रथ सारथिन्ह बिचित्र बनाए। ध्वज पताक मनि भूषन लाए।। चवँर चारु किंकिनि धुनि करहीं। भानु जान सोभा अपहरहीं।।_अर्थ_सारथियों ने ध्वजा, पताका, मणि और आभूषणों को लगाकर रथों को बहुत बिलक्षण बना दिया है। उनमें सुन्दर चँवर लगे हैं और घंटियाँ सुन्दर शब्द कर रही हैं। वे रथ इतने सुन्दर हैं मानो सूर्य के रथ की शोभा छीने लेते हैं।





सावँकरन अगनित हय होते। ते तिन्ह रथन्ह सारथि जोते।। सुंदर सकल अलंकृत सोहे। जिन्हहि बिलोकत मुनि मन मोहे।।_अर्थ_अगणित श्यामकर्ण घोडे थे। उनको सारथियो ने उन रथों में जोत दिया है, जो सभी देखने में सुन्दर और गहनों से सजाये हुए सुशोभित हैं, और जिन्हें देखकर मुनियों के मन भी मोहित हो जाते हैं।





जे जल चलहिं थलहिं की नाईं। टाप न बूड़ बेग अधिकाई।। अस्त्र सस्त्र सबु साज बनाई। रथी सारथिन्ह लिए बोलाई।।_अर्थ_जो जल पर भी जमीन की तरह ही चलते हैं। नवेग की अधिकता से उनकी टाप पानी में नहीं डूबती। अस्त्र_शस्त्र और सब साज सजाकर सारथियों ने रथियों को बुला लिया।




चढ़ि चढ़ि रथ बाहेर नगर लागी जुरन बरात। होत सगुन सुंदर सबहि जो जेहि कारज जात।।_अर्थ_रथों पर चढ़चढ़कर बारात नगर के बाहर जुटने लगी। जो जिस काम के लिये जाता है, सभी को सुन्दर शकुन होते हैं।





कलित करिबरन्हि परीं अँबारीं। कहिं न जाहिं जेहि भाँति सँवारी।। चले मत्त गज घंट बिराजी। मनहुँ सुभग सावन घन राजी।।_अर्थ_ श्रेष्ठ हाथियों पर अंबारियाँ पड़ी हैं। वे जिस प्रकार सजायी गयी थीं, जो कहा नहीं जा सकता। मतवाले हाथी घंटों से सुशोभित होकर ( घंटे बजाते हुए ) चले, मानो सावन के सुन्दर बादलों के समूह [ गरजते हुए ] जा रहे हों।




 बाहन अपर अनेक बिधाना। सिबिका सुखद सुखासन जाना।। तिन्ह चढ़ि चले बिप्रबर वृंदा। जनु तनु धरे सकल श्रुति छंदा।।_अर्थ_सुंदर पालकियाँ, सुख से बैठने योग्य तामजान ( जो कुर्सीनुमा होते हैं ) और रथ आदि और भी अनेकों प्रकार की सवारियाँ हैं। उनपर श्रेष्ठ ब्राह्मणों के समूह चढ़कर चले, मानो सब वेदों के छन्दही शरीर धारण किये हुए हों।





मागध सूत बंदि गुननायक। चले जान चढ़ि जो जेहि लायक।। बेसर ऊँट बृषभ बहु जाती। चले बस्तु भरि अगनित भाँती।।_ अर्थ_मागध, सूत, भाट और गुण गानेवाले सब, जो जिस योग्य थे, वैसी सवारी पर चढकर चले। बहुत जातियों के ऊँट, बैल और खच्चर असंख्यों प्रकार की वस्तुएँ लाद_लादकर चले।





कोटिन्ह काँवरि चले कहारा। बिबिध बस्तु को बरनै पारा।। चले सकल सेवक समुदाई। निज निज साज समाज बनाई।।_अर्थ_कहार करोडो़ं काँवरें लेकर चले। उनमें अनेकों प्रकारकी इतनी वस्तुएँ थीं कि जिनका वर्णनकौन  कर सकता है। सब सेवकों के समूह अपना_अपना साज_समाज बनाकर चले।





सब कें उदर निर्भर हरषु पूरित पुलक सरीर। कबहिं देखिबे नयन भरि रामु लखनु दोउ बीर।।_अर्थ_सबके हृदय में अपार हर्ष है और शरीर पुलकित हैं। ( सबको एक ही लालसा लगी है कि ) हम श्रीराम_लक्षमण दोनों भाइयों को नेत्र भरकर कब देखेंगे।





गरजहिं गज घंटा धुनि घोरा। रथ रव बाजि हिंस चहु ओरा।। निदरि घनहि घुम्र्मरहिं निसाना। निज पराइ कछु सुनिअ न काना।।_अर्थ_हाथी गरज रहे हैं,उनके घंटों की भीषण ध्वनि हो रही है। चारों ओर रथों की घरघराहट और घोड़ो़ं की हिनहिनाहट हो रही है। बादलों का निरादर करते हुए नगाड़े घोर शब्द कर रहे हैं। किसी को अपनी परायी कोई बात कानों से सुनाई नहीं देती।





महा भीर भूपति के द्वारें। रज होइ जाइ पषान पबारें।। चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नारीं। लिएँ आरती मंगल थारीं।।_अर्थ_राजा दशरथ के द्वार पर इतनी भारी भीड़ हो रही है कि वहाँ पत्थर फेंका जाय तो भी वह पिसकर धूल हो जाय। अटारियों पर चढ़ी स्त्रियाँ मंगल थालों में आरती लिये देख रही हैं।





गावहिं गीत मनोहर नाना। अति आनंद न जाइ बखाना।। तब सुमंत्र दुइ स्यंदन साजी। जोते रबि हय निंदक बाजी।।_अर्थ_और नाना प्रकार के मनोहर गीत गा रही हैं। उनके अत्यन्त आनन्द का बखान नहीं हो सकता। तब सुमन्त्रजी ने दो रथ सजाकर उनमें सूर्य के घोडों को भी मात करनेवाले घोड़े जोते।





दोउ रथ रुचिर भूप पहिं आने। नहिं सारद पहिं जाहिं बखाने।। राज समाजु एक रथ साजा। दूसर तेज पुंज अति भ्राजा।।_अर्थ_दोनों सुन्दर रथ वे राजा दशरथ के पास ले आये, जिनकी सुन्दरता का वर्णन सरस्वती से भी नहीं हो सकता। एक रथ पर राजसी समान सजाया गया। और दूसरा जो तेज का पुंज और अत्यन्त ही शोभायमान था,





तेहिं रथ रुचिर बसिष्ठ कहुँ हरषि चढ़ाइ नरेसु। आपु चढ़ेउ स्यंदन सुमिरि हर गुर गौरि गनेसु।।_अर्थ_उस सुन्दर रथ पर राजा वसिष्ठजी को हर्षपूर्वक चढ़ाकर फिर स्वयं शिव, गुरु, गौरी ( पार्वती ) और गणेशजी का स्मरण करके [ दूसरे ] रथ पर चढ़े।





सहित बसिष्ठ सोह नृप कैसें। सुर गुर संग पुरंदर जैसें।। करि कुल रीति बेद बिधि राऊ। देखि सबहिं सब भाँति बनाऊ।।_अर्थ_वसिष्ठजी के साथ [ जाते हुए ]  राजा दशरथजी कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे देवगुरु वृहस्पतिजी के साथ इन्द्र हों। वेद की विधि से और कुल की रीति के अनुसार सब कार्य करके तथा सबको सब प्रकार से सजे देखकर,





 सुमिरि रामु गुर आयसु पाई। चले महीपति संख बजाई।। हरषे बिबुध बिलोकि बराता। बरसहिं सुमन सुमंगल दाता।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का स्मरण करके, गुरु का आज्ञा पाकर पृथ्वीपति दशरथजी शंख बजाकर चले। बारात देखकर देवता हर्षित हुए और सुन्दर मंगलदायक फूलों की वर्षा करने लगे।





भयउ कोलाहल हय गय गाजे। ब्योम बरात बाजने बाजे ।। सुर नर नारी सुमंगल गाईं। सरस राग बाजहिं सहनाई।।_अर्थ_बड़ा शोर मच गया, घोड़े और हाथी गरजने लगे। आकाश में और बरात में [ दोनों जगह ] बाजे बजने लगे। देवांगनाएँ और मनुष्यों की स्त्रियाँ सुंदर मंगलगान करने लगे। देवांगनाएँ और मनुष्षों की स्त्रियाँ सुन्दर मंगलगान करने लगीं और रसीले राग से शहनाइयाँ बजने लगीं।





घंट घंटि धुनि बरनि न जाहीं। सरव करहिं पाइक फहराहीं।। करहिं बिदूषक कौतुक नाना। हास कुसल कल गान सुजाना।।_अर्थ_ घंटे_घंटियों की ध्वनि का वर्णन नहीं हो सकता। पैदल चलनेवाले सेवकगण अथवा पट्टेबाज कसरत कर रहे हैं और फहरा रहे हैं ( आकाश में ऊँचे उछलते हुए जा रहे हैं )। हँसी करने में निपुण और सुन्दर गाने में चतुर बिदूषक ( मसखरे ) तरह_तरह के तमाशे कर रहे हैं।






तुरग नचावहिं कुँअर बर अकनि मृदंग निसान। नागर नट चितवहिं चकित डगहिं न ताल बँधान।।_अर्थ_सुन्दर राजकुमार मृदंग और नगाड़े का शब्द सुनकर घोडो़ं को उन्हीं के अनुसार इस प्रकार नचा रहे है कि वे ताल के बंधान से जरा भी डिगते नहीं हैं। चतुर नट चकित होकर यह देख रहे हैं।





बनइ न बरनत बनी बराता। होहिं सगुन सुंदर सुखदाता।। चारा चाषु बाम दिसि लेई। मनहुँ सकल मंगल कहि देई।।_अर्थ_बारात ऐसी बनी है कि उसका वर्णन करते नहीं बनता। सुन्दर शुभदायक शकुन हो रहे हैं। नीलकंठ पक्षी बायीं ओर चारा ले रहा है, मानो संपूर्ण मंगलों की सूचना दे रहा हो।





दाहिन काग सुखेत सुहावा। नकुल दरसु सब काहु पावा।। सानुकूल बह त्रिबिध बयारी। सघट सबाल आव बर नारी।।_अर्थ_दाहिनी ओर कौवा सुन्दर खेत में शोभा पा रहा है। नेवले का दर्शन भी सब किसी ने पाया। तीनों प्रकार की ( शीतल, मन्द, सुगन्धित ) हवा अनुकूल दिशा में चल रही है। श्रेष्ठ ( सुहागिनी ) स्त्रियाँ भरे हुए घड़े और गोद में बालक लिये हुए आ रही हैं।





लोवा फिरि फिरि दरसु देखावा। सुरभी सनमुख सिसुहि पिआवा।। मृगमाला फिरि दाहिनि आई। मंगल गन जनु दीन्हि देखाई।।_अर्थ_लोमड़ी फिर_फिरकर ( बार_बार ) दिखायी दे जाती है। गायें सामने खड़ी बछड़ों को दूध पिलाती हैं। हरिनों की टोली [ बायीं ओर से ] घूमकर दाहिनी ओर को आयी, मानो सभी मंगलों का समूह दिखायी दिया।





छेमकरी कह छेम बिसेषी। स्यामा बाम सुतरु पर देखी।। सनमुख आयउ दधि अरु मीना। कर पुस्तक दुइ बिप्र प्रबीना।।_अर्थ_क्षेमकरी ( सफेद सिरवाली चील )  विशेष रूप से क्षेम ( कल्याण ) कह रही है। स्यामा बायीं ओर सुन्दर पेड़ पर दिखायी पड़ी। दही, मछली और दो विद्वान ब्राह्मण हाथ में पुस्तक लिये सामने आये।






मंगलमय कल्यानमय अभिमत फल दातार। जनु सब साचे होन हित भए सगुन एक बार।।_अर्थ_सभी मंगलमय, कल्याणमय और मनोवांछित फल देनेवाले शकुन मानो सत्चे होने के लिये एक ही साथ हो गये।





मंगल सगुन सुगम सब ताकें। सगुन ब्रह्म सुन्दर सुत जाकें।। राम सरिस बरु दुलहिनि सीता। समधी दशरथ जनक पुनीता।।_अर्थ_स्वयं सगुन ब्रह्म जिनके सुन्दर पुत्र हैं,उसके लिये सब मंगल सगुन सुलभ हैं। जहाँ श्रीरामचन्द्रजी सरीखे दुल्हा और सीताजी जैसी दुलहिन हैं तथा दशरथजी और जनकजी जैसे पवित्र समधी हैं,





 सुनि अस ब्याहु सगुन सब नाचे। अब कीन्हे बिरंचि हम साँचे।। एहि बिधि कीन्ह बरात पयाना। हय गय गाजहिं हने निसाना।।_अर्थ_ऐसा ब्याह सुनकर मानो सभी शकुन नाच उठे। [ और कहने लगे_] अब ब्रह्माजी ने हमको सच्चा कर दिया। इस तरह बरात ने प्रस्थान किया। घोड़े, हाथी गरज रहे हैं और नगाड़ों पर चोट लग रही है।





आवत जानि भानुकुल केतू। सरितन्ह जनक बँधाए सेतू।। बीच बीच बर बास बनाए। सुरपुर सरिस संपदा छाए।।_अर्थ_सूर्यवंश के पताकास्वरूप दशरथजी को आते हुए जानकर जनकजी ने नदियों पर पुल बँधवा दिये। बीच_बीच में ठहरने के लिये सुन्दर घर ( पड़ाव ) बनवा दिये, जिनमें देवलोक के समान सम्पदा छायी है।





असन सयन बर बसन सुहाए। पावहिं सब निज निज मन भाए।। नित नूतन सुख लहि अनुकूले। सकल बरातिन्ह मंदिर भूले।।_अर्थ_और जहाँ बरात के सब लोग अपने_अपने मन की पसंद के अनुसार सुहावने उत्तम भोजन, बिस्तर और वस्त्र पाते हैं। मन के अनुकूल नित्य नये सुखों को देखकर सभी बराती अपने घर भूल गये।





आवत जानि बरात बर सुनि गहगहे निसान। सजि गज रथ पदचर तुरग लेन चले अगवान।।_अर्थ_बड़े जोर से बजते हुए नगाड़ों की आवाज सुनकर श्रेष्ठ बारात को आती हुई जानकर अगवानी करनेवाले हाथी, रथ, पैदल और घोड़े सजाकर बारात लेने चले।

Saturday, 30 May 2020

बालकाण्ड

अति गहगहे बाजने बाजे। सबहिं मनोहर मंगल साजे।। जूथ जूथ मिलि सुमुखि सुनयनीं। करहिं गान कल कोकिलबयनी।।____ अर्थ____खूब जोर से बाजे बजने लगे। सभी ने  मनोहर मंगल_ साज सजे। सुन्दर मुख और सुन्दर नेत्रोंवाली तथा कोयल के समान मधुर होनेवाला स्त्रियाँ झुंड_की_झुंड मिलकर सुन्दर गान करने लगीं।





सुखु बिदेह कर बरनि न जाई। जन्मदरिद्र मनहुँ निधि पाई।। बिगत त्रास भई सीय सुखारी। जनि बिधु उदयँ चकोरकुमारी।।___ अर्थ____ जनकजी के सुख का वर्णन नहीं किया जा सकता; मानो जन्म का दरिद्र  धन का खजाना पा गया हो ! सीताजी का भय जाता रहा; वे ऐसी सुखी हुई जैसे चन्द्रमा के उदय होने से चकोर की कन्या सुखी होती है।





जनक कीन्ह कौसिकहि प्रनामा। प्रभु प्रसाद धनु भंजेउ रामा।। मोहि कृतकृत्य कीन्ह दुहुँ भाई। अब जो उचित सो कहिअ गोसाईं।।___ अर्थ___ जनकजी ने विश्वामित्रजी को प्रणाम किया  [और कहा___]  प्रभु ही की कृपा से श्रीरामचन्द्रजी ने धनुष तोड़ा है। दोनों भाइयों ने मुझे कृतार्थ कर दिया। हे स्वामी ! अब जो उचित हो सो कहिये।
कह मुनि सुनु नरनाथ प्रबीना। रहा बिबाहु चाप आधीना।। टूटतहीं धनु भयउ बिबाहू। सुर नर नाग बिदित सब काहू।।___ मुनि ने कहा___ हे चतुर नरेश ! सुनो, यों तो विवाह धनुष के अधीन था; धनुष के टूटते ही विवाह हो गया। देवता, मनुष्य और नाग सब किसी को यह मालूम है।





तदपि जाइ तुम्ह करहु अब जथा बंस ब्यवहारु। बूझि बिप्र कुरुवृद्ध गुर बेद बिदित आचारु।।___ अर्थ____ तथापि तुम जाकर अपने कुल का जैसा व्यवहार हो, ब्राह्मणों, कुल के बूढ़ों और गुरुओं से पूछकर और वेदों में वर्णित जैसा आचार हो वैसा करो।





दूत अवधपुर पठवहु जाई। आनहिं नृप दसरथहिं बुलाई।। मुदित राउ कहि भलेहिं कृपाला। पठए दूत बोलि तेहि काला।।___ अर्थ___ जाकर अयोध्या को दूत भेजो, जो राजा दशरथ को बुला लावें। राजा ने प्रसन्न होकर कहा___हे कृपालु ! बहुत अच्छा ! और उसी समय दूतों को  बुलाकर भेज दिया।





बहुरि महाजन सकल बोलाए। आइ सबन्हि सादर सिर नाए।। हाट बाट मन्दिर सुरबासा। नगरु सँवारहु चारिहुँ पासा।।___ अर्थ____ फिर सब महाजनों को बुलाया और सबने आकर राजा को आदरपूर्वक सिर नवाया। [ राजा ने कहा___ ]  बाजार, रास्ते, घर, देवालय और सारे नगर को चारों ओर से सजाओ।





हरषि चले निज निज गृह आए। पुनि परिचारक बोलि पठाए।। रचहु विचित्र बितान बनाई। सिर धरि बचन चले सचु पाई।।___ अर्थ___महाराज प्रसन्न होकर चले और अपने_ अपने घर आये। फिर राजा ने नौकरों को बुला भेजा [ और उन्हें आज्ञा दी कि ] विचित्र मण्डप सजाकर तैयार करो। यह सुनकर वो सब राजा के वचन सिर पर धर कर और सुख पाकर चले।




पठए बोलि गुनी तिन्ह नाना। जे बितान बिधि कुसल सुजाना।। बिधिहि बंदि तिन्ह कीन्ह अरंभा। बिरचे कनक कदलि के खंभा।।___ अर्थ___उन्होंने अनेक कारीगरों को बुला भेजा, जो मण्डप बनाने में कुशल और चतुर थे। उन्होंने ब्रह्मा की वन्दना करके कार्य आरम्भ किया और [ पहले ] सोने के केले के खम्भे बनाये।





हरित मनिन्ह के पत्र फल पदुमराग के फूल। रचना देखि बिचित्र अति मनु बिरंचि कर भूल।।____ अर्थ____ हरी_ हरी मणियों ( पन्ने ) के पत्ते और फल बनाये तथा पद्मराग मणियों ( माणिक ) के फूल बनाये। मण्डप की अत्यन्त विचित्र रचना देखकर ब्रह्मा का मन भी भूल गया।





बेनु हरित मनिमय सब कीन्हे। सरल सपरब परहिं नहीं चीन्हे।। कनक कलित अहिबेलि बनाई। लखि नहीं परइ  सपरन सुहाई।।___ अर्थ___ बाँस सब हरी_हरी मणियोंं ( पन्ने ) के सीधे और गाँठों से युक्त ऐसे बनाये जो पहचाने नहीं जाते थे [ कि मणियों के  हैं या साधारण ] । सोने की सुन्दर नागबेलि ( पान की लता ) बनायी, जो पत्तों सहित ऐसी भली मालूम होती थी कि पहचानी नहीं जाती थी।





तेहि ते रचि पचि बंध बनाए। बिच बिच मुकुता दाम सुहाए।। मानिक मरकत कुलिस पिरोजा। चीरि कोरि पचि रचे सरोजा।।___ अर्थ___उसी नागबेलि को रचकर और पच्चीकारी करके बन्धन ( बाँधने की रस्सी ) बनाए। बीच_बीच में मोतियों के सुन्दर झालरें हैं। माणिक, पन्ने, हीरे और फिरोजे, इन रत्नों को चीरकर, कोरकर और पच्चीकारी करके, इनके [ लाल, हरे, सफेद और फिरोजी रंग के ] कमल बनाये।





किए भृंग बहुरंग बिहंगा। गुंजहिं कूजहिं पवन प्रसंगा। सुर प्रतिमा खंभन्ह गढ़ि काढ़ीं। मंगल द्रव्य लिएँ सब ठाढ़ीं।।____ अर्थ____भौंरे और बहुत रंगों के पक्षी बनाये, जो हवा के सहारे गूँजते और कूजते थे। खंभों पर देवताओं की मूर्तियाँ गढकर निकालीं, जो सब मंगलद्रव्य लिये खड़ी थीं।





चौंंके भाँति अनेक पुराईं। सिंधुर मनिमय सहज सुहाई।।___ अर्थ___ गजमुक्ताओं के सहज ही सुहावने अनेकों तरह के चौक पुराये।





सौरभ पल्लव सुभग सुठि किए नीलमनि कोरि। हेम बौर मरकत घवरि लसत पाटमय डोरि।।___ अर्थ___नीलमणि के अत्यन्त सुन्दर आम के पत्ते बनाए। सोने के बौर ( आम के फूल ) और रेशम की डोरी से बँधे हुए पन्ने के बने फलों के गुच्छे सुशोभित हैं।





रचे रुचिर पर बंदनिवारे। मनहुँ मनोभवँ फंद सँवारे।। मंगल कलस अनेक बनाए। ध्वज पताक पट चमक सुहाये।।___ अर्थ___ऐसे सुंदर और उत्तम बंदनवार बनाये मानो कामदेव ने फंदे सजाये हों। अनेकों मंगल_कलश और सुन्दर ध्वजा, पताका परदे और चँवर बनाये।





दीप मनोहर मनिमय नाना। जाइ न बरनि बिचित्र बिताना।। जेहिं मंडप दुलहिनि बैदेही। सो बरनै  असि मति कबि केही।।___ अर्थ____जिसमें मणियों के अनेकों सुन्दर दीपक हैं, उस बिचित्र मण्डप का तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता। जिस मण्डप में श्रीजीनकीजी दुलहिन होंगी, किस कवि की ऐसी बुद्धि है जो उसका वर्णन कर सके।





दूलहु राम रूप गुन सागर। सो बितानु तिहुँ लोक उजागर।। जनक भवन कै सोभा जैसी। गृह गृह प्रति पुर देखिए तैसी।।___ अर्थ___ जिस मण्डप में रूप और गुणों के समुद्र श्रीरामचन्द्रजी दूल्हे होंगे, वह मण्डप तीनों लोकों में प्रसिद्ध होना ही चाहिये। जनता को महल की जैसी शोभा है, वैसी ही शोभा नगर के प्रत्येक घर की दिखायी देती है।





जेहिं तेरहुति तेहि समय निहारी। तेहि लघु लगहिं भुवन दस चारी।। जो संपदा नीच गृह सोहा। सो बिलोकि सुरनायक मोहा।।___ अर्थ___उस समय जिसने तिरहुत को देखा, उसे चौदह भुवन तुच्छ जान पड़े। जनकपुर में नीच के घर भी उस समय  जो सम्पदा सुशोभित थी, उसे देखकर इन्द्र भी मोहित हो जाता था।





बसइ नगर जेहि लच्छि करि कपट नारि पर बेषु। तेहि पुर कै शोभा कहत सकुचहिं सारद सेषु।।___ अर्थ___ जिस नगर में साक्षात् लक्ष्मीजी कपट से स्त्री का सुन्दर वेष बनाकर बसती है, उस पुर की शोभा का वर्णन करने में सरस्वती और शेष भी सकुचाते हैं।






पहुँचे दूत राम पुर पावन। हरषे नगर बिलोकि सुहावन।। भूप द्वार तिन्ह खबरि जनाई। दसरथ नृप सुनि लिए बोलाई।।___ अर्थ___ जनकजी के दूत श्रीरामचन्द्रजी की पवित्र पुरी अयोध्या में पहुँचे। सुन्दर नगर देखकर वे हर्षित हुए। राजद्वार पर जाकर उन्होंने खबर भेजी; राजा दशरथजी ने सुनकर उन्हें बुला लिया।





करि प्रणामु तिन्ह पाती दीन्ही। मुदित महीप आपु उठि लीन्ही।। बारि विलोचन बाँचत पाती। पुलक गात आईं भरि छाती।।___ अर्थ___ दूतों ने प्रणाम करके चिट्ठी दी। प्रसन्न होकर राजा ने स्वयं उठकर उसे लिया। चिट्ठी बाँचते समय उनके नेत्रों में जल ( प्रेम और आनन्द के आँसू ) छा गया, शरीर पुलकित हो गया और छाती भर आयी। 





रामु लखनु उर कर बर चीठी। रही गए कहत न खाटी मीठी।। पुनि धरि धीर पत्रिका बाँची। हरषी सभा बात सुनि साँची।।___ अर्थ___ हृदय में राम और लक्ष्मण हैं, हाथ में सुन्दर चिठ्ठी है, राजा उसे हाथ में लिये ही रह गये, खट्टी_मीठी कुछ भी नहीं कह सके। फिर धीरज कर कर उन्होंने पत्रिका पढ़ी। सारी सभा सच्ची बात सुनकर हर्षित हो गयी।





खेलत रहे तहाँ सुधि पाई। आए भरत सहित हित भाई।। पूछत अति सनेह सकुचाई। तात कहाँ तें पाती आई।।___ अर्थ___भरतजी अपने भाई और शत्रुध्न के साथ जहाँ खेलते थे, वहीं समाचार पाकर वे आ गये। बहुत प्रेम से सकुचाते हुए पूछते हैं__पिताजी ! चिट्ठी कहाँ से आई है ?



कुशल प्रानप्रिय बंधु दोउ अहहिं केहिं देस। सुनि सनेह साने बचन बाची बहुरि नरेस।।___ अर्थ___ हमारे प्राणों से प्यारे दोनों भाई, कहिये सकुशल तो हैं और वे किस देश में हैं ? स्नेह से सने ये वचन सुनकर राजा ने फिर से चिट्ठी पढ़ी।





सुनि पाती पुलके दोउ भ्राता। अधिक सनेहु समात न गाता।। प्रीति पुनीत भरत कै देखी। सकल सभाँ सुख लहेउ बिसेषी।।___ अर्थ___ चिट्ठी सुनकर दोनो भाई पुलकित हो गये। स्नेह इतना अधिक हो गया कि वह शरीर में समाता नहीं। भरतजी का पवित्र प्रेम देखकर सारी सभा ने विशेष सुख पाया।





तब नृप दूत निकट बैठारे। मधुर मनोहर बचन उचारे।। भैया कहहु कुसल दोउ बारे। तुम्ह नीकें निज नयन निहारे।।___ अर्थ___ तब राजा दूतों को पास बिठाकर मन को हरनेवाले मीठे वचन बोले___भैया ! कहो, दोनों बच्चे कुशल से तो हैं ? तुमने अपनी आँखों से अच्छी तरह देखा है न ?





 स्यामल गौर धरें धनु भाथा। बय किसोर कौसिक मुनि साथा।। पहिचानहु तुम्ह कहहु सुभाऊ। प्रेम बिबस पुनि पुनि कह राऊ।।___ अर्थ____ और गोरे शरीरवाले वे धनुष और तरकस धारण किये रहते हैं, किशोर अवस्था है, विश्वामित्र मुनि के साथ हैं। तुम उनको पहचानते हो तो उनका स्वभाव बताओ। राजा प्रेम के विशेष वश होने से बार_बार इस प्रकार कह  ( पूछ ) रहे हैं।





जा दिन तें मुनि गए लवाई। तब तें आजु साँचि सुधि  पाई।। कहहु बिदेह कवन बिधि जाने। सुनि प्रिय बचन दूर मुसुकाने।।___ अर्थ___[ भैया ! ] जिस दिन से मुनि उन्हें लिवा ले गये, तबसे आज ही हमने सच्ची खबर पायी है। कहो तो महाराज जनक ने उन्हें कैसे पहचाना ? ये प्रिय ( प्रेमभरे )  वचन सुनकर दूर मुस्कराये।





सुनहु महीपति मुकुटमनि तुम्ह सम धन्य न कोउ। रामु लखनु जिन्ह के तनय बिस्व विभूषण दोउ।।__अर्थ___[ दूतों ने कहा___ ] हे राजाओं के मुकुटमणि ! सुनिये, आपके समान धन्य कोई नहीं है, जिनके राम_ लक्ष्मण जैसे पुत्र हैं, जो दोनों विश्व के विभूषण हैं। चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है।






पूछन जोगु न तनय तुम्हारे। पुरुषसिं तिहु पुर उजियारे।। तिन्ह के जस प्रताप कें आगे। ससि मलीन रबि सीतल लागे।।___ अर्थ___आपके पुत्र पूछने योग्य नहीं हैं। वे पुरुषसिंह तीनों लोकों के प्रकाशस्वरूप हैं। जिनके यश के आगे चन्द्रमा मलिन और प्रताप के आगे सूर्य शीतल लगता है।





तिन्ह कहँ कहिअ नाथ किमि चीन्हे। देखिअ रबि कि दीप कर लीन्हे।। सीय स्वयंबर भूप अनेका। समिटे सुभट एक तैं एका।।___ अर्थ___ हे नाथ ! उनके लिये आप कहते हैं कि उन्हें कैसे पहचाना !  क्या सूर्य को हाथ में दीपक लेकर देखा जा सकता है ? सीताजी के स्वयंवर में अनेकों राजा और एक_से_एक बढकर योद्धा एकत्र हुए थे।
संभु सरासनु काहुँ न टारा। हारे सकल बीर बरिआरा।। तीनि लोक महँ जे भटमानी। सभ कै सकति संभु धनु भानी।।___ अर्थ___ परन्तु शिवजी के धनुष को कोई भी नहीं हटा सका। सारे बलवान् वीर हार गये। तीनों लोकों में जो वीरता के अभिमानी थे, शिवजी के धनुष ने सबकी शक्ति तोड़ दी।





सकइ उठाइ सरासुर मेरू। सोउ हिय हारि गयउ करि फेरू।। जेहि कौतुक शिवशैलु उठावा। सोउ तेहि सभा पराभउ पावा।।---अर्थ---बाणासुर, जो सुमेरु को भी उठा सकता था, वह भी हृदय में हारकर परिक्रमा करके चला गया और जिसने खेल से ही कैलास को उठा लिया था, वह रावण भी उस सभा में पराजय को प्राप्त हुआ‌।





तहाँ राम रघुबंशमणि सुनिअ महा महिपाल। भंजेउ चाप प्रयास बिनु जिमि गज पंकज नाल।।__अर्थ__हे महाराज ! सुनिये, वहाँ ( जहाँ ऐसे_ऐसे योद्धा हार मान गये ) रघुवंशमनि श्रीरामचन्द्रजी ने बिना ही प्रयास शिवजी के धनुष को वैसे ही तोड़ डाला जैसे हाथी कमल की डंडी को तोड़ डालता है।





सुनि सरोष भृगुनायकु आए। बहुत भाँति तिन्ह आँख देखाए।। देखि राम बलु निज धनु दीन्हा। करि बहु बिनय गवनु बन कीन्हा।।___अर्थ___धनुष टूटने की बात सुनकर परशुरामजी क्रोध भरे आये और उन्होंने बहुत प्रकार से आँखें दिखायीं। अन्त में उन्होंने भी श्रीरामचन्द्रजी का बल देखकर उन्हें अपना धनुष दे दिया और बहुत प्रकार से विनती करके वन को गमन किया।





राजन रामु अतुलबल जैसें। तेज निधान लखनु पुनि तैसें।। कंपहिं भूप बिलोकत जाकें। जिमि गज हरि किसोर के ताकें।।__अर्थ__हे राजन् ! श्रीरामचन्द्रजी अतुलनीय बली हैं, वैसे ही तेजनिधान फिर लक्षमणजी भी हैं, जिनके देखनेमात्र से राजालोग ऐसे काँप उठते थे, जैसे हाथी सिंह के बच्चे के ताकने से काँप उठते हैं।





देव देखि तव बालक दोऊ। अब न आँखि तर आवत कोऊ।। दूत बचन रचना प्रिय लागी। प्रेम प्रताप बीर रस पागी।।__अर्थ__हे देव ! आपके दोनों बालकों को देखने के बाद अब आँखों के नीचे कोई आता ही नहीं ( हमारी दृष्टि पर कोई चढता ही नहीं )। प्रेम, प्रताप और वीर_रस में पगी हुई दूतों की वचनरचना सबको बहुत प्रिय लगी।





सभा समेत राउ अनुरागे। दूतन्ह देन निछावरि लागे।। कहि अनीति ते मूदहिं काना। धरमु बिचारि सबहिं सुखु माना।।__अर्थ__सभासहित राजा प्रेम में मग्न हो गये और दूतों को निछावर देने लगे। [ उन्हें निछावर देते देखकर ] यह नीति विरुद्ध है, ऐसा कहकर दूत अपने हाथों से कान मूँदने लगे । धर्म को विचारकर ( उनका धर्मयुक्त वर्ताव देखकर ) सभी ने सुख माना।






तब उठि भूप बसिष्ठ कहुँ दीन्हि पत्रिका जाइ। कथा सुनाई गुरहि सब सादर दूत बोलाइ।।___अर्थ___तब राजा ने उठकर वशिष्ठजी के पास जाकर उन्हें पत्रिका दी और आदरपूर्वक दूतों को बुलाकर सारी कथा गुरुजी को सुना दी।

Sunday, 19 April 2020

बालकाण्ड

 नाथ सम्भुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा।। आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही।।___ अर्थ___ हे नाथ ! शिवजी का धनुष तोड़नेवाला कोई एक आपका ही दास होगा। क्या आज्ञा है सो मुझसे क्यों नहीं कहते ? मुनि गुस्साकर बोले___





 सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई।। सुनहु राम जेहि सिव धनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा।।___ अर्थ___ सेवक वह है जो सेवकाई करे। जो शत्रु का काम करे उससे तो लड़ाई ही करनी चाहिए। सुनो राम ! जिसने शिव_धनुष को तोड़ा है वह सहस्त्रबाहु के समान मेरा शत्रु है।




सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा।। सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहिं अपमाने।।___ अर्थ____वह इस समाज से अलग निकल आवे नहीं तो सब राजा मारे जायेंगे। मुनि के वचन सुनकर लक्ष्मणजी मुसकाये और परशुरामजी का अपमान करते हुए बोले___





 बहु धनुहीं तोरी लरिकाई। कबहुँ न असि रिस कीन्ह गोसाईं।। एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाई कह भृगुकुलकेतू।।___ अर्थ____ लड़कपन में हमने बहुत सी धनुही तोड़ी, हे गोसाईं ! तब ऐसा गुस्सा आपने कभी नहीं किया। इसी धनुष पर ममता किस कारण है ? यह सुन परशुराम क्रोधित होकर कहने लगे___





रे नृप बालक कालबस, बोलत तोहि न संभार। धनुही सम त्रिपुरारि धनुष, विदित सकल संसार।।___ अर्थ___ हे राजपुत्र ! तू काल के अधीन होने से संभालकर नहीं बोलता। संसार_ प्रसिद्ध शिवधनुष क्या धनुही के समान है ?





 लखन कहा हँसि हमरे जाना। सुनहु देव सब धनुष समाना।। का छति लाभ जून धनु तोरे। देखा राम नयन के भोरें।।___ अर्थ____ लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा___ हे देव ! सुनिए हमारी समझ में सब धनुष बराबर है। पुराने धनुष का तोड़ना क्या हानि_लाभ है ? श्रीरामचन्द्रजी ने तो नवीन के धोखे से इसे देखा था।





छुअत टूट रघुपतिहिं न दोषू। मुनि बिनु काज करिअ कर रोषू।। बोले चितइ परसु की ओरा। रे सठ सुनेहि सुभाउ न मोरा।।___ अर्थ___ फिर वह छूते ही टूट गया, इसमें रामचन्द्रजी का दोष नहीं है ? हे मुनि ! बिना प्रयोजन क्यों क्रोध करते हो ? परशुरामजी अपने फरसे की ओर देखकर बोले___ हे शठ ! तूने मेरा स्वभाव नहीं सुना।





बालक बोलि बधउँ नहिं तोही। केवल मुनि जड़ जानिहि मोही।। बाल ब्रह्मचारी अति कोही। विश्वविदित छत्रिय कुल द्रोही।।___ अर्थ___ बालक जानकर मैं तुझे नहीं मारता हूँ। रे जड़ ! तूने मुझे केवल मुनि ही जाना है। मैं बाल ब्रह्मचारी बड़ा क्रोधी हूँ और जगत् में क्षत्रियवंश का प्रसिद्ध बैरी हूँ।





भुजबल भूमि भूप बिनु कीन्ही। विपुल बार महीदेवन्ह दीन्ही। सहसबाहु भुज छेदनिहारा। परसु बिलोकु महीपकुमारा।।___ अर्थ___ अपने भुजाओं के बल से पृथ्वी को बिना राजाओं के करके अनेक बार उसे ब्राह्मणों को दे दिया है। हे राजकुमार ! सहसबाहु की भुजाओं को काटनेवाले इस फरसे को तू देख।





मातु पितहिं जनि सोचबस करसि महीपकिसोर। गर्भहु के अर्भक दलन, परसु मोर अति घोर।।___ अर्थ___ हे राजकिशोर ! तू अपने माता_ पिता को सोच के वश मत कर। मेरा यह कुठार गर्भों के बालकों को मारनेवाला बड़ा भयंकर है।



 बिहसि लखन बोले मृदु बानी। अहो मुनीस महा भटमानी।। पुनि पुनि मोहि देखाव कुठारू। चहत उड़ावन फूँकि पहारू।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी हँसकर मधुर वाणी बोले___ अहो ! मुनिश्वर अपने को बड़ा शूरवीर मानते हैं। इसी से मुझे बारंबार कुठार दिखाते हैं। फूँककर पहाड़ उड़ाना चाहते हैं।



इहाँ कुम्हडबतिया कोऊ नाहीं। जे तरजनी देखि मरि जाहीं।। देखि कुठारु सरासन बाना। मैं कछु कहा सहित अभिमाना।।___ यहाँ कोई कुम्हडे का बतियाँ नहीं है जो तरजनी अँगुली देखते ही मुरझा जाती है। कुठार और धनुष_ बाण देखकर ही मैंने अभिमान के साथ कहा है।





भृगुसुत समुझि जनेऊ बिलोकी। जो कछु कहहु सहउँ किस रोकी।। सुर महीसुर हरिजन अरु गाई। हमरे कुल इन्ह पर न सुराई।___ अर्थ___भृगुवंशी ब्राह्मण समझकर और जनेऊ देखकर ही जो कुछ आपने कहा है वह मैंने क्रोध रोककर सहा है। देवता, ब्राह्मण, हरिभक्त और गाय, इन पर हमारे कुल में शूरता नही दिखायी जाती।




बधें पाप अपकीरति हारे। मारत हूँ पा परिअ तुम्हारे।। कोटि कुलिस सम बचन तुम्हारा। ब्यर्थ धरहु धनु बाण कुठारा।___ अर्थ___क्योंकि इन्हें मारने में पाप और इनसे हारने में अपयश है। आप मारें तो भी आपके पाँव ही पड़ना चाहिये। करोड़ों वज्रों के समान तो आपका वचन ही है। आप धनुष_बाण और कुठार तो व्यर्थ ही धारण किये हैं।





जो बिलोकि अनुचित कहेऊँ, छमहु महामुनि धीर। सुनि सरोष भृगुबंशमनि बोले गिरा गभीर।।___ अर्थ___ हे वीर महामुनि ! इन्हें देखकर मैंने जो कुछ अनुचित कहा हो, उसे क्षमा कीजिये। यह सुनकर भृगुवंशमणि परशुरामजी क्रोध के साथ गम्भीर वाणी बोले___



कौसिक सुनहु मंद यहु बालकु। कुटिल कालबस निज कुल घालकु।। भानु बंस राकेस कलंकु। निपट निरंकुस अबुध असंकू।।___ अर्थ___ हे विश्वामित्र !  सुनो, यह बालक बड़ा कुबुद्धि और कुटिल है, काल के वश होकर यह अपने कुल का घालक बन गया है। यह सूर्यवंशरूपी पूर्णचन्द्र का कलंक है। यह बिलकुल उद्गार, मूर्ख और निडर है।





काल कवलु होइहि छन माहीं। कहउँ पुकारि खोरि मोहि नाहीं।। तुम्ह हटकहु जौं चहहु उबारा। कहि प्रतापु बसु रोषु हमारा।।___ अर्थ____ अभी क्षण_भर में यह काल का ग्रास हो जायगा। मैं पुकारकर कहे देता हूँ, फिर मुझे दोष नहीं है। यदि तुम इसे बचाना चाहते हो, तो हमारा प्रताप, बल और क्रोध बतलाकर इसे मना कर दो।





लखन कहा मुनि सुजसु तुम्हारा। तुम्हहि अछत को बरनै पारा।। अपने मुँह तुम्ह आपनि करनी। बार अनेक भाँति बहु बरनी।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी ने कहा___ हे मुनि !  आपका सुयश आपके रहते दूसरा कौन वर्णन कर सकता है ? आपने अपने ही मुँह से अपनी करनी अनेकों बार बहुत प्रकार से वर्णन की है।





नहिं संतोष त पुनि कुछ कहहू। जनि किस रोकि दुःसह दुःख सहहू।। बीरब्रती तुम्ह धीर अछोभा। गारी देर न पावहु सोभा।।___ अर्थ___ इतने पर भी संतोष न हुआ हो तो फिर कुछ कह डालिये। क्रोध रोककर असह्य दुःख मत सहिये। आप वीरता का व्रत धारण करनेवाले, धैर्यवान् और क्षोभरहित हैं। गाली देते शोभा नहीं पाते।





सूर समर करनी करहिं कहा न जनावहिं आप। विद्यमान रन पाइ रिपु कायर कथहिं प्रताप।।___ अर्थ____ शूरवीर तो युद्ध में करनी ( शूरवीरता का कार्य) करते हैं, कहकर अपने को नहीं जनाते। शत्रु को युद्ध में उपस्थित पाकर कायर ही अपने प्रताप की डींग मारा करते हैं।




तुम्ह तौं कालु हाँक जनु लावा। बार बार मोहि लागि बोलावा।। सुनत लखन के बचन कठोरा। परसु सुधारि धरेउ कर घोरा।।___ अर्थ___आप तो मानो काल को हाँक लगाकर बार बार उसे मेरे लिये बुलाते हैं।
लक्ष्मणजी के कठोर वचन सुनते ही परशुरामजी ने अपने भयानक फरसे को सुधारकर हाथ में ले लिया।





अब जनि देइ दोसु मोहि लोगू। कटुबादी बालकु बधजोगू।। बाल बिलोकि बहुत मैं बाँचा। अब यहु मरनिहार भा साँचा।।___ अर्थ____और बोले___ अब लोग मुझे दोष न दें। यह कड़ुआ बोलनेवाला बालक मारे जाने के योग्य है। इसे बालक देखकर मैंने बहुत बचाया, पर अब यह सचमुच मरने को ही आ गया है।





कौसिक कहा छमिअ अपराधू। बाल दोष गुन गनहिं न साधू।। खर कुठार मैं अकरुन कोही। आगें अपराधी गुरुद्रोही।।___ अर्थ___ विश्वामित्रजी ने कहा___अपराध क्षमा कीजिये। बालकों के दोष और गुण को साधुलोग नहीं गिनते। परशुरामजी बोले____ तीखी धार का कुठार, मैं दयारहित और क्रोधी, और यह गुरुद्रोही और अपराधी मेरे सामने।





उतर देरइ छोडेउँ बिनु मारें। केवल कौसिक सील तुम्हारें।। न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहिं उरिन होतेउँ श्रम थोरें।।____ अर्थ____उत्तर दे रहा है। इतने पर भी मैं इसे बिना मारे छोड़ रहा हूँ, सो हे विश्वामित्र! केवल तुम्हारे  शील ( प्रेम ) से। नहीं तो इसे इस कठोर कुठार से काटकर थोड़े ही परिश्रम से गुरु से उऋिण हो जाता।





 गाधिसूनु कह हृदयँ हँसि मुनिहि हरिअरइ सूझ। अयमय खाँड़ न ऊखमय अजहूँ न बूझ अबूझ।।____ अर्थ____ विश्वामित्रजी ने हृदय में हँसकर कहा___ मुनि को हरा_ही_हरा सूझ रहा है ( अर्थात् सर्वत्र विजयी होने के कारण ये श्रीराम_ लक्ष्मण को भी साधारण क्षत्रिय ही समझ रहे हैं)। किन्तु यह लोहमयी ( केवल फौलाद की बनी हुई ) खाँड़ ( खाँड़ा_ खड्ग ) है, भी बेसमझ बने हुए हैं; इनके प्रभाव को नहीं समझ रहे हैं।





कहेउ लखन मुनि सील तुम्हारा। को नहिं जान बिदित संसारा।। माता पितहि उरिन भए नीकें। गुरु रिनु रहा सोच बड़ जी कें।।___ अर्थ____ लक्ष्मणजी ने कहा___ हे मुनि ! आपके सील को कौन नहीं जानता ? वह संसारभर में प्रसिद्ध है। आप माता_पिता से अच्छी तरह उऋिण हो ही गये, अब गुरु का ऋण रहा, जिसका जी में बड़ा सोच लगा है।





सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।। अब आनिअ ब्यवहरिआ बोली। तुरत देउँ मैं थैली खोली।।___अर्थ___ वह मानो हमारे ही मत्थे काढ़ा था। बहुत दिन बीत गये, इससे ब्याज भी बहुत बढ़ गया होगा। अब किसी हिसाब करनेवाले को बुला लाइये, तो मैं तुरंत थैली खोलकर दे दूँ।





सुनि कटु बचन कुठार सुधारा। हाय हाय सब सभा पुकारा।। भृगुबर परसु देखावहु मोही। बिप्र बिचारि बचउँ नृपद्रोही।।___ अर्थ____ लक्ष्मणजी के कड़वे वचन सुनकर परशुरामजी ने कुठार संभाला। सारी सभा हाय ! हाय ! करके पुकार उठी। [ लक्ष्मणजी ने कहा___] हे भृगुश्रेष्ठ ! आप मुझे फरसा दिखा रहे हैं ? पर हे राजाओं के शत्रु ! मैं ब्राह्मण समझकर बचा रहा हूँ।





मिले न कबहुँ वीर रन गाढ़े। द्विज देवता घरहिं के बाढ़े।। अनुचित कहि सब लोग पुकारे। रघुपति सयनहिं लखन नेवारे।।___ अर्थ___ आपको कभी रणधीर बलवान् वीर नहीं मिले। हे ब्राह्मण देवता !  आप घर ही में बड़े हैं। यह सुनकर ‘अनुचित है, अनुचित है' कहकर सब लोग पुकार उठे। तब श्रीरघुनाथजी ने इशारे से लक्ष्मणजी को रोक दिया।





लखन उतर आहुति सरिस भृगुबर कोप कृसानु। बढ़त देखि जल सम बचन बोले रघुकुलभानु।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी के उत्तर से, जो आहुति के समान थे, परशुरामजी के क्रोधरूपी अग्नि को बढ़ते देखकर रघुकुल के सूर्य श्रीरामचन्द्रजी जल के समान ( शान्त करनेवाले ) वचन बोले__





नाथ करहु बालक पर छोहू। सूध दूधमुख करिअ न कोहू।। जौं है प्रभु प्रभाउ कछु जाना। तौं कि बराबरि करत अयाना।।___ अर्थ___ हे नाथ ! बालक पर कृपा कीजिये। इस सीधे और दुधमुँहे बच्चे पर क्रोध न कीजिये। यदि यह प्रभु का ( आपका ) कुछ भी प्रभाव जानता, तो क्या यह बेसमझ आपकी बराबरी करता ?





 जौं लरिका कछु अचगरि करहीं। गुर पितु मातु मोद मन भरहीं।। करिअ कृपा सिसु सेवक जानी। तुम्ह सम सील कीर मुनि ग्यानी।।___ अर्थ____ बालक यदि कुछ चपलता भी करते हैं, तो गुरु, पिता और माता मन में आनन्द से भर जाते हैं। अतः इसे छोटा बच्चा और सेवक जानकर कृपा कीजिये। आप तो समदर्शी, सुशील, धीर और ग्यानी मुनि हैं।





राम बचन सुनि कछुक जुड़ाने। कहि कछु लखनु बहुरि मुसुकाने।। हँसत देखि नख सिख रिस व्यापी। राम तोर भ्राता बड़ पापी।।___ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी के वचन सुनकर वे कुछ ठंडे पड़े। इतने में लक्ष्मणजी कुछ कहकर फिर मुस्करा दिये। उनको हँसते देखकर परशुरामजी के नख से शिखा तक ( सारे शरीर में ) क्रोध छा गया। उन्होंने कहा___ हे राम ! तेरा भाई बड़ा पापी है।





गौर सरीर स्याम मन माहीं। कालकूटमुख पयमुख नाहीं।। सहज टेढ़ अनुकरिय न तोही। नीचु मीचु सम देख न मोही।।___ अर्थ___ यह शरीर से गोरा, पर हृदय का बड़ा काला है। यह  विषमुख है, दुधमुँहा नहीं। स्वभाव से ही टेढ़ा है, तेरा अनुकरण नहीं करता ( तेरे जैसा शीलवान् नहीं है )। यह नीच मुझे काल के समान नहीं देखता।





लखन कहेउ हँसि सुनहु मुनि क्रोधु पाप कर मूल। जेहि बस जन अनुचित करहिं करहिं विस्व प्रतिकूल।।___ अर्थ___ लक्ष्मणजी ने हँसकर कहा____ हे मुनि ! सुनिये, क्रोध पाप का मूल है, जिसके वश में होकर मनुष्य अनुचित कर्म कर बैठते हैं और विश्वभर के प्रतिकूल चलते ( सबका अहित करते ) हैं।





मैं तुम्हार अनुचर मुनिराया। परिहरि कोपु करिअ अब दाया।। टूट चाप नहिं जुरिहिं रिसाने। बैठिय होइहिं पाय पिराने।।___ अर्थ___ हो मुनिराज ! मैं आपका दास हूँ। अब क्रोध त्यागकर दया काजिये। टूटा हुआ धनुष क्रोध करने से जुड़ नहीं जायगा। खड़े_ खड़े पैर दुखने लगे होंगे, बैठ जाइये।





जौं अति प्रिय तौं करिअ उपाई। जोरिअ कोऊ बर गुनी बोलाई।। बोलत लखनहिं जनकु डेराहीं। मष्ट करहु अनुचित भर नाहीं।।___ अर्थ____ यदि धनुष अत्यन्त ही प्रिय हो, तो कोई उपाय किया जाय और किसी बड़े गुणी ( कारीगर ) को बुलाकर जुड़वा दिया जाय। लक्ष्मणजी के बोलने से जनकजी डर जाते हैं और कहते हैं___ बस, चुप रहिये, अनुचित बोलना अच्छा नहीं।





थर थर काँपहिं पुर नर नारी। छोट कुमार खोट बड़ भारी।। भृगुपति सुनि सुनि निरभय बानी।  रिस तन जरइ होइ बल हानी।।___ अर्थ___ जनकपुर के स्त्री_ पुरुष थर_थर काँप रहे हैं [ और मन_ही_मन कह रहे हैं कि ] छोटा कुमार बड़ा ही खोटा है। लक्ष्मणजी की निर्भय बाणी सुन_सुनकर परशुरामजी की शरीर क्रोध से जला जा रहा है और उनके बल की हानि हो रही है ( उनका बल घट रहा है )।





बोले रामहिं देइ निहोरा। बचउँ बिचारि बंधु लघु तोरा।। मनु मलीन तनु सुंदर कैसें। बिष रस भरा कनक घटु जैसें।।___ अर्थ___ तब श्रीरामचन्द्रजी पर एहसान जनाकर परशुरामजी बोले____ तेरा छोटा भाई समझकर मैं इसे बचा रहा हूँ। यह मन का मैला और शरीर की कैसा सुन्दर है, जैसे विष के रस से भरा हुआ सोने का घड़ा।





सुनि लछिमन बिहसे बहुरि नयन तरेरे राम। गुरु समीप गवने सकुचि परिहरि बानी बाम।।____ अर्थ____ यह सुनकर लक्ष्मणजी फिर हँसे। तब श्रीरामचन्द्रजी ने तिरछी नजर से उनकी ओर देखा, जिससे लक्ष्मणजी सकुचाकर, विपरीत बोलना छोड़कर, गुरुजी के पास चले गये।





अति विनीत मृदु सीतल बानी। बोले रामु जोरि जुग पानी।। सुनहु नाथ तुम्ह सहज सुजाना। बालक बचनु करिअ नहिं काना।।___ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी दोनों हाथ जोड़कर अत्यन्त विनय के साथ कोमल और शीतल वाणी बोले___ हे नाथ ! सुनिये,  आप तो स्वभाव से ही समझदार हैं। आप बालक के वचन पर ध्यान न दीजिये ( उसे सुना_ अनसुना कर दीजिये )।


बररै बालकु एकु सुभाऊ। इन्हहिं न संत बिदूषहिं काऊ।। तेहिं नाहीं कछु काज बिगारा। अपराधी मैं नाथ तुम्हारा।।___ अर्थ____बरैं और बालक एक स्वभाव है। संतजन इन्हें कभी दोष नहीं लगाते। फिर उसने ( लक्ष्मणने ) तो कुछ काम भी नहीं बिगाड़ा है, हे नाथ ! आपका अपराधी तो मैं हूँ।





कृपा कोप बधु बँधब गोसाईं। मो पर करिअ दास की नाई।। कहिअ बेगि जेहि बिधि रिस जाई। मुनिनायक सोइ करौं उपाई।।___ अर्थ___अतः हे स्वामी ! कृपा, क्रोध, वध और बन्धन, जो कुछ करना हो, दास की तरह ( अर्थात दास समझकर ) मुझपर कीजिये। जिस प्रकार से शीघ्र आपका क्रोध दूर हो, हे मुनिराज ! बताइये, मैं वही उपाय करूँ।





कह मुनि राम जाइ रिस कैसें। अजहूँ अनुज तव चितव अनैसें।। एहि कें कंठ कुठारु न दीन्हा। तो मैं काह कोपु करि दीन्हा।।___ अर्थ___मुनि ने कहा___ हे राम ! क्रोध कैसे जाय; अब भी तेरा छोटा भाई टेढ़ा ही ताक रहा है। उसकी गर्दन पर मैंने कुठार न चलाया, तो क्रोध करके किया ही क्या ?





 गर्भ स्रवहिं अवनिप रवनि सुनि कुठार गति घोर । परसु अछत देखउँ जिअत बैरी भूपकिसोर।।___ अर्थ___मेरे जिस कुठार की घोर करनी सुनकर राजाओं की स्त्रियों के गर्भ गिर पड़ते हैं, उसी फरसे के रहते मैं इस शत्रु राजपुत्र को जीवित देख रहा हूँ।





बहइ न हाथु दहइ किस छाती। भा कुठारु कुंठित नृपघाती।। भयउ बाम बिधि फिरेउ सुभाऊ। मोरे हृदयँ कृपा कसि काऊ।।___अर्थ___हाथ चलता नहीं, क्रोध से छाती जली जाती है। [ हाय ! ] राजाओं का घातक यह कुठार भी कुंठित हो गया। विधाता विपरीत हो गया, इससे मेरा स्वभाव बदल गया, नहीं तो भला, मेरे हृदय में किसी समय भी कृपा कैसी ?








आजु दया दुखु दुसह सहावा। सुनि सौमित्रि बिहसि सिरु नावा।। बाउ कृपा मूरति अनुकूला। बोलत बचन. झरत जनु फूला।।___ अर्थ___ आज दया मुझे यह दुःसह दुःख सहा रही है। यह सुनकर लक्ष्मणजी ने मुस्कराकर सिर नवाया [ और कहा___ ] आपकी कृपारूपी वायु भी आपकी मूर्ति के अनुकूल ही है, वचन बोलते हैं मानो फूल झड़ रहे हैं ! 





जौं पैं कृपा जरिहिं मुनि गाता। क्रोध भएँ तनु  राख बिधाता।। देखु जनक हठि बालकु एहू। कीन्ह चहत जड़ जमपुर गेहू।।____ अर्थ___ हे मुनि ! यदि कृपा करने से आपका शरीर जला जाता है, तो क्रोध होने पर तो शरीर की रक्षा विधाता ही करेंगे। [ [परशुरामजी ने कहा___] हे जनक ! देख, यह मूर्ख बालक हठ करके यमपुरी में घर ( निवास ) करना चाहता है।





बेगि करहु किन आँखिन्ह ओटा। देखत छोट खोट नृपु ढोटा।। बिहसे लखनु कहा मन माहीं। मूँदे आँखि कतहुँ कोउ नाहीं।।___ अर्थ___इसको शीघ्र ही आँखों की ओट क्यों नहीं करते ? यह राजपुत्र देखने में छोटा है, पर है बड़ा खोटा। लक्ष्मणजी ने हँसकर मन_ही_मन कहा___ आँख मूँद लेने पर कहीं कोई नहीं है।





परसुराम तब राम प्रति बोले उर अति क्रोधु। संभु सरासनु तोरि सठ करसि हमारे प्रबोधु।।___ अर्थ___ तब परशुरामजी हृदय में अत्यन्त क्रोध भरकर श्रीरामजी से बोले___ अरे शठ ! तू शिवजी का धनुष तोड़कर उल्टा हमीं को ज्ञान सिखाता है !




बंधु कहइ कटु संमत तोंरें। तू छल बिनय करसि कर जोरें।। करु परितोषु मोर संग्रामा। नाहिं त छाड़ कहाउब रामा।।___अर्थ___ तेरा यह भाई तेरी ही सम्मति से कटु वचन बोलता है और तू छल से हाथ जोड़कर विनय करता है। या तो युद्ध में मेरा संतोष कर नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे।





छलु तजि करहि समरु सिवद्रोही। बंधु सहित न त मारउँ तोही।। भृगुपति बकहिं कुठार उठाएँ। मन मुसुकाहीं रामु सिर नाएँ।।___ अर्थ___अरे सिवद्रोही ! छल त्यागकर मुझसे युद्ध कर। नहीं तो भाईसहित तुझे मार डालूँगा। इस प्रकार परशुरामजी कुठार उठाये बकवास रहे हैं और श्रीरामचन्द्रजी सिर झुकाये मन_ही_मन मुस्करा रहे हैं।





गुनह लखन कर हम पर रोषू। कतहुँ सुधाइहु ते बड़ दोषू।। डेढ़ जानि सब बंदइ काहू। बक्र चन्द्रमहि ग्रसइ न राहू।।___ अर्थ____[ श्रीरामचन्द्रजी ने मन_ ही_मन कहा___] गुनाह ( दोष ) तो लक्ष्मण का और क्रोध मुझपर करते हैं। कहीं कहीं सीधेपन में भी बड़ा दोष होता है। टेढ़ा जानकर सबलोग किसी की भी वंदना करते हैं; टेढ़े चन्द्रमा को राहू  भी नहीं ग्रसता।





राम कहेउ रिस तजिअ मुनीसा। कर कुठारु आगें यह सीसा।। जेहिं रिस जाइ करिअ सोइ स्वामी। मोहि जानिअ आपन अनुगामी।।___ अर्थ___ श्रीरामचन्द्रजी ने [ प्रकट ] कहा___ हे मुनीश्वर ! क्रोध छोड़िये। आपके हाथ में कुठार है और मेरा यह सिर आगे है। जिस प्रकार आपका क्रोध जाय, हे स्वामी ! वही कीजिये। मुझे अपना अनुचर ( दास ) जानिये।




प्रभुहि सेवकहि समरु कस तजहु बिप्रवर रोसु। बेषु बिलोकें कहेसि कछु बालकहू नहिं दोसु।।____ अर्थ___स्वामी और सेवक में युद्ध कैसा ? हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! क्रोध का त्याग कीजिये। आपका [ वीरों_ का_सा ] वेष देखकर ही बालक ने कुछ कह डाला था; वास्तव में उसका भी कोई दोष नहीं है।





देखि कुठार बान धनु धारी। भै लरिकहि रिस बीरु बिचारी।। नामु जान पै तुम्हहिं न चीन्हा। बंस सुभायँ उतरु तेहिं दीन्हा।।___अर्थ___आपको कुठार, बाण और धनुष धारण किये देखकर और वीर समझकर बालक को क्रोध आ गया। वह आपका नाम तो जानता था, पर उसने आपको पहचाना नहीं। अपने वंश ( रघुवंश ) के स्वभाव के अनुसार उसने उत्तर दिया।





जौं तुम्ह औतेहु मुनि की नाईं। पद रज सिर सिसु धरत गोसाईं।। छमहु चूक अनजानत केरी। चहिअ बिप्र उर कृपा घनेरी।।___ अर्थ___ यदि आप मुनि की तरह आते तो हे स्वामी ! बालक आपके चरणों की धूलि सिर पर रखता। अनजाने की भूल को क्षमा कर दीजिये। ब्राह्मणों के हृदय में बहुत अधिक दया होनी चाहिये।





हमहि तुम्हहि सरिबरि कसि नाथा। कहहु न कहाँ चरन कहँ माथा।। राम मात्र लघु नाम हमारा। परसु सहित बड़ नाम तोहारा।।___ अर्थ___ हे नाथ ! हमारी और आपकी बराबरी कैसी ? कहिये न, कहाँ चरण और कहाँ मस्तक ! कहाँ मेरा राममात्र छोटा_सा नाम और कहाँ आपका परशु सहित बड़ा नाम।





देव एकु गुनु धनुष हमारें। नव गुन परम पुनीत तुम्हारे।। सब प्रकार हम तुम्ह सन हारे। छमहु बिप्र अपराध हमारे।।___ अर्थ___ हे देव ! हमारे तो एक ही गुण धनुष है और आपके पास परम पवित्र [ शम, दम, तप, शौच, क्षमा, सरलता, ज्ञान, विज्ञान और आस्तिकता___ ये ] नौ गुण हैं। हम तो सब प्रकार से आपसे हारे हैं। हे विप्र ! हमारे अपराधों को क्षमा कीजिये।





बार बार मुनि बिप्रबर कहा राम सन राम। बोले भृगुपति सरुष हसि तहूँ बंधु सम बाम।।___ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी ने परशुराम को बार_बार ‘मुनि’ और ‘विप्रवर’ कहा। तब भृगुपति ( परशुरामजी ) कुपित होकर [ अथवा क्रोध की हँसी_ हँसकर ] बोले___ तू भी अपने भाई के समान ही टेढ़ा है।





 निपटहिं द्विज करि जानहि मोही। मैं जस बिप्र सुनावउँ तोही।। चाप स्रुवा सर आहुति जानू। कोपु मोर अति घोर कृसानू।।___ अर्थ___ तू मुझे निरा ब्राह्मण ही समझता है ? मैं जैसा विप्र हूँ, तुझे सुनाता हूँ। धनुष को स्रुवा, बाण को आहुति और मेरे क्रोध को अत्यन्त भयंकर अग्नि जान।





समिधि सेन चतुरंग सुहाई। महा महीप भए पसु आई।। मैं एहि परसु काटि बलि दीन्हे। समर जग्य जप कोटिन्ह कीन्हे।।___अर्थ___ चतुरंगिणी सेना सुन्दर समिधाएँ ( यज्ञ में जलाई जानेवाली लड़कियाँ ) हैं। बड़े_ बड़े राजा उसमें आकर बलि के पशु हुए हैं, जिनको मैंने इसी फरसे से काटकर बलि दिया है। ऐसे करोड़ों जपयुक्त रणयज्ञ मैंने किये हैं ( अर्थात् जैसे मन्त्रोच्चारणपूर्वक ‘स्वाहा’ शब्द के साथ आहुति दी जाती है, उसी प्रकार मैंने पुकार_पुकारकर राजाओं की बलि दी है। )।





मोर प्रभाउ विदित नहिं तोरें। बोलसि निदरि बिप्र के भोरें।। भंजेउ चापु दापु बड़ बाढ़ा। अहमिति मनहुँ जीति जगु ठाढ़ा।।___ अर्थ___मेरा प्रभाव तुझे मालूम नहीं है, इसी से तू ब्राह्मण के धोखे से मेरा निरादर करके बोल रहा है। धनुष तोड़ डाला, इससे तेरा घमण्ड बहुत बढ़ गया है। ऐसा अहंकार है, मानो संसार को जीतकर खड़ा है।





राम कहा मुनि कहहु बिचारी। रिस अति बड़ि लघु चूक हमारी।। छुअतहिं टूट पिनाक पुराना। मैं केहि हेतु करौं अपमाना।।____ अर्थ____ श्रीरामचन्द्रजी ने कहा______ हे मुनि ! विचारकर बोलिये। आपका क्रोध बहुत बड़ा है। और मेरी भूल बहुत छोटी है। पुराना धनुष था, छूते ही टूट गया। मैं किस कारण अभिमान करूँ ? 





जौं हम निदरहिं बिप्र बदि सत्य सुनहु भृगुनाथ। तो अस को जग सुभटु जेहि भय बस नावहिं माथ।।____ अर्थ____ हे भृगुनाथ ! यदि हम सचमुच ब्राह्मण कहकर निरादर करते हैं, तो यह सत्य सुनिये, फिर संसार में ऐसा कौन योद्धा है जिसे हम डरके मारे माथा नवायें ?





 देव दनुज भूपति भट नाना। समबल अधिक होउ बलवाना।। जौ रन हमहि पचारै कोऊ। लरहिं सुखेन कालु किन होऊ।।___ अर्थ____ देवता, दैत्य, राजा या बहुत_से योद्धा, वे चाहे बल में हमारे बराबर हों चाहे अधिक बलवान् हों, यदि हमें रण में कोई भी ललकारे तो हम उससे सुखपूर्वक लड़ेंगे, चाहे काल ही क्यों न हो ?





छत्रिय रवि धरि समर सकाना। कुल कलंकु तेहिं पावँर आना।। कहउँ सुभाउ न कुलहिं प्रसंसी। कालहुँ डरहिं न रन रघुबंसी।।____ अर्थ___क्षत्रिय का शरीर धर कर जो युद्ध में डर गया, उस नीच ने अपने कुल पर कलंक लगा लिया। मैं स्वभाव से ही कहता हूँ, कुल की प्रशंसा करके नहीं, कि रघुवंशी रण में काल से भी नहीं डरते।





बिप्रबंस कै असि प्रभुताई। अभय होइ जो तुम्हहिं डेराई।। सुनि मृदु गूढ़ बचन रघुपति के। उघरे पटल परसुधरमति के।।___ अर्थ___ ब्राह्मणवंश की ऐसी ही प्रभुता ( महिमा ) है कि जो आपसे डरता है, वह सबसे निर्भय हो जाता है [ अथवा जो भयरहित होता है वह भी आपसे डरता है ]। श्रीरघुनाथजी के कोमल और रहस्यपूर्ण वचन सुनकर परशुरामजी का बुद्धि के परदे खुल गये।





राम रमापति कर धनु लेहू। खैंचहु मिटै मोर संदेहू।। देत चापु आपुहिं चलि गयऊ। परसुराम मन बिसमय भयऊ।।___ अर्थ___[ परशुरामजी ने कहा___] हे राम ! हे लक्ष्मीपति ! धनुष को हाथ में [ अथवा अथवा लक्ष्मीपति विष्णु का धनुष ] लीजिये और इसे खींचिये, जिससे मेरा संदेह मिट जाय। परशुरामजी धनुष लेने लगे, तब वह आप ही चला गया। तब परशुरामजी के मन में बड़ा आश्चर्य हुआ।





जाना राम प्रभाउ तब पुलक प्रफुल्लित गात। जोरि पानि बोले बचन हृदयँ न प्रेम अमात।।___ अर्थ___ तब उन्होंने श्रीरामजी का प्रभाव जाना, [ जिसके कारण ] उसका शरीर पुलकित और प्रफुल्लित हो गया। वे हाथ जोड़कर वचन बोले___ प्रेम उनके हृदय में नही समाता था।





जय रघुबंस बनज बन भानू। गहन दनुज कुल दहन कृसानू।। जय सुर बिप्र धेनु हितकारी। जय मद मोह कोह भ्रम हारी।।___ अर्थ____ हे रघुकुलरूपी कमलवन के सूर्य ! हे राक्षसों के कुलरूपी घने जंगल को जलानेवाले अग्नि ! आपकी जय हो ! हे देवता, ब्राह्मण और गौ का हित करनेवाले ! आपकी जय हो !  हे मद, मोह, क्रोध और भ्रम के हरनेवाले ! आपकी की जय हो।





बिनय सील  करुना गुन सागर। जयति बचन रचना अति नागर।। सेवक सुखद सुभग सब अंगा।। जय सरीर छबि कोटि अनंगा।।___ हे विनय, शील, कृपा आदि गुणों के समुद्र और वचनों की रचना में अत्यन्त चतुर ! आपकी जय हो। हे सेवकों के सुख देनेवाले, सब अंगों से सुन्दर और शरीर में करोड़ों कामदेव की छबि धारण करनेवाले ! आपकी जय हो !





 करौं काह मुख एक प्रसंसा। जय महेस मन मानस हंसा।। अनुचित बहुत कहेउँ अग्याता। छमहु छमामन्दिर दोष भ्राता।।____ अर्थ___ मैं एक मुख से आपकी क्या प्रशंसा करूँ ? हे महादेवजी के मनरूपी मानसरोवर के हंस ! आपकी जय हो ! मैंने अनजान आपको बहुत_से अनुचित वचन कहे। हे क्षमा के मन्दिर दोनों भाई ! मुझे क्षमा के मन्दिर दोनों भाई ! मुझे क्षमा कीजिये।





 कहि जय जय जय रघुकुलकेतू। भृगुपति गए बनहि तप हेतू।। अपभयँ कुटिल महीप डेराने। जहँ तहँ कायर गवँहि पराने।।___ अर्थ____ हे रघुकुल के पताकास्वरूप श्रीरामचन्द्रजी ! आपकी जय हो, जय हो, जय हो। ऐसा कहकर परशुरामजी वन में तप को चले गये। [ यह देखकर ] दुष्ट राजालोग बिना ही कारण के ( मनःकल्पित ) डर से ( रामचन्द्रजी से तो परशुरामजी भी हार गये, हमने इनका अपमान किया था, अब कहीं ये उसका बदला न लें, इस व्यर्थ के डर से ) डर गये, वे कायर चुपके से जहाँ_तहाँ भाग गये।





देवन्ह दीन्हीं  दुंदुभीं प्रभु पर बरसहिं फूल। हरषे सुर नर नारि सब मिटी मोहमय सूल।।___ अर्थ___ देवताओं ने नगाड़े बजाये, वे प्रभु के ऊपर फूल बरसाने लगे। जनकपुर के स्त्री_पुरुष सब हर्षित हो गये। उनका मोहमय ( अज्ञान से उत्पन्न ) शूल मिट गया।