Tuesday, 24 November 2020

बालकाण्ड

जो सुखु भा सिय मातु मन देखि राम बर बेषु। सो न सकहिं कहि कलप  सत सहस सारदा सेषु।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का वर वेष देखकर सीताजी की माता सुनयनाजी के मन में जो सुख हुआ, उसे हजारों सरस्वती और शेषजी सौ कल्पों में भी नहीं कह सकते।





नयन नीरु हटि मंगल जानी। परिछन करहिं मुदित मन रानी।। बेद बिहित अरु कुल आचारू। कीन्ह भली बिधि सब ब्यवहारू।।_अर्थ_मंगल_अवसर जानकर नेत्रों के जल को रोके हुए रानी प्रसन्न मन से परछन कर रही है। वेदों में कहे हुए तथा कुलाचार के अनुसार सभी व्यवहार रानी ने भली_भाँति किये।





पंच सबद धुनि मंगल गाना। पट पाँवड़े परहिं बिधि नाना।। करि आरति अरघु तिन्ह दीन्हा। राम गमनु मंडप तब कीन्हा।।_अर्थ_पंचशब्द ( तत्री, ताल, झाँझ, नगारा और तुरहि _इन पाँच प्रकार के बाजों का शब्द, पंचध्वनि ( वेदध्वनि, वन्दिध्वनि, जयध्वनि, शंखध्वनि और हुलूध्वनि ) और मंगलगान हो रहे हैं। नाना प्रकार के वस्त्रों के पाँवड़े पड़ रहे हैं। उन्होंने ( रानी ने ) आरती करके अर्ध्य दिया, तब श्रीरामजी ने मण्डप में गमन किया।





दसरथु सहित समाज बिराजे। बिभव बिलोकि लोकपति लाजे।। समयँ समयँ सुर बरसहिं फूला। सांति पढहिं महिसुर अनुकूला।।_अर्थ_दशरथजी अपनी मण्डली सहित विराजमान हुए। उनके वैभव को देखकर लोकपाल भी लजा गये। समय_समय पर देवता फूल बरसाते हैं और भूदेव ब्राह्मण समयानुकूल शान्तिपाठ करते हैं।





नभ अरु नगर कोलाहल होई। आपनि पर कछु सुनई न कोई।।  एहि बिधि राम मंडपहिं आए। अरघु देइ आसन बैठाए।।_अर्थ_आकाश और नगर में शोर मच रहा है। अपनी परायी कोई कुछ नहीं सुनता। इस प्रकार श्रीरामचन्द्रजी मण्डप में आए और अर्ध्य देकर आसन पर बैठाए गए।





बैठारि आसन आरती करि निरखि बरु सुखु पावहीं। मनि बसन भूषन भूरि वारहिं नारि मंगल गावहीं। ब्रम्हादि सुरबर बिप्र बेष बनाइ कौतुक देखहीं। अवलोकि रघुकुलकमल रबि छबि सुफल जीवन लेखहीं।।_अर्थ_आसन पर बैठाकर, आरती करके दूलहे को देखकर स्त्रियाँ सुख पा रही हैं। वे ढ़ेर_के_ढ़ेर मणि, वस्त्र और गहने निछावर करके मंगल गा रही हैं। ब्रह्मा आदि श्रेष्ठ देवता ब्राह्मण का वेष बनाकर कौतुक देख रहे हैं। वे रघुकुलरूपी कमल के प्रफुल्लित करनेवाले सूर्य श्रीरामचन्द्रजी की छबि देखकर अपना जीवन सफल मान रहे हैं।





नाऊ बारि भाट नट राम निछावरि पाइ। मुदित असीसहिं नाइ सिर हरषु न हृदयँ समाइ।।_अर्थ_नाई, बारी, भाट और नट श्रीरामचन्द्रजी की निछावर पाकर आनन्दित हो सिर नवाकर आशिष देते हैं; उनके हृदय में हर्ष समा नहीं रहा।





मिले जनकु दसरथु अति प्रीतीं। करि बैदिक लौकिक सब रीतीं।। मिलत महा दोउ राज बिराजे। उपमा खोजि खोजि कबि लाजे।।_अर्थ_वैदिक और लौकिक सब रीतियाँ करके जनकजी और दशरथजी बड़े प्रेम से मिले। दोनों महाराज मिलते हुए बड़े शोभित हुए, कवि उनके लिये उपमा खोज_खोजकर लजा गये।





लही न कतहुँ हारि हियँ मानी। इन्ह सम एइ उपमा उर आनी।। सामध देखि देव अनुरागे। सुमन बरषि जसु गावन लागे।।_अर्थ_जब कहीं भी उपमा नहीं मिली, तब हृदय में हार मानकर उन्होंने मन में यही उपमा निश्चित की कि इनके समान ये ही हैं। समधियों का मिलाप या परस्पर संबंध देखकर देवता अनुरक्त हो गये और फूल बरसाकर उनका यश गाने लगे।





जगु बिरंचि उपजावा जब तें। देखे सुने ब्याह बहु तब तें।। सकल भाँति सम साजू समाजू। सम समधी देखे हम आजू।।_अर्थ_[ वे कहने लगे_] जबसे ब्रह्माजी ने जगत् को उत्पन्न किया, तबसे हमने बहुत विवाह देखे_सुने; परन्तु सब प्रकार से समान साज_समाज और बराबरी के ( पूर्ण समतायुक्त ) समधी तो आज ही देखे।





देवगिरा सुनि सुंदर साँची। प्रीति अलौकिक दुहुँ दिसि माची।। देत पाँवड़े अरघु सुहाए। सादर जनकु मंडपहिं ल्याए।।_अर्थ_देवताओं ती सुंदर सत्यवाणी सुनकर दोनों ओर अलौकिक प्रीति छा गयी।  सुन्दर पाँवड़े और अर्ध्य देते हुए जनकजी दशरथजी को आदरपूर्वक मण्डप में ले आए।





मंडपु बिलोकि बिचित्र रचना रुचिरताँ मुनि मन हरे। निज पानि जनक सुजान सब कहुँ आनि सिंघासन धरे।। कुल इष्ट सरिस बसिष्ट पूजे बिनय करि आसिष लही। कौसिकहि पूजत परम प्रीति की रीति तौ न परै कही।।__अर्थ_ मण्डप को देखकर उसकी विचित्र रचना और सुन्दरता से मुनियों के मन भी हरे गये ( मोहित हो गये )। 





सुजान जनकजी ने  अपने हाथों से ला_लाकर सबके लिये सिंहासन रखे। उन्होंने अपने कुल के इष्टदेवता के समान वसिष्ठजी की पूजा की और विनय करके आशीर्वाद प्राप्त किया। विश्वामित्रजी की पूजा करते समय की परम प्रीति की रीति तो कहते ही नहीं बनती।




बामदेव आदिक रिषय पूजे मुदित महीस। दिए दिव्य आसन सबहि सब सन लही असीस।।_अर्थ_राजा ने बामदेव आदि ऋषियों की प्रसन्न मन से पूजा की। सभी को दिव्य आसन दिये और सबसे आशीर्वाद प्राप्त किया।





बहुरि कीन्ह कोसलपति पूजा। जानि ईस सम भाउ न दूजा।। कीन्ह जोरि कर बिनय बड़ाई। कहि निज भाग्य बिभव बहुताई।।_अर्थ_फिर उन्होंने कोसलाधीश राजा दशरथजी की पूजा उन्हें ईश ( महादेवजी ) के समान जानकर की, कोई दूसरा भाव न था। तदनन्तर [ उनके सम्बन्ध से ] अपने भाग्य और वैभव के विस्तार की सराहना करके हाथ जोड़कर विनती और बड़ाई की।




पूजे भूपति सकल बराती। समधी सम सादर सब भाँती।। आसन उचित दिए सब काहू। कहौं काह मुँह एक उछाहू।।_ अर्थ_राजा जनकजी ने सब बरातियों का समधी दशरथजी के समान ही सब प्रकार से आदरपूर्वक पूजन किया और सब किसी को उचित आसन दिये। मैं एक मुख से उत्साह का क्या वर्णन करूँ।





सकल बरात जनक सनमानी। दान मान बिनती बर बानी।। बिधि हरिहरु दिसिपति दिनराऊ। जे जानहिं रघुबीर प्रभाऊ।।_अर्थ_राजा जनक ने दान, मान_सम्मान, विनय और उत्तम वाणी से सारी बारात का सम्मान किया। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दिक्पाल और सूर्य जो श्रीरघुनाथजी का प्रभाव जानते हैं,





कपट विप्र बर बेष बनाएँ। कौतुक देखहिं अति सच पाएँ।। पूजे जनक देवसम जानें। दिए सुआसन बिनु पहिचाने।।_अर्थ_ वे कपट से ब्राह्मणों का सुन्दर वेष बनाये बहुत ही सुख पाते हुए सब लीला देख रहे थे। जनकजी ने उनको देवताओं के समान जानकर उनका पूजन किया और बिना पहचाने भी उन्हें सुन्दर आसन दिये।





 पहिचान को केहि जान सबहि अपान सुधि भोरि भई। आनंद कंदु बिलोकि दूलहु उभय दिसि आनंदभई।। सुर लखे राम सुजानपूजे मानसिक आसन दए। अवलोकि सीलु सुभाउ प्रभु को बिबुध मन प्रमुदित भए।।_अर्थ_कौन किसको जाने_पहिचाने ! सबको अपनी ही सुध भूली हुई है।  सुजान ( सर्वज्ञ ) श्रीरामचन्द्रजी ने देवताओं को पहचान लिया और उनकी मानसिक पूजा करके उन्हें मानसिक आसन दिये। प्रभु का शील_स्वभाव देखकर देवगण मन में में बहुत आनंदित हुए।





रामचन्द्र मुख चन्द छबि लोचन चारु चकोर। करत पान सादर सकल प्रेमु प्रमोदु न थोर।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी के मुखरूपी चन्द्रमा की छबि को सभी के सुन्दर नेत्ररूपी चकोर आदरपूर्वक पान कर रहे हैं; प्रेम और आनन्द कम नहीं है ( अर्थात् बहुत है )।





समउ बिलोकि बसिष्ठ बोलाए। सादर सतानंदु सुनि आए।। बेगि कुअँरि अब आनहु जाई। चले मुदित  मुनि आयसु पाई।।__अर्थ_समय देखकर वसिष्ठजी ने शतानंदजी को आदरपूर्वक बुलाया। वे सुनकर आदर के साथ आये। वसिष्ठजी ने कहा_अब जाकर राजकुमारी को शीघ्र ले आइये। मुनि की आज्ञा पाकर वे प्रसन्न होकर चले।





रानी सुनि उपरोहित बानी। प्रमुदित सखिन्ह समेत सयानी।। विप्रवधू कुलविप्र बोलाई। करि कुलरीति सुमंगल गाई।।_अर्थ_बुद्धिमति रानी पुरोहित की वाणी सुनकर सखियों सहित बहुत प्रसन्न हुई। ब्राह्मणों ती स्त्रियों और कुल की बूढ़ी स्त्रियों को बुलाकर उन्होंने कुलरीति करके सुन्दर मंगलगीत गाये।




नारि बेष जे सुर बर बामा। सकल सुभायँ सुन्दरी स्यामा।। तिन्हहिं देखि सुख पावहिं नारीं। बिनु पहिचानि प्रानहुँ ते प्यारी।।_अर्थ_श्रेष्ठ देवांगनाए, जो सुन्दर मनुष्य_स्त्रियों के वेष में हैं, सभी स्वभाव से ही सुन्दरि और स्यामा ( सोलह वर्ष की अवस्थावाली ) हैं। उनको देखकर रनिवास की स्त्रियाँ सुख पाती हैं और बिना पहचान के ही वे सबको प्राणों से प्यारी हो रही हैं।





बार बार सनमानहिं रानी। उमा रमा सारद सम जानी।। सीय सँवारि समाज बनाई। मुदित मंडपहिं चली लवाई।।_अर्थ_उन्हे पार्वती, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जानकर रानी बार_बार उनका सम्मान करती हैं। [ रनिवास की स्त्रियाँ और सखियाँ ] सीताजी का श्रृंगार करके, मण्डली बनाकर, प्रसन्न होकर उन्हें लिवा चलीं।




चलि ल्याइ  सीतहिं सखीं सादर सजि सुमंगल भामिनीं। नवसप्त साजें सुन्दरीं सब मत्त कुंजर गामिनीं। कल गान सुनि मुनि ध्यान त्यागहिं काम कोकिल लाजहीं। मंजीर नूपुर कलित कंकन ताल गति बर बाजहीं।।_अर्थ_सुन्दर मंगल का साज सजकर [ रनिवास की ] स्त्रियाँ  और सखियाँ आदरसहित सीताजी को लिवा चलीं। सभी सुन्दरियाँ सोलहों श्रृंगार किये हुए मतवाले हाथियों की चाल से चलनेवाली हैं। उनके मनोहर गान को सुनकर मुनि ध्यान छोड़ देते हैं और कामदेव की कोयलें लजा जाती हैं। पायजेब, पैंजनी और सुन्दर कंकण ताल की गति पर बड़े सुन्दर बज रहे हैं।





सोहति बनिता बृंद महुँ सहज सुहावनि सीय। छबि ललना गन मध्य जनु सुषमा तिय कमनीय।।_अर्थ_सहज ही सुन्दरी सीताजी स्त्रियों के समूह में इस प्रकार शोभा पा रही हैं, मानो छबिरूपी ललनाओं के समूह के बीच साक्षात् मनोहर शोभारूपीस्त्री सुुशोभित है।





सिय सुंदरता बरनि न जाई। लघुमति बहुत मनोहरताई।। आवत दीखि बरातिन्ह सीता। रूप रासि सब भाँति पुनीता।।_अर्थ_ सीताजी की सुन्दरता का वर्णन नहीं हो सकता, क्योंकि बुद्धि बहुत छोटी और मनोहरता बहुत बड़ी है। रूप की राशि और सब प्रकार से पवित्र सीताजी को बरातियों को आते देखा।





सबहिं मनहिं मन कीन्ह प्रनामा। देखि राम भए पूरनकामा।। हरषे दसरथ सुतन्ह समेता। कहि न जाइ उर आनँदु जेता।।_ अर्थ_ सभी ने उन्हें मन_ही_मन प्रणाम किया। श्रीरामचन्द्रजी को देखकर तो सभी पूर्णकाम ( कृतकृत्य ) हो गये। राजा दशरथजी पुत्रोंसहित हर्षित हुए। उनके हृदय में जितना आनंद था कहा नहीं जा सकता।
सुर प्रणाम करि बरिसहिं फूला। मुनि असीस धुनि मंगल मूला।। गान निसान कोलाहलु भारी। प्रेम प्रमोद मगन नर नरी।।_ अर्थ_ देवता प्रणाम करके फूल बरसा रहे हैं। मंगलों की मूल मुनियों के आशीर्वादों की ध्वनि हो रही है। गानों और नगाड़ों के शब्द से बड़ा शोर मच रहा है। सभी नर नारी प्रेम में मगन हैं।





एहि बिधि सीय मंडपहिं आई। प्रमुदित सांति पढ़हिं मुनिराई।। तेहि अवसर कर बिधि ब्यवहारू। दुहुँ कुलगुर सब कीन्ह आचारू।।_अर्थ_इसप्रकार सीताजी मण्डप में आयीं। मुनिराज बहुत ही आनंदित होकर शांतिपाठ कर रहे हैं। उस अवसर की सब रीति, व्वहार और कुलाचार दोनों कुलगुरुओं ने किये।





आचारु करि गुर गौरि गनपति मुदित बिप्र पुजावहिं। सुर प्रगटि पूजा लेहिं देहिं असीस अति सुखु पावहीं।। मधुपर्क मंगल द्रब्य जो जेहि समय मुनि मन महुँ चहैं। भरे कनक कोपर कलस सो तब लिएहिं परिचारक रहैं।।_अर्थ_कुलाचार करके गुरुजी प्रसन्न होकर गौरीजी, गणेशजी और ब्राह्मणों की पूजा करा रहे हैं [ अथवा ब्राह्मणों के द्वारा गौरी और गणेश की पूजा करवा रहे हैं ] । देवता प्रकट होकर पूजा ग्रहण करते हैं, आशीर्वाद देते हैं और अत्यन्त सुख पा रहे हैं। मधुपर्क आदि जिस किसी भी मांगलिक पदार्थ की मुनि जिस समय मन में चाहमात्र करते हैं, सेवकगण उसी समय सोने की परातों में और कलशों में भरकर उन पदार्थों को लिये तैयार रहते हैं।




कुल रीति प्रीति समेत रबि कहि देत सब सादर कियो। एहि भाँति देव पुजाइ सीतहिं सुभग सिंहासन दियो।। सिय राम अवलोकनि परस्पर प्रेम काहुँ न लखि परै। मन बुद्धि बर बानी अगोचर प्रगट कबि कैसे करैं।।_अर्थ_स्वयं सूर्यदेव प्रेमसहित अपने कुल की सब रीतियाँ बता देते हैं और वे सब आदरपूर्वक की जा रही हैं। इस प्रकार देवताओं की पूजा करा के मुनियों ने सीताजी को सिंहासन दिया। श्रीसीताजी और श्रीरामजी का आपस में एकदूसरे का देखना तथा तथा उनका परस्पर प्रेम किसी को पता नहीं चल रहा है। जो बात मन, बुद्धि और वाणी से भी परे ह, उसे कवि क्योंकर प्रगट करे?





जय धुनि बंदि बेद धुनि मंगल गान निसान। सुनि हरषहिं बरषहिं बिबुध सरतरु सुमन सुजान।।_अर्थ_जयध्वनि, बन्दिध्वनि, वेदध्वनि, मंगलगान और नगाड़ों की ध्वनि सुनकर चतुर देवगण हर्षित हो रहे हैं और कल्पवृक्ष के फूलों को बरसा रहे हैं।





कुअँरु कुअँरि कल भावँरि देहीं। नयन लाभु सब सादर लेहीं।। जाइ न बरनि मनोहर जोरी। जो उपमा कछु कहौं सो थोरी।।_अर्थ_वर और कन्या सुन्दर भाँवरे दे रहे हैं। सबलोग आदरपूर्वक [ उन्हें देखकर ] नेत्रों का परम लाभ ले रहे हैं। मनोहर जोड़ी का वर्णन नहीं हो सकता, जो कुछ उपमा होगी वही थोड़ी होगी।





राम सीय सुन्दर प्रतिछाहीं। जगमगात मनि खम्भन्ह माहीं।। मनहुँ मदन रति धरि बहुरूपा। देखत राम बिआह अनूपा।।_अर्थ_श्रीरामजी और श्रीसीताजी की सुन्दर परछाई मणियों के खम्भों में जगमगा रही है, मानो कामदेव और रति बहुत_से रूप धारणकरके  श्रीरामजी के अनुपम विवाह को देख रहे हैं।

दरस लालसा सकुच न थोरी। प्रगटत दुरत बहोरि बहोरि।। भए मगन सब देखनिहारे। जनक समान अपान बिसारे।।_अर्थ_उन्हें ( कामदेव और रति को ) दर्शन की लालसा और संकोच दोनों ही कम नहीं है ( अर्थात् बहत हैं ); इसलिये वे बार_बार प्रकट होते और छिपते हैं। सब देखनेवाले आनंदमग्न हो गये और जनकजी की भाँति सभी अपनी सुध भूल गये।





प्रमुदित मुनिन्ह भावँरीं फेरीं। नेगसहित सब रीति निबेरीं।। राम सीय सिर सेंदुर देहीं। सोभा कहि न जात बिधि केहीं।।_अर्थ_मुनियों ने  आनन्दपूर्वक भाँवरें फिरायीं और नेगसहित सब रीतियों को पूरा किया। श्रीरामचन्द्रजी सीताजी के सिर में सिंदूर दे रहे हैं; यह शोभा किसी प्रकार भी कही नहीं जाती।






अरुन पराग जलजु भरि नीकें। ससिहि भूष अहि लोभ अमी कें।। बहुरि बसिष्ठ दीन्हि अनुसासन। बरु दुलहिनि बैठे एक आसन।।_अर्थ_मानो कमल को लाल पराग से अच्छी तरह भरकर अमृत के लोभ से साँप चन्द्रमा को भूषित कर रहा है। ( यहाँ श्रीराम के हाथ को कमल की, सेंदुर को पराग की, श्रीराम के श्याम भुजाओं को साँप की और सीताजी के मुख को चन्द्रमा की उपमा दी गयी है ) फिर वसिष्ठजी ने आज्ञा दी, तब दूलह और दुलहिन एक आसन पर बैठे।





बैठे बरासन रामु जानकि मुदित मन दसरथु भए। तनु पुलक पुनि पुनि देखि अपनें सुकृत सुरतरु फल नए।। भरि भुवन रहा उछाहु राम बिबाहु भा सबहीं कहा। केहि भाँति बरनि सिरात रसना एक यहु मंगल महा।।_अर्थ_ श्रीरामजी और जानकीजी श्रेष्ठ आसन पर बैठे; उन्हें देखकर दशरथजी मन में बहुत आनंदित हुए। अपने सुकृतरूपी कल्पवृक्ष में नये फल [ आये ] देखकर उनका शरीर बारबार पुलकित हो रहा है। चौदहों भुवनों में उत्साह भर गया; सबने कहा कि श्रीरामचन्द्रजी का विवाह हो गया। जीभ एक है और यह मंगल महान् है; फिर भला, वह वर्ण करके किस प्रकार समाप्त किया जा सकता है!





तब जनक पाइ बसिष्ठ आयसु ब्याह साज सँवारि कै। मांडवी श्रुतकीरति उरमिला कुअँरि लईं हँकारि कै।। कुसकेतु कन्या प्रथम जो गुन सील सुख सोभामई। सब रीति प्रीति समेत सो ब्याहि भूप भरतहिं दई।।_अर्थ_तब बसिष्ठजी की आज्ञा पाकर जनकजी ने विवाह का समान सजाकर माण्डवीजी, श्रुतकीर्ति और उर्मिलाजी_इन तीनों राजकुमारियों को बुला लिया। कुशध्वज की बड़ी कन्या माण्डवीजी को, जो गुण, शील, सुख और शोभा की रूप ही थीं, राजा जनक ने प्रेमपूर्वक सब रीतियाँ करके भरतजी को ब्याह दिया।





जानकी लघु भगिनी सकल सुन्दर सिरोमनि जानि कै। सो तनय दीन्ही ब्याहि लखनहिं सकल बिधि सनमानि कै।। जेहि नामु श्रुतिकीरति सुलोचनि सकल गुन आगरी। सो दई रिपुसूदनहि भूपति रूप सील उजागरी।।_अर्थ_जानकीजी की छोटी बहिन उर्मिलाजी को सब सुन्दरियों में शिरोमणि जानकर उस कन्या को सब प्रकार से सम्मान करके, लक्ष्मणजी को ब्याह दिया; और जिसका नाम श्रुतकीर्ति है और जो सुन्दर नेत्रोंवाली, सुन्दर मुखवाली, सब गुणों की खान और रूप तथा शील में उजागर है, उनको राजा ने शत्रुध्न को ब्याह दिया। 





अनुरूप बर दुलहिनि परस्पर लखि सकुच हियँ हरषहिं। सब मुदित सुंदरता सराहहिं सुमन सुर गन बरषहीं।। सुन्दरीं सुंदर बरन्ह सह सब एक मंडप राजहीं। जनु जीव उर चारिउ अवस्था बिभुन सहित बिराजहीं।।_अर्थ_दूलह और दुलहिनें परस्पर अपने_ अपने अनुरूप जोड़ी को देखकर सकुचते हुए हृदय में हरषित हो रही हैं। सब लोग प्रसन्न होकर उनकी सुन्दरता की सराहना करते हैं और देवगण फूल बरसा रहे हैं।सब सुन्दरी दुलहिनें सुन्दर दूल्हों के साथ एक ही मण्डप में ऐसी शोभा पा रही हैं, मानो जीव के हृदय में चारों अवस्थाएँ ( जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय ) अपने चारों स्वामियों ( विश्व, तैजस, प्राज्ञ और ब्रह्म ) सहित विराजमान हों।





मुदित अवधपति सकल सुत बधुन्ह समेत निहारि। जनु पाए महिपालमनि क्रियन्ह सहित फल चारि।।_अर्थ_ सब पुत्रों को बहुओंसहित देखकर अवधनरेश दशरथजी ऐसे आनन्दित हैं मानो वे राजाओं के शिरोमणि क्रियाओं ( यज्ञक्रिया, श्रद्धाक्रिया, योगक्रिया और ज्ञानक्रिया ) सहित चारों फल ( अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष ) पा गये हों।





जसि रघुबीर ब्याह बिधि बरनी। सकल कुअँर ब्याहे तेहिं करनी।। कहि न जाइ कछु दाइज भूरी।। रहा कनकमनि मंडपु पूरी।।_ अर्थ_ श्रीरामचन्द्रजी के विवाह की जैसी विधि वर्णन की गयी, उसी रीति से सब राजकुमार विवाहे गये। दहेज की अधिकता कुछ कही नहीं जाती; सारा मंडप सोने और मणियों से भर गया।





कंबल बसन बिचित्र पटोरे। भाँति भाँति बहु मोल न थोरे।। गज रथ तुरग दास अरु दासी। धेनु अलंकृत कामदुहा सी।।_अर्थ_बहुत से कंबल वस्त्र और भाँति_भाँति के विचित्र रेशमी कपड़े, जो थोड़ी कीमत के न थे ( अर्थात् बहुमूल्य थे ) तथा हाथी, रथ घोड़े, दास,_दासियाँ और गहनों से सजी हुई कामधेनु_सरीखी गायें_





बस्तु अनेक करिअ किमि लेखा। कहि न जाइ जानहिं जिन्ह देखा।। लोकपाल अवलोकि सिहाने। लीन्ह अवधपति सबु सुखु माने।।_अर्थ_ [ आदि ] अनेकों  वस्तुएँ हैं, जिनकी गिनती कैसे की जाय। उनका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिन्होंने देखा है वही जानते हैं। उन्हेंवदेखकर लोकपाल भी सिहा गये। अवधराज दशरथजी ने सुख मानकर प्रसन्नचित्त से सबकुछ ग्रहण किया।





दीन्ह जाचकन्ह जो जेहि भावा। उबरा सो जनवासेहिं आवा।। तब कर जोरि जनक मृदु बानी बोले सब बरात सनमानी।।_अर्थ_उन्होंने वह दहेज का सामान याचकों को, जो जिसे अच्छा लगा दे दिया। जो बच रहा, वह जनवासे में चला आया। तब जनकजी ने हाथ जोड़कर सारी बरात का सम्मान करते हुए कोमल वाणी से बोले_





सनमानि सकल बरात आदर दान बिनय बड़ाइ कै। प्रमुदित महामुनि बृंद बंदे पूजि प्रेम लड़ाइ कै।। सिरु नाइ देव मनाइ सब सन कहत कर संपुट किएँ। सुर साधु चाहत भाउ सिंधु कि तोष जल अंजलि दिएँ।।_अर्थ_आदर, दान, विनय और बड़ाई के द्वारा सारी बरात का सम्मान कर राजा जनक ने महान् आनन्द के साथ प्रेमपूर्वक  लड़ाकर ( लाड़ करके ) मुनियों के समूह की पूजा एवं वन्दना की। सिर नवाकर, देवताओं को मनाकर, राजा हाथ जोड़कर सबसे कहने लगे कि देवता और साधु तो भाव ही चाहते हैं ( वे प्रेम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, उन पूर्णकाम महानुभावों को कोई कुछ देकर कैसे संतुष्ट कर सकता है ); क्या एक अंजलि जल देने से कहीं समुद्र संतुष्ट हो सकता है।





कर जोरि जनक बहोरि बंधु समेत कोसलराय सों। बोले मनोहर बयन सानि सनेह सील सुभाय सों।। संबंध राजन रावरें हम बड़े अब सब बिधि भए। एहि राज साज समेत सेवक जानिबे बिनु गथ लए।।_अर्थ_फिर जनकजी भाई सहित हाथ जोड़कर कोसलाधीश दशरथजी से स्नेह, शील और सुन्दर प्रेम में सानकर मनोहर वचन बोले_हे राजन् ! आपके साथ संबंध हो जाने से अब हम सब प्रकार से बड़े हो गये। इस राज_पाट सहित हम दोनों को आप बिना दाम के लिये हुए सेवक ही समझियेगा।





ए दारिका परिचारिका करि पालिबि करुना नईं। अपराधु छमिबों बोलि पठए बहुत हौं ढ़ीठ्यो कईं।। पुनि भानुकुलभूषन सकल सनमान निधि समधी किए। कहि जाति नहिं बिनती परस्पर प्रेम परिपूरन हिए।।_अर्थ_ इन लड़कियों को टहलनी मानकर, नयी_नयी दया करके पालन कीजियेगा। मैंने बड़ी ढ़िठाई की कि आपको यहाँ बुला भेजा, अपराध क्षमा कीजियेगा। फिर सूर्यकुल के भूषण दशरथजी ने समधी जनकजी को संपूर्ण सम्मान का निधि कर दिया ( इतना सम्मान किया कि वे सम्मान के भण्डार ही हो गये )। उनकी परस्पर की विनय कही नहीं जाती, दोनों के हृदय प्रेम से परिपूर्ण हैं।





बृंदारका गन सुमन बरिसहिं राउ जनवासेहिं चले। दुंदुभी जय धुनि  बेद धुनि नगर कौतूहल भले।। तब सखीं मंगल गान करत मुनीस आयसु पाइ कै। दूलह दुलहिनिन्ह सहित सुंदरि चलीं कोहबर ल्याइ कै।।_अर्थ_देवतागण फूल बरसा रहे हैं; राजा जनवासे को चले। नगाड़े की ध्वनि, जयध्वनि और वेद की ध्वनि हो रही है; आकाश और नगर दोनों में खूब कौतूहल हो रहा है ( आनन्द छा रहा है ), तब मुनिश्वर की आज्ञा पाकर सुंदरी सखियाँ मंगलगान करती हुईं दुलहिनों सहित दूल्हों को लिवाकर कोहबर को चलीं।





पुनि पुनि रामहि चितव सिय सकुचित मनु सकुचै न। हरत मनोहर मीन छबि प्रेम पियासे नैन।।सीताजी बार_बार रामजी को देखती हैं और सकुचा जाती हैं; पर उनका मन नहीं सकुचाता। प्रेम के प्यासे उनके नेत्र सुन्दर मछलियों के छबि को हर रहे हैं।

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