देखि स्याम मृदु मंजुल गाता। कहहिं सप्रेम बचन सब माता।। मारग जात भयावनि भारी। केहिबिधि तात ताड़का मारी।।_अर्थ_श्रीरामजी के सांवले सुन्दर कोमल अंगों को देखकर सब माताएं प्रेम सहित वचन कहे रही हैं_हे तात ! मार्ग में जाते हुए तुमने बड़ी सयानी ताड़का राक्षसी को किस प्रकार से मारा ?
घोर निसाचर बिकट समर गनहिं नहिं काहु। मारे सहित सहाय किमि खल मारीच सुबाहु।।_अर्थ_बड़े भयानक राक्षस जो बिकट योद्धा थे और जो युद्ध में किसी को कुछ नहीं गिनते थे, उन दुष्ट मारीच और सुबाहु को सहायकों सहित तुमने कैसे मारा?
मुनि प्रसाद बलि तात तुम्हारी। ईंस अनेक करवरें टारी।। मख रखवारी करि दुहुं भाई। गुरु प्रसाद सब विद्या पाई।।_अर्थ_हे तात ! मैं बलैया लेती हूं, मुनि की कृपा से ही ईश्वर ने बहुत_सी बलाओं को टाला। दोनो भाइयों ने यज्ञ की रखवाली करके गुरुजी के प्रसाद से सब विद्याएं पायीं।
मुनि तिय तरी लगत पग धूरी। कीरति रही भुवन भरी पूरी।। कमल पीठि पबि कूट कठोरा। नृप समाज महुं सिव धनु तोरा।।_अर्थ_चरणों की धूलि लगते ही मुनि पत्नी अहिल्या तर गयी। विश्व भर में यह कीर्ति पूर्ण रूप से व्याप्त हो गयी कच्छप की पीठ, वज्र और पर्वत से भी कठोर शिवजी के धनुष को राजाओं के समाज में तुमने तोड़ दिया।
बिस्व बिजय जसु जानकी पाई। आए भवन ब्याहि सब भाई।। सकल अमानुष करम तुम्हारे। केवल कौसिक कृपां सुधारें।।_अर्थ_ विश्वविजय के यश और जानकी को पाया और सब भाइयों को ब्याहकर घर आये। तुम्हारे सभी कर्म अमानुषी हैं ( मनुष्य की शक्ति से बाहर हैं ), जिन्हें केवल विश्वामित्रजी की कृपा ने सुधारा है ( सम्पन्न किया है )।
आजु सुफल जग जनमु हमारा। देखि तात बिधुबदन तुम्हारा।। जे दिन गए तुम्हहिं बिनु देखें। ते बिरंचि जनि पारहिं लेखें।।_अर्थ_हे तात ! तुम्हारा चन्द्रमुख देखकर आज हमारा जगत् जन्म लेना सफल हुआ। तुमको बिना देखे जो दिन बीते हैं, उनको ब्रह्मा गिनती में न लावें ( हमारी आयु में शामिल न करें)।
राम प्रतोषीं मातु सब कहि बिनीत बर बैन। सुमिरि संभु गुर बिप्र पद किए नीदबस नैन।।_अर्थ_ विनय से भरे उत्तम वचन कहकर श्रीरामचन्द्र जी ने माताओं को संतुष्ट किया। फिर शिवजी, गुरु और ब्राह्मणों के चरणों का स्मरण कर नेत्रों को नींद के वश किया ( अर्थात् वे हो रहे )।
नींदउं बदन सोह सठि लोना। मनहुं सांझ सरसीरुह सोना।। घर घर करहिं जागरन नारी। देहिं परस्पर मंगल गारी।।_अर्थ_नींद में भी उनका अत्यन्त सलोना मुखड़ा ऐसा सोह रहा था, मानो सन्ध्या के समय का लाल कमल सोह रहा हो। स्त्रियां घर_घर जागरण कर रही हैं और आपस में ( एक_दूसरी को ) मंगलमयी गालियां दे रही हैं।
पुरी बिराजति राजति रजनी। रानी कहहिं बिलोकहु सजनी।। सुन्दर बधून्ह सासु लै सोईं। फनिकन्ह तनु सिरमनि उर गोईं।।_अर्थ_रानियां कहती हैं_हे सजनी ! देखो ( आज ) रात्रि कैसी शोभा है, जिससे अयोध्या पुरी विशेष सुशोभित हो रही है ! यों कहती हुई सासुएं सुन्दर बहुओं को लेकर सो गईं, मानो सर्पों ने अपने सिर की मणियों को हृदय में छिपा लिया है।
प्रातः पुनीत काल प्रभु जागे। अरुनचूड़ बर बोलन लागे।। बन्दि मागधन्हि गुनगन गाए। पुरजन द्वार जोहारन्ह आए।।_अर्थ_प्रात:काल पवित्र ब्रह्ममुहुर्त में प्रभु जागे। मुर्गे सुन्दर बोलने लगे। भाट और मागधों ने गुणों का गान किया तथा नगर के लोग द्वार पर जोहार करने को आए।
बंदि बिप्र सुर गुर पितु माता। पाई असीस मुदित सब भ्राता।। जननिन्ह सादर बदन निहारे भूपति संग द्वार पगु धारे।।_अर्थ_ब्राह्मणों, देवताओं, गुरु, पिता और माताओं की वन्दना कर आशीर्वाद पाकर सब भाई प्रसन्न हुए। माताओं ने आदर के साथ उनके मुखों को देखा। फिर वे राजा के साथ दरवाजे ( बाहर ) पधारे।
कीन्ह सौच सब सहज सुचि सरित पुनीत नहाइ। प्रातः क्रिया करि तात पहिं आए चारिउ _अर्थ_स्वभाव से ही पवित्र चारों भाइयों ने सब शौचादि से निवृत होकर पवित्र सरयू नदी में स्नान किया और प्रातः क्रिया ( सन्ध्या_वन्दनादि ) करके वे पिता के पास आये।
नवाह्नपारायण तीसरा विराम
भूप बिलोकि लिए उर लाई। बैठे हरषि रजायसु पाई।। देखि राम सब सभा जुड़ानी। लोचन लाभ अवधि अनुमानी।। राजा ने देखते ही उन्हें हृदय से लगा लिया। तदनन्तर वे आज्ञा पाकर हर्षित होकर बैठ गये। श्रीरामचन्द्रजी के दर्शन कर और नेत्रों के लाभ की बस यही सीमा है, ऐसा अनुमान कर सारी सभा शीतल हो गयी ( अर्थात् सबके तीनों प्रकार के ताप सदा के लिये मिट गये )।
पुनि बसिष्टु मुनि कौसिकु आए। सुभग आसनन्हि मुनि बैठाए।। सुतन्ह समेत पूजि पद लागे। निरखहिं रामु दोउ गुर अनुरागे।।_अर्थ_फिर मुनि बसिष्ठजी और विश्वामित्रजी आए। राजा ने उनको सुन्दर आसनों पर बैठाया और पुत्रों समेत उनकी पूजा करके उनके चरणों लगे। दोनो गुरु श्रीरामजी को देखकर प्रेम में मुग्ध हो गये।
कहहिं बसिष्टु धरम इतिहासा। सुनहिं महीस सहित रनिवासा।। मुनि मन अगम गाधिसुत करनी। मुदित बसिष्ट बिपुल बिधि बरनी।।_अर्थ_बसिष्टजी धर्म के इतिहास कह रहे हैं और राजा रनिवास सहित सुन रहे हैं। जो मुनियों के मन को भी अगम्य है, ऐसी विश्वामित्र जी की करनी को बसिष्टजी ने आनन्दित होकर बहुत प्रकार से वर्णन किया।
बोले बामदेउ सब सांची। कीरति कवित लोक तिहुं माची।। सुनि आनंदु भरी सब काहू। राम लखन उर अधिक उछाहू।।_अर्थ_वामदेवजी बोले_ये सब बातें सत्य हैं। विश्वामित्रजी की सुन्दर कीर्ति तीनों लोकों में छायी है। यह सुनकर सब किसी को आनन्द हुआ। श्रीराम_लक्ष्मण के हृदय में अधिक उत्साह ( आनंद ) हुआ।
मंगल मोद उछाह नित जाहिं दिवस एहि भांति। उमगी अवध अनंद भरि अधिक अधिक अधिकाति।।_अर्थ_नित्य मंगल, आनंद और उत्सव होते हैं; इस तरह आनंद से भरकर उमड़ पड़ी, आनंद की अधिकता अधिक_अधिक बढ़ती ही जा रही है।
सुदिन सोधि कल कंकन छोरे। मंगल मोद बिनोद न थोरे।। नित नव सुखु सुर देखि सिहाहीं। अवध जन्म जाचहिं बिधि पाहीं।।_अर्थ_ अच्छा दिन ( शुभ मुहूर्त ) शोधकर सुन्दर कंकण खोले गये। मंगल, आनंद और विनोद कुछ कम नहीं हुए ( अर्थात् बहुत हुए )। इस प्रकार नित्य नये सुख को देखकर देवता सिहाते हैं और अयोध्या में जन्म पाने के लिये ब्रह्माजी से याचना करते हैं।
बिस्वामित्रु चलन नित चलन नित चहहीं। राम सप्रेम बिनय बस रहहीं।। दिन दिन सयगुन भूपति भाऊ। देखि सराह महामुनिराऊ।।_अर्थ_विश्वामित्रजी नित्य ही चलना ( अपने आश्रम जाना ) चाहते हैं, पर रामचन्द्रजी के स्नेह और विनयवश रह जाते हैं। दिनों-दिन राजा का सौगुना भाव ( प्रेम ) देखकर महामुनिराज विश्वामित्रजी उनकी सराहना करते हैं।
मागत विदा राउ अनुरागे। सुतन्ह समेत ठाढ भए आगे।। नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवक समेत सुत नारी।।_अर्थ_अन्त जब विश्वामित्रजी ने विदा मांगी, तब राजा प्रेममग्न हो गये और पुत्रोंसहित आकर खड़े हो गये। ( वे बोले_ ) हे नाथ ! यह सारी सम्पदा आपकी है। मैं तो स्त्री_पुत्रोंसहित आपका सेवक हूं।
करब सदा लरिकन्ह पर छोहू। दरसन देत रहब मुनि मोहू।। अस कहि राउ सहित सुत रानी। परेउ चरन मुख आव न बानी।।_अर्थ_हे मुनि ! लड़कों पर सदा स्नेह करते रहियेगा। ऐसा कहकर पुत्रों और रानियोंसहित राजा दशरथजी विश्वामित्रजी के चरणों पर गिर पड़े। ( प्रेमविह्वल हो जाने के कारण ) उनके मुंह से बात नहीं निकलती।
दीन्हि असीस बिप्र बहु भांति। चले न प्रीति की रीति कहि जाती।। रामु सप्रेम संग सब भाई। आयसु पाइ फिरे पहुंचाई।।_अर्थ_ ब्राह्मण विश्वामित्रजी ने बहुत प्रकार से आशीर्वाद दिये और वे चल पड़े, प्रीति की रीति कहीं नहीं जाती। सब भाइयों को साथ लेकर श्रीरामजी प्रेम के साथ उन्हें पहुंचाकर और आज्ञा पाकर लौटे।
राम रूप भूपति भूपति भगति ब्याहु उछाहु अनंदु। जात सराहत मनहिं मन मुदित गाधिकुलचंदु।।_अर्थ_गाधिकुल के चन्द्रमा विश्वामित्रजी बड़े हर्ष के साथ श्रीरामचन्द्रजी के रूप, राजा दशरथ जी की भक्ति ( चारों भाइयों के ) विवाह और ( सबके ) उत्साह को मन_ही_मन सराहते जाते हैं।
बामदेव रघुकुल गुर ग्यानी। बहुरि गाधिसुत कथा बखानी।। सुनि सुनि सुजस मनहिं मन राऊ। बरनी आपन पुन्य प्रभाऊ।।_अर्थ_ बामदेवजी और रघुकुल के गुरु ज्ञानी वसिष्ठजी ने फिर विश्वामित्रजी की कथा बखानकर कही। मुनि का सुन्दर यश सुनकर राजा मन_ही_मन अपने पुण्यों के प्रभाव का बखान करने लगे।
बहुरे लोग रजायसु भयऊ। सुतन्ह समेत नृपति गृहं गयऊ।। जहं तहं राम ब्याहु सब गावा। सुजसु पुनीत लोक तिहुं छावा।।_अर्थ_आज्ञा हुई तब सब लोग ( अपने अपने घरों को ) लौटे। राजा दशरथजी भी पुत्रोंसहित महल में गये। जहां_तहां सब श्रीरामचन्द्रजी के विवाह की गाथाएं गा रहे हैं। श्रीरामचन्द्रजी का पवित्र सुयश तीनों लोकों में छा गया।
आए रामु घर जब तें। बसइ अनंद अवध सब तब तें।। प्रभु बिबाहं जब भयउ उछाहू। सकइ न बरनि गिरा अहिनाहू।।_अर्थ_जब से श्रीरामचन्द्रजी विवाह करके घर आये, तबसे सब प्रकार का आनंद अयोध्या में आकर बसने लगा। प्रभु के विवाह में जैसा आनंद उत्साह हुआ, उसे सरस्वती और सर्पों के राजा शेष जी भी नहीं कह सकते।
कबिकुल जीवन पावन जानी। राम सीय जसु मंगल खानी।। तेहि ते मैं कछु कहा बखानी। करन पुनीत हेतु निज बानी।।_अर्थ_श्रीसीतारामजी के यश को कविकुल के जीवन को पवित्र करनेवाला और मंगलों की खान जानकर, इससे मैंने अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये कुछ ( थोड़ा_सा ) बखान कर कहा है।
निज गिरा करन कारन राम जसु तुलसी कहृयो। रघुबीर चरित अपार बारिधि पारु कबि कौने लह्यो।। उपबीत ब्याह उछाह मंगल सुनि जे सादर गावहीं। बैदेहि राम प्रसाद ते जन सर्बदा सुखु पावहीं।।_अर्थ_अपनी वाणी को पवित्र करने के लिये तुलसी ने राम का यश कहा है। ( नहीं तो ) श्रीरघुनाथजी का चरित्र अपार समुद्र है, किस कवि ने उसका पार पाया है ? जो लोग यज्ञोपवीत और विवाह के मंगलमय उत्सव का वर्णन आदर के साथ सुनकर गावेंगे, वे लोग श्रीजानकीजी और श्रीरामजी की कृपा से सदा सुख पावेंगे।
रघुबीर बिबाहु जे सप्रेम गावहिं सुनहिं। तिन्ह कहुं सदा उछाहु मंगलायतन राम जसु।।_अर्थ_श्रीसीताजी और श्रीरघुनाथजी के विवाह प्रसंग को लोग प्रेमपूर्वक गायेंगे_सुनेंगे उनके लिखे सदा उत्साह ( आनंद )_ही_उत्साह है; क्यों कि श्रीरामचन्द्रजी का यश मंगल का नाम है।
मासपारायण, बारहवां विश्राम
इति श्रीरामचरितमानसे सकलकलिकलुष विध्वंसने प्रथम सोपान: समाप्त
कलियुग के संपूर्ण पापों को विध्वंस करनेवाले श्रीरामचरितमानस का यह पहला सोपान समाप्त हुआ।