Wednesday, 16 June 2021

द्वितीय सोपान अयोध्याकाण्ड

यस्यांके च विभाति भूधरसुता देवापगा मस्तके। भाले बालविधुर्गले च गरलं यस्योरसि ब्यालराट्।। सोऽयं भूति विभूषण: सुरवर: सर्वाधीप: सर्वदा। शर्व: सर्वगत: शिव: शशिनिभ: श्रीशंकर: पातु माम्।।_अर्थ_जिनकी गोद में हिमाचलसुता पार्वतीजी, मस्तक पर गंगाजी, ललाट पर द्वितीया का चन्द्रमा, कण्ठ में हलाहल विष और वक्ष:स्थल पर सर्पराज शेषजी सुशोभित हैं, वे भस्म से विभूषित, देवताओं में श्रेष्ठ, सर्वेश्वर संहारकर्ता ( या भक्तों के पापनाशक ), सर्वव्यापक, कल्यानरूप, चन्द्रमा के समान शुभ्रवर्ण शंकरजी सदा मेरी रक्षा करें।

प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्लेवनवासदु:खत:। मुखाम्बुज श्रीरघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मंजुलमंगलप्रदा।।_अर्थ_रघुकुल को आनन्द देनेवाले श्रीरामचन्द्रजी के मुखारविंद की जो शोभा राज्याभिषेक ( राज्याभिषेक की बात सुनकर ) न तो प्रसन्नता हुई और न वनवास के दु:ख से मलीन ही हुई, वह ( मुखकमल की छवि ) मेरे लिये सदा सुन्दर मंगलों की देनेवाली हो।

नीलाम्बुजश्यामलकोमलांगं सीतासमारोहपितवामभागम्। पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्।।_अर्थ_नीले कमल के समान श्याम और कोमल जिनके अंग हैं, श्रीसीताजी जिनके वाम_भाग में विराजमान हैं और जिनके हाथों में ( क्रमशः ) अमोघ बाण और सुन्दर धनुष हैं, उन रघुवंश के स्वामी श्रीरामचन्द्र जी को मैं नमस्कार करता हूं।





श्रीगुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि। बरनी रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।_अर्थ_श्रीगुरुजी के चरणकमलों की रज से अपने मनरूपी दर्पण को साफ करके मैं श्री रघुनाथ जी के उस निर्मल यश का वर्णन करता हूं, जो चारों फलों को ( धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को ) देनेवाला है।





जब तें रामु ब्याहि घर आए। नित नव मंगल मोद बधाए।। भुवन चारिदस भूधर भारी। सुकृत मेघ बरसहिं सुख बारी।।_अर्थ_जबसे श्रीरामचन्द्रजी विवाह करके घर आये, तबसे ( अयोध्या में ) नित नये मंगल हो रहे हैं और आनन्द के बधावे बज रहे हैं। चौदहों लोकरूपी बड़े भारी पर्वतों पर पुण्यरूपी मेघ सुखरूपी जल बरसा रहे हैं।





रिधि सिद्धि संपति नदीं सुहाई। उमगि अवध अंबुधि कहुं आई।। मनि गन पुर नर नारि सुजाती। सुचि अमोल सुंदर बहु भांति।।_अर्थ_ रिद्धि_सिद्धि और संपत्ति रूपी सुहावनी नदियां उमड़_उमड़कर अयोध्यारूपी समुद्र में आ मिलीं। नगर के स्त्री_पुरुष अच्छी जाति के मणियों के समूह हैं, जो सब प्रकार से अमूल्य, पवित्र और सुन्दर हैं।





कहि न जाइ कछु नगर बिभूती। तनु एतनीय बिरंचि करतूती।। सब बिधि सब पुर लोग सुखारी। रामचंद मुख चंद निहारी।।_अर्थ_नगर का ऐश्वर्य कुछ कहा नहीं जाता। ऐसा जान पड़ता है, मानो ब्रह्माजी की कारीगरी बस इतनी ही  है। सब नगरनिवासी श्रीरामचन्द्रजी के मुखचन्द्र को देखकर सब प्रकार से सुखी हैं।





मुदित मातु सब सखी सहेली। फलित बिलोकि मनोरथ बेली।। राम रूपु गुन सीलु सुभाऊ। प्रमुदित होइ देखि सुनि राऊ।।_अर्थ_सब माताएं और सखी_सहेलियां अपनी मनोरथरूपी बेल को फली हुई देखकर आनन्दित हैं। श्रीरामचन्द्रजी के रूप, गुण, शील और स्वभाव को देख_सुनकर राजा दशरथजी बहुत ही आनंदित होते हैं।





 सब के उर अभिलाषु अस कहहिं मनाइ महेसु। आप अछत जुबराज पद रामहि देउ नरेसु।।_अर्थ_सबके हृदय में ऐसी अभिलाषा है और सब महादेवजी को मनाकर ( प्रार्थना करके ) कहते हैैं कि राजा अपने जीते_जी श्रीरामचन्द्रजी को युवराज पद दे दें।





एक समय सब सहित समाजा। राजसभां रघुराज बिराजा।। सकल सुकृति मूर्ति नरनाहू। राम सुजसु सुनि अतिथि उछाहू।।_अर्थ_एक समय रघुकुल के राजा दशरथजी अपने सारे समाज सहित राजसभा में विराजमान थे। महाराज समस्त पुण्यों की मूर्ति हैं, उन्हें श्रीरामचन्द्रजी का सुन्दर यश सुनकर अत्यन्त आनन्द हो रहा है।






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