Sunday, 30 January 2022

अयोध्याकाण्ड

लागहिं कुमुख बचन सुभ कैसे। मगहं गयादिक तीरथ जैसे।। रामहि मातु बचन सब भाए। जिमि सुरसरि गत सलिल सुहाए।।_अर्थ_कैकेयी के बुरे मुख से ये सुंदर वचन कैसे लगते हैं जैसे मगध देश में गया आदि तीर्थ ! श्रीरामचन्द्र जी को माता कैकेयी के सब वचन ऐसे अच्छे लगे जैसे गंगाजी में जाकर ( अच्छे_बुरे सभी प्रकार के ) जल शुभ, सुंदर हो जाते हैं। 





गई मुर्छा रामहि सुमिरि नृप फिरि करवट लीन्ह। सचिव आगमन कहि तब बिनय समय सम कीन्ह।।_अर्थ_इतने में राजा की मूर्छा दूर हुई, उन्होंने राम का स्मरण करके ( ‘राम_राम’ कहकर ) फिरकर करवट ली। मंत्री ने श्रीरामचन्द्र जी का आना कहकर समयानुकूल विनती की।





अवनिप अकनि रामु पगु धारे। धरि धीरजु तब नयन उघारे।। सचिवं संभालि राउ बैठारे। चरन परत नृप राम निहारे।।_अर्थ_ जब राजा ने सुना कि श्रीरामचन्द्र पधारे हैं तो उन्होंने धीरज धरके नेत्र खोले। मंत्री ने संभालकर राजा को बैठाया। राजा ने श्रीरामचन्द्र जी को अपने चरणों में पड़ते ( प्रणाम करते ) देखा।





लिए सनेह बिकल उर लाई। गै मनि मनहुं फनिक फिरि आई।। रामहिं चितइ रहेउ नरनाहू। चला बिलोचन बारि प्रबाहू।।_अर्थ_स्नेह से बिकल राजा ने रामजी को हृदय से लगा लिया। मानो सांप ने अपनी खोयी हुई मनि फिर पा ली हो। राजा दशरथजी रामजी को देखते रह गये। उनके नेत्रों से आंसुओं की धारा बह चली।





सोक बिबस कछु कहै न पारा। हृदयं लगावत बारहिं बारा।। बिधिहि मनाव राउ मन माहीं। जेहिं रघुनाथ न कानन जाहीं।।_अर्थ_शोक के विशेष वश होने के कारण राजा कुछ कह नहीं सकते। वे बार_बार श्रीरामचन्द्रजी को हृदय से लगाते हैं और मन में ब्रह्माजी को मनाते हैं कि जिससे श्रीरघुनाथजी वन को न जायं।





सुमिरि महेसहिं कहइ निहोरी। बिनती सुनहु सदाशिव मोरी।। आसुतोष तुम्ह अवढ़र दानी। आरति हरहुं दीन जनु जानी।।_अर्थ_फिर महादेवजी का स्मरण करके उनसे निहोरा करते हुए कहते हैं_हे सदाशिव ! आप मेरी विनती सुनिये। आप आशुतोष ( शीघ्र प्रसन्न होनेवाले ) और अवढ़रदानी ( मुंहमांगा दे डालने वाले ) हैं। अतः मुझे अपना दीन सेवक जानकर मेरे दु:ख को दूर कीजिये।





तुम्ह प्रेरक सबके हृदयं सोइ मति रामहि देहु। बचनु मोर तजि रहहिं घर परिहरि सीलु सनेहु।।_अर्थ_आप प्रेरक रूप से सबके हृदय में हैं। आप श्रीरामचन्द्र को ऐसी बुद्धि दीजिए जिससे वे मेरे वचन को त्यागकर और शील सनेह को छोड़कर घर ही में रह जायं।





अजसु होउ जग सुजस नसाऊ। नरक परौं बरु सुरपुरु जाऊ।। सब दुख दुसह सहाहहु मोही। लोचन ओट रामु जनि होहीं।।_अर्थ_जगत् में चाहे अपयश हो और सुयश नष्ट हो जाय। चाहे ( नया पाप होने से ) मैं नरक में गिरूं, अथवा स्वर्ग चला जाय ( पूर्व पुण्यों के फलस्वरूप मिलने वाला स्वर्ग चाहे मुझे न मिले )। और भी सब प्रकार के दु:सह दुख आप मुझसे सहन करा लें। पर श्रीरामचन्द्र मेरी आंखों की ओट न हों।





सब मन गुनइ राउ नहीं बोला। पीपल पात सरिस मनु डोला।  रघुपति पितहि प्रेम बस जानी। पुनि कछु कहिहहिं मातु अनुमानी।।_अर्थ_राजा मन_ही_मन इस प्रकार विचार कर रहे हैं, बोलते नहीं। उनका मन पीपल के पत्ते की तरह डोल रहा है। श्रीरघुनाथजी ने पिता को प्रेमधन जानकर और यह अनुमान कर कि माता फिर कुछ कहेगी ( तो पिताजी को दुःख होगा )_





देस काल अवसर अनुसारी। बोले बचन बिनीत बिचारी।। तात कहउं कछु करउं ढिठाई। अनुचित छमब जानि लरिकाई।।_अर्थ_ देश, काल और अवसर के अनुकूल विचार कर विनीत वचन कहे_ हे तात ! मैं कुछ कहता हूं, यह ढ़िठाई करता हूं। इस अनौचित्य को मेरी बाल्यावस्था समझकर क्षमा कीजिएगा।





अति लघु बात लागि दुखु पावा। काहुं न मोहि कहि प्रथम जनावा।। देखि गोसाइंहि पूछिउं माता। सुनि प्रसंगु भै सीतल गाता।।_अर्थ_ इस अत्यन्त तुच्छ बात के लिये आपने इतना दु:ख पाया। मुझे किसी ने पहले कहकर यह बात नहीं जतायी। स्वामी ( आप ) को इस दशा में देखकर मैंने माता से पूछा। उन्हें सारा प्रसंग सुनकर मेरे सब अंग शीतल हो गये ( मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।





मंगल समय सनेह बस सोच परिहरिअ तात। आयसु देइअ हरषि हियं कहि पुलके प्रभु गात।।_अर्थ_हे पिताजी ! इस मंगल के समय स्नेहवश होकर सोच करना छोड़ दीजिये और हृदय में प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा दीजिये। यह कहते हुए प्रभु श्रीरामजी सर्वांग पुलकित हो गये।





धन्य जनमु जगतीतल तासू। पितहि प्रमोदु चरित सुनि जासू।। चारि पदार्थ करतल ताकें। प्रिय पितु मातु प्रान सम जाकें।।_अर्थ_( उन्होंने फिर कहा_) इस पृथ्वी तल पर उसका जन्म धन्य है जिसके चरित्र सुनकर पिता को परम आनन्द हो। जिसको माता_पिता प्राणों के समान प्रिय हैं, चारों पदार्थ ( अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष ) उसके करतलगत ( मुट्ठी में ) रहते हैं।





आयसु पालि जनमु फलु पाई। एहउं बेगिहिं होउ रजाई।। विदा मातु सन आवउं मांगी। चलिहउं बनहि बहुरि पद लागी।।_अर्थ_आपकी आज्ञा पालन करके और जन्म का फल पाकर मैं जल्दी ही लौट आऊंगा, अत: कृपया आज्ञा दीजिये।
 माता से विदा मांग आता हूं। फिर आपके पैर रखकर ( प्रणाम करके ) वन को चलूंगा।





अस कहि राम गवनु तब कीन्हां। भूप सोक बस उतरु न दीन्हा।। नगर ब्यापि गई बात सुतीछी। छुअत चढ़ी तनु सब तन बीछी।।_अर्थ_ऐसा कहकर तब श्रीरामचन्द्रजी वहां से चल दिये। राजा ने शोकवश कोई उत्तर नहीं दिया। वह बहुत ही तीखी ( अप्रिय ) बात नगर भर में इतनी जल्दी फैल गरी मानो डंक मारते ही बिच्छू का विष सारे शरीर में चढ़ गया हो।





सुनि भए बिकल सकल नर नारी। बेलि बिटप जिमि देखि दवारी।। जो जहं सुनइ धुनइ सिरु सोई। बड़ बिषादु नहिं धीरजु होई।।_अर्थ_इस बात को सुनकर सब स्त्री-पुरुष ऐसे व्याकुल हो गये जैसे दावानल (  वन में आग लगी ) देखकर बेल और वृक्ष मुरझा जाते हैं। जो जहां सुनता है वहीं सिर धुनने ( पीटने ) लगता है ! बड़ा विषाद है, किसी को धीरज नहीं बंधता।





मुख सुखाहिं लोचन स्रवहिं सोकु न हृदयं समाइ। मनहुं करुन रस कटकई उतरी अवध बजाइ।।_अर्थ_सबके मुख सूखे जाते हैं, शोक हृदय में नहीं समाता। मानो करुणारस की सेना अवध पर डंका बजाकर उतर आयी हो।





भलेहि  बिधि बात बेगारी। जहं तहं जेहिं कैकइहि गारी।। एहि पापिनिहि सूझि का परेऊ। छाइ भवन पर पावक धरेऊ।। सब मेल मिल गये थे ( सब संजोग ठीक हो गये थे ), इतने में ही विधाता ने बात बिगाड़ दी ! जहां तहां लोग कैकेयी को गाली दे रहे हैं ! इस पापिन को क्या सूझा पड़ा जो इसने छाये घर पर आग लगा दी।





निज कर नयन काढ़ि चह दीखा। बादि सुधा बिष चाहत चीखा।। कुटिल कठोर कुबुद्धि अभागी। भइ रघुबंस बेनु बन आगी।।_अर्थ_ यह अपने हाथ से अपने आंखों को निकालकर ( आंखों के बिना ही ) देखना चाहती है, और अमृत फेंक कर विष चखना चाहती है ! यह कुटिल, कठोर, दुर्बुद्धि और अभागिनी कैकेई रघुवंश रूपी बांस वन के लिये अग्नि हो गयी।





पालव बैठि पेड़ एहिं काटा। सुख महुं सोक ठाटु धरि ठाटा। सदा रामु एहि प्रान समाना। कारन कवन कुटिलपनु ठाना।।_अर्थ_पत्ते पर बैठकर इसने पेड़ को काट डाला। सुख में शोक का ठाट डटकर रख दिया। श्रीरामचन्द्रजी इसे सदा प्राणों के समान प्रिय थे। फिर भी न जाने किस कारण उसने यह कुटिलता ठानी।




Wednesday, 12 January 2022

अयोध्याकाण्ड

जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु। सहमि परेउ लघु सिंघिनिहीं मनहुं बृद्ध गजराजु।।_अर्थ_रघुबंसमनि श्रीरामचन्द्रजी ने जाकर देखा कि राजा अत्यंत ही बुरे हालत में पड़े हैं। मानो सिंहनि को देखकर कोई बूढ़ा गजराज सहमकर गिर पड़ा हो।





सूखहिं अधर जरइ सब अंगू। मनहुं दीन मनिहीन भुअंगू।। सरुष समीप देखि कैकेई। मानहुं मीचु घरी गनि लेई।।_अर्थ_राजा के ओंठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना सांप दुखी हो रहा है। पास ही क्रोध में भरी कैकेयी को देखा, मानो साक्षात् मृत्यु ही बैठी राजा के जीवन की अन्तिम घड़ियां गिन रही हों।





करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुख सुना न काऊ।। तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूछीं मधुर बचन महतारी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का स्वभाव कोमल और करुणामय है। उन्होंने ( अपने जीवन में ) पहली बार यह दु:ख देखा; इससे पहले कभी दु:ख सुना भी न था। तो भी समय का विचार कर हृदय में धीरज धरकर उन्होंने मीठे वचनों से माता कैकेयी से पूछा_





मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होई निवारन।। सुनहु राम सब कारन एहू। राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू।।_अर्थ_हे माता ! मुझे पिताजी के दु:ख का कारण कहो ताकि उससे उसका निवारण हो ( दु:ख दूर हो ) वह यत्न किया जाय। ( कैकेयी ने कहा_) हे राम ! सुनो, सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत स्नेह है।





देन कहेन्हि मोहि दुआ बरदाना। मांगें जो कछु मोहि सोहाना।। सो सुनि भयउ भूप उर सोचूं। छाड़िअ न सकहिं तुम्हार संकोचू।।_अर्थ_इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा । मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वहीं मैंने मांगा। उसे सुनकर राजा के ह्रदय में सोच हो गया।; क्योंकि ये तुम्हारा संकोच नहीं छोड़ सकते।





सुत सनेहु इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु। कहुं तो आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।_अर्थ_इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन ( प्रतिज्ञा ); राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गये हैं। यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ।





निधरक बैठि कहा कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।। जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुं महीप मृदु लच्छ समाना।।_अर्थ_कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी बाणी कह रही है जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यंत व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन बहुत_से तीर हैं और राजा ही कोमल निशाने के समान है।





जनु कठोरपन धरे सरीरू। सिखइ धनुष विद्या बर बीरू।। सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुं तनु धरि निठुराई।।_अर्थ_(इस सारे साज_समान के साथ ) मानो स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीर का शरीर धारण करके धनुष विद्या सीख रहा है। श्री रघुनाथजी को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है मानो निष्ठुरता ही शरीर धारण किये हुए हो।





मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू।। बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।_अर्थ_सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनंदनिधान श्रीरामजी मन में मुस्कराकर सब दूषनों से रहित ऐसे कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे_





सुनु जननी सोई सुत बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।। तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननी सकल संसारा।।_अर्थ_हे माता ! सुनो, वहीं पुत्र बड़भागी है, जो पिता_माता के वचनों का अनुरागी ( पालन करनेवाला ) है। ( आज्ञा पालन के द्वारा ) माता_पिता को संतुष्ट करनेवाला पुत्र, हे जननी ! सारे संसार में दुर्लभ है।





मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहिं भांति हित मोर। तेहि महं पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।_अर्थ_वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा  सभी प्रकार से कल्याण है। उसमें भी, फिर पिताजी की आज्ञा और हे जननी ! तुम्हारी सम्मति है।





भरत प्राणप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सम्मुख आजू।। जौं न जाऊं बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।_अर्थ_और प्राणप्रिय भरत राय पालेंगे। ( इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि ) आज विधाता सब प्रकार से मेरे सम्मुख हैं ( मेरे अनुकूल हैं )। यदि ऐसे काम के लिये भी मैं वन को न जाऊं तो मूर्खों के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करनी चाहिये। 





सेवहिं अरंडु कल्पतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं
बिष मांगी।। तेहि न पाई अब समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।_अर्थ_ जो कल्पवृक्ष को छोड़कर रेंड की सेवा करते हैं और अमृत त्यागकर विष मांग लेते हैं, हे माता ! तुम मन में विचार कर देखो, वे ( महामूर्ख ) भी ऐसा मौका पाकर कभी न चूकेंगे।





अंब एक दुख मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।। थोरिहिं बात पितहिं दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।_अर्थ_ हे माता ! मुझे एक ही दुख विशेष रूप से हो रहा है, वह महाराज को अत्यंत व्याकुल देखकर। इस थोड़ी_सी बात के लिये ही पिताजी को इतना भारी दुख हो, हे माता मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता।





राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि तें कछु बड़ अपराधू।। जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ मोहि कहुं सतिभाऊ।।_अर्थ_क्योंकि महाराज तो बड़े ही धीर और गुणों के अथाह समुद्र हैं। अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण महाराज मुझसे कुछ नहीं कहते। तुम्हें मेरी सौगंध है, माता ! तुम सच_सच कहो।





सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान। चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।_अर्थ_रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के स्वभाव से ही सीधे वचनों को दुर्बुद्धि कैकेई टेढ़ा ही करके जान रही है; जैसे यद्यपि जल समान ही होता है, परन्तु जोंक उसमें टेढ़ी चाल से ही चलती हैं।





रहसि रानी राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।। सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना।।_अर्थ_रानी कैकेयी श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गयी और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली_तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, मुझे राजा के दुख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है।





तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।। राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।_अर्थ_हे तात ! तुम अपराध के योग्य नहीं हो ( तुमसे माता पिता का अपराध बन पड़े, यह संभव नहीं ) । तुम तो माता_पिता और भाइयों को सुख देने वाले हो। हे राम ! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सत्य है। तुम पिता_माता के वचनों ( के पालन ) में तत्पर हो।





पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेपन जेहिं अजसु न होई।। तुम्ह सम सुअन सुकृति जेहिं दीन्हे। उचित न ताहु निरादरु कीन्हे।।_अर्थ_मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूं, तुम पिता को समझा कर वहीं बात कहो जिससे चौथेपन ( बुढ़ापे ) में इनका अपयश न हो। जिस पुण्य ने इनको तुम जैसे पुत्र दिये हैं उसका निरादर करना उचित नहीं।