Wednesday, 12 January 2022

अयोध्याकाण्ड

जाइ दीख रघुबंसमनि नरपति निपट कुसाजु। सहमि परेउ लघु सिंघिनिहीं मनहुं बृद्ध गजराजु।।_अर्थ_रघुबंसमनि श्रीरामचन्द्रजी ने जाकर देखा कि राजा अत्यंत ही बुरे हालत में पड़े हैं। मानो सिंहनि को देखकर कोई बूढ़ा गजराज सहमकर गिर पड़ा हो।





सूखहिं अधर जरइ सब अंगू। मनहुं दीन मनिहीन भुअंगू।। सरुष समीप देखि कैकेई। मानहुं मीचु घरी गनि लेई।।_अर्थ_राजा के ओंठ सूख रहे हैं और सारा शरीर जल रहा है, मानो मणि के बिना सांप दुखी हो रहा है। पास ही क्रोध में भरी कैकेयी को देखा, मानो साक्षात् मृत्यु ही बैठी राजा के जीवन की अन्तिम घड़ियां गिन रही हों।





करुनामय मृदु राम सुभाऊ। प्रथम दीख दुख सुना न काऊ।। तदपि धीर धरि समउ बिचारी। पूछीं मधुर बचन महतारी।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी का स्वभाव कोमल और करुणामय है। उन्होंने ( अपने जीवन में ) पहली बार यह दु:ख देखा; इससे पहले कभी दु:ख सुना भी न था। तो भी समय का विचार कर हृदय में धीरज धरकर उन्होंने मीठे वचनों से माता कैकेयी से पूछा_





मोहि कहु मातु तात दुख कारन। करिअ जतन जेहिं होई निवारन।। सुनहु राम सब कारन एहू। राजहि तुम्ह पर बहुत सनेहू।।_अर्थ_हे माता ! मुझे पिताजी के दु:ख का कारण कहो ताकि उससे उसका निवारण हो ( दु:ख दूर हो ) वह यत्न किया जाय। ( कैकेयी ने कहा_) हे राम ! सुनो, सारा कारण यही है कि राजा का तुम पर बहुत स्नेह है।





देन कहेन्हि मोहि दुआ बरदाना। मांगें जो कछु मोहि सोहाना।। सो सुनि भयउ भूप उर सोचूं। छाड़िअ न सकहिं तुम्हार संकोचू।।_अर्थ_इन्होंने मुझे दो वरदान देने को कहा । मुझे जो कुछ अच्छा लगा, वहीं मैंने मांगा। उसे सुनकर राजा के ह्रदय में सोच हो गया।; क्योंकि ये तुम्हारा संकोच नहीं छोड़ सकते।





सुत सनेहु इत बचनु उत संकट परेउ नरेसु। कहुं तो आयसु धरहु सिर मेटहु कठिन कलेसु।।_अर्थ_इधर तो पुत्र का स्नेह है और उधर वचन ( प्रतिज्ञा ); राजा इसी धर्मसंकट में पड़ गये हैं। यदि तुम कर सकते हो, तो राजा की आज्ञा शिरोधार्य करो और इनके कठिन क्लेश को मिटाओ।





निधरक बैठि कहा कटु बानी। सुनत कठिनता अति अकुलानी।। जीभ कमान बचन सर नाना। मनहुं महीप मृदु लच्छ समाना।।_अर्थ_कैकेयी बेधड़क बैठी ऐसी कड़वी बाणी कह रही है जिसे सुनकर स्वयं कठोरता भी अत्यंत व्याकुल हो उठी। जीभ धनुष है, वचन बहुत_से तीर हैं और राजा ही कोमल निशाने के समान है।





जनु कठोरपन धरे सरीरू। सिखइ धनुष विद्या बर बीरू।। सबु प्रसंगु रघुपतिहि सुनाई। बैठि मनहुं तनु धरि निठुराई।।_अर्थ_(इस सारे साज_समान के साथ ) मानो स्वयं कठोरपन श्रेष्ठ वीर का शरीर धारण करके धनुष विद्या सीख रहा है। श्री रघुनाथजी को सब हाल सुनाकर वह ऐसे बैठी है मानो निष्ठुरता ही शरीर धारण किये हुए हो।





मन मुसुकाइ भानुकुल भानू। रामु सहज आनंद निधानू।। बोले बचन बिगत सब दूषन। मृदु मंजुल जनु बाग बिभूषन।।_अर्थ_सूर्यकुल के सूर्य, स्वाभाविक ही आनंदनिधान श्रीरामजी मन में मुस्कराकर सब दूषनों से रहित ऐसे कोमल और सुंदर वचन बोले जो मानो वाणी के भूषण ही थे_





सुनु जननी सोई सुत बड़भागी। जो पितु मातु बचन अनुरागी।। तनय मातु पितु तोषनिहारा। दुर्लभ जननी सकल संसारा।।_अर्थ_हे माता ! सुनो, वहीं पुत्र बड़भागी है, जो पिता_माता के वचनों का अनुरागी ( पालन करनेवाला ) है। ( आज्ञा पालन के द्वारा ) माता_पिता को संतुष्ट करनेवाला पुत्र, हे जननी ! सारे संसार में दुर्लभ है।





मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहिं भांति हित मोर। तेहि महं पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर।।_अर्थ_वन में विशेष रूप से मुनियों का मिलाप होगा, जिसमें मेरा  सभी प्रकार से कल्याण है। उसमें भी, फिर पिताजी की आज्ञा और हे जननी ! तुम्हारी सम्मति है।





भरत प्राणप्रिय पावहिं राजू। बिधि सब बिधि मोहि सम्मुख आजू।। जौं न जाऊं बन ऐसेहु काजा। प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा।।_अर्थ_और प्राणप्रिय भरत राय पालेंगे। ( इन सभी बातों को देखकर यह प्रतीत होता है कि ) आज विधाता सब प्रकार से मेरे सम्मुख हैं ( मेरे अनुकूल हैं )। यदि ऐसे काम के लिये भी मैं वन को न जाऊं तो मूर्खों के समाज में सबसे पहले मेरी गिनती करनी चाहिये। 





सेवहिं अरंडु कल्पतरु त्यागी। परिहरि अमृत लेहिं
बिष मांगी।। तेहि न पाई अब समउ चुकाहीं। देखु बिचारि मातु मन माहीं।।_अर्थ_ जो कल्पवृक्ष को छोड़कर रेंड की सेवा करते हैं और अमृत त्यागकर विष मांग लेते हैं, हे माता ! तुम मन में विचार कर देखो, वे ( महामूर्ख ) भी ऐसा मौका पाकर कभी न चूकेंगे।





अंब एक दुख मोहि बिसेषी। निपट बिकल नरनायकु देखी।। थोरिहिं बात पितहिं दुख भारी। होति प्रतीति न मोहि महतारी।।_अर्थ_ हे माता ! मुझे एक ही दुख विशेष रूप से हो रहा है, वह महाराज को अत्यंत व्याकुल देखकर। इस थोड़ी_सी बात के लिये ही पिताजी को इतना भारी दुख हो, हे माता मुझे इस बात पर विश्वास नहीं होता।





राउ धीर गुन उदधि अगाधू। भा मोहि तें कछु बड़ अपराधू।। जातें मोहि न कहत कछु राऊ। मोरि सपथ मोहि कहुं सतिभाऊ।।_अर्थ_क्योंकि महाराज तो बड़े ही धीर और गुणों के अथाह समुद्र हैं। अवश्य ही मुझसे कोई बड़ा अपराध हो गया है, जिसके कारण महाराज मुझसे कुछ नहीं कहते। तुम्हें मेरी सौगंध है, माता ! तुम सच_सच कहो।





सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान। चलइ जोंक जल बक्रगति जद्यपि सलिलु समान।।_अर्थ_रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के स्वभाव से ही सीधे वचनों को दुर्बुद्धि कैकेई टेढ़ा ही करके जान रही है; जैसे यद्यपि जल समान ही होता है, परन्तु जोंक उसमें टेढ़ी चाल से ही चलती हैं।





रहसि रानी राम रुख पाई। बोली कपट सनेहु जनाई।। सपथ तुम्हार भरत कै आना। हेतु न दूसर मैं कछु जाना।।_अर्थ_रानी कैकेयी श्रीरामचन्द्रजी का रुख पाकर हर्षित हो गयी और कपटपूर्ण स्नेह दिखाकर बोली_तुम्हारी शपथ और भरत की सौगंध है, मुझे राजा के दुख का दूसरा कुछ भी कारण विदित नहीं है।





तुम्ह अपराध जोगु नहिं ताता। जननी जनक बंधु सुखदाता।। राम सत्य सबु जो कछु कहहू। तुम्ह पितु मातु बचन रत अहहू।।_अर्थ_हे तात ! तुम अपराध के योग्य नहीं हो ( तुमसे माता पिता का अपराध बन पड़े, यह संभव नहीं ) । तुम तो माता_पिता और भाइयों को सुख देने वाले हो। हे राम ! तुम जो कुछ कह रहे हो, सब सत्य है। तुम पिता_माता के वचनों ( के पालन ) में तत्पर हो।





पितहि बुझाइ कहहु बलि सोई। चौथेपन जेहिं अजसु न होई।। तुम्ह सम सुअन सुकृति जेहिं दीन्हे। उचित न ताहु निरादरु कीन्हे।।_अर्थ_मैं तुम्हारी बलिहारी जाती हूं, तुम पिता को समझा कर वहीं बात कहो जिससे चौथेपन ( बुढ़ापे ) में इनका अपयश न हो। जिस पुण्य ने इनको तुम जैसे पुत्र दिये हैं उसका निरादर करना उचित नहीं।

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