कहहु तात जननी बलिहारी। कबहिं लगन मुद मंगलकारी।। सुकृति सील सुख सीवं सुहाई। जनम लाभ कइ अवधि अघाई।।_अर्थ_हे तात ! माता बलिहारी जाती है, कहो, वह आनन्द_मंगलकारी लग्न कब है, जो मेरे पुण्य, शील और सुख की सुन्दर सीमा है और जन्म लेने के लाभ का पूर्णतम अवधि है;
जेहिं चाहत नर नारि सब अति आरती एहि भांति। जिमि चातक चातकि तृषित बृष्टि सरद रितु स्वाति।।_अर्थ_तथा जिस ( लग्न ) को सभी स्त्री_पुरुष अत्यन्त व्याकुलता से इस प्रकार चाहते हैं जिस प्रकार प्यास से चातक और चातकी शरत्_ऋतु के स्वाति नक्षत्र की वर्षा को चाहते हैं।
तात जाऊं बलि बेगि नहाहू। जो मन भाव मधुर कछु खाहू।। पितु समीप तब जाएहु भैया। भइ बड़ि बार जाइ बलि मैया।।_अर्थ_हे तात ! मैं बलैया लेती हूं, तुम जल्दी नहा लो और जो मन भावे, कुछ मिठाई खा लो। भैया ! तब पिता के पास जाना। बहुत देर हो गयी है। माता बलिहारी जाती है।
मातु बचन सुनि अति अनुकूला। जनु सनेह सुरतरु के फूला।। सुख मकरंद भरे त्रियसूला। निरखि राम मनु भवंरु न भूला।।_अर्थ_माता के अत्यन्त अनुकूल वचन सुनकर_जो मानो स्नेहरूपी कल्पवृक्ष के फूल थे, जो सुखरूपी मकरन्द ( पुष्परस ) से भरे थे और श्री ( राजलक्ष्मी ) के मूल थे_ऐसे वचन रूपी फूलों को देखकर श्रीरामचन्द्रजी का मनरूपी भौंरा उनपर नहीं भूला।
धरम धुरीन धरम गति जानी। कहेउ मातु सन अति मृदु बानी।। पिता दीन्ह मोहि कानन राजू। जहं सब भांति मोर बड़ काजू।।_अर्थ_धर्म की धूरी धारण करने वाले श्रीरामचन्द्रजी माता से मीठे बचनों में बोले_ पिता ने मुझे कानन का राज दिया है जहां सब तरह से मेरा कल्याण है।
आयसु देहि मुदित मन माता। जेहिं मुद मंगल कानन जाता।। जनि सनेहबस डरपसि भोरे। आनंद अंब अनुग्रह तोरे।।_अर्थ_हे माता मुझे आज्ञा दो जिससे वन जाना मंगलमय हो। स्नेहवश होकर हे माता डरो नहीं, तुम्हारे अनुग्रह से सब आनंद होगा।
बरस चारिदस बिपिन बहि करि पितु वचन प्रवान। आइ पार पुनि देखिहउं मन जनि करसि मलान।। चौदह वर्ष वन में रहकर पिता का वचन प्रमाणित कर मैं आकर तुम्हारे चरणों का दर्शन करूंगा। तू मन में दुख न कर।
बचन विनीत मधुर रघुबर के। सर सम लागे मातु उर करके।। सहज सूखि सुनि सीतल बानी। जिमि जवास परे पावस पानी।।_अर्थ_रघुकुल में श्रेष्ठ श्रीरामचन्द्रजी के ये मीठे और मधुर वचन माता के हृदय में बाण के समान लगे और कसकने लगे। माता का मन ऐसे सूख गया जैसे जवास पर बरसात का पानी पड़ गया हो।
कहि न जाइ कछु हृदय बिषादू। मनहुं मृगी सुनि केहरि नादू।। नयन सजल तन थर थर कांपी। माजहि खाइ मीन जनु मापी।।_अर्थ_हृदय का विषाद कुछ कहा नहीं जाता। मानो सिंह की गर्जना सुनकर हिरनी विकल हो गयी हो। नेत्रों में जल भर आया, शरीर थर_थर कांपने लगा। मानो मछली मांजा ( पहली वर्षा का फेन ) खाकर बदहवास हो गयी हो !
धरि धीरज सुत बदनु निहारी। गदगद बचन कहति महतारी।। तात पितहि तुम्ह प्रानपिआरे। देखि मुदित नित चरित तुम्हारे।।_अर्थ_धीरज धरकर, पुत्र का मुख देखकर माता गद्गद् वचन कहने लगीं_हे तात ! तुम तो पिता को प्राणों के समान प्रिय हो। तुम्हारे चरित्रों को देखकर वे नित्य प्रसन्न होते थे।
राजु देन कहुं सुभ दिन साधा। कहेउ जान बन केहि अपराधा।। तात सुनावहु मोहि निदानू। को दिनकर कुल भयउ कृसानू।।_अर्थ_राज्य देने के लिये उन्होंने ही शुभ दिन सोधवाया था। फिर अब किस अपराध से वन जाने को कहा ? हे तात ! मुझे इसका कारण सुनाओ ! सूर्यवंश ( रूपी वन ) को जलाने के लिये अग्नि कौन हो गया ?
निरखहिं राम रुख सचिव सुत कारनु कहेउ बुझाई। सुनि प्रसंगु रहि मूक जिमि दसा बरनि नहिं जाई।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्रजी का रुख देखकर मंत्री के पुत्र ने सब कारण समझाकर कहा। उस प्रसंग को सुनकर वे गूंगी जैसी ( चुप ) रह गयीं, उनकी दशा का वर्णन नहीं किया जा सकता।
राखि न सकइ न कहि सक जाहू। दुहूं भांति उर दारुन दाहू।। लिखत सुधाकर गा लिखि राहू। बिधि गति जान सदा सब काहू।।_अर्थ_न रख सकती है, न यह कह सकती हैं कि वन चले जाओ। दोनों ही प्रकार से हृदय में बड़ा भारी संताप हो रहा है। ( मन में सोचती हैं कि देखो_) विधाता की चाल सदा सबके लिये टेढ़ी होती है। लिखने लगे चन्द्रमा और लिख गया राहू !
धर्म सनेह उभय मति घेरी। भइ गति सांप छुछुंदरि केरि।। राखउं सुतहि करउं अनुरोधू। धरमु जाइ अरु बंधु बिरोधू।।_अर्थ_धर्म और स्नेह दोनों ने कौसल्याजी की बुद्धि को घेर लिया। उनकी दशा सांप_छुछुंदरकी_सी हो गयी। वे सोचने लगीं कि मैं अनुरोध ( हठ ) करके पुत्र को रख लेती हूं तो धर्म जाता है और भाइयों में विरोध होता है।
कहउं जान बन तौ बड़ि हानी। संकट सोच बिबस भइ रानी।। बहुरि समुझि तिय धरम सयानी। रामु भरतु दोउ सुत सम जानी।।_अर्थ_और यदि वन जाने को कहती हूं तो बड़ी हानि होती है। इस प्रकार के धर्म_संकट में पड़कर रानी विशेष रूप से सोच के वश हो गयीं। फिर बुद्धिमति कौसल्याजी स्त्री_धर्म ( पतिव्रत_धर्म ) को समझकर और राम तथा भरत दोनों पुत्रों को समान जानकर_
सरल सुभायं राम महतारी। बोली बचन धीर धरि भारी।। तात जाऊं बलि कीन्हेसु नीका। पितु आयसु सब धर्मक टीका।।_अर्थ_सरल स्वभाववाली श्रीरामचन्द्रजी की माता बड़ा धीरज धरकर वचन बोलीं_हे तात ! मैं बलिहारी जाती हूं, तुमने अच्छा किया। पिता की आज्ञा का पालन करना ही सब धर्मों का शिरोमणि धर्म है।
राजु देन कहि दीन्हा बनु मोहि न सो दुख लेसु। तुम्ह बिनु भरतहि भूपतिहि प्रजहि प्रचंड कलेसु।।_अर्थ_राज्य देने को कहकर वन दे दिया, उसका मुझे लेशमात्र भी दु:ख नहीं है। ( दु:ख तो इस बात का है कि ) तुम्हारे बिना भरत को, महाराज को और प्रजा को बड़ा भारी क्लेश होगा।
जौं केवल पितु आयसु ताता। तौ जनि जासु जानि बड़ी माता। जौं पितु मातु कहेउ बन जाना। जौं कानन सत अवध समाना।। _अर्थ_ हे तात ! यदि केवल पिताजी की ही आज्ञा हो तो माता को ( पिता से ) बड़ी जानकर वन को मत जाओ। किन्तु यदि पिता_माता दोनों ने वन जाने को कहा हो, तो वन तुम्हारे लिये सैकड़ों अयोध्या के समान है।
पितु बनदेव मातु बनदेवी। खग मृग चरन सरोरुह सेवी।। अंतहु उचित नृपहि बनवासू। बय बिलोकि हियं होई हरांसू।।_अर्थ_वन के देवता तुम्हारे पिता होंगे और वनदेवियां माता। वहां के पशु_पक्षी तुम्हारे चरण_ कमलों के सेवक होंगे। राजा के लिये अन्त में तो वनवास करना उचित ही है। केवल तुम्हारी ( सुकुमार ) अवस्था देखकर हृदय में दु:ख होता है।
बड़भागी बनु अवध अभागी। जो रघुबंसतिलक तुम्ह त्यागी।। जौं सुत कहौं संग मोहि लेहू। तुम्हरे हृदयं होइ संदेहू।।_अर्थ_हे रघुवंश के तिलक ! वन बड़ा भाग्यवान हैं और यह अवध अभागी है, जिसे तुमने त्याग दिया। हे पुत्र ! यदि मैं कहूं कि मुझे भी साथ ले चलो तो तुम्हारे हृदय में संदेह होगा ( कि माता इसी बहाने मुझे रोकना चाहती हैं )।
पूत परम प्रिय तुम्ह सबही के। प्रान प्रान के जीवन जी के। ते तुम्ह कहहु मातु बन जाऊं।। मैं सुनि बचन बैठी पछिताऊं।।_अर्थ_हे पुत्र ! तुम सभी के परम प्रिय हो। प्राणों के प्राण और हृदय के जीवन हो। वही ( प्राणाधार ) तुम कहते हो कि माता ! मैं वन को जाऊं और मैं तुम्हारे बचनों सुनकर बैठी पछताती रहूं।
यह बिचारि नहिं करउं हठ झूठ सनेहु बढ़ाइ। मानि मातु कर शांत बलि सुरति बिसरि जनि जाइ।।_अर्थ_यह सोचकर झूठा स्नेह बढ़ाकर मैं हठ नहीं करती। बेटा ! मैं बलैया लेती हूं, माता का नाता मानकर मेरी सुध भूल न जाना।
देव पितर सब तुम्हहिं गोसाईं। राखहुं पलक नयन की नाईं।। अवधि प्रिय परिजन मीना। तुम्ह करुणाकर धर्म धुरीना।।_अर्थ_हे गोसाईं ! सब देव और पितर तुम्हारी वैसे ही रक्षा करें, जैसे पलकें आंखों रक्षा करती हैं। तुम्हारे वनवास की अवधि ( चौदह वर्ष ) जल है, प्रियजन और कुटुम्बी मछली हैं। तुम दया की खान और धर्म की धुरी को धारण करनेवाले हो।
अस बिचारि सोई करहु उपाई। सबहिं जियत जेहिं भेंटहु आई।। जाहु सुखेन बनहिं बलि जाऊं। करि अनाथ जन परिजन गाऊं।।_अर्थ_ऐसा विचार कर वही उपाय करना जिसमें सबके जीतेजी तुम आ मिलो। मैं बलिहारी जाती हूं, तुम सेवकों, परिवारवालों और नगरभर को अनाथ करके सुखपूर्वक वन को जाओ।
सब कर आजु सुकृति फल बीता। भयउ कराल कालु बिपरीता।। बहुबिधि बिलपि चरन लपटानी। परम अभागिनि आपुहिं जानी।।_अर्मुथ_ सबके पुण्यों का फल पूरा हो गया। इस प्रकार बहुत विलाप करके और अपने को परम अभागिनि जानकर माता श्रीरामचन्द्र जी के चरणों में लिपट गयीं।
दारुन दुसह दाहु उर ब्यापा। बरनि न जाइ बिलाप कलापा।। राम उठाई मातु उर लाई। कहि मृदु बचन बहुरि समुझाई।।_अर्थ_हृदय में भयानक दु:सह संताप छा गया। उस समय के बहुविधि विलाप का वर्णन नहीं किया जा सकता। श्रीरामचन्द्रजी ने माता को उठाकर हृदय से लगा लिया और फिर कोमल वचन कहकर उन्हें समझाया।
समाचार तेंही समय सुनि सीय उठी अकुलाइ। जाइ सासु पद कमल जुग बंदि बैठि सिरु नाइ।।_अर्थ_उसी समय यह समाचार सुनकर सीताजी अकुला उठीं और सास के पास जाकर उनके दोनों चरणकमलों की वन्दना कर सिर नीचा करके बैठ गयीं।
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी। अति सुकुमारि देखि अकुलानी।। बैठि नमितमुख सोचति सीता। रूप यासिर पति प्रेम पुनीता।।_अर्थ_सास ने कोमल बाणी से आशीर्वाद दिया। वे सीताजी को अत्यन्त सुकुमारी देखकर व्याकुल हो उठीं। रूप की राशि और पति के साथ पवित्र प्रेम करने वाली सीताजी नीचा मुख किये बैठी सोच रही हैं।
चलन चाहत बन जीवननाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।। की तनु प्रान कि केवल प्राना। बिधि करतबु कछु जाइ न जाना।।_अर्थ_जीवननाथ ( प्राणनाथ ) वन को चलना चाहते हैं। देखें किस पुण्यवान् से उनका साथ होगा_शरीर और प्राण दोनों साथ जायेंगे या केवल प्राणही से इनका साथ होगा ? विधाता की करनी कुछ जानी नहीं जाती।
चारु चरन नख लेखति धरनीं। नूपुर मुख्य मधुर कबि बरनी।। मनहुं प्रेम बस बिनती करहीं। हमहिं सीय पग जनि परिहरहीं।।_अर्थ_सीताजी अपने सुंदर चरन के नखों से धरती कुरेद रही हैं। ऐसा करते समय नूपुरों का जो मधुर शब्द हो रहा है, कवि उसका इस प्रकार वर्णन करते हैं कि मानो प्रेम के वश होकर नूपुर यह विनती कर रहे हैं कि सीताजी के चरण कभी हमारा त्याग न करें।
मंजु बिलोचन मोचति बारी। बोलि देखि राम महतारी।। तात सुनहु सीय अति सुकुमारी। सास ससुर परिजनहि पिआरी।।_अर्थ_सीताजी सुन्दर नेत्रों से जल बहा रही हैं। उनकी यह दशा देखकर श्रीरामजी की माता कोसल्याजी बोलीं_हे तात ! सीता अत्यंत ही सुकुमारी है तथा सास ससुर और कुटुम्बी सभी को प्यारी हैं।
पिता जनक भूपालमनि ससुर भानुकुल भानु। पति रबिकुल कैरव बिपिन बिधु गुन रूप निधानु।।_अर्थ_इनके पिता जनक जी राजाओं के शिरोमणि हैं; ससुर सूर्यकुल के सूर्य हैं और पति सूर्यकुलरूपी कुमुदवन को खिलानेवाले तथा गुण और रूप के भण्डार हैं।
ज्मैं पुनि पुत्रवधू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई।। नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउं प्रान जानकिहिं लाई।।_अर्थ_फिर मैंने रूप की राशि, सुदर गुण और शीलवती प्यारी पुत्रवधू पायी है। मैंने इन ( जानकी ) को आंखों की पुतली बनाकर इनसे प्रेम बढ़ाया है और अपने प्राण इनमें लगा रखे हैं।
कलपबेलि जिमि बहुबिधि लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली।। फूलत फलत भयउ बिधि बामा। जानि न जाइ काह परिनामा।।_अर्थ_इन्हें कल्पलता के समान मैंने बहुत तरह से बड़े लाड़_प्यार के साथ स्नेहरूपी जल से सींचकर पाला है। अब इस लता के फूलने फलने के समय विधाता बाम हो गये। कुछ जाना नहीं जाता कि इसका क्या परिणाम होगा।
पलंग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सीय न दीन्ह पग अवधि कठोरा।। जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊं। दीपबाति नहिं टारन कहऊं।।_अर्थ_सीता ने पलंग के ऊपर, गोद और हिंडोले को छोड़कर कठोर पृथ्वी पर कभी पैर नहीं रखा। मैं सदा संजीवनी जड़ी के समान ( सावधानी से ) इनकी रखवाली करती रही हूं ! कभी दीपक की बत्ती हटाने को भी नहीं कहती।
सोई सीय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होई रघुनाथा।। चंद किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।।_अर्थ_वही सीता अब तुम्हारे साथ वन चलना चाहती है। हे रघुनाथ ! उसे क्या आज्ञा होती है ? चन्द्रमा की किरणों का रस ( अमृत ) चाहनेवाली चकोरी सूर्य की ओर आंख किस तरह मिला सकती है।
करि केहरि निसिचर चरहिं दुष्ट जन्तु बन भूरि। बिष बाटिकां कि सोह सुत सुभग सजीवनि मूरि।।_अर्थ_हाथी, सिंह, राक्षस आदि अनेक दुष्ट जीव_जन्तु वन में विचरते रहते हैं। हे पुत्र ! क्या विष वाटिका में सुन्दर संजीवनी बूटी शोभा पा सकती है ?
बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं बिरंचि बिषय सुख भोरी।। पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहिं कलेसु न कानन काऊ।।_अर्थ_वन के लिये तो ब्रह्माजी ने विषयसुख को न जाननेवाली कोल और भीलों की लड़कियों को रचा है, जिनका पत्थर के कीड़े जैसा कठोर स्वभाव है। उन्हें वन में कभी क्लेश नहीं होता।
कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू।। सिय बन बसिहि तात केहि भांति। चित्रलिखित कपि देखि डेराती।।_अर्थ_अथवा तपस्वियों की स्त्रियां वन में रहने योग्य हैं, जिन्होंने तपस्या के लिये सब भोग त्याग दिये हैं। हे पुत्र ! जो तस्वीर के बन्दर को देखकर डर जाती हैं वे सीता वन में किस तरह रह सकेंगी ?
सुरसरि सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।। अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउं जानकिहि सोई।।_अर्थ_देवसरोवर के कमलवन में विचरण करनेवाली हंसिनि क्या गरैयों ( तलैयों ) में रहने के योग्य है ? ऐसा विचार कर जैसी तुम्हारी आज्ञा हो, मैं जानकी को वैसी ही शिक्षा दूं ?
जौं सिय भवन रहै कह अंबा। मोहि कहं होई बहुत अवलंबा।। सुनि रघुबीर मातु प्रिय बानी। सील सनेह सुधां जनु सानी।।_अर्थ_माता कहती हैं_यदि सीता घर में रहें तो मुझे बहुत सहारा हो जाय। श्रीरामचन्द्र जी ने माता की प्रिय बाणी सुनकर, जो मानो शील और स्नेह रूपी अमृत से सनी हुई थी,
कहि प्रिय बचन बिबेकमय कीन्ह मातु परितोष। लगे प्रबोधन जानकिहि प्रगटि बिपिन गुन दोष।।_अर्थ_विवेकमय प्रिय वचन कहकर माता को संतुष्ट किया। फिर वन के गुण_दोष प्रकट करके वे जानकीजी को समझाने लगे।
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