Tuesday, 28 March 2023

अयोध्याकाण्ड

मुनि तापस जिन्ह तें दुखु लहहीं। ते नरेस बिनु पावक दहहीं।। मंगल मूल बिप्र परितोषू। देही कोटि कुल भूसुर रोषू।।_अर्थ_क्योंकि जिससे मुनि और तपस्वी दु:ख पाते हैं, वे राजा बिना अग्नि के ही ( अपने दुष्ट कर्मों से ही ) जलकर भस्म हो जाते हैं। ब्राह्मणों का संतोष सब मंगलों की जड़ है और भूदेव ब्राह्मणों का क्रोध करोड़ों कुलों को भस्म कर देता है।





अस जिअं जानि कहिअ सोई ठाऊं। सिय सौमित्रि सहित जहं जाऊं।। तहं रचि रुचिर परन तृनसाला। बासु करौं कछु काल कृपाला।।_अर्थ_ऐसा हृदय में समझकर_वह स्थान बतला आते जहां मैं लक्ष्मण और सीता सहित जाऊं। और वहां सुन्दर पत्तों और घास की कुटी बनाकर, से दयालु ! कुछ समय निवास करूं।





सरल सहज सुनि रघुबर बानी। साधु साधु बोले मुनि ज्ञानी।। कस न कहहु अस रघुकुलकेतू। तुम्ह पालक संयत श्रुति सेतू।।_अर्थ_श्रीरामजी की सहज ही सरल वाणी सुनकर ज्ञानी मुनि वाल्मीकि बोले_'धन्य ! धन्य ! हे रघुकुल ध्वजा स्वरूप ! आप ऐसा क्यों न कहेंगे ? आप सदैव वेद की मर्यादा का पालन करते हैं।






श्रुति सेतु पालक राम तुम्ह जगदीस माया जानकी। जो सृजति जगु पालति हरति रुख पाई कृपानिधान की।। जो सहस सीसु अहीसु महीधरु लखनु सचराचर धनी। सुर काज धरि नरराज तनु चले दलन खल निसिचर अनी।।_अर्थ_हे राम ! आप वेद की मर्यादा के रक्षक जगदीश्वर हैं और जानकी जी ( आपकी स्वरूप भूता ) माया हैं, जो कृपा के भण्डार आपकी रुख पाकर जगत् का सृजन, पालन और संहार करती हैं। जो हजार मस्तक वाले सर्पों के स्वामी और पृथ्वी को अपने सिर पर धारण करने वाले हैं, वहीं चराचर के स्वामी शेषजी लक्ष्मण हैं। देवताओं के कार्य के लिये आप राज का शरीरक्ष धारण करके दुष्ट राक्षसों की सेना का नाश करने के लिये चले हैं।




राम स्वरूप तुम्हार बचन अगोचर बुद्धिपर। अबिगत अकथ अपार नेति नेति नित निगम कह।_अर्थ_हे राम !आपका स्वरूप वाणी के अगोचरी, बुद्धि से परे, अव्यक्त, अकथनीय और अपार है। वेद निरंतर उसका 'नेति नेति कहकर वर्णन करते हैं।






जगु पेखन तुम्ह देखनिहारे। बिधि हरि संभु नचावनिहारे।। तेउ न जानहिं मरमु तुम्हारा। औरु तुम्हहिं को जाननिहारा।।_अर्थ_ हे राम ! जगत् दृश्य है, आप उसके देखने वाले हैं। आप ब्रह्मा, विष्णु और शंकर को भी नचानेवाले हैं। जब भी वे आपके मर्म को नहीं जानते, तब और कौन आपको जानने वाला है।







सोई जानइ जेहिं देहु जनाई। जानत तुम्हहिं तुम्हइ होइ जाई।। तुम्हरिहि कृपाल तुम्हहिं रघुनंदन। जानहिं भगत भगत उर चंदन।।_अर्थ_वही आपको जानता है जिसे आप जना देते हैं और जानते ही वह आपका ही स्वरूप बन जाता है। हे रघुनंदन ! हे भक्तों के हृदय को शीतल करनेवाले चन्दन ! आपकी ही कृपा से भक्त आपको जान पाते हैं।







चिदानंदमय देह तुम्हारी। बिगत बिकार जान अधिकारी।। नर तनु धरेहु संत सुर काजा। करहु करहु जस प्राकृत राजा।।_अर्थ_आपकी देह चिदानंदमय है ( यह प्रकृति जन्म पंचमहाभूतों की बनी हुई कर्मबंधनयुक्त त्रिदेहविशिष्ठ माणिक नहीं है ) और ( उत्पत्ति_नाश, वृद्धि_क्षय आदि ) सब विकारों से रहित है; इस रहस्य को अधिकारी पुरुष ही जानते हैं। आपने देवता और संतों के कार्य के लिये ( दिव्य ) नरशरीर धारण किया है और प्राकृत ( प्रकृति के तत्वों से निर्मित देह वाले, साधारण ) राजाओं की तरह से कहते और करते हैं।





राम देखि सुनि चरित तुम्हारे। जड़ मोहहिं बुध होहिं सुखारे।। तुम्ह जो कहहु करहु सबु सांचा। तस काछिअ जस चाहिअ नाचा।।_अर्थ_ हे राम ! आपके चरित्रों को देख और सुनकर मूर्ख लोग तो मोह को प्राप्त होते हैं और ज्ञानीजन सुखी होते हैं। आप जो कुछ कहते, करते हैं, वह सब सत्य ( उचित ) ही है; क्योंकि जैसा स्वांग भरे वैसा ही नाचना भी तो चाहिये ( इस समय आप मनुष्य रूप में हैं, अतः मनुष्योचित व्यवहार करना ठीक ही है )।



पूछेहुं मोहि कि रहौं कहं मैं पूंछत सकुचाउं। जहं न होहु तहं देहु कहुं तुम्हहिं देखावौं ठाउं।।_अर्थ_आपने पूछा कि मैं कहां रहूं ? परंतु मैं यह पूछते सकुचा था हूं कि जहां आप न हों, वह स्थान बता दीजिये। तब मैं आपके रहने के लिये स्थान दिखाऊं ।





सुनि मुनि बचन प्रेम रस साने। सकुचि राम मन महुं मुसुकाने।। बाल्मीकि हंसि कहहिं बहोरी। बानी मधुर अमिअ रस बोरी।।_अर्थ_मुनि के प्रेमरस से सने हुए वचन सुनकर श्रीरामचन्द्रजी ( रहस्य खुल जाने के डर से ) सकुचाकर मन में मुस्कराये। वाल्मीकिजी हंसकर फिर अमृत_रस में डुबोती हुई मीठी वाणी बोले_






सुनहु राम अब कहुं निकेता। जहां बसहु सिय लखन समेता।। जिन्ह के श्रवण समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना।_अर्थ_हे रामजी ! सुनिये, अब मैं वे स्थान बताता जहां आप सीताजी और लक्ष्मण जी समेत निवास करिये। जिसके कान समुद्र की भांति आपकी कथा रूपी अनेकों सुंदर नदियों से_







भरहिं निरंतर होहिं न पूरे। तिन्ह के हित तुम्ह कहुं गृह रूरे।। लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधार अभिलाषे।।_अर्थ_निरंतर भरते रहते हैं, परंतु कभी कभी पूरे ( तृप्त ) नहीं होते, उनके हृदय आपके लिखे सुन्दर घर हैं और जिन्होंने अपने नेत्रों को चातक बना रखा है, जो आपके दर्शनरूपी मेघ के लिये सदा लालायित रहते हैं।






निदरहिं सरित सिंधु सर भारी। रूप बिंदु जल होहिं सुखारी।। तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक।। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक।।_अर्थ_तथा जो भारी_भारी नदियों, समुद्रों और झीलों का निरादर करते हैं और आपके सौंदर्य ( रूपी मेघ ) के एक बूंद जल से सुखी हो जाते हैं ( अर्थात् आपके दिव्य सच्चिदानंद मय स्वरूप के किसी एक अंग की जरा_सी भी झांकी समाने स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों जगत् के, अर्थात् पृथ्वी, स्वर्ग और ब्रह्मलोक तक के सौन्दर्य का तिरस्कार करते हैं ), हे रघुनाथ जी ! उनलोगों के हृदय रूपी सुखदायी भवनों में आप भाई लक्ष्मण और श्रीसीताजीसहित निवास कीजिये।





जसु तुम्हार मानस बिमल हंसिनि जीहा जासु। मुक्ताहार गुन गन चुनइ राम बसहु हियं तासु।। _अर्थ_आपके यशरूपी निर्मल मानसरोवर में जिसकी जीभ हंसिनी बनी हुई आपके गुणसमूहरूपी मोतियों को चुगती रहती है, हे रामजी ! आप उसके हृदय में बसिये।





Monday, 13 March 2023

अयोध्याकाण्ड

प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता।। सीय राम पद अंक बराएं। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएं।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के ( जमीन पर अंकित होनेवाले दोनों ) चरणचिन्हों के बीच_बीच में पैर रखती हुई सीताजी ( कहीं भगवान् के चरणचिन्हों पर पैर न टिक जाय इस बात से ) डरती हुई मार्ग में चल रही हैं, और लक्ष्मण जी  और लक्ष्मणजी ( मर्यादा की रक्षा के लिये ) सीताजी और श्रीरामचन्द्र जी दोनों के चरणचिन्हों को बचाते हुए उन्हें दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं।





राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई।। खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं।।_अर्थ_श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुन्दर प्रीति वाणी का विषय नहीं है ( अर्थात् अनिवर्चनीय है ), अतः: वह कैसे कहीं जा सकती है ? पक्षी और पशु भी उस छवि को देखकर ( प्रेमानंद में मग्न हो जाते हैं। पथिकरूप श्रीरामचन्द्रजी ने उनके भी चित्त चुरा लिये हैं।




जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ। भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ।।_अर्थ_प्यारे पथिक सीताजी सहित दोनों भाइयों को जिन जिन लोगों ने देखा, उन्होंने भव का अगम मार्ग ( जन्म_मृत्युरूपी संसार में भटकनेवाला भयानक मार्ग ) बिना ही परिश्रम आनंद के साथ तै कर लिया ( अर्थात् वे आवागमन के चक्र से सहज ही छूटकर मुक्त हो गये ।




अजहुं जासु उर सपनेहुं काऊ। बसहुं लखनु सिय रामु बटाऊ।। राम नाम पर पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुंक मुनि कोई।।_अर्थ_आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसे तो भी वह श्रीरामजी के परमधाम के उस मार्ग को पा जायगा जिस मार्ग को कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं ।





तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी।। तहं बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाई चले रघुराई।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्र जी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष देखकर उस दिन वहीं ठहर गये। कन्द मूल फल खाकर ( रातभर वहां रहकर ) प्रात:काल स्नान करके श्री रघुनाथ जी आगे चले।




देखत बन सर सैल सुहाए। बाल्मीकि आश्रम प्रभु आए।। राम दीख मुनि बास सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।_अर्थ_सुंदर वन, पर्वत और तालाब देखते हुए रामु श्रीरामचन्द्रजी अअ सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।। खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।_अर्थ_सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और रहित होकर प्रसन्न मन से विचर रहे हैं।




सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।। खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।_अर्थ_सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैर से रहित होकर प्रसन्न मन से बिचर रहे हैं।





सुचि सुंदर आश्रम निरखि हरसे राजीवनैन। सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन।।_पवित्र और सुंदर आश्रम को देखकर कमलनयन श्रीरमचन्द्रजी हर्षित हुए। रघुश्रेष्ठ श्रीरामजी का आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकि जी उन्हें लेने के लिये आगे आये।





मुनि कहुं राम दंडवत् कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा।। देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत् किया। विप्र श्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। श्रीरामचन्द्रजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गये। सम्मान पूर्वक मुनि उन्हें अपने आश्रम में ले आये







मुनि बर अतिथि प्राणप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए।। सिर सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए।।_अर्थ_श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकि जी ने प्राणप्रिय अतिथियों को पाकर उनके लिखे मधुर कन्द, मूल, फल मंगवाते। श्रीसीताजी, लक्ष्मण जी और रामचन्द्रजी ने फलों को खाया। तब मुनि ने उनको ( विश्राम करने के लिये ) सुन्दर स्थान बतला दिये।




बाल्मीकि मन आनंदु भारी। मंगल मूर्ति नयन निहारी।। तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।_अर्थ_( मुनि श्रीरामजी के पास बैठे हैं और उनकी ) मंगल_मूर्ति को नेत्रों से देखकर बाल्मीकि जी के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है। तब श्री रघुनाथ जी कमल सदृश हाथों को जोड़कर, कानों को सुख देने वाले मधुर वचन बोले_





तुम्ह त्रिकालदर्शी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा।। अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहिं जेहि भांति दीन्ह बनु रानी।।_अर्थ_हे मुनिनाथ ! आप त्रिकालदर्शी हैं। संपूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु श्रीरामचन्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनायी।




तात बचन पुनि मातु हित भाई भरत अस राउ। मो कहुं दरस तुम्हार प्रभु सबुत मम पुन्य प्रभाउ।।_अर्थ_(और कहा__) से प्रभु ! पिता की आज्ञा ( का पालन ), माता का हित और भरत जैसे ( स्नेही एवं धर्मात्मा ) भाई का राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुन्यों का प्रभाव है।




देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे।। अब जहं राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई।।_अर्थ_हे मुनिराज ! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गये ( हमें सारे पुत्रों का फल मिल गया )। अब जहां आपकी आज्ञा हो और जहां कोई भी मुनि उद्वेग को न प्राप्त हो_