प्रभु पद रेख बीच बिच सीता। धरति चरन मग चलति सभीता।। सीय राम पद अंक बराएं। लखन चलहिं मगु दाहिन लाएं।।_अर्थ_प्रभु श्रीरामचन्द्रजी के ( जमीन पर अंकित होनेवाले दोनों ) चरणचिन्हों के बीच_बीच में पैर रखती हुई सीताजी ( कहीं भगवान् के चरणचिन्हों पर पैर न टिक जाय इस बात से ) डरती हुई मार्ग में चल रही हैं, और लक्ष्मण जी और लक्ष्मणजी ( मर्यादा की रक्षा के लिये ) सीताजी और श्रीरामचन्द्र जी दोनों के चरणचिन्हों को बचाते हुए उन्हें दाहिने रखकर रास्ता चल रहे हैं।
राम लखन सिय प्रीति सुहाई। बचन अगोचर किमि कहि जाई।। खग मृग मगन देखि छबि होहीं। लिए चोरि चित राम बटोहीं।।_अर्थ_श्रीरामजी, लक्ष्मणजी और सीताजी की सुन्दर प्रीति वाणी का विषय नहीं है ( अर्थात् अनिवर्चनीय है ), अतः: वह कैसे कहीं जा सकती है ? पक्षी और पशु भी उस छवि को देखकर ( प्रेमानंद में मग्न हो जाते हैं। पथिकरूप श्रीरामचन्द्रजी ने उनके भी चित्त चुरा लिये हैं।
जिन्ह जिन्ह देखे पथिक प्रिय सिय समेत दोउ भाइ। भव मगु अगमु अनंदु तेइ बिनु श्रम रहे सिराइ।।_अर्थ_प्यारे पथिक सीताजी सहित दोनों भाइयों को जिन जिन लोगों ने देखा, उन्होंने भव का अगम मार्ग ( जन्म_मृत्युरूपी संसार में भटकनेवाला भयानक मार्ग ) बिना ही परिश्रम आनंद के साथ तै कर लिया ( अर्थात् वे आवागमन के चक्र से सहज ही छूटकर मुक्त हो गये ।
अजहुं जासु उर सपनेहुं काऊ। बसहुं लखनु सिय रामु बटाऊ।। राम नाम पर पाइहि सोई। जो पथ पाव कबहुंक मुनि कोई।।_अर्थ_आज भी जिसके हृदय में स्वप्न में भी कभी लक्ष्मण, सीता, राम तीनों बटोही आ बसे तो भी वह श्रीरामजी के परमधाम के उस मार्ग को पा जायगा जिस मार्ग को कभी कोई बिरले ही मुनि पाते हैं ।
तब रघुबीर श्रमित सिय जानी। देखि निकट बटु सीतल पानी।। तहं बसि कंद मूल फल खाई। प्रात नहाई चले रघुराई।।_अर्थ_तब श्रीरामचन्द्र जी सीताजी को थकी हुई जानकर और समीप ही एक बड़ का वृक्ष देखकर उस दिन वहीं ठहर गये। कन्द मूल फल खाकर ( रातभर वहां रहकर ) प्रात:काल स्नान करके श्री रघुनाथ जी आगे चले।
देखत बन सर सैल सुहाए। बाल्मीकि आश्रम प्रभु आए।। राम दीख मुनि बास सुहावन। सुंदर गिरि काननु जलु पावन।।_अर्थ_सुंदर वन, पर्वत और तालाब देखते हुए रामु श्रीरामचन्द्रजी अअ सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।। खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।_अर्थ_सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और रहित होकर प्रसन्न मन से विचर रहे हैं।
सरनि सरोज बिटप बन फूले। गुंजत मंजु मधुप रस भूले।। खग मृग बिपुल कोलाहल करहीं। बिरहित बैर मुदित मन चरहीं।।_अर्थ_सरोवरों में कमल और वनों में वृक्ष फूल रहे हैं। बहुत से पक्षी और पशु कोलाहल कर रहे हैं और वैर से रहित होकर प्रसन्न मन से बिचर रहे हैं।
सुचि सुंदर आश्रम निरखि हरसे राजीवनैन। सुनि रघुबर आगमनु मुनि आगें आयउ लेन।।_पवित्र और सुंदर आश्रम को देखकर कमलनयन श्रीरमचन्द्रजी हर्षित हुए। रघुश्रेष्ठ श्रीरामजी का आगमन सुनकर मुनि वाल्मीकि जी उन्हें लेने के लिये आगे आये।
मुनि कहुं राम दंडवत् कीन्हा। आसिरबादु बिप्रबर दीन्हा।। देखि राम छबि नयन जुड़ाने। करि सनमानु आश्रमहिं आने।।_अर्थ_श्रीरामचन्द्रजी ने मुनि को दण्डवत् किया। विप्र श्रेष्ठ मुनि ने उन्हें आशीर्वाद दिया। श्रीरामचन्द्रजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गये। सम्मान पूर्वक मुनि उन्हें अपने आश्रम में ले आये
मुनि बर अतिथि प्राणप्रिय पाए। कंद मूल फल मधुर मगाए।। सिर सौमित्रि राम फल खाए। तब मुनि आश्रम दिए सुहाए।।_अर्थ_श्रेष्ठ मुनि वाल्मीकि जी ने प्राणप्रिय अतिथियों को पाकर उनके लिखे मधुर कन्द, मूल, फल मंगवाते। श्रीसीताजी, लक्ष्मण जी और रामचन्द्रजी ने फलों को खाया। तब मुनि ने उनको ( विश्राम करने के लिये ) सुन्दर स्थान बतला दिये।
बाल्मीकि मन आनंदु भारी। मंगल मूर्ति नयन निहारी।। तब कर कमल जोरि रघुराई। बोले बचन श्रवन सुखदाई।।_अर्थ_( मुनि श्रीरामजी के पास बैठे हैं और उनकी ) मंगल_मूर्ति को नेत्रों से देखकर बाल्मीकि जी के मन में बड़ा भारी आनंद हो रहा है। तब श्री रघुनाथ जी कमल सदृश हाथों को जोड़कर, कानों को सुख देने वाले मधुर वचन बोले_
तुम्ह त्रिकालदर्शी मुनिनाथा। बिस्व बदर जिमि तुम्हरें हाथा।। अस कहि प्रभु सब कथा बखानी। जेहिं जेहि भांति दीन्ह बनु रानी।।_अर्थ_हे मुनिनाथ ! आप त्रिकालदर्शी हैं। संपूर्ण विश्व आपके लिए हथेली पर रखे हुए बेर के समान है। प्रभु श्रीरामचन्रजी ने ऐसा कहकर फिर जिस जिस प्रकार से रानी कैकेयी ने वनवास दिया, वह सब कथा विस्तार से सुनायी।
तात बचन पुनि मातु हित भाई भरत अस राउ। मो कहुं दरस तुम्हार प्रभु सबुत मम पुन्य प्रभाउ।।_अर्थ_(और कहा__) से प्रभु ! पिता की आज्ञा ( का पालन ), माता का हित और भरत जैसे ( स्नेही एवं धर्मात्मा ) भाई का राजा होना और फिर मुझे आपके दर्शन होना, यह सब मेरे पुन्यों का प्रभाव है।
देखि पाय मुनिराय तुम्हारे। भए सुकृत सब सुफल हमारे।। अब जहं राउर आयसु होई। मुनि उदबेगु न पावै कोई।।_अर्थ_हे मुनिराज ! आपके चरणों का दर्शन करने से आज हमारे सब पुण्य सफल हो गये ( हमें सारे पुत्रों का फल मिल गया )। अब जहां आपकी आज्ञा हो और जहां कोई भी मुनि उद्वेग को न प्राप्त हो_
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